1. अनुपस्थित
वह कैसे हमें दिखाई देंगे,
ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से
पर ज़रूरी है,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।
उस अनुपात में बहुत
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।
कभी वह क्षण भी आएगा,
उनका या हमारा आमने-सामने न होना,
क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।
बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।
2. भाषा में बड़े हुए लड़के
3. पैमाने
4. चप्पल
शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले
इतने पैरों को आते-जाते देख रहा हूँ,
उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ
कि कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे।
मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला
को भागते हुए देखा हो।
ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती,
या उन्हें भागना नहीं आता।
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत
भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?
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5. पता पूछने वाला
मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो, शायद वह बता सकें,
मैं गलत था
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
आगे से उनकी बताई जगहों पर
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए।
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा,
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में
भटकना कैसा होता है। हो पाता, तो मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता। ____________________________________
शचींद्र आर्य
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए।
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में
भटकना कैसा होता है।
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता।
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