बुधवार, 27 नवंबर 2024

गौरव सिंह

 1. बहुत कम फूलों के नाम जानता हूं


बहुत कम फूलों के नाम जानता हूँ
तितलियों की कम प्रजातियाँ देखी हैं जीवन में 
हिंस्र पशुओं को सिर्फ चिड़ियाघर के बाड़ों में कैद देखा है
कविता के बिम्ब की तरह कुमुदिनी लिखते हुए कई बार हाथ कांपे हैं…

सैकड़ों ज़रूरी बातें 
निरर्थक प्रलाप की तरह कानों से गुजर जाती हैं
सालों पहले देखे एक झरने की स्मृति से देह सिहरती है…

प्रेम के निविड़तम क्षणों में
नौकरी की प्रस्तावित तिथियों के बारे में सोचता हूँ
और नदियों को देखकर अबतक अपने खानाबदोश न बन पाने को कोसता हूँ…

तानाशाहों से बचने को 
कविता का सबसे कीमती टुकड़ा बुहार देता हूँ
पर किसी की ख़ुशी के लिये कविता में एक पंक्ति भी नहीं लिखता…

असहमतियों के कारण असुरक्षित हूँ
और कभी अपनी जीवटता पर मुग्ध भी 
कि मैंने असाध्य काँपती उंगलियों से कविताएँ लिखी हैं…

चाँद एक दुर्घटना की तरह याद रहता है 
दिल में विक्षत कविताओं के अनगिनत टुकड़े हैं
तुम्हारी सांत्वनाएँ मेरे लिये निरर्थक हैं…
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2. बड़ी बहन के लिये 


बहुत कम रह पाया तुम्हारे साथ
महज दस साल की थी तुम 
जब बिछड़ गयी हमसे..
और माँ-पिता छोड़ आये जंगल से घिरे एक आवासीय विद्यालय में
हमारे घर के वाचाल नागरिकों की जुबान कई दिनों तक पत्थर-सी रही…

उसके बाद तुम सालों तक
महज त्योहार की छुट्टियों में घर आती
और हर रोज साफ होने वाले घर को
पता नहीं कैसे साफ करती…
कि अपार संभावनाशील-सा लगने लगता हमारा घर
देवी-देवताओं के आगमन की संभावना जैसे शतगुणित हो उठती…

बहन! जब तुम घर को व्यवस्थित करती 
तो घर के छोटे होने की मेरी और माँ की शिकायतें छोटी हो जातीं 
और पिता के चेहरे पर एक विजित मुस्कान तैर जाती…

मैं घर की चीजों की सही जगह कभी नहीं जान पाया 
मसलन सिलाई मशीन की असली जगह 
घर के सबसे कोने वाले कमरे की अलमारी थी 
और इस्त्री जो चारपाई की दरी पर पड़ी रहने को विवश थी 
उसके तार को सलीके से मोड़कर सिलाई मशीन के बगल में रखा जा सकता था..

तुम कपड़े इस ढंग से मोड़ देती
कि खोलने में हिचक होती..
घर के बिस्तर इतनी शालीनता से बिछा देती 
कि बिगाड़ने का दिल नहीं करता
अक्सर धूल-मिट्टी लगे शरीर के साथ मैं जमीन पर ही लेट जाता…

एक अपराधबोध-सा भरता रहा मुझमें
और माँ में शायद एक प्रतिस्पर्धा !
सालों से वह इतने सलीके से जिस घर को संभालती रहीं 
एक चौदह बरस की लड़की
उस घर की संभावनाओं को उनसे बेहतर जानती थी 
जबकि वह साल में महज कुछ दिनों के लिए आती…

अगली सुबह जब पिता का बटुआ या सिलेंडर की पर्ची नहीं मिलती 
माँ तुमको डांटती कि सबकुछ अस्त-व्यस्त कर दिया…
कभी तुम हँसते हुए खोज लाती…
तो कभी न मिलने पर रो भी पड़ती !

पर तुमने कभी घर में सुंदरता की संभावनाओं को देखना नहीं छोड़ा…
अब माँ-पिता की सेहत की सम्भावनाओं को देखती हो 
छोटे भाई-बहन के भविष्य की संभावनाओं को देखती हो

मेरी बहन !
तुम हमसे मुक्त होकर क्या देखती हो ?
क्या तुम्हारे सपनों में लाल घोड़े पर सवार
कोई राजकुमार आता है पुरानी फ़िल्मी लड़कियों की तरह...
तुम अपने एकांत में क्या देखती हो मेरी बहन...?
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3. स्त्रियाँ 

उनकी आत्मा पर कई ऐसे निशान हैं 
जिनके बारे में इतिहास कुछ नहीं कहता 
और कुछ पूछने पर
धर्मग्रन्थ भी चुप्पी साध लेते हैं…

उनकी हँसी में
दुःख इस तरह घुल गये हैं
कि हँसने और रोने के
बीच का सारा भेद मिट गया है
कभी वे हँसते-हँसते रो देती हैं
तो कभी रोते हुए हँस पड़ती हैं…

उनकी देह
सभ्यताओं के इतिहास-लेखन का 
सबसे प्राथमिक स्रोत हो सकती थी…
अगर कवियों ने उसका इत्र बनाकर
बूढ़े और लम्पट राजाओं को न बेचा होता...!

उनको मनाने के लिए
भाषा के पास सबसे संयत ध्वनियाँ हैं
और चुप कराने के लिए
भाषाओं ने सबसे विकृत गालियाँ ईजाद कीं…

अपनी घृणित वासना पर
उत्प्रेक्षाओं की सजावट लगाकर
वे उनके रूप और सुकोमल देह की ऐसी प्रशंसा करते
कि सैकड़ों बूढ़ी, लोलुप आँखें कामातुर हो उठतीं…

शताब्दियों तक 
उनके कुचाग्र, नितम्ब 
और उरोजों के लिए उपमाओं से लदी कविता 
इन स्त्रियों के हृदय के बारे में कुछ नहीं जानती
और उनके उरोज भी श्रीफल की तरह बिलकुल नहीं हैं…
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4. विष बुझे तीर छोड़ो मेरे सीने पर 


मेरी असमर्थताओं के पहाड़ पर
अपनी धारणाओं के किले बनवाओ…

मेरी आत्मा के ताखे पर
अपनी आँखें रख दो
मेरी पराजय का द्रव्य इनसे पियो 
और नशे में झूमो…

मैं तुमसे कुछ कहने में समर्थ नहीं
मेरे असामर्थ्य पर ठठाकर हंसो…

अपने लांछनों की बारूद लाओ
अपनी सभ्यता के ठेकेदारों से माचिस लो

मैं अपना चाक सीना लेकर आता हूँ 
तुम आग का टुकड़ा लेकर मिलो
हम एक साथ ताली बजाते हुए ये आतिशबाज़ी देखेंगे…

अपने होंठों से मेरे निशान मिटाओ…
मेरी देह में धँसे अपने चुंबन उखाड़ ले जाओ

अपनी स्मृतियों को घिसो
मेरा चेहरा मिटाओ धुंधला होने तक…

अपने गीतों की आवाज़ बढ़ाओ 
ताकि मेरी अनुगूँजें रास्ता भटक जाएं...

मेरी भाषा की मात्राओं को कुचल डालो
मुझे अपने बीहड़ मौन में अकेला छोड़कर चले जाओ… 

मेरा कवि कहता है
एक दिन सभी के आशय स्पष्ट हो जाएंगे…

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5. इस बेहद हताश वक्त में

इस बेहद हताश वक़्त में 
जब प्रेमी होकर जीना भी आत्मघाती है
मैं कवि होकर जीने का दुःसाहस कर रहा हूँ 

सैकड़ों सिसकियाँ कानों में गूंजती हैं
चीत्कार के बराबर का शब्द खोजने की कोशिश में 
मेरी भाषा टीन के ख़ाली संदूक की तरह कड़कती है

जब ज़िंदगी की हर शय से शिकायतों के सिलसिले हैं
अपने बिस्तर की नरमाहट का मालिकाना हक़
किसी सल्तनत की बादशाहत की तरह गूंजता है..

रात एक रौशनी की तरह उतरती है 
आत्मा के कपाट खोल अंधेरे में नहाती है रुग्ण देह 
भाषा के सारे शब्द इकट्ठे होकर मीरा के पद गाते हैं...

माथे की नसों के जंगल में 
खिलना चाहता है हरसिंगार का एक फूल

तुम्हारे आंसू का फूल छाती में खिला है
और तुम्हारी हंसी का फूल हथेली पर
अनिर्वचनीय सुख के वो फूल खिले हैं पूरी देह में

माथे का हरसिंगार खिलना चाहता है 
तुम पुरानी बातों को जाने दो…

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6. क्या तुम्हारा नगर भी दुनिया के तमाम नगरों की तरह है


क्या तुम्हारा नगर भी 
दुनिया के तमाम नगरों की तरह
किसी नदी के पाट पर बसी एक बेचैन आकृति है?

क्या तुम्हारे शहर में 
जवान सपने रातभर नींद के इंतज़ार में करवट बदलते हैं ?

क्या तुम्हारे शहर के नाईं गानों की धुन पर कैंची चलाते हैं …
और रिक्शेवाले सवारियों से अपनी ख़ुफ़िया बात साझा करते हैं ?
Ji
तुम्हारी गली के शोर में
क्या प्रेम करने वाली स्त्रियों की चीखें घुली हैं ?

क्या तुम्हारे शहर के बच्चे भी अब बच्चे नहीं लगते
क्या उनकी आँखों में कोई अमूर्त प्रतिशोध पलता है ?

क्या तुम्हारी अलगनी में तौलिये के नीचे अंतर्वस्त्र सूखते हैं ?

क्या कुत्ते अबतक किसी आवाज़ पर चौंकते हैं
क्या तुम्हारे यहाँ की बिल्लियाँ दुर्बल हो गई हैं
तुम्हारे घर के बच्चे भैंस के थनों को छूकर अब भी भागते हैं...?

क्या तुम्हारे घर के बर्तन इतने अलहदा हैं 
कि माँ अचेतन में भी पहचान सकती है...?

क्या सोते हुए तुम मुट्ठियाँ कस लेते हो 
क्या तुम्हारी आँखों में चित्र देर तक टिकते हैं
और सपने हर घड़ी बदल जाते हैं…?

मेरे दोस्त,
तुम मुझसे कुछ भी कह सकते हो…
बचपन का कोई अपरिभाष्य संकोच
उँगलियों की कोई नागवार हरकत
स्पर्श की कोई घृणित तृष्णा 
आँखों में अटका कोई अलभ्य दृश्य
मैं सुन रहा हूँ…
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गौरव सिंह




गौरव सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के हरदोई  ज़िले में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा गृह जनपद में प्राप्त की। दिल्ली के हिंदू महाविद्यालय से उन्होंने स्नातक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से परास्नातक पूर्ण किया। वर्तमान समय में गौरव सिंह हैदराबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी में शोधहेतु नामांकित हैं।
 ईमेल-rajgauneeshrav121298@gmail.com

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