1. शुरुआतें
शुरुआतें कितनी सुंदर होती हैं
रूई से भरी, भरी वनघासों से
संभावनाओं में उतरातीं डूबतीं
मुझे ख़ंजरों से भय नहीं लगता
छज्जे से गिरने से नहीं साँप के ज़हर से नहीं
मैं डरता हूँ चीज़ों के बासी हो जाने से
हरेक उत्सुक शुरुआत के बाद
मर जाने का मतलब
ठहर जाना था
जीवित रहने का अर्थ था
उम्रदराज़ हो जाना
जीने की ये मियाद मुझको मायूस करती
कि इतना लंबा भी क्या जीना!
मुझे एक शहर नहीं चाहिए
मुझे चाहिए एक कमरा
आकाश नहीं चाहिए
चाहिए एक खिड़की
जंगल नहीं पांखुरी
समुद्र नहीं अंजुरी
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2. किताब में गुलाब
हाथ
गुलाब भी हो सकते हैं।
हथेलियाँ
किताब भी हो सकती हैं।
तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में
छुपा लो।
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3. ज्वार में वर्षा
रक्त में तैरतीं
छतरियाँ और नावें!
ज्वर की
तपती हुई त्वचा पर
बारिश का चंद्रमा!
जब,
धमनियों में टूटता है
तिमिर के धनुष
की तरह।
तब,
जनवरी के
धूजते तलुओं पर
देखता हूँ—
मोम का आलता।
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4. अविष्कार
एक आदिम भय ने
ईश्वर को रचा था,
एक आदिम लालसा ने
प्यार को।
मनुष्य ने इनके बाद
फिर कोई बड़ा आविष्कार
नहीं किया!
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5. तारतम्य के लिए
तारतम्य के लिए उसने
सब कुछ दाँव पर
लगा दिया।
जूतों, किताबों और विचारों को
एक तरतीब में जमाने
के लिए।
बिना इस बात को समझे कि—
जूते
यात्रा करने के लिए होते हैं
किताबें
सीने पर रखकर सोने के लिए
और विचार
ढाल बनाकर अपना निर्लज्ज बचाव
करने को!
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सुशोभित
सुशोभित जी का जन्म 13 अप्रैल 1982 को मध्य प्रदेश के झाबुआ में हुआ। उनकी शिक्षा उज्जैन में संपन्न हुई। 'मैं बनूंगा गुलमोहर', 'मलयगिरी का प्रेत', 'धूप के पंख' आदि कविता संग्रह के साथ-साथ 'माया का मालकौंस', 'सुनो बकुल', 'गांधी की सुंदरता', 'बायोस्कोप', 'दूसरी क़लम', 'अपनी राम रसोई', 'आइंस्टीन के कान', 'बावरा बटोही', 'देखने की तृष्णा', 'पवित्र पाप', 'कल्पतरु' अन्य गद्य रचनाएँ प्रकाशित हैं। इन्हें 2020 में अपनी पुस्तक 'सुनो बकुल' के लिए 'स्पंदन युवा पुरस्कार' प्राप्त है। वर्तमान समय में सुशोभित जी 'अहा! जिंदगी' के सहायक संपादक के रूप में कार्यरत हैं।
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