पिता होना
पिता होना
जिम्मेदार आदमी हो जाना है
इस तरह जिम्मेदार हो जाना
जिसमें 'स्व' का विलय हो जाना
स्वयं सृजित संसार में
निहायत जरूरी हो जाता है
बिना किसी संकोच के
मन की समस्त दुविधाओं को
दूर....बहुत दूर फेंक आना
जहाँ से लौटकर उसके सपने भी न आएँ
प्रशांत पड़े जीवन में
किसी पल अचानक पिता हो जाने का सन्देश होता है
चुपके से न जाने
कहाँ चला जाता है किशोरावस्था में अर्जित उन्माद
बदल जाता है चंचलता का चरित्र
कुछ भी नहीं रहता जीवन में ठीक-ठाक पहले की तरह
सिवाय अपनी आँखों में बस गई अपने पिता की
दो चमकती आँखों के
जिसमें सपने अपने लिए नहीं
बच्चों के लिए आते हैं
बहुत सुखद होता है पिता हो जाना
इस संशय का मर जाना
कि जिंदगी बंजर भी हो सकती है
बंजर न होना पिता होना है
पिता होना सिर्फ बच्चे पैदा करना नहीं होता
जिम्मेदारियों में स्वयं को मिटाना होता है
स्वयं को मिटाना
अपने सपनों में खुद अनुपस्थित हो जाना
छोड़ देना उसमें बच्चों को
निश्छल किलकारियाँ भरने के लिए
पिता होना है
पिता होना ब्रह्मा होना है
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फर्क
निगाहों की अलगनी पर
टँगा है स्मृतियों का वसन
जो आज तक नहीं सूख पाया
पिछले कई वर्षों में
आज भी है उतना ही भीगा
उतना ही साफ़
कितना फर्क होता है
सूर्य धूप और प्रेम धूप में !
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बेटियाँ
यह दिसंबर की पहली तारीख को
ढल रही शाम है
धूप चुपके से ठहर गई है
नीम की पत्तियों पर
इस समय मन में उजास है
उसमें टपकता है शहद की तरह
बेटियों का स्वर
बेटियाँ होती ही शहद हैं
जो मिटा देती हैं
आत्मा की सारी कड़वाहट
अभी कुछ पल बाद धूप सरक जाएगी
आँचल की तरह पत्तियों से
पत्तियाँ अनंत काल तक नहीं रोक सकतीं धूप को
पर बेटियाँ नरम धूप की तरह
बनी रहती हैं सदा
पिता के संसार में
जितनी हँसी होती है बेटियों के अधर पर
उतनी उजास होती है पिता के जीवन में
जो न हँसें बेटियाँ
तो अँधेरे में खो जाते हैं पिता |
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अनभै कथा
यही है मगहर
जहाँ अंतिम साँस ली थी कबीरदास ने
मगहर से गुजरते हुए
दीख ही जाता है
आमी नदी का मटमैला पानी
पर आज देख रहा हूँ
ट्रेन पर सवार हो रहे
सैकड़ों नर-नारियों को
गजब का उत्साह है इनमें
सबने बाँध रखीं हैं गठरियाँ
सब जा रहे हैं बहराइच
शामिल होने
बाले मियाँ की बारात में
बाले मियाँ की बारात
हर साल सजती है वहाँ
हर साल पहुँचते हैं हजारों हिंदू-मुलसमान
सब वहाँ जाकर मानते हैं मनौतियाँ
और उन्हें विश्वास होता है
पूरी होगी उनकी इच्छा
और जो न हो पूरी
तो उन्हें दाता की शक्ति पर नहीं
अपनी इबादत पर शक होता है
ट्रेन छूट रही है मगहर स्टेशन से
बिलकुल साफ़ दीख रहा है
कबीर की याद में बनी मस्जिद
दीख रहा है मंदिर
काँप रहा है आमी का जल
और अब पीछे छूट रही है
स्टेशन की दीवारों पर अंकित कबीर-वाणी |
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दूब
अदम्य जिजीविषा से भरी है दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब
मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए
मौका पाते ही
पनप उठती है वह
पसर जाती है
सबको मुँह चिढ़ाते हुए
जमने को अपना अधिकार मानकर
देती आ रही है वह चुनौती
अपने खिलाफ साजिश करने वालों को
सृष्टि के आरंभिक दिनों से |
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जन्म : 8 अप्रैल, 1974
रचनाएँ : हिन्दी और भोजपुरी में लेखन-प्रकाशन। ‘इन दिनों हलचल’, ‘अनभै कथा’, ‘असुन्दर सुन्दर’, ‘बिलकुल तुम्हारी तरह’, ‘कायान्तरण’, ‘कवि ने कहा’ (कविता-संग्रह);
‘भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचन्द’, ‘शब्दों में समय’, ‘आलोचना का मानुष-मर्म’, ‘सर्जक का स्वप्न’, ‘विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता’, ‘उपन्यास की परिधि’, ‘रचना का जीवद्रव्य’ (आलोचना); ‘शोर के विरुद्ध सृजन’ (ममता कालिया का रचना-संसार), ‘प्रेमचन्द : स्त्री जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : दलित जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : स्त्री और दलित विषयक विचार’, ‘प्रेमचन्द : हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्बन्धी कहानियाँ और विचार’, ‘प्रेमचन्द : किसान जीवन की कहानियाँ’, ‘प्रेमचन्द : स्वाधीनता आन्दोलन की कहानियाँ’, ‘कहानियाँ रिश्तों की : परिवार’ (सम्पादन),साहित्यिक पत्रिका 'उम्मीद' का संपादन । इनके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं में दो सौ से अधिक आलेख प्रकाशित हैं।
पुरस्कार एवं सम्मान: ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’, ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ , हिन्दी अकादमी, दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का ‘युवा पुरस्कार’, ‘डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ और ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ |
सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में हिन्दी के प्रोफ़ेसर तथा इग्नू के पर्यटन एवं आतिथ्य सेवा प्रबन्धन विद्यापीठ के निदेशक तथा विश्वविद्यालय के कुलसचिव।
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