गुरुवार, 21 मार्च 2024

एकांत श्रीवास्तव

 विस्थापन 

मैं बहुत दूर से उड़कर आया हुआ पत्ता हूँ


यहाँ की हवाओं में भटकता

यहाँ के समुद्र, पहाड़ और वृक्षों के लिए

अपरिचित, अजान, अजनबी


जैसे दूर से आती हैं समुद्री हवाएँ

दूर से आते हैं प्रवासी पक्षी

सुदूर अरण्य से आती है गंध

प्राचीन पुष्प की

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूँ


तपा हूँ मैं भी 


प्रचण्ड अग्नि में देव भास्कर की

प्रचंड प्रभंजन ने चूमा है मेरा भी ललाट

जुड़ना चाहता हूँ फिर किसी टहनी से 

पाना चाहता हूँ रंग वसंत का ललछौंह


नई भूमि

नई वनस्पति को

करना चाहता हूँ प्रणाम

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूँ |

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लोहा 

जंग लगा लोहा पाँव में चुभता है 

तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ

लोहे से बचने के लिए नहीं

उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए


मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ

उस लोहे को जो मेरे खून में है 


जीने के लिए इस संसार में 

रोज़ लोहा लेना पड़ता है

एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है 

दूसरा इज्ज़त के साथ

उसे खाने के लिए 


 एक लोहा पुरखों के बीज को

बचाने के लिए लेना पड़ता है

दूसरा उसे उगाने के लिए


मिटटी में, हवा में, पानी में

पालक में और खून में जो लोहा है

यही सारा लोहा काम आता है एक दिन

फूल जैसी धरती को बचाने में

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शब्द

शब्द आग हैं

जिनकी आँच  में 

सिंक रही है धरती

जिनकी रोशनी में

गा रहे हैं हम 

काटते हुए एक लम्बी रात


शब्द पत्थर हैं 

हमारे हाथ के

शब्द धार हैं

हमारे औजार की


हमारे हर दुःख में हमारे साथ 

शब्द दोस्त हैं

जिनसे कह सकते हैं हम

बिना किसी हिचक के 

अपनी हर तकलीफ़


शब्द रूँधे हुए कंठ में 

चढ़ते हुए गीत हैं 

वसंत की खुशबु से भरे 

चिडियों के सपने हैं शब्द 


शब्द पौधे हैं

बनेंगे एक दिन पेड़

अंतरिक्ष से आँख मिलायेंगे

सिर 

झुका हुआ

लाचार धरती का ऊँचा उठायेंगे|

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यात्रा

नदियाँ थीं हमारे रास्ते में

जिन्हें बार-बार पार करना था


एक सूर्य था

जो डूबता नहीं था 

जैसे सोचता हो कि उसके बाद 

हमारा क्या होगा


एक जंगल था 

नवम्बर की धूप में नहाया हुआ 

कुछ फूल थे

हमें जिनके नाम नहीं मालूम थे


एक खेत था

धान का

पका 

जो धारदार हंसिया के स्पर्श से

होता था प्रसन्न


एक नीली चिड़िया थी 

आंवले की झुकी टहनी से

अब उड़ने को तैयार 


हम थे

बातों की पुरानी पोटलियाँ खोलते 

अपनी भूख और थकन और नींद से लड़ते

धुल थी लगातार उड़ती हुई

जो हमारी मुस्कान को ढँक नहीं पाई थी

मगर हमारे बाल ज़रूर 

पटसन जैसे दिखाते थे

ठंड थी पहाड़ों की 

हमारी हड्डियों में उतरती हुई

दिया-बाती का समय था 

जैसे पहाड़ों पर कहीं-कहीं

टंके हों ज्योति-पुष्प


एक कच्ची सड़क थी 

लगातार हमारेसाथ

दिलासा देती हुई 

कि तुम ठीक-ठीक पहुँच जाओगे घर |

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जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं 

बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते 

ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है

चाँद उसी का है जो उस तक पहुँचता है

और समुद्र उन मल्लाहों का जो उसका 

सीना फाड़कर उसके गर्भ से

मछली और मूंगा निकालते हैं


वे लोग महान हैं जो जीते नहीं, लड़ते हैं 

जो पहली सांस से आखिरी सांस का कुरुक्षेत्र 

लहुलुहान होकर भी जूझते हुए पार करते हैं


वे रास्ते महान हैं जो पत्थरों से  भरे हैं

मगर जो हमें सूरजमुखीके खेतों तक ले जाते हैं


वह सांस महान है 

जिसमें जनपद की महक है

और वह ह्रदय खरबों गुना महान 

जिसमें जनता के दुःख हैं 

धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँख 

और लोकगीत की तरह गाने वाली आवाज़ से ही

सुबह होती है

और परिंदे पहली उड़ान भरते हैं!

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एकांत श्रीवास्तव

जन्म: 8 फरवरी 1964

शिक्षा: एम.ए. (हिंदी), एम.एड., पीएच.डी.

रचनाएँ: कविता-संग्रह - 'अन्न हैं मेरे शब्द', 'मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद', 'बीज से फूल तक', 'धरती अधखिला फूल है'; लम्बी कविता- 'बढ़ई, कुम्हार और कवि'; आलोचना- 'कविता का आत्मपक्ष'; अंग्रेजी से अनूदित कविताएँ- 'शेल्टर फ्रॉम दी रेन'; स्मृति कथा- 'मेरे दिन मेरे वर्ष'; उपन्यास- 'पानी भीतर फूल'|

सम्पादन: 'वागार्थ' पत्रिका का सम्पादन (नवम्बर 2006 से दिसम्बर 2008 तक, पुनः जनवरी 2011 से कुछ वर्षों तक)|

सम्मान एवं पुरस्कार: शरद बिल्लौरे सम्मान, रामविलास शर्मा सम्मान, ठाकुर प्रसाद सम्मान, दुष्यंत कुमार सम्मान, केदार सम्मान, नरेंद्र देव वर्मा सम्मान, सूत्र सम्मान, हेमंत स्मृति सम्मान, जगत ज्योति स्मृति सम्मान, वर्तमान साहित्य- मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार | 




गुरुवार, 14 मार्च 2024

निर्मला पुतुल

 मेरे एकांत का प्रवेश द्वार 

यह कविता नहीं

मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है


यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं

टिकाती हूँ यहीं अपना सिर


ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर

जब लौटती हूँ यहाँ

आहिस्ता से खुलता है 

इसके भीतर एक द्वार

जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं

तलाशती हूँ अपना निजी एकांत


यहीं मैं वह होती हूँ 

 जिसे होने के लिए मुझे

कोई प्रयास नहीं करना पड़ता 


पूरी दुनिया से छिटककर

अपनी नाभि से जुडती हूँ यहीं!


मेरे एकांत में देवता नहीं होते

न ही उनके लिए 

कोई प्रार्थना होती है मेरे पास


दूर तक पसरी रेत 

जीवन की बाधाएँ

कुछ स्वप्न और 

प्राचीन कथाएँ होती हैं


होती है-

एक धुँधली-सी धुन

हर देश-काल में जिसे 

अपनी-अपनी तरह से पकड़ती

स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे 


मैं कविता नहीं

शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ

अपनी काया से बाहर खड़ी होकर 

अपना होना!

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बाहामुनी

तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों

पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट  


कैसी विडम्बना है कि

ज़मीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ

और पंखा बनाते टपकता है 

तुम्हारे करियाये देह से टप....टप...पसीना....!


क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन 

तब कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी

तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर? 


जिन घरों के लिए बनाती हो झाडू

उन्हीं से आते हैं कचरे तुम्हारी बस्तियों में?


इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते 

कितनी सीधी हो बाहामुनी 

कितनी भोली हो तुम

कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नज़र

वहीँ तक समझती हो अपनी दुनिया 

जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी

कई-कई दुनियाएँ शामिल है इस दुनिया में


नहीं जानती 

कि किन हाथों से गुजरती 

तुम्हारी चीजें पहुँच जाती हैं दिल्ली

जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी!

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आदिवासी लड़कियों के बारे में

ऊपर से काली

भीतर से अपने चमकते दाँतों 

की तरह शान्त धवल होती हैं वे


वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी 

निश्छल हँसी

तब झर-झराकर झरते हैं......

पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते

 

जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ 

जब नाचती हैं कतारबद्ध

माँदल की थाप पर 

आ जाता तब असमय वसन्त


वे जब खेतों में 

फसलों को रोपती-काटती हुई

गाती हैं गीत

भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द

ऐसा कहा गया है-


किसने कहे हैं उनके परिचय में 

इतने बड़े-बड़े झूठ?

किसने ?


निश्चय ही वह हमारी जमात का

खाया-पीया आदमी होगा....

सच्चाई को धुन्ध में लपेटता 

एक निर्लज्ज सौदागर 


जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ 

 कोई कवि होगा 

मस्तिष्क से अपाहिज!

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अखबार बेचती लड़की

अखबार बेचती लड़की

अखबार बेच रही है या खबर बेच रही है

यह मैं नहीं जानती

लेकिन मुझे पता है कि वह

रोटी के लिए अपनी आवाज बेच रही है


अखबार में फोटो छपा है

उस जैसी बदहाल कई लड़कियों का

जिससे कुछ-कुछ उसका चेहरा मिलता है

कभी-कभी वह तस्वीर देखती है

कभी अपने आप को देखती है

तो कभी अपने ग्राहकों को


वह नहीं जानती है कि आज के अखबार की

ताजा खबर क्या है

वह जानती है तो सिर्फ यह कि

कल एक पुलिस वाले ने

भद्दा मजाक करते हुए धमकाया था

वह इस बात से अंजान है कि वह अखबार नहीं

अपने आप को बेच रही है

क्योंकि अखबार में उस जैसी

कई लड़कियों की तस्वीर छपी है

जिससे उसका चेहरा मिलता है!

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अभी खूँटी में टाँगकर रख दो माँदल

ऐ मीता!

मत बजाओ 

जब-तब  बाँसुरी


कह दो अपने संगी-साथी से

बजाएं नहीं असमय ढ़ोल-माँदल


रसोई में भात पकाते

थिरकने लगते हैं मेरे पाँव

मन उड़ियाने लगता है 

रूई के फाहे-सा दसों दिस


अभी बहुत सारा काम पड़ा है

घर गृहस्थी का

गाय गोहाल के गोबर में फँसी है

लानी है जंगल से लकड़ियाँ भी

घड़ा लेकर जाना है पानी लाने झरने पर 

और पंहुचाना है खेत पर बापू को कलेवा 


देखो सबकुछ गड़बड़ हो जाएगा

सुननी पड़ेगी माँ से डाँट

इसलिए मेरा कहा मानो

अभी रख दो छप्पर  में खोंसकर बाँसुरी 

टाँग दो खूँटी पर माँदल  

और लाओ अपनी कला 

अँचरा में बाँधकर रख लूँ मैं 


लौटा दूँगी वापस बँधना में

तब जी भरके बजाना

मैं भी मन-भर नाचूँगी संग तुम्हारे


तब तक के लिए लाओ 

तुम्हारी कला

अँचरा में बाँधकर रख लूं मैं!

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निर्मला पुतुल 

जन्म: 6 मार्च 1972, दुमका, झारखण्ड

शिक्षा: नर्सिंग में डिप्लोमा, स्नातक(राजनीति शास्त्र)

रचनाएँ: 
हिंदी कविता संग्रह-
नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में, बेघर सपने, फूटेगा नया विद्रोह(शीघ्र प्रकाश्य) ; 
संथाली कविता संग्रह- ओनोंड़हें
सम्पादन: स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर के कई हिंदी-संथाली पत्र-पत्रिकाओं का संपादन तथा सह-संपादन|
सम्मान एवं पुरस्कार:
         साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा साहित्य सम्मान, झारखंड सरकार द्वारा राजकीय सम्मान, झारखंड सरकार के कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत, हिंदी साहित्य परिषद, मैथन द्वारा सम्मानित, मुकुटबिहारी सरोज स्मृति सम्मान-ग्वालियर, भारत आदिवासी सम्मान, मिजोरम सरकार, विनोबा भावे सम्मान-नागरी लिपि परिषद् दिल्ली, हेराल्ड सैमसन टोपनी स्मृति सम्मान झारखड, बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्मान-बिहार, शिला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान, नई दिल्ली, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा समानित, हिमाचल प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, राष्ट्रीय युवा पुरस्कार-भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता आदि|


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