बुधवार, 15 मई 2024

शचीन्द्र आर्य

 चप्पल

शहर के इस कोने से जहां खड़े होकर

इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ, 

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर 

दौड़े भी होंगे?

किसी छूटती बस के पीछे,

बंद होते लिफ्ट के दरवाज़े से पहले,

किसी आदमी के पीछे.


मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,

जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,

किसी अधेड़ उम्र की औरत

और किसी उम्र जी चुकी बूढी महिला को भागते हुए देखा हो.


ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता,

बात दरअसल इतनी-सी है,

जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाए है,

उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे.

पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए 

वह नहीं बना पाया भागने लायक.


सवाल इतना-सा ही है,

उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?

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धौला कुआँ

वह बोले, वहां एक कुआँ होगा और

उन्होंने यह भी बताया,

यह धौला संस्कृत भाषा के धवल शब्द 

का अपभ्रंश रूप है|


जैसे हमारा समय, चिंतन, जीवन, स्पर्श,

दृश्य, प्यास सब अपभ्रंश हो गए 

वैसे ही धवल घिस-घिस कर धौला 

हो गया|


धवल का एक अर्थ सफ़ेद है|

पत्थर सफ़ेद, चमकदार भी होता है|

उन मटमैली, धूसर, ऊबड़ खाबड़ 

अरावली की पर्वत श्रृंखला 

के बीच सफ़ेद संगमरमर का मीठे पानी 

का कुआँ| धौला कुआँ|


कैसा रहा होगा, वह झिलमिलाते पानी

को अपने अन्दर समाए हुए?

उसके न रहने पर भी उसका नाम रह गया |

ज़रा सोचिए, किनका नाम रह जाता है,

उनके चले जाने के बाद?

कहाँ गया कुआँ? कैसे गायब हो गया?

किसी को नहीं पता|


एक दिन,

जब धौलाधार की पहाड़ियाँ इतनी 

चमकीली नहीं रह जाएँगी,

तब हमें महसूस होगा, वह सामने ही था 

कहीं|

ओझल सा|

उस ऊबड़-खाबड़ मेढ़ के ख़त्म होते ही

पेड़ों की छाव में छुपा हुआ सा|


जब किसी ने उसे पाट दिया, तब उसे

नहीं पता था,

कुँओं का सम्बन्ध पहाड़ों से भी वही था,

जो जल का जीवन से है|

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ईर्ष्या का सृजन

जब हैसियत 

सपने देखने की भी नहीं रही

ईर्ष्या का सृजन नहीं हुआ

ईर्ष्या का सृजन तब हुआ 

जब हम नहीं जान पाए 

हमारी सपने देखने वाली रातें

कहाँ और कैसे चोरी हो गईं?

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सड़क जैसी ज़िंदगियां

दिल्ली के कई जाम झगड़ों की तरह थे


जैसे जाम खुलने पर पता नहीं चल पाता था,

क्यों फंसे हुए थे

ऐसी ही कुछ वाजिब वजह नहीं थी

कई सारे झगड़ों की.


जाम और झगड़े बेवजह ही थे

हमारी सड़क जैसी जिंदगियों में.

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कम जगह

मैंने पाया,

कविताएँ कागज़ पर बहुत कम जगह घेरती हैं

इसलिए भी इन्हें लिखना चाहता हूँ.


यह कम जगह उस कम हो गयी संवेदना को कम होने नहीं देगी.

इसके अलावे कुछ नहीं सोचता.

जो सोचता हूँ, कम से कम उसे कहने के लिए कह देता हूँ.


कहना इसी कम जगह में इतना कम तब भी बचा रहेगा.

उसमें बची रहेगी इतनी जगह, जहां एक दुनिया फिर से बनाई जा सके.

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शचीन्द्र आर्य

9 जनवरी 1985 को जन्मे युवा कवि-गद्यकार शचीन्द्र आर्य ने 

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग(सीआईई) से 

शोध किया तथा बी.एड. एवं एम.एड. की उपाधियाँ प्राप्त की हैं|

 इनकी कविताएँ एवं कहानियाँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं 

में प्रकाशित होती रही हैं| "शहतूत आ गए हैं', 'दोस्तोएवस्की का घोडा' 

पुस्तकें प्रकाशित| सम्प्रति अध्यापन |


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