बुधवार, 15 मई 2024

शचीन्द्र आर्य

 चप्पल

शहर के इस कोने से जहां खड़े होकर

इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ, 

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर 

दौड़े भी होंगे?

किसी छूटती बस के पीछे,

बंद होते लिफ्ट के दरवाज़े से पहले,

किसी आदमी के पीछे.


मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,

जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,

किसी अधेड़ उम्र की औरत

और किसी उम्र जी चुकी बूढी महिला को भागते हुए देखा हो.


ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता,

बात दरअसल इतनी-सी है,

जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाए है,

उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे.

पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए 

वह नहीं बना पाया भागने लायक.


सवाल इतना-सा ही है,

उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?

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धौला कुआँ

वह बोले, वहां एक कुआँ होगा और

उन्होंने यह भी बताया,

यह धौला संस्कृत भाषा के धवल शब्द 

का अपभ्रंश रूप है|


जैसे हमारा समय, चिंतन, जीवन, स्पर्श,

दृश्य, प्यास सब अपभ्रंश हो गए 

वैसे ही धवल घिस-घिस कर धौला 

हो गया|


धवल का एक अर्थ सफ़ेद है|

पत्थर सफ़ेद, चमकदार भी होता है|

उन मटमैली, धूसर, ऊबड़ खाबड़ 

अरावली की पर्वत श्रृंखला 

के बीच सफ़ेद संगमरमर का मीठे पानी 

का कुआँ| धौला कुआँ|


कैसा रहा होगा, वह झिलमिलाते पानी

को अपने अन्दर समाए हुए?

उसके न रहने पर भी उसका नाम रह गया |

ज़रा सोचिए, किनका नाम रह जाता है,

उनके चले जाने के बाद?

कहाँ गया कुआँ? कैसे गायब हो गया?

किसी को नहीं पता|


एक दिन,

जब धौलाधार की पहाड़ियाँ इतनी 

चमकीली नहीं रह जाएँगी,

तब हमें महसूस होगा, वह सामने ही था 

कहीं|

ओझल सा|

उस ऊबड़-खाबड़ मेढ़ के ख़त्म होते ही

पेड़ों की छाव में छुपा हुआ सा|


जब किसी ने उसे पाट दिया, तब उसे

नहीं पता था,

कुँओं का सम्बन्ध पहाड़ों से भी वही था,

जो जल का जीवन से है|

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ईर्ष्या का सृजन

जब हैसियत 

सपने देखने की भी नहीं रही

ईर्ष्या का सृजन नहीं हुआ

ईर्ष्या का सृजन तब हुआ 

जब हम नहीं जान पाए 

हमारी सपने देखने वाली रातें

कहाँ और कैसे चोरी हो गईं?

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सड़क जैसी ज़िंदगियां

दिल्ली के कई जाम झगड़ों की तरह थे


जैसे जाम खुलने पर पता नहीं चल पाता था,

क्यों फंसे हुए थे

ऐसी ही कुछ वाजिब वजह नहीं थी

कई सारे झगड़ों की.


जाम और झगड़े बेवजह ही थे

हमारी सड़क जैसी जिंदगियों में.

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कम जगह

मैंने पाया,

कविताएँ कागज़ पर बहुत कम जगह घेरती हैं

इसलिए भी इन्हें लिखना चाहता हूँ.


यह कम जगह उस कम हो गयी संवेदना को कम होने नहीं देगी.

इसके अलावे कुछ नहीं सोचता.

जो सोचता हूँ, कम से कम उसे कहने के लिए कह देता हूँ.


कहना इसी कम जगह में इतना कम तब भी बचा रहेगा.

उसमें बची रहेगी इतनी जगह, जहां एक दुनिया फिर से बनाई जा सके.

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शचीन्द्र आर्य

9 जनवरी 1985 को जन्मे युवा कवि-गद्यकार शचीन्द्र आर्य ने 

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग(सीआईई) से 

शोध किया तथा बी.एड. एवं एम.एड. की उपाधियाँ प्राप्त की हैं|

 इनकी कविताएँ एवं कहानियाँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं 

में प्रकाशित होती रही हैं| "शहतूत आ गए हैं', 'दोस्तोएवस्की का घोडा' 

पुस्तकें प्रकाशित| सम्प्रति अध्यापन |


गुरुवार, 9 मई 2024

अनामिका अनु

क्षमा 

तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए

मैंने बीज के कणों में माफ़ी दी


तुमने पानी से पाप किए

मैंने मीन-सी माफ़ी दी


तुम्हारे पाप आकाश हो गए

मेरी माफी पंक्षी


तुम्हारे नश्वर पापों को

मैंने जीवन से भरी माफ़ी बख्शी


तुमने गलतियां गिनतियों में की 

मैंने बेहिसाब माफ़ी दी


तुमने टहनी भर पाप किए

मैंने पत्तियों में माफ़ी दी


तुमने झरनों में पाप किए

मैंने बूंदों से दी माफ़ी


तुमने पाप से तौबा किया

मैंने स्वयं को तुम्हें दे दिया 


तुम सांझ से पाप करोगे

मैं डूबकर क्षमा दूँगी


तुम धूप से पाप करोगे

मैं माफ़ी में छाँव दूँगी


नीरव, निशब्द पापों

को झींगुर के तान वाली माफ़ी


वाचाल पापों को 

मौन वाली माफ़ी


वामन वाले पाप को

बलि वाली माफ़ी


तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा

मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे

वे दुःख.....

जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे|

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न्यूटन का तीसरा नियम

तुम मेरे लिए 

शरीर मात्र थे

क्योंकि मुझे भी तुमने यही महसूस कराया|


मैं तुम्हारे लिए 

आसक्ति थी,

तो तुम मेरे लिए 

प्रार्थना कैसे हो सकते हो?


मैं तुम्हें 

आत्मा नहीं मानती,

क्योंकि तुमने मुझे

अंतःकरण नहीं माना|


तुम आस्तिक

धरम-करम मानने वाले ,


मैं नास्तिक!

न भौतिकवादी, न भौतिकीविद 


पर फिर भी मानती हूँ

न्यूटन का तीसरा नियम -

क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है,

और हम विपरीत दिशा में चलने लगे......|

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शिक्षा

जिस पानी को दरिया में होना था

वह कूप, नल, पानी शुद्धिकरण 

यंत्र से कैसे बोतलों में बंद बिकने लगी?

प्यास ज्ञान की इन बोतलों 

से नहीं मिटने वाली,

दरिया को बचाना होगा|

संकुचन-

दिमागी बौनों की भीड़ गढ़ गया


वे जो दौड़ रहे हैं पत्थर के बुत की और

इंसानों को रौंदकर 

बताते हैं,

दरिया का विकल्प बोतलें नहीं होतीं|

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मैं मारी जाऊँगी

मैं उस भीड़ के द्वारा मारी जाऊँगी 

जिससे भिन्न सोचती हूँ|


भीड़-सा नहीं सोचना 

भीड़ के विरुद्ध होना नहीं होता है|

ज्यादातर भीड़ के भले के लिए होता है

ताकि भीड़ को भेड़ की तरह

नहीं हाँका जा सके|


यह दर्ज फिर भी हो 

कि

भिन्न को प्रायः भीड़ ही मारती है|

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अफ़वाह

अफ़वाह है कि एक बकरी है

जो चीर देती है सींग से अपने, छाती शेर की| 


ख़रगोश बिल में दुबका है,

बाघ माँद में डर से,

लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल रहे हैं कुछ भी|


पर एक जोंक है

बिना दांत, हड्डी के रीढ़ वाली

वह चूस आयी है सारा खून बकरी का|


कराहती बकरी कह रही है-

"अफ़वाह की उम्र होती है,

सच्चाई ने मौत नहीं देखी है

 क्योंकि यह न घटती है, न बढ़ती है|"

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अनामिका अनु

जनवरी 1982 को जन्मी केरल निवासी अनामिका अनु मूलतः बिहार के मुजफ्फरपुर से आती हैं| वनस्पति विज्ञान में एम.एससी. और पीएच,डी. अनामिका अनु का 'इंजीकरी' नामक एक काव्य-संग्रह तथा प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ एवं अनुवाद प्रकाशित हुए हैं| 'यारेख' पुस्तक का संपादन भी किया है|
इन्हें वर्ष 2020 में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, 2021 में राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार(सर्वश्रेष्ठ कवि), 2022 में रज़ा फेलोशिप, 2023 में महेश अंजुम युवा कविता सम्मान से सम्मानित किया गया है|



बुधवार, 1 मई 2024

विजय राही

महामारी और जीवन 

कोई ग़म नहीं 

मैं मारा जाऊँ अगर 

सड़क पर चलते-चलते 

ट्रक के नीचे आकर 


कोई ग़म नहीं 

गोयरा  खा जाए मुझे 

खेत में रात को 

ख़ुशी की बात है 

अस्पताल भी नहीं ले जाना पड़े 


कोई ग़म नहीं 

ट्रेन के आगे आ जाऊँ 

फाटक क्रासिंग पर 

पटरियों से चिपक जाऊँ 

बिलकुल दुक्ख  न पाऊँ 


अगर हत्यारों की गोली से 

मारा जाऊँ तो और अच्छा 

आत्मा में सुकून पाऊँ 

कि जीवन का कोई अर्थ पाया 


और भी कई-कई बहाने हैं 

मुझे बुलाने के लिए मौत के पास 

और कई-कई तरीके हैं मर जाने के भी 


लेकिन इन महामारी के दिनों में 

घबरा रहा हूँ मरने से 

उमड़-घुमड़ रहा है मेरे अंदर जीवन 

आषाढ़ के बादलों की तरह 

जबकि हरसू मौत अट्टहास कर रही है।

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 जेबकतरा 

मैं उसे पहचान नहीं पाया 

मुझे पैसे-काग़ज़ातों का ग़म नहीं 

मैं तो उससे पूछना चाहता हूँ 

किस कमजोर पल का इंतज़ार करता है वह 

शातिर प्रेमियों की तरह 


जो खुद को चालक समझने वाला कवि 

मात खा गया आज एक ऐसे आदमी से 

जिसने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है 

आहिस्ता से पीछे की जेब से पर्स पार किया 

इस तरह तीरे-नीमकश भी जिगर के पार नहीं होता 


मैं उसके हाथ चूमना चाहता हूँ

और कहना चाहता हूँ 

पैसों की शराब पी लेना चाहे 

आधार-जनाधार कूड़े में फेंक देना 

अगर मन करे तो पर्स रख सकते हो 

लेकिन पर्स में रखी प्रेम-कविता को मत फेंकना 


उसे अपनी प्रेमिका को सुनाना और बताना 

कि यह मैंने लिखी है तुम्हारे प्यार में 

जिस दी जेब नहीं काट पाया और निराश था 

उस दिन यह कविता और कागज ही मेरे पास था।

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गर्मियाँ 

सूख गया है तालाब का कंठ 

उसके पास खड़े पेड़ पौधे उसकी ओर झुक गए हैं 

उसको जिलाए रखने के लिए हवा कर रहे हैं 

उनके पत्ते झरते हैं उसकी तपती देह पर 


अचानक उसकी छाती में हिलोर उठती है 

एक औरत घड़ा लेकर गीत गाती आ रही है 

उसको पानी पिलाने के लिए।

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बेबसी 

सर्दी की रात तीसरे पहर 

जब चाँद भी ओस से 

भीगा हुआ सा है 

आकाश की नीरवता में 

लगता है जैसे रो रहा है 

अकेला किसी की याद में 

सब तारे एक-एक कर चले गए हैं।

बार-बार आती है कोचर की आवाज़ 

रात के घुप्प अंधेरे को चीरती हुई 

और दिल के आर-पार निकल जाती है 

पांसूओं को तोड़ती हुई 

झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है 

रात के उतार के साथ।

हल्की पुरवाई चल रही है 

काँप रही है नीम की डालियाँ 

हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है 

ऐसे समय में सुनाई देती है 

घड़ी की टिक-टिक भी 

बिलकुल साफ़ और लगातार बढ़ती हुई।

बाड़े में बंधे ढोरों के गले में घंटियाँ बज रही हैं 

अभी मंदिर की घंटियाँ बजने का समय 

नहीं हुआ है 

गाँव नींद की रज़ाई में दुबक है।

माँ सो रही है पाटोड़ में 

बीच-बीच में खाँसती हुई 

कल ही देवर के लड़के ने 

फावड़ा सर पर तानकर 

जो मन में आई 

गालियाँ दी थी उसे 

पानी निकासी की ज़रा सी बात पर।

बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया 

"माँ! आपकी तो उम्र हो गयी 

मर भी गई तो कोई बात नहीं 

आपके बड़े-बड़े बेटे हैं।

हमारे तो बच्चे छोटे हैं!

हम मर गए तो उनका क्या होगा?"

माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है 

डरी हुई काँपती हुई,

घबराती आवाज़ में रुदन 

सीने में कुछ दबाव सा है।

मैं माँ के बग़ल वाली खाट पर सोया हूँ 

मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास 

एक बात ये भी है कि-

माँ की परेशानी का भान है मुझे 

बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र 

माँ अकेले में डरने लगी है।

जब तक बाप था 

माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती 

रात में बेबात पिटती 

मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ  

माँ को दिन-रात कँपाती 

बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियाँ 

माँ को सपनों में डराती 

फिर देवर जेठों से भय खाती रही 

और अब अपनी औलाद जैसों का डर।

 माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई 

कंपकंपाती, डर खाई आवाज़ 

जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही 

जगने पर बड़बड़ाहट मैं बदल जाती है 

मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ 

माँ बताती है कि-

"वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है।

मैं उसे कह रही हूँ-

आ गैबी !

आज मेरे दोनों बेटे यहीं हैं 

इनके सामने मार मुझे!"

मैं चुपचाप सुनता हूँ 

सारी बात बुत की तरह 

कुछ नहीं कह पाता।

माँ भी चुप हो जाती है 

उसे थोड़ी देर  बाद उठना है 

मैं झूठमूठ सोने का बहाना करता हूँ 

मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।

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हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

मुझे घर से निकलना ही पड़ेगा ।


मेरे लहजे में है तासीर ऐसी,

कि पत्थर को पिघलना ही पड़ेगा।


पुराने हो गए किरदार सारे,

कहानी को बदलना ही पड़ेगा।


तुम्हीं गलती से दिल में आ गये थे,

तुम्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा।


वो जो मंज़िल को पाना चाहता है,

उसे काँटों पे चलना ही पड़ेगा।

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विजय राही 

जन्म: 3 फ़रवरी 1990

रचनाएँ: हंस, पाखी, तद्भव, मधुमती, सदानीरा, कथेसर आदि में कविताएँ प्रकाशित।

सम्मान एवं पुरस्कार: दैनिक भास्कर का राज्य युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार,2018

क़लमकार मंच का राष्ट्रीय कविता पुरस्कार (द्वितीय),2019

सम्प्रति राजस्थान सरकार में शिक्षक। 


गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

नेहा नरुका

जेबकतरे

एक ने हमारी जेब काटी और हमने दूसरे की काट ली और दूसरे ने तीसरे की और तीसरे ने चौथे की और 

चौथे ने पाँचवे की

और इस तरह पूरी दुनिया ही जेबकतरी हो गई

अब इस जेबकतरी दुनिया में जेबकतरे अपनी-अपनी जेबें बचाए घूम रहे हैं


सब सावधान हैं पर कौन किससे सावधान है पता नहीं चल रहा 

सब अच्छे हैं पर कौन किससे अच्छा है पता नहीं चल रहा 

सब जेब काट चुके हैं

पर कौन किसकी जेब काट चुका है पता नहीं चल रहा


जेबकतरे कैंची छिपाए घूम रहे हैं

संख्या में दो हजार इक्कीस कैंचियाँ हैं

इनमें से पाँच सौ एक अंदर से ही निकली हैं

अंदर वाली कैंचियाँ भी बाहर वाली कैंचियों की तरह ही दिख रही हैं

कैंचियाँ जेब काट रही हैं

सोचो जब  कैंचियाँ इतनी हैं तो जेबें कितनी होंगी?

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डर

अक्सर आधी रात को मैं डरावने ख्वाब देखती हूँ

मैं देखती हूँ मेरी सारी पोशाकें खो गई हैं

और मैं कोने में खड़ी हूँ नंगी

मैं देखती हूँ कई निगाहों के सामने खुद को घुटते हुए!


मैं देखती हूँ मेरी गाड़ी छूट रही है

और मैं बेइन्तहा भाग रही हूँ उसके पीछे!

मैं देखती हूँ मेरी सारी किताबें 

फटी पड़ीं हैं ज़मीन पर 

और उनसे निकल कर उनके लेखक

लड़ रहे हैं, चीख रहे हैं, तड़प रहे हैं

पर उन्हें कोई देख नहीं पा रहा |


मैं देखती हूँ मेरे घर की छत, सीढ़ियाँ और मेरा कमरा

खून से लथपथ पड़ा है

मैं घबराकर बाहर आती हूँ और बाहर भी मुझे आसमान से खून रिसता हुआ दिखता है 

अक्सर आधी रात को मुझे डरावने खावाब आते हैं 

और मैं सो नहीं पाती|


मैं दिनभर खुद को सुनाती हूँ हौसले के किस्से

दिल को ख़ूबसूरती से भर देने वाला मखमली संगीत 

पर जैसे-जैसे दिन ढलता है

ये हौसले पस्त पड़ते जाते हैं

और रात बढ़ते-बढ़ते डर जमा कर लेता है क़ब्जा मेरे पूरे वजूद पर

मैं बस मर ही रही होती हूँ तभी 

मेरी खिड़की से रोशनी दस्तक देती है मेरी आँखों में

और मेरा ख्वाब टूट जाता है

अक्सर..........

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बिच्छू

(हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि 'अज्ञेय' की 'सांप' कविता से प्रेरणा लेते हुए)

तुम्हें शहर नहीं गाँव प्रिय थे

इसलिए तुम सांप नहीं,

बिच्छू बने

तुम छिपे रहे मेरे घर के कोनों में 

मारते रहे निरन्तर डंक

बने रहे सालों जीवित


तुमसे मैंने सीखा:


प्रेम जिस वक्त तुम्हारी गर्दन पकड़ने की कोशिश करे

उसे उसी वक्त औंधे मुंह पटककर, अपने पैरों से कुचल दो

जैसे कुचला जाता है बिच्छू,


अगर फिर भी प्रेम जीवित बचा रहा 

तो एक दिन वह तुम्हें डंक मार-मार कर अधमरा कर देगा|

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विविधता

तुम पीपल का पेड़ हो

और मैं आम

न तुम मुझे पीपल बनने की कहना 

न मैं तुम्हें आम


एक तरफ बाग़ में तुम खड़े होगे

और एक तरफ मैं


मेरे फल तुम्हारे पत्ते चूमा करेंगे

और तुम्हारे फल मेरे पत्तों को आलिंगन में भर लेंगे


जब बारिश आएगी

हम साथ-साथ भींगेंगे


जब पतझड़ आएगा 

हमारे पत्ते साथ-साथ झरेंगे


धूप में देंगे हम राहगीरों को छाँव

अपनी शाखाओं की ओट में छिपा लेंगे हम

प्रेम करने वाले जोड़ों की आकृतियाँ


हम साथ-साथ बूढ़े होंगे

हम अपने-अपने बीज लेकर साथ-साथ मिलेंगे मिट्टी में 


हम साथ-साथ उगेंगे फिर से

मैं बाग के इस तरफ, तुम बाग के उस तरफ

न मैं तुम्हें अपने जैसा बनाऊँगी 

न तुम मुझे अपने जैसा बनाना


अगर हम एक जैसा होना भी चाहें तो यह संभव नहीं

क्योंकि इस संसार में एक जैसा कुछ भी नहीं होता

एक माता के पेट में रहने वाले दो भ्रूण भी एक जैसे कहाँ होते हैं....


फिर हम-तुम तो दो अलग-अलग वृक्ष हैं, जो अपनी-अपनी ज़मीन में गहरे तक धँसे हैं


हम किसी बालकनी के गमले में उगाये सजावटी पौधे नहीं 

जिसे तयशुदा सूरज मिला, तयशुदा पानी मिला और नापकर हवा मिली


हम आम और पीपल हैं!

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उनके कांटे मेरे गले में फँसे हुए हैं

वे सब मेरे लिए स्वादिष्ट मगर काँटेदार मछलियों की तरह हैं 

मैंने जब-जब खाना चाहा उन्हें तब-तब कांटे मेरे गले में फंस गए

उकताकर मैंने मछलियाँ खाना छोड़ दिया

जिस भोजन को जीमने का शऊर न हो उसे छोड़ देना ही अच्छा है


अब मछलियाँ पानी में तैरती हैं

मैं उन्हें दूर से देखती हूँ

दूर खड़े होकर तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियाँ देखना 

मछलियाँ खाने से ज़्यादा उत्तेजक अनुभव है


जीभ का पानी चाहे कितना भी ज़्यादा हो

उसमें डूबकर अधमरे होने की मूर्खता बार-बार दोहराई नहीं जा सकती|

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नेहा नरुका

जन्म:  7 दिसंबर 1987

शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी.

रचनाएँ: फटी हथेलियाँ
'सातवाँ युवा द्वादश', 'आजकल', 'हंस', 'वागार्थ' आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित 

सम्प्रति शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय, कोलारस में सहायक प्राध्यापक, हिंदी के पद पर कार्यरत|


मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

आलोक श्रीवास्तव

बूढ़ा टपरा 

बूढ़ा टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें सच,

उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें सच|


लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?

मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच|


कच्चे रिश्ते, बासी चाहत और अधूरा अपनापन,

मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी भी सौगातें, सच|


जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,

पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच|


धोका खूब दिया है खुद को झूठे मूठे किस्सों से,

याद मगर जब करने बैठे याद आई हैं बातें सच|

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अम्मा 

धूप हुई तो आँचल बनकर कोने-कोने छाई अम्मा

सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा


उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है

धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा 


घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखें

चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा


सारे रिश्ते जेठ-दुपहरी, गर्म हवा, आतिश, अंगारे

झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा


बाबूजी गुजरे; आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं,

तब मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा|

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मैंने देखा है

धड़कते, सांस लेते, रुकते-चलते, मैंने देखा है

कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है


तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं

तुम्हारी आदतों में खुद को ढलते, मैंने देखा है


न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है

ख़ुद अपने-आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है


मेरी खामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाजें

तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है


बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी

बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है


मुझे मालूम है उनकी दुआएं साथ चलती हैं

सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है

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सात दोहे

आँखों में लग जाएँ तो, नाहक निकले खून,

बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून|


भौंचक्की है आत्मा, साँसें हैं हैरान,

हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान|


तुझमें मेरा मन हुआ, कुछ ऐसा तल्लीन,

जैसे गाए डूब कर, मीरा को परवीन|


जोधपुरी साफ़ा, छड़ी, जीने का अंदाज़,

घर-भर की पहचान थे, बाबूजी के नाज़|


कल महफ़िल में रात भर, झूमा खूब गिटार,

सौतेला-सा एक तरफ़, रक्खा रहा सितार|


फूलों-सा तन ज़िन्दगी, धड़कन जिसे फांस,

दो तोले का जिस्म है, सौ-सौ टन की सांस|


चंदा कल आया नहीं, लेकर जब बरात,

हीरा खा कर सो गई, एक दुखियारी रात|

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 तोहफ़ा

जाने क्या-क्या दे डाला है 

यूं तो तुमको सपनों में...


मेंहदी हसन, फरीदा ख़ानम 

की ग़ज़लों के कुछ कैसेट

उड़िया कॉटन का इक कुर्ता 

इतना सादा जितने तुम

डेनिम की पतलून जिसे तुम 

कभी नहीं पहना करते

लुंगी, गमछा, चादर, कुर्ता, 

खादी का इक मोटा शॉल 

जाने क्या-क्या .....


आँख खुली है, 

सोच रहा हूँ 

गुजरे ख़्वाब 

दबी हुई ख्वाहिश हैं शायद

नज़्म तुम्हें जो भेज रहा हूँ 

ख्वाहिश की कतरन है केवल

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आलोक श्रीवास्तव

जन्म: 30 दिसम्बर 1971

शिक्षा: स्नातकोत्तर(हिंदी)

रचनाएँ: आमीन(गज़ल संग्रह), आफरीन(कहानी-संग्रह), हंस, वागर्थ, कथादेश, इंडिया टुडे, आउटलुक आदि में रचनाएँ प्रकाशित|

सम्पादन: नई दुनिया को सलाम-अली सरदार जाफरी, अफेक्शन-बशीर बद्र, हमकदम-निदा फाज़ली|

विविध: फिल्म एवं टी.वी. धारावाहिकों के लिए गीत तथा कथा लेखन, प्रतिष्ठित पार्श्व गायकों द्वारा ग़ज़ल एवं गीत गायन|

सम्मान एवं पुरस्कार: मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत कुमार पुरस्कार, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, सुखन सम्मान, मॉस्को रूस का अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, कथा यूं.के. की और से ब्रिटेन की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में सम्मानित, वर्ष 2020 का अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान|


प्रीति तिवारी के सौजन्य से

गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

कुंवर बेचैन


प्रीति में संदेह कैसा

प्रीति में संदेह कैसा?

यदि रहे संदेह, तो फिर--

प्रीति कैसी, नेह कैसा?

प्रीति में संदेह कैसा!


ज्योति पर जलते शलभ ने 

धूप पर आसक्त नभ ने 

मस्त पुरवाई-नटी से

नव प्रफुल्लित वन-विभव ने ---


प्रश्न पूछा-'कोई नित-नित

परिजनों से भी सशंकित 

हो अगर तो गेह कैसा?'

प्रीति में संदेह कैसा!


नींद पर संदेह दृग का

पंख पर उड़ते विहग का 

हो अगर संदेह मग पर 

प्रीति-पग के नेह-डग का 


तो कहा प्रिय राधिका ने 

नेह-मग की साधिका ने

बूँद बिन घन-मेंह कैसा ?

प्रीति पर संदेह कैसा!

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 जिस मृग पर कस्तूरी है

मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है|

उतने ही हम पास रहेंगे जितनी हममें दूरी है |


शाखों से फूलों की बिछुड़न, फूलों से पंखुड़ियों की

आँखों से आँसू की बिछुड़न, होंठों से बाँसुरियों की

तट से नव लहरों की बिछुड़न, पनघट से गागरियों की

सागर से बादल की बिछुड़न, बादल से बीजुरियों की

जंगल जंगल भटकेगा ही, जिस मृग पर कस्तूरी है|

उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है|


सुबह हुए तो मिले रात-दिन, माना रोज बिछुड़ते हैं

धरती पर आते हैं पंछी, चाहे ऊँचा उड़ते हैं

सीधे सादे रस्ते भी तो, कहीं-कहीं पर मुड़ते हैं

अगर ह्रदय में प्यार रहे तो टूट टूटकर जुड़ते हैं

हमने देखा है बिछुडों को, मिलना बहुत जरूरी है|

उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है|

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चीजें बोलती हैं

अगर तुम एक पल भी 

ध्यान देकर सुन सको तो

तुम्हें मालूम होगा

कि चीजें बोलती हैं|


तुम्हारे कक्ष की तस्वीर

तुमसे कह रही है

बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है

तुम्हारे द्वार पर यूं ही पड़े

मासूम ख़त पर

तुम्हारे चुम्बनों की एक भी रेखा नहीं है


अगर तुम बंद पलकों में 

सपना कुछ बन सको तो

तुम्हें मालूम होगा 

कि वे दृग खोलती हैं|


वो रामायण 

कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पड़े हैं

तुम्हें ममता भरे स्वर में अभी भी टेरती है|

वो खूँटी पर टँगे

जर्जर पुराने कोट की छवि

तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है\


अगर तुम भाव की कलियाँ

हृदय से चुन सको तो

तुम्हें मालूम होगा 

कि वे मधु घोलती हैं|

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दिन दिवंगत हुए

रोज़ आंसू बहे, रोज़ आहात हुए

रात घायल हुईं, दिन दिवंगत हुए!


हम जिन्हें हर घड़ी याद करते रहे

रिक्त मन में नई प्यास भरते रहे

रोज़ जिनके ह्रदय में उतरते रहे

वे सभी दिन चिता की लपट पर रखे-

रोज़ जलते हुए आखिरी ख़त हुए!

दिन दिवंगत हुए!


शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे

नैन में ज्योति का दीपक बाले रहे

और जिनके दिलों में उजाले रहे

अब वही दिन किसी रात की भूमि पर 

एक गिरती शाम की छत हुए!

दिन दिवंगत हुए!


जो अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी

वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी

है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी

दिन कि जो प्राण के गह में बंद थे

आज चोरी गई वो ही दौलत हुए!

दिन दिवंगत हुए!


चाँदनी भी हमें धूप बनकर मिली

रह गई ज़िन्दगी की कली अधखिली

हम जहाँ हैं वहाँ रोज़ धरती हिली

हर तरफ़ शोर था और इस शोर में 

ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए!

दिन दिवंगत हुए!

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बदरी बाबुल के अंगना 

बदरी बाबुल के अंगना जइयो

जइयो बरसियो कहियो

कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया की अँखियाँ


मरुथल की हिरणी है गई सारी उमरिया

कांटे बिंधी है मोरे मन की मछरिया 

बिजुरी मैया के अंगना जइयो

जइयो तड़पियो कहियो

कहियो कि हम हैं तोरी बिटिया की सखियाँ


अबके बरस राखी भेज न पाई

सूनी रहेगी मोरे वीर की कलाई

पूरवा भईया के अंगना जइयो

छू-छू कलइया कहियो

कहियो कि हम है तोरी बहना की रखियाँ

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कुंवर बेचैन

पूरा नाम : डॉ. कुंवर बहादुर सक्सेना 

जन्म: 1 जुलाई 1942, मृत्यु: 29 अप्रैल 2021

शिक्षा- एम.कॉम, एम.ए.हिंदी, पीएच. डी. 

रचनाएँ:  गीत संग्रह- पिन बहुत सारे, भीतर सांकल बाहर सांकल, उर्वशी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख, नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए, लौट आये दिन, कुँवर बेचैन के नवगीत, एक दीप चौमुखी|

ग़ज़ल संग्रह- शामियाने कांच के, महावर इंतज़ारों का,रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बाँसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज़, आग पर कंदील, आँधियों में पेड़, आँगन की अलगनी, तो सुबह हो,कोई आवाज़ देता है, धूप चली मीलों तक, आंधियां धीरे चलो, खुशबू की लकीर, आठ सुरों की बाँसुरी, हलंत बोलेंगे, मौत कुछ सोच के तो आएगी|

अतुकांत कविता संग्रह- शब्द : एक लालटेन, नदी तुम रुक क्यों गईं|  

महाकाव्य - प्रतीक पांचाली

अन्य - कह लो जो कहना हा, दो होठों की बात, पर्स पर तितली(हाइकु), ग़ज़ल का व्याकरण|

उपन्यास- मरकत द्वीप की नीलमणि, जी हाँ, मैं गज़ल हूँ

यात्रा वृत्तांत- बादलों का सफ़र|

पुरस्कार एवं सम्मान- साहित्य भूषण सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान, कन्हैया लाल सेठिया सम्मान, हाउस ऑफ़ कॉमन्स, यू.के. सम्मान, राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह तथा डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा सम्मानित, इनके अतिरिक्त देश-विदेश की लगभग १०० से भी अधिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत|

फिल्मों तथा आकाशवाणी में गीत: कई देशों की यात्राएं |




गुरुवार, 21 मार्च 2024

एकांत श्रीवास्तव

 विस्थापन 

मैं बहुत दूर से उड़कर आया हुआ पत्ता हूँ


यहाँ की हवाओं में भटकता

यहाँ के समुद्र, पहाड़ और वृक्षों के लिए

अपरिचित, अजान, अजनबी


जैसे दूर से आती हैं समुद्री हवाएँ

दूर से आते हैं प्रवासी पक्षी

सुदूर अरण्य से आती है गंध

प्राचीन पुष्प की

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूँ


तपा हूँ मैं भी 


प्रचण्ड अग्नि में देव भास्कर की

प्रचंड प्रभंजन ने चूमा है मेरा भी ललाट

जुड़ना चाहता हूँ फिर किसी टहनी से 

पाना चाहता हूँ रंग वसंत का ललछौंह


नई भूमि

नई वनस्पति को

करना चाहता हूँ प्रणाम

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूँ |

_____________________________________

लोहा 

जंग लगा लोहा पाँव में चुभता है 

तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ

लोहे से बचने के लिए नहीं

उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए


मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ

उस लोहे को जो मेरे खून में है 


जीने के लिए इस संसार में 

रोज़ लोहा लेना पड़ता है

एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है 

दूसरा इज्ज़त के साथ

उसे खाने के लिए 


 एक लोहा पुरखों के बीज को

बचाने के लिए लेना पड़ता है

दूसरा उसे उगाने के लिए


मिटटी में, हवा में, पानी में

पालक में और खून में जो लोहा है

यही सारा लोहा काम आता है एक दिन

फूल जैसी धरती को बचाने में

_____________________________________


शब्द

शब्द आग हैं

जिनकी आँच  में 

सिंक रही है धरती

जिनकी रोशनी में

गा रहे हैं हम 

काटते हुए एक लम्बी रात


शब्द पत्थर हैं 

हमारे हाथ के

शब्द धार हैं

हमारे औजार की


हमारे हर दुःख में हमारे साथ 

शब्द दोस्त हैं

जिनसे कह सकते हैं हम

बिना किसी हिचक के 

अपनी हर तकलीफ़


शब्द रूँधे हुए कंठ में 

चढ़ते हुए गीत हैं 

वसंत की खुशबु से भरे 

चिडियों के सपने हैं शब्द 


शब्द पौधे हैं

बनेंगे एक दिन पेड़

अंतरिक्ष से आँख मिलायेंगे

सिर 

झुका हुआ

लाचार धरती का ऊँचा उठायेंगे|

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यात्रा

नदियाँ थीं हमारे रास्ते में

जिन्हें बार-बार पार करना था


एक सूर्य था

जो डूबता नहीं था 

जैसे सोचता हो कि उसके बाद 

हमारा क्या होगा


एक जंगल था 

नवम्बर की धूप में नहाया हुआ 

कुछ फूल थे

हमें जिनके नाम नहीं मालूम थे


एक खेत था

धान का

पका 

जो धारदार हंसिया के स्पर्श से

होता था प्रसन्न


एक नीली चिड़िया थी 

आंवले की झुकी टहनी से

अब उड़ने को तैयार 


हम थे

बातों की पुरानी पोटलियाँ खोलते 

अपनी भूख और थकन और नींद से लड़ते

धुल थी लगातार उड़ती हुई

जो हमारी मुस्कान को ढँक नहीं पाई थी

मगर हमारे बाल ज़रूर 

पटसन जैसे दिखाते थे

ठंड थी पहाड़ों की 

हमारी हड्डियों में उतरती हुई

दिया-बाती का समय था 

जैसे पहाड़ों पर कहीं-कहीं

टंके हों ज्योति-पुष्प


एक कच्ची सड़क थी 

लगातार हमारेसाथ

दिलासा देती हुई 

कि तुम ठीक-ठीक पहुँच जाओगे घर |

_______________________________________

जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं 

बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते 

ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है

चाँद उसी का है जो उस तक पहुँचता है

और समुद्र उन मल्लाहों का जो उसका 

सीना फाड़कर उसके गर्भ से

मछली और मूंगा निकालते हैं


वे लोग महान हैं जो जीते नहीं, लड़ते हैं 

जो पहली सांस से आखिरी सांस का कुरुक्षेत्र 

लहुलुहान होकर भी जूझते हुए पार करते हैं


वे रास्ते महान हैं जो पत्थरों से  भरे हैं

मगर जो हमें सूरजमुखीके खेतों तक ले जाते हैं


वह सांस महान है 

जिसमें जनपद की महक है

और वह ह्रदय खरबों गुना महान 

जिसमें जनता के दुःख हैं 

धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँख 

और लोकगीत की तरह गाने वाली आवाज़ से ही

सुबह होती है

और परिंदे पहली उड़ान भरते हैं!

_________________________________________

एकांत श्रीवास्तव

जन्म: 8 फरवरी 1964

शिक्षा: एम.ए. (हिंदी), एम.एड., पीएच.डी.

रचनाएँ: कविता-संग्रह - 'अन्न हैं मेरे शब्द', 'मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद', 'बीज से फूल तक', 'धरती अधखिला फूल है'; लम्बी कविता- 'बढ़ई, कुम्हार और कवि'; आलोचना- 'कविता का आत्मपक्ष'; अंग्रेजी से अनूदित कविताएँ- 'शेल्टर फ्रॉम दी रेन'; स्मृति कथा- 'मेरे दिन मेरे वर्ष'; उपन्यास- 'पानी भीतर फूल'|

सम्पादन: 'वागार्थ' पत्रिका का सम्पादन (नवम्बर 2006 से दिसम्बर 2008 तक, पुनः जनवरी 2011 से कुछ वर्षों तक)|

सम्मान एवं पुरस्कार: शरद बिल्लौरे सम्मान, रामविलास शर्मा सम्मान, ठाकुर प्रसाद सम्मान, दुष्यंत कुमार सम्मान, केदार सम्मान, नरेंद्र देव वर्मा सम्मान, सूत्र सम्मान, हेमंत स्मृति सम्मान, जगत ज्योति स्मृति सम्मान, वर्तमान साहित्य- मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार | 




गुरुवार, 14 मार्च 2024

निर्मला पुतुल

 मेरे एकांत का प्रवेश द्वार 

यह कविता नहीं

मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है


यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं

टिकाती हूँ यहीं अपना सिर


ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर

जब लौटती हूँ यहाँ

आहिस्ता से खुलता है 

इसके भीतर एक द्वार

जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं

तलाशती हूँ अपना निजी एकांत


यहीं मैं वह होती हूँ 

 जिसे होने के लिए मुझे

कोई प्रयास नहीं करना पड़ता 


पूरी दुनिया से छिटककर

अपनी नाभि से जुडती हूँ यहीं!


मेरे एकांत में देवता नहीं होते

न ही उनके लिए 

कोई प्रार्थना होती है मेरे पास


दूर तक पसरी रेत 

जीवन की बाधाएँ

कुछ स्वप्न और 

प्राचीन कथाएँ होती हैं


होती है-

एक धुँधली-सी धुन

हर देश-काल में जिसे 

अपनी-अपनी तरह से पकड़ती

स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे 


मैं कविता नहीं

शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ

अपनी काया से बाहर खड़ी होकर 

अपना होना!

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बाहामुनी

तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों

पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट  


कैसी विडम्बना है कि

ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ

और पंखा बनाते टपकता है 

तुम्हारे करियाये देह से टप....टप...पसीना....!


क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन 

तब कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी

तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर? 


जिन घरों के लिए बनाती हो झाडू

उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में?


इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते 

कितनी सीधी हो बाहामुनी 

कितनी भोली हो तुम

कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नज़र

वहीँ तक समझती हो अपनी दुनिया 

जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी

कई-कई दुनियाएँ शामिल है इस दुनिया में


नहीं जानती 

कि किन हाथों से गुजरती 

तुम्हारी चीजें पहुँच जाती हैं दिल्ली

जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी!

_______________________________________

आदिवासी लड़कियों के बारे में

ऊपर से काली

भीतर से अपने चमकते दाँतों 

की तरह शान्त धवल होती हैं वे


वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी 

निश्छल हँसी

तब झर-झराकर झरते हैं......

पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते

 

जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ 

जब नाचती हैं कतारबद्ध

माँदल की थाप पर 

आ जाता तब असमय वसन्त


वे जब खेतों में 

फसलों को रोपती-काटती हुई

गाती हैं गीत

भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द

ऐसा कहा गया है-


किसने कहे हैं उनके परिचय में 

इतने बड़े-बड़े झूठ?

किसने ?


निश्चय ही वह हमारी जमात का

खाया-पीया आदमी होगा....

सच्चाई को धुन्ध में लपेटता 

एक निर्लज्ज सौदागर 


जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ 

 कोई कवि होगा 

मस्तिष्क से अपाहिज!

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अखबार बेचती लड़की

अखबार बेचती लड़की

अखबार बेच रही है या खबर बेच रही है

यह मैं नहीं जानती

लेकिन मुझे पता है कि वह

रोटी के लिए अपनी आवाज बेच रही है


अखबार में फोटो छपा है

उस जैसी बदहाल कई लड़कियों का

जिससे कुछ-कुछ उसका चेहरा मिलता है

कभी-कभी वह तस्वीर देखती है

कभी अपने आप को देखती है

तो कभी अपने ग्राहकों को


वह नहीं जानती है कि आज के अखबार की

ताजा खबर क्या है

वह जानती है तो सिर्फ यह कि

कल एक पुलिस वाले ने

भद्दा मजाक करते हुए धमकाया था

वह इस बात से अंजान है कि वह अखबार नहीं

अपने आप को बेच रही है

क्योंकि अखबार में उस जैसी

कई लड़कियों की तस्वीर छपी है

जिससे उसका चेहरा मिलता है!

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अभी खूँटी में टाँगकर रख दो माँदल

ऐ मीता!

मत बजाओ 

जब-तब  बाँसुरी


कह दो अपने संगी-साथी से

बजाएं नहीं असमय ढ़ोल-माँदल


रसोई में भात पकाते

थिरकने लगते हैं मेरे पाँव

मन उड़ियाने लगता है 

रूई के फाहे-सा दसों दिस


अभी बहुत सारा काम पड़ा है

घर गृहस्थी का

गाय गोहाल के गोबर में फँसी है

लानी है जंगल से लकड़ियाँ भी

घड़ा लेकर जाना है पानी लाने झरने पर 

और पंहुचाना है खेत पर बापू को कलेवा 


देखो सबकुछ गड़बड़ हो जाएगा

सुननी पड़ेगी माँ से डाँट

इसलिए मेरा कहा मानो

अभी रख दो छप्पर  में खोंसकर बाँसुरी 

टाँग दो खूँटी पर माँदल  

और लाओ अपनी कला 

अँचरा में बाँधकर रख लूँ मैं 


लौटा दूँगी वापस बँधना में

तब जी भरके बजाना

मैं भी मन-भर नाचूँगी संग तुम्हारे


तब तक के लिए लाओ 

तुम्हारी कला

अँचरा में बाँधकर रख लूं मैं!

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निर्मला पुतुल 

जन्म: 6 मार्च 1972, दुमका, झारखण्ड

शिक्षा: नर्सिंग में डिप्लोमा, स्नातक(राजनीति शास्त्र)

रचनाएँ: 
हिंदी कविता संग्रह-
नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में, बेघर सपने, फूटेगा नया विद्रोह(शीघ्र प्रकाश्य) ; 
संथाली कविता संग्रह- ओनोंड़हें
सम्पादन: स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर के कई हिंदी-संथाली पत्र-पत्रिकाओं का संपादन तथा सह-संपादन|
सम्मान एवं पुरस्कार:
         साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा साहित्य सम्मान, झारखंड सरकार द्वारा राजकीय सम्मान, झारखंड सरकार के कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत, हिंदी साहित्य परिषद, मैथन द्वारा सम्मानित, मुकुटबिहारी सरोज स्मृति सम्मान-ग्वालियर, भारत आदिवासी सम्मान, मिजोरम सरकार, विनोबा भावे सम्मान-नागरी लिपि परिषद् दिल्ली, हेराल्ड सैमसन टोपनी स्मृति सम्मान झारखड, बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्मान-बिहार, शिला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान, नई दिल्ली, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा समानित, हिमाचल प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, राष्ट्रीय युवा पुरस्कार-भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता आदि|


गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

अशोक शाह

रोटियों की शक्ल बदल गयी है

कैसा अटूट रिश्ता है
द्रव्य और समय का 
धरती पर हमेशा देखे गये सम्पूरक 
समय ने संभाल रखा है द्रव्य को
न जाने कितने रूप बनते-बिगड़ते 
नये से पुराने, फिर नये होते 
और द्रव्य की सतह पर रेंगता समय 
खोजता रहता खोई कोई शक्ल

कितनी अजीब बात है

मैं बैठा रह गया था लकड़ी की बेंच पर

जब ट्रेन निकल गयी थी
पहुँचा है समय फिर ट्रेन लेकर
आज सीमेंट की बेंच पर बैठा 
मोबाइल से पूछ रहा हूं
मंडी में कितने भाव बिके अनाज

तब बाज़ार से कोई भूखा नहीं लौटता
आज बाज़ार में भूख बिक रही है
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ गए हैं लोग
खेतों की नमी हिमालय में जम गयी  है
समय तब भी था
समय अब भी है
सिंक-सिंक कर रोटियों की शक्ल बदल गयी है
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हर तीसरा आदमी अस्वस्थ है

सहमती सकुचाती उतरती धरती पर
सूर्य की प्रथम किरण की तरह
पहला आदमी एकदम स्वस्थ था

दूसरे आदमी का मन हुआ अस्वस्थ
विचार फैलते गए
भूमंडल- वायुमंडल में

तीसरा आदमी अस्वस्थ है
मन से, शरीर से
जो भी आता उसके संपर्क में
हो जाता अस्वस्थ : पौधे और जीव

आज धरती पर वे ही बचे हैं स्वस्थ -
पानी की बूंद
हवा का झोंका
वृक्ष और पशु
जो आदमी के संपर्क में नहीं हैं
______________________________

मेरे जूते का रंग काला है


क्यों बहुत गर्व है ख़ुद पर
पढ़ा,लिखा पुरुष हूँ 
मेरा नाम कुछ अलग है
विचार ज़रा विशिष्ट?

मुझसे बुरे बहुत
इसलिए अच्छा हूँ बहुत
मेरी ख़ास रुचि
अपनी पहचान के अनुरूप
मेरी तारीफ़ के पुल ऊँचे हैं
बाकी सब ओछे हैं

घर में कालीन है
छवि है कुलीन

मेरे लोभ पर मत जाइए
थोड़ी इर्ष्या तो होती है औरों से
झूठ को आपने ही चलाया 
आटे में नमक-सा

पर कहे देता हूँ
औरों की तरह हूँ नहीं
दुनियादारी तो निभानी है
दूध का धुला नहीं
पर दूध का जला हूँ
समझौतावादी नहीं हूँ
पर छाछ फूँक-फूँक कर पीता हूँ

मेरी क्या गलती है
समय ही बदल गया 
शुरू में तो हीरा था
अभी ताबीज़ हो गया 

डर जमा मेरे भीतर
फिर भी साहसी बहुत
अपनी कमजोरियों से सिले हैं
रंग-रंग के झंडे बहुत

कहता जरूर हूँ
परवाह नहीं है उनकी
पर जो दिखाया रास्ता
उस लीक से हटा भी नहीं

पर क्यों सोचता
मैं क्या हूँ
जिन्हें आज रखा सहेज
कल उन्हीं से था परहेज

मेरा क्या है अपना
साथ रहा सिर्फ सपना
मरने से ठीक पहले तक
जिस खाट पर लेटा था
एकटक उसे देख रहा
वह मेरा ही बेटा था

पर तुलनात्मक गर्व से
तना हुआ चेहरा था
जो लिया था बाहर से, उन पर
समाज का सख्त पहरा था

फिर भी मैं समझदार हूँ
मेरे जूते का रंग काला है
_________________________________

एक बड़े लेखक से अनुरोध करते 


मैंने फिर दुहराया
कुछ लिख दो

उनकी आँखें ख़ाली
दिल सुन्न
और होंठ सूख गये

तभी देखा शून्य में
तितलियों को
अपने नन्हें परों से
आकाश को चीरते हुए

मैंने अपनी कलम उठा ली
_____________________________

आख़िरी कविता

सूरज ने लिखी जो ग़ज़ल
वह धरती हो गई

धरती ने जो नज़्म कहा
नदी बन गयी

नदी-मिट्टी ने मिलकर 
लिख डाले गीत अनगिन
 
होते गए पौधे और जीव

इन सबने मिलकर लिखी 
वह कविता आदमी हो गई

धरती को बहुत उम्मीद है 
अपनी आखिरी कविता से
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अशोक शाह
जन्म: 11 जनवरी 1963
शिक्षा: आईआईटी कानपुर एवं आईआईटी दिल्ली, 
एक वर्ष भारतीय रेलवे इंजीनियरिंग सेवा, तदोपरांत 1990 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पदों पर कार्यभार सँभाला|

रचनाएँ: कविता-संग्रह - माँ के छोटे घर के लिए, उनके सपने सच हों, समय मेरा घर है, समय की पीठ पर हस्ताक्षर है दुनिया, समय के पार चलो,पिता का आकाश, जंगल राग, अनुभव का मुँह पीछे है, ब्रह्माण्ड एक आवाज़ है, कहानी एक कही हुई, जब बोलना ज़रूरी हो, उसी मोड़ पर, उफ़क़ के पार(उर्दू)
कहानी-संग्रह: अजोर 
सम्पादन: मध्यप्रदेश की जनजातियों के जीवन, पारम्पर, बोलियों, लोक कथाओं, लोकगीतों एवं संस्कृति के संरक्षण पर आधारित 15 पुस्तकों का सम्पादन|
दर्शन: Total Eternal Reflection
पुरातत्व: The Grandeur of  Granite: the temples of Vyas Bhadora, Vintage Bhopal, 
Ashapuri, The Cradle of  Paramara and Pratihara Art, Temple Unveiled
देश की लगभग सभी पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित। लघु पत्रिका 'यावत्'
 का संपादन ।


प्रीति तिवारी के सौजन्य से 

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

चंद्रकांत देवताले

रचना  प्रक्रिया के पूर्व

ख़ाली हाथ और भरे मन 

रेत के ऊपर 

आकाश के नीचे

कोहरे की नदी में

चित लेटे हुए

मैं सूर्य माँगता हूँ 

मुझे बर्फ़ मिलती है

सिर्फ़ वही शब्द नहीं मिलता 

सिर्फ़ वही क्षण नहीं मिलता 

शेष समय की भट्टी में

अतिरिक्त सैकड़ों शब्द फेंकता हूँ

सिर्फ़ वही जगह छूटती है 

जहाँ कुछ हो सकता हूँ 

वैसे फेंकता हूँ अपने को 

शहरों के बीच

सड़कों पर 

लोगों के भीतर|

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अंतिम दिन की अनुभूति

उस दिन हर सूरज उगेगा

और मैं अपने को और अधिक नहीं जानूँगा,

कच्चे बादल-सा तकिया 

पिघलते बर्फ़-सा बिस्तर

कितने अनंत सिमट आएँगे आँखों में

सिर्फ़ अंतिम बार देख लेने के लिए 

ठूँठे नीम पर टिके नंगे आसमान को 

एक क्षण के लिए सब कुछ बेहद उजाला हो जाएगा 

और एक अंतहीन सड़क का सिलसिला 

आँखों में उतरता जाएगा 

और जब गुलमोहर के नीचे गुलाबी साड़ी में रोती हुई 

लड़की का दृश्य आकर आँखों में अटक जाएगा

तब मुझ पर अपनी कविताओं के 

चिंदे बरसने लगेंगे

और मैं आंसूं की बूँद भाप बन जाऊँगा ....

समुद्र प्रार्थना-सा बिछा रह जाएगा

मैदानों के कलेजे सुन्न पड़ जाएँगे

सिर्फ़ जलते रहेंगे पहाड़ 

और उनमें उठती हुई लपटों की परछाईं

पृथ्वी पर छा जाएगी.........

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शब्दों की पवित्रता के बारे में 

रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैंने 

अगला फुलका चन्द्रमा की तरह बेदाग़ हो तो जानूँ

उसने याद  दिलाया बेदाग़ नहीं होता कभी चन्द्रमा

तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं

क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से

वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते

यह है चन्द्रमा जैसी, दे दूं इसे क्या बिना ही आँच दिखाए

अवकाश में रहते शब्द शब्दकोश में टँगे

नंगे अस्थिपंजर

शायद यही है पवित्रता शब्दों की 

अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं 

कौमार्य शब्दों का 

तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं 

प्यार और आक्रमण करने लायक़

मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क 

चुन्दड़ी वाली

नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी |

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 माँ पर नहीं लिख सकता कविता 

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता 

अमर चिऊँटियों का एक दस्ता 

मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है 

माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती है 

मैं जब सोचना शुरू करता हूँ 

यह किस तरह होता होगा 

घट्टी पीसने की आवाज़ 

मुझे घेरने लगती है 

और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ 


जब कोई भी माँ छिलके उतारकर 

चने, मूंगफली या मटर के दाने 

नन्हीं हथेलियों पर रख देती है 

तब मेरे हाथ अपनी जगह पर 

थरथराने लगते हैं 

माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए 

देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे 

और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया 


मैंने धरती पर कविता लिखी है 

चन्द्रमा को गिटार में बदला है  

समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया 

सूरज को कभी भी कविता लिख दूंगा 

माँ पर नहीं लिख सकता कविता |

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औरत 

वह औरत 

आकाश और पृथ्वी के बीच 

कब से कपड़े पछीट रही है,


पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है,

वह औरत आकाश और धूप और हवा से 

वंचित घुप्प गुफा में 

कितना आटा गूँथ रही है?

गूँथ रही है मनों सेर आटा 

असंख्य रोटियाँ

सूरज की पीठ पर पका रही है


एक औरत 

दिशाओं के सूप में खेतों को 

फटक रही है 

एक औरत 

वक्त की नदी में 

दोपहर के पत्थर से 

शताब्दियाँ हो गयीं 

एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को 

अपने स्तनों में समेटे 

दूध के झरने बहा रही है,

एक औरत अपने सिर पर

घास का गट्ठर रख

कब से धरती को 

नापती ही जा रही है,


एक औरत अँधेरे में 

खर्राटे भरते हुए आदमी के पास

निर्वासन जागती

शताब्दियों से सोयी है,


एक औरत का धड़

भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं

उसके पैर 

जाने कब से 

सबसे

अपना पता पूछ रहे हैं|

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चंद्रकांत देवताले 

जन्म: 7 नवम्बर, 1936
मृत्यु: 14 अगस्त, 2017

रचनाएँ: कविता-संग्रह-
हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज़ में बताई गई थी, बदला बेहद महंगा सौदा, पत्थर की बेंच, उसके सपने, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय, जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना-मुक्तिबोध(कविता और जीवन विवेक) 
सम्पादन- दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद- पिसाटी का बुर्ज(मराठी से अनुवाद)

सम्मान एवं पुरस्कार:
साहित्य अकादमी पुरस्कार, कविता समय सम्मान, पहल सम्मान, भवभूति अलंकरण, शिखर सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान|


गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

अरुणाभ सौरभ

 इतिहास पुरुष जैसा

काले आखरों की अंतहीन 

उलझी दीवार फांदकर 

बाहर आने की चाह

स्याह दुनिया में

प्रलाप छोड़ना चाहता है, वो

किताबों की दुनिया से

जो शायद कह ना पाया हो

(अधूरे विचार)

जो जिंदगी से पहले दफ्न हो गए

उसे पकाकर- सिंझाकर

निकालना चाहता है

आना चाहता है

पनियाल ख़ामोशी में

क़ब्र की मिट्टियों में 

हौले-हौले

होती है सुगबुगाहट 

आता है धीरे-धीरे

कब्रिस्तान से

साथ में मुर्दों की फौज 

देखता है जीते जागते इन्सानों की कमीनगी

दुर्गंध देती

लिजलिजी-चिपचिपी दुनिया

अर्थ-विकास-समाज-तंत्र

भागता है कदम

फिर उसी कब्रिस्तान में

जहाँ से आया था

कि दूर से गूंजती है-

नारे की कतार

गड़ासा-भाला- तलवार की

साँय-साँय-साँय

" निकलो ",  " बाहर निकलो " की चिल्लाहट

कि सबके सब

मुर्दों के साथ

वह भी ज़ोर से चीखती है

" हमें अंदर ही रहने दो

हम यहीं हैं- तो ठीक हैं "

वो चीखता है

 चीखता ही रह रह जाता है

इतिहास पुरुष जैसा कोई एक


पर प्रेतों की आवाज़ है

जो इन्सानों से ऊंची 

कभी हो ही नहीं सकती...

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नींद और कविता

जैसे अन्न 

भूख के लिए

नदी पानी के लिए 

पानी ज़िंदगी के लिए

तुम्हारी बांहे

सुकून के लिए

तुम कविता के लिए


रात नींद के लिए 

नींद रात के लिए

वैसे हमारी सभ्यता के लिए

नींद और कविता 

सबसे निर्दोष कोशिश है...

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आद्यनायिका

(एक अंश)

स्वर्ण महलों,

अट्टालिकाओं वाला पाटलिपुत्र

जिसके

शौर्य का गीत

सुनाकर नट्टनियाँ नृत्य करतीं थीं

धम्म महामात्रों-ब्राह्मणों के 

किन्सक-अहिंसक संघर्ष का

पाटलिपुत्र


न्यायाधिकारियों

श्रमणों

राजुकों वाला पाटलिपुत्र

उत्तर में गंगा

दक्षिण में विन्ध्य से लेकर

समूचा कलिंग

पूर्व में चंपा

पश्चिम में सों

और 

राजगृह का कालांतरित रूप 

पाटलिपुत्र


उद्यानों,

निकुंजों,

विहारों वाला

पाटलिपुत्र

दार्शनिकों,

विदूषकों,

विद्वानों की शरणस्थली

और सम्राट अशोक के 

शौर्य-विजय

और कुशल शासन की

लहरती ध्वज-पताकाएँ

जिस नगर में सूर्य तब अस्त होता था

जब पाटलिपुत्र 

स्वयं चाहता हो


असंख्य विजयी अश्वों की 

हिनहिनाहट से काँपता नगर

अनेक वंशों के 

अभिमान  और टकराहट 

से ध्वस्त

असंख्य साम्राज्यों के

बनते-बिगड़ते 

इतिहास का साथी

विश्व का प्राचीनतम और ऐतिहासिक 

एक नगर

इतिहास में ही 

सिमटकर खो गया 

अन्यथा

सभ्यता की प्राचीनता और भव्यता में 

एथेंस-रोम कहाँ टिक पाता

 पाटलिपुत्र के आगे 

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उस वसंत के नाम 

 वो वसंत की सरसराहट मुझे याद है

जिसमें कोयली कूक की जगह

कोयल की चोंच से खून टपका था

आम मंजर के धरती पर गिरने से

विस्फोट हुआ था

सरसों की टुस्सियों से बारूद बरसता था

और हवा में हर जगह

लाशों के सड़ने की गन्ध थी

झरने से रक्त की टघार

और शाम

शाम काली रोशनाई में लिपटी

एक क़िताबी शाम थी

रातों की दहशतगर्दी और सन्नाटे

कुत्तों की कुहू ...कू.......कुहू.... से टूटने थे

एकाएक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे थे

एक-एक कर चीथड़े कर रहे थे

इन्सानी माँस के लोथड़े

कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं आँख, कहीं नाक

और हर जगह ख़ून

ख़ून ...ख़ू...न...ख़ू....ऊ...न

पानी की जगह ख़ून

एक वसंत के

रचने, बसने, बनने, गढ़ने, बुनने, धुनने की

क़िताबी प्रक्रिया से दूर...।

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चाय बागन की औरत 

उसे ये तो मालूम है

उसके नाज़ुक हाथों से तोड़ी गयी पत्तियों से

जागता है पूरा देश

तब जबकि हरियाली से भरपूर

असम के किसी भी चाय बगान में

आलस्य अपने उफ़ान पे होता है

और आलसी हवा से मुठभेड़ कर

झुंड-की-झुंड असमिया औरतें

निकली जाती है अलसुबह

पहले पहुंचना चाहती है

बंगालिन,बिहारिन और बंगलादेशी औरतों के

कि असम के हर काम-काज में

बाहरी लोगों ने आकार कब्ज़ा जमा लिया है

‘मोय की खाबो...?’

 

भूख से ज्यादा चिंता उसे भतार के देशी दारू,माछ-भात की है

जिसके नहीं होने पर गालियाँ और लात-घूसे

उसे इनाम में मिलेंगे

पर वो कहती है-

"मुर लोरा सुआलिहोत स्कूलोलोय जाबो लागे"1

पर कमाकर लाती है वो और

घर और मरद साला तो बैठ कर खाता है,

अनवरत पत्तियाँ तोड़ती रहती है वो चाय की

उसे ये नहीं मालूम कि चाय का पैकेट बनकर

कैसे टाटा-बिरला के और देशी-विदेशियों के

लगते हैं मुहर

 

उसे कितना प्यार मिला है

ये तो कोई नहीं बता सकता

कितनी रातें वो भूख से काटी है

कितनी अंगड़ाइयों में

इसका हिसाब-किताब उसका मरद भी नहीं जानता

चाय बागान ही उसका सबकुछ है

जिसमें पत्तियाँ तोड़ना

उसकी दिनचर्या है

असम की चाय से जागता है देश

जिसकी पत्तियों को तैयार करना

देश के संविधान लिखने जैसा है

तब जबकी चाय को राष्ट्रीय पेय

बनाया जा रहा है

और चाय बागान में उसके तरह की सारी औरतें

अपने सारे दुख बिसराकर

मशगूल अपने कामों में

मधुर कंठ से गा लेतीं है

कोई असमिया प्रेमगीत

जिस प्रेमगीत पर

हमेशा वज्रपात होता है

दिल्ली से

फिर भी गाती है

गाती ही रहती है

पत्तियाँ तोड़ते वक़्त

 

उसे हरियाली बचाने की पूरी तमीज़ है

उसे रंगाली बीहू आते ही अंग-अंग में थिरकन होती है

उसे मेखला पहन घूमने की बड़ी इच्छा होती है

उसे अपने असम से बहुत प्यार है...


1. मेरे बच्चे को स्कूल जाना चाहिए

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अरुणाभ सौरभ

जन्म: 9 फरवरी 1985

शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी..

रचनाएँ: दिन बनाने के क्रम में(भारतीय ज्ञानपीठ), आद्यनायिका, लम्बी कविता का वितान(आलोचना), एतबे टा नहि, तें किछु आर(मैथिली कविता संग्रह), मैथिली, असमिया कविताओं का अनुवाद,कन्नड़ के वचन साहित्य का अनुवाद  

पुरस्कार एवं सम्मान: भारतीय ज्ञानपीठ का 'नवलेखन पुरस्कार', साहित्य अकादमी का 'युवा पुरस्कार', महेश स्मृति ग्रन्थ पुरस्कार, महेश अंजुम स्मृति युवा कविता सम्मान, आदि|

सम्प्रति: सहायक प्राध्यापक, हिंदी, एन सी ई आर टी


गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

शान्ति सुमन

     आग बहुत है

भीतर-भीतर आग बहुत है

बाहर तो सन्नाटा है|


सड़कें सिकुड़ गईं हैं भय से 

देख खून की छापें

दहशत में डूबे हैं पत्ते 

अन्धकार में काँपे

किसने है यह आग लगाई

जंगल किसने काटा है|


घर तक पहुँचानेवाले वे

धमकाते हैं राहों में

जाने कब सींगा बज जाए 

तीर मन बाहों में

कहने को है तेज रोशनी 

कालिख को ही बाँटा है|


कभी धूप ने, कभी छाँव ने

छीनी है कोमलता 

एक करोटन वाला गमला 

रहा सदा ही जलता

खुशियों वाले दिन पर लगता 

लगा किसी का चांटा है|

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धार की मछलियाँ 

थरथराती टहनियां हैं 

हिल रहे हैं पेड़|


एक चर्चा, एक अंदेशा

बीतते दिन का

और चिड़िया ने सहेजा 

एक नया तिनका

धार की ये मछलियाँ हैं

लहर लेती हैं घेर|


बूँद जैसे दबी हो भीतर

कहीं इस रेत में

फसल जैसे सूखती हो

भरे सावन खेत में

सूर्यमुख ये फुनगियाँ हैं

रही जल को टेर|


दुःख हो गए इतने बड़े 

हम हो गए छोटे

शहर जाकर गाँव को हम

फिर नहीं लौटे

किसी ने पूछा नहीं है

समय का यह फेर|

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गुनगुन करने लगे हैं दिन 

चिट्ठी की पांति से खुलने लगे हैं दिन,

सर्दियाँ होने लगी हैं और कुछ कमसिन |


दोहे जैसी सुबहें

रुबाई लिखी दुपहरी,

हवा खिली टहनी-सी

खिड़की के कंधे ठहरी,

चमक पुतलियों में फिर भरने लगे हैं दिन,

नीले कुहासे तनके हुए आंचल पर पिन|


कत्थई गेंदे की 

खुशबू से भींगी रातें,

हल्का मादल जैसे 

लगी सपन को  पांखें,

ऋतू को फिर गुनगुने करने लगे है दिन,

उजाले छौने जैसे रखते पाँव गिन-गिन|


सूत से लपेट धूप को 

सहेजकर जेबों में,

मछली बिछिया बजती

पोखर के पाजेबों में,

हाथ में हल्दी-गुण करने लगे है दिन,

सांझ जलती आरती-सी हुई तेरे बिन|

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एक रचाव है नदी

पन्ने लहरों के बदलती हुई

एक किताब है नदी|


किनारों को आँखों से बाँधती

उतरती है पहाड़ों से 

चिड़िया के पंखों को सहेजती

मन बसी है कहारों के

हवाओं में रंग घोलती हुई 

एक लगाव है नदी|


महाभारत से निकली रोकती

भीष्म के उन वाणों को 

खूब आँखों से भी तेज करती 

रहती है जो कानों को

गहनों को फिर से तोलती हुई

एक जवाब है नदी|


साँसों में गीतों को गूँथेगी

भरती कविता की जगहें 

बचपन के मन को सँभालती-सी

छूती कई अटल सतहें

अनबोली-सी भी बोलती हुई

एक रचाव है नदी|

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नयी बात नहीं

शव किसी युवती का है

इसलिये भीड़ है देखने वालों की 

उठानेवालों की नहीं

एक दूसरे का मामला बताकर

गाँव और रेलपुलिस का टालमटोल

कोई नई बात नहीं

जहाँ वह मिली है गटर में

वहाँ सैकड़ों किस्सों के सैकड़ों मुँह   

लिखी है जाने कितनी कहानियाँ 

उसके सिरहाने पैताने 

उसकी आत्मा में ईश्वर नहीं था

या उसकी आत्मा तक नहीं गया ईश्वर 

वह सिर्फ़ देह थी, देह के साथ रही

देह लेकर मर गई

मनुष्य होने की आदिम परिभाषा

पर भी पत्थर रख गई |

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जन्म तिथि :  १५ सितम्बर १९४२

शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी.

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, म.द. म. महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर

रचनाएँ : गीत संग्रह - ओ प्रतीक्षित, परछाईं टूटती, सुलगते पसीने, पसीने से रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, तप रहे कचनार, भीतर-भीतर आग, मेघ इन्द्रनील(मैथिलि), पंख-पंख आसमान (एक सौ एक चुने हुए गीतों का संग्रह), समय चेतावनी नहीं देता, एक सूर्य रोटी पर; उपन्यास : जल झुका हिरन

आलोचना : मध्यवर्गीय चेतना और हिंदी का आधुनिक काव्य

सम्पादन : सर्जना, अन्यथा, भारतीय साहित्य, कंटेम्पररी इंडियन लिटरेचर (दिल्ली), बीज(पटना), देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं अनेक आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केन्द्रों से प्रसारित.

सम्मान एवं पुरस्कार : बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से साहित्य सेवा सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग से कवीरत्न सम्मान, राज भाषा विभाग, बिहार राज्य से महादेवी वर्मा सम्मान, अवंतिका, दिल्ली द्वारा विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिलि साहित्य परिषद् द्वारा विद्या वाचस्पति सम्मान, हिंदी पगति समिति द्वारा भारतेंदु सम्मान, नारी सशक्तिकरण के उपलक्ष्य में सुर्गामा-सम्मान, विन्ध्य प्रदेश का साहित्य मणि सम्मान आदि    

 


गुरुवार, 25 जनवरी 2024

नीलेश रघुवंशी



 जंगल और जड़ 

इमारत के ऊपर इमारत

खाई के नीचे खाई

दूर-दूर तक फैला कंक्रीट का जंगल

आएगा एक दिन ऐसा आएगा

जब हमें हमारी ज़मीन मिलेगी वापस 

सीमेंट की टंकी में पानी पीती चिड़िया से

कहा पीपल की फूटती जड़ ने 

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बुआ का दुख

चाय की शौक़ीन बुआ

पी जाती जाने कितनी चाय दिन भर में 

और अब मिलती है सिर्फ़ दो चाय 

वो भी दूध कम और ज्यादा पानी वाली


धमकाता जब-तब बेटा कौन जोतेगा ज़मीन उसकी

आसन नहीं किसी दामाद-बेटी का आना घर में बिना उसकी इच्छा के -

और तू भी चली न जाना ड्योढ़ी के पार-

किसी और का अँगूठा लगवा

बुआ की साड़ी ज़मीन-जायदाद कर ली बेटे ने अपने नाम

देखती रह गई भौचक सी अँगूठे को कागज़ पर 

पटवारी ने क्या कहा?बुआ ने कितना सुना? नहीं जानता कोई

रुँधे गले से, आँख से आँसू पोंछती सुनाती बुआ

बाद भी इसके 

घर-परिवार में जन्मती है जब कभी बेटी

बूढ़ी जर्जर बुआ भर जाती है दुख से

पराया धन होती हैं बेटियाँ

माँ-बाप का नहीं, किसी और का जीवन तारती हैं


अँधेरे में रास्ता टटोलती बड़बड़ाती जाती है बुआ|

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स्त्री-विमर्श

मिल जानी चाहिए अब मुक्ति स्त्रियों को

आखिर कब तक विमर्श में रहेगी मुक्ति

बननी चाहिए एक सड़क, चलें जिस पर सिर्फ़ स्त्रियाँ ही

मेले और हाट-बाज़ार भी अलग

किताबें अलग, अलग हों गाथाएँ

इतिहास तो पक्के तौर पर अलग

खिड़कियाँ हों अलग-

झाँके कभी स्त्री तो दिखे सिर्फ़ स्त्री ही 

हो सके तो बारिश भी हो अलग


लेकिन -

परदे की ओट से झाँकती ओ स्त्री 

तुम - 

खेत-खलिहान और अटारी को सँवारो अभी

कामवाली बाई, कान मत दो बातों पर हमारी 

बुहारो ठीक से, चमकाओ बर्तन

सर पर तगाड़ी लिए दसवें माले की और जाती 

ओ कामगार स्त्री 

देखती हो कभी आसमान, कभी ज़मीन 

निपटाओ बखूबी अपने सारे कामकाज

होने दो मुक्त अभी समृद्ध संसार की औरतों को 

फिलहाल संभव नहीं मुक्ति सबकी |

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बित्ता भर जगह 

अपनी एक जवान बेटी और दो बेटों के संग छत पर 

बसाई अपनी गिरस्ती

वे छत पर नहाते, कपड़े धोते और सजाते-सँवरते हैं

जवान लड़की

जब तब ईंटों के बीच रखे आईने को निकाल निहारती है खुद को

वे सबके बाद सोते और सबसे पहले उठते 

पूरी कोशिश करते हैं पड़ोसियों की आँख से बची रहे उनकी गृहस्थी

रहते हैं इस तरह कि रहते हुए भी नहीं होते किसी के आसपास

छत पर मिली बित्ता भर जगह कहीं छूट न जाए 

इसी आशंका को अपने संग लिए......

दिन भर मालकिन की जी हुजूरी में लगी रहती है

वह साँवली और मजबूत औरत

इतनी थकी होती है वह कि ईंट पर सर रखते ही चली जाती है 

गहरी नींद में

आदमी जब तब  पीता है बीड़ी धुएँ को अपने आसपास समेटे 

छत पर रखी ईंटें 

सिरहाना भी हैं उनका और आड़ भी

बचाती हैं जो पड़ोसियों की आँख से

दूर-दूर तक फैली धरती सिकुड़-सिकुड़ जाती है

जब सारा परिवार सोता है छत पर पाँव सिकोड़कर

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जन्म: 4 अगस्त, 1969


रचनाएँ: घर निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में, 

एक कस्बे के नोट्स ,एलिस इन वंडरलैंड, डॉन क्विगजोट, झाँसी की रानी, छूटी हुई जगह, अभी ना होगा मेरा अंत, सैयद हैदर रजा एवं ब.व. कारंत

पुरस्कार और सम्मान: भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा लेखन पुरस्कार, स्पंदन कृति पुरस्कार, प्रेमचंद स्मृति सम्मान, शैलप्रिया स्मृति सम्मान, डी.डी. अवार्ड 2003, 2004|

सम्प्रति: दूरदर्शन केंद्र, भोपाल में कार्यरत


गुरुवार, 18 जनवरी 2024

जितेन्द्र श्रीवास्तव

 पिता होना 

पिता होना 
जिम्मेदार आदमी हो जाना है 

इस तरह जिम्मेदार हो जाना
जिसमें 'स्व' का विलय हो जाना
स्वयं सृजित संसार में
निहायत जरूरी हो जाता है

बिना किसी संकोच के 
मन की समस्त दुविधाओं को 
दूर....बहुत दूर फेंक आना
जहाँ से लौटकर उसके सपने भी न आएँ

प्रशांत पड़े जीवन में 
किसी पल अचानक पिता हो जाने का सन्देश होता है

चुपके से न जाने 
कहाँ चला जाता है किशोरावस्था में अर्जित उन्माद 
बदल जाता है चंचलता का चरित्र
कुछ भी नहीं रहता जीवन में ठीक-ठाक पहले की तरह

सिवाय अपनी आँखों में बस गई अपने पिता की 
दो चमकती आँखों के
जिसमें सपने अपने लिए नहीं 
बच्चों के लिए आते हैं 
बहुत सुखद होता है पिता हो जाना 
इस संशय का मर जाना
कि जिंदगी बंजर भी हो सकती है 

बंजर न होना पिता होना है

पिता होना सिर्फ बच्चे पैदा करना नहीं होता 
जिम्मेदारियों में स्वयं को मिटाना होता है 

स्वयं को मिटाना 
अपने सपनों में खुद अनुपस्थित हो जाना 
छोड़ देना उसमें बच्चों को 
निश्छल किलकारियाँ भरने के लिए 
पिता होना है

पिता होना ब्रह्मा होना है

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फर्क

निगाहों की अलगनी पर
टँगा है स्मृतियों का वसन
जो आज तक नहीं सूख पाया
पिछले कई वर्षों में

आज भी है उतना ही भीगा
उतना ही साफ़

कितना फर्क होता है
सूर्य धूप और प्रेम धूप में !

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बेटियाँ

यह दिसंबर की पहली तारीख को
ढल रही शाम है

धूप चुपके से ठहर गई है
नीम की पत्तियों पर

इस समय मन में उजास है
उसमें टपकता है शहद की तरह
बेटियों का स्वर

बेटियाँ होती ही शहद हैं
जो मिटा देती हैं
आत्मा की सारी कड़वाहट

अभी कुछ पल बाद धूप सरक जाएगी 
आँचल की तरह पत्तियों से
पत्तियाँ अनंत काल तक नहीं रोक सकतीं धूप को 
पर बेटियाँ नरम धूप की तरह 
बनी रहती हैं सदा 
पिता के संसार में

जितनी हँसी होती है बेटियों के अधर पर 
उतनी उजास होती है पिता के जीवन में

जो न हँसें बेटियाँ 
तो अँधेरे में खो जाते हैं पिता |

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अनभै कथा

यही है मगहर
जहाँ अंतिम साँस ली थी कबीरदास ने 

मगहर से गुजरते हुए
दीख ही जाता है
आमी नदी का मटमैला पानी

पर आज देख रहा हूँ 
ट्रेन पर सवार हो रहे 
सैकड़ों नर-नारियों को 

गजब का उत्साह है इनमें 
सबने बाँध रखीं हैं गठरियाँ 
सब जा रहे हैं बहराइच 
शामिल होने 
बाले मियाँ की बारात में

बाले मियाँ की बारात 
हर साल सजती है वहाँ 
हर साल पहुँचते हैं हजारों हिंदू-मुलसमान 

सब वहाँ जाकर मानते हैं मनौतियाँ
और उन्हें विश्वास होता है 
पूरी होगी उनकी इच्छा 
और जो न हो पूरी
तो उन्हें दाता की शक्ति पर नहीं 
अपनी इबादत पर शक होता है 

ट्रेन छूट रही है मगहर स्टेशन से
बिलकुल साफ़ दीख रहा है 
कबीर की याद में बनी मस्जिद 
दीख रहा है मंदिर 
काँप रहा है आमी का जल

और अब पीछे छूट रही है 
स्टेशन की दीवारों पर अंकित कबीर-वाणी |

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दूब

अदम्य जिजीविषा से भरी है दूब

उसे जमने और पसरने को 
नहीं चाहिए सिर्फ नदी का किनारा 
पत्थरों के बीच भी
सर उठाने की जगह  
ढूँढ लेती है दूब 

मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए 
मौका पाते ही 
पनप उठती है वह

पसर जाती है 
सबको मुँह चिढ़ाते हुए 

जमने को अपना अधिकार मानकर 
देती आ रही है वह चुनौती 
अपने खिलाफ साजिश करने वालों को 
सृष्टि के आरंभिक दिनों से |

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जन्म : 8 अप्रैल, 1974

रचनाएँ : हिन्दी और भोजपुरी में लेखन-प्रकाशन। ‘इन दिनों हलचल’, ‘अनभै कथा’, ‘असुन्दर सुन्दर’, ‘बिलकुल तुम्हारी तरह’, ‘कायान्तरण’, ‘कवि ने कहा’ (कविता-संग्रह); 

‘भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचन्द’, ‘शब्दों में समय’, ‘आलोचना का मानुष-मर्म’, ‘सर्जक का स्वप्न’, ‘विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता’, ‘उपन्यास की परिधि’, ‘रचना का जीवद्रव्य’ (आलोचना); ‘शोर के विरुद्ध सृजन’ (ममता कालिया का रचना-संसार), ‘प्रेमचन्द : स्त्री जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : दलित जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : स्त्री और दलित विषयक विचार’, ‘प्रेमचन्द : हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्बन्धी कहानियाँ और विचार’, ‘प्रेमचन्द : किसान जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : स्वाधीनता आन्दोलन की कहानियाँ’, ‘कहानियाँ रिश्तों की : परिवार’ (सम्पादन),साहित्यिक पत्रिका 'उम्मीद' का संपादन । इनके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं में दो सौ से अधिक आलेख प्रकाशित हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान: ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’, ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ , हिन्दी अकादमी, दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का ‘युवा पुरस्कार’, ‘डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ और ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ |

सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में हिन्दी के प्रोफ़ेसर तथा इग्नू के पर्यटन एवं आतिथ्य सेवा प्रबन्धन विद्यापीठ के निदेशक तथा विश्वविद्यालय के कुलसचिव।






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