गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

शचींद्र आर्य


1. अनुपस्थित


जो अनुपस्थित हैं,
वह कैसे हमें दिखाई देंगे, 
इसकी कोई तरकीब हमारे पास नहीं है।

ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से 
उसके होने का भाव भी ख़त्म हो गया।
पर ज़रूरी है,

हम कभी महसूस कर पाएँ, जितने लोग दिख रहे हैं,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।

जैसे जितनी कविताएँ, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र बना दिए गए,
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।

जितनी किताबें छप सकीं,
उस अनुपात में बहुत 
बड़ी संख्या में वह कभी छप ही नहीं पाईं।

इसे मैं कुछ इस तरह देखता हूँ, जब हम नहीं थे,
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।

हमारे न होने से क्या वह अतीत शून्य हो गया?
कभी वह क्षण भी आएगा,

जब सामने होते हुए, कई लोग 
इस वर्तमान से भविष्य की तरफ़ चल देंगे।
 
उनका या हमारा आमने-सामने न होना, 
क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?

जसे जब कविता नहीं लिख रहा था,
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।

वह प्रक्रिया भी कहीं मन में, मेरे अंदर चल रही थी।
बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।
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2. भाषा में बड़े हुए लड़के 


जिस भाषा में
लोग बस और लड़की के पीछे 
न भागने की हिदायतें देते हों,

हमें उन्हें क्या समझना चाहिए?
उन्होंने लड़कियों को भी बस बना दिया।

जिस तरह सड़कों पर बेतहाशा बसें दौड़ रही हैं,
वैसे ही एक लड़की के चले जाने पर
दूसरी लड़की आ जाने की कल्पना है।

हम भी इसी भाषा में बड़े हुए लड़के हैं,
हमें पता है, तपती हुई दोपहर 
में बस छोड़ देने का मतलब।
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 3. पैमाने 


क्या हम अपनी उदासी को 
किसी तरह माप सकते हैं?
या कुछ भी, जिसे मन करे?

कहीं कोई क्या ऐसा होगा, 
जो हर चीज़ के लिए ऐसे पैमाने बना पाया होगा?
क्या वह हर भाव, क्षण, मनः स्थिति, घटना, अनुभूति,

उसके गुज़र जाने के बाद पैदा हुई 
रिक्तता, अतीत, भविष्य, कल्पना,
ईर्ष्या, कुंठा, भय, स्वप्न, गीत, 
स्वर, जंगल, सड़क, मिट्टी, हवा, स्पर्श

सबके लिए वह कुछ न कुछ
 तय करके गया होगा?
अपने अंदर देखता हूँ तो लगता है, 
बीतते दिन में आती शाम

और उसे अपने अंदर समा लेती 
रात ज़रूर कुछ बता जाती होगी।
मुझे भी वह सब जानना है।

लेकिन यह कैसे संभव होगा?
क्या यह हो सकता है, 
हम किसी भाषा के

सीमित शब्दों में असीमित संभावनाओं को समेटते चले जाएँ?
कभी लगता, इनके बजाय अगर वह 
कुछ युक्तियाँ बता सके, तो बेहतर होगा।

मैं ऐसे प्रेम करना चाहता हूँ, 
जिसे मैं भी ख़ुद न पहचान पाऊँ।
जिससे करूँ, वह मुझमें खुलता बंद होता रहे।

यह पानी और नदी जैसे होगा शायद। 
नहीं तो पेड़ और उसकी परछाईं जैसा।
चाहता हूँ, ऐसी ईर्ष्या जिससे करूँ,

जिसे वह उसे मेरा अनुराग समझे,
 लेकिन तह में यह भाव
किसी कुंठा की तरह मन में बनी हुई 
गाँठ की तरह उसे नज़र न आए।

इसी में कुछ ऐसे सपनों तक पहुँच जाना चाहता हूँ,
जो सपनों की तरह नहीं 
ज़िंदगी के विस्तार की तरह लगें।

उनमें रंग बिल्कुल गीले हो।
 उनसे मेरे हाथ रँग जाएँ।
शायद अब आप कुछ-कुछ
उन नए पैमानों की तासीर तक पहुँच पा रहे होंगे
और यह भी समझ पा रहे होंगे 
कि उनकी मुझे ज़रूरत क्यों है।

मैं अपनी सारी घृणा,
ईर्ष्या और सारे अप्रेम के साथ 
कुछ-कुछ ऐसा हो जाना चाहता हूँ।
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4. चप्पल 

शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले 
इतने पैरों को आते-जाते देख रहा हूँ,

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ 
कि कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे।

मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला 
को भागते हुए देखा हो।

ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, 
या उन्हें भागना नहीं आता।
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत 

भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?
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5. पता पूछने वाला 

मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो, शायद वह बता सकें,

मैं गलत था
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,

आगे से उनकी बताई जगहों पर 
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,
जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए। 
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा,
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में 
भटकना कैसा होता है। 
हो पाता, तो मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता। 
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शचींद्र आर्य













शचींद्र आर्य का जन्म 9 जनवरी 1985 को दिल्ली में हुआ।इनकी कविताएँ हंस, पहल, वागर्थ, तद्भव, समकालीन भारतीय साहित्य, सदानीरा, हिंदवी आदि डिजिटल मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित होती रही है। इनका एक कविता संग्रह 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' और डायरी 'दोस्तोएवस्की का घोड़ा' पुस्तक रूप में आ गई हैं। शचींद्र आर्य जी को 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' काव्य संग्रह के लिए 2025 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त है । 
ईमेल- sachindrakidaak@gmail.com



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