बुधवार, 9 अगस्त 2023

चिराग़ जैन

यूँ कविता बुन लेता हूँ

शोर-शराबे में भी दिल की धड़कन सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ

इस दुनिया के छोटे-छोटे हिस्से घूम रहे हैं
लोग नहीं हैं, दो पैरों पर क़िस्से घूम रहे हैं
होंठों पर मुस्कान दिखी, मस्तक ग़मगीन दिखे हैं
हर चेहरे को पढ़कर देखो, कितने सीन लिखे हैं
इस सारी सामग्री में से मोती चुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ।

देह भले ठहरी है लेकिन मन में चहल-पहल है
मौन धरा है अधरों पर और भीतर कोलाहल है
जिन आँखों में झाँका, उनमें ही संवाद भरा है
जो जितना चुप, उसमें उतना अनहद नाद भरा है
इस सरगम से मैं अपने गीतों की धुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ।

मीठी यादों के तकिये पर सिर रखकर सोती है
मन पिघले तो दो आँखों की कोरों को धोती है
ठिठकी हुई खड़ी मिलती है किसी नदी के तीरे
कभी स्वयं ही चलकर आती, मुझ तक धीरे-धीरे
दो शब्दों के बीच जड़ी चुप्पी को सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ।

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तब तक मरना ठीक नहीं था

ऐसा लगता था सब राहें
अब इसके आगे धूमिल हैं
जो भी है, जितनी भी है; बस
यह ही जीवन की मंज़िल है
लेकिन घबराकर हिम्मत की हत्या करना ठीक नहीं था
जब तक मौत नहीं आ जाती, तब तक मरना ठीक नहीं था।

जाने कौन घड़ी, अगले पल जीवन को लाचार बना दे
जाने कौन घड़ी, पल भर में हर भय का उपचार बना दे
हर धड़कन रुक-कर चलती थी, हर आहट मन को छलती थी
दिल पिघला-पिघला जाता था, आँखें रह रहकर गलती थीं
पर जितने हालात डराएँ, उतना डरना ठीक नहीं था
जब तक मौत नहीं आ जाती, तब तक मरना ठीक नहीं था।

केवल दो राहें बाक़ी थीं, जूझें; या हथियार गिरा दें
या उम्मीदों को पोषण दें, या डरकर हर दीप बुझा दे
देहरी चढ़कर हार खड़ी थी, अपशकुनों की बरसातें थीं
मेरी और मेरे अपनों की हर धड़कन पर आघातें थीं
ऐसे समय किसी चेहरे का रंग उतरना ठीक नहीं था
जब तक मौत नहीं आ जाती, तब तक मरना ठीक नहीं था।

यदि सब कुछ निर्धारित है, तो धड़कन बढ़ने से क्या होता
यदि सब बदला जा सकता है तो फिर डरने से क्या होता
अपना प्रसव स्वयं करना था, कोई और विकल्प नहीं था
हर इक नस में चीर-फाड़ थी, भय पल भर भी अल्प नहीं था
पीड़ा से अपने ही मन को विचलित करना ठीक नहीं था
जब तक मौत नहीं आ जाती, तब तक मरना ठीक नहीं था।

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मैं अँधेरों के नगर में दीप धरने जा रहा हूँ

मैं अँधेरों के नगर में दीप धरने जा रहा हूँ
तुम उजालों की प्रतीक्षा में समय व्यतीत करना
मैं पसीने से नदी का पाट भरने जा रहा हूँ
तुम किसी बरसात की मनुहार का संगीत गढ़ना

कर्मरत अर्जुन हुआ तो कृष्ण उसके सारथी थे
देवता जीवन बदल सकते नहीं केवल भजन से
आ गई चलकर अकेली जो गहन अंधियार में भी
जूझना ही सीख लेते, भोर की पहली किरण से
भाग्य की हर हार को मैं जीत करने जा रहा हूँ
तुम स्वयं को हस्तरेखा बाँच कर भयभीत करना

पाँव चलने के लिए तैयार हैं बस ये बहुत है
क्यों करूँ परवाह इसकी, कौन मेरे साथ आया
मन, भुजाएँ, श्वास, धड़कन, दृष्टि मेरे पास हो बस
और सब कुछ बोझ भर है, जो अभी तक है जुटाया
मैं स्वयं के हाथ से अब ख़ुद सँवरने जा रहा हूँ
तुम समूची सृष्टि से बस आचरण विपरीत करना

सृष्टि का हर तंत्र मेरे ही लिए निर्मित हुआ है
नियति के हर शाप और वरदान का कारण स्वयं हूँ
यक्षप्रश्नों के सभी उत्तर मुझी को खोजने हैं
मैं स्वयं के हर पतन-उत्थान का कारण स्वयं हूँ
मैं जगत का सौख्य अपने नाम करने जा रहा हूँ
तुम सदा उपलब्ध दुख-सुख को समर्पित प्रीत करना

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उसका नाम विभीषण निकला

जिसको सुख का उत्सव समझा, वो दुख का आयोजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

जीवन भर विश्रांत रहा जो, हमने उसको शांतनु माना
जिसने हर अनुशासन तोड़ा, उसका नाम सुशासन जाना
जिसका जीवन लाचारी था, उसका परिचय भीष्म बताया
अपशकुनों का मूल रहा जो, वह जग में शकुनी कहलाया
कृष्ण कहा जिसको दुनिया ने, वह जग का आभूषण निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

नाम श्रवण था जिसका, उसने आहट नहीं सुनी दशरथ की
एक मंथरा क्षण भर में ही इति बन गई हर सुख के अथ की
मानी को समझाने अंगद बनकर बुद्धि स्वयं आई थी
कुंभकर्ण तक जाग गया पर रावण पर तंद्रा छाई थी
मुख दिखलाने योग्य नहीं जो, वह कुल्हंत दशानन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

जिस वेला में राजतिलक होता उसमें वनवास हुआ है
उत्सव की चौसर पर कुल की लज्जा का उपहास हुआ है
कंचन मृग लाने निकले थे, घर की मृगनयनी खो बैठे
खाडंव वन को स्वर्ग किया था, ख़ुद ही वनवासी हो बैठे
जिस अवसर पर मेल लिखा था, उसका अंत विभाजन निकला
जिसके भाव सुकोमलतम थे, उसका नाम विभीषण निकला

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चिराग़ जैन

27 मई 1985 को दिल्ली में जन्मे चिराग़ जैन पत्रकारिता में स्नातकोत्तर करने के बाद ‘हिंदी ब्लॉगिंग’ पर शोध कर रहे हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह ‘कोई यूँ ही नहीं चुभता’ जनवरी 2008 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त चिराग़ के संपादन में ‘जागो फिर एक बार’; ‘भावांजलि श्रवण राही को’ और ‘पहली दस्तक’ जैसी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में चिराग़ की रचनाएँ चार रचनाकारों के एक संयुक्त संकलन ‘ओस’ में प्रकाशित हुई हैं।



4 टिप्‍पणियां:

  1. आज के कवि शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत चिराग जैन जी के समृद्ध रचना-संसार से परिसहित6 कराने के लिये आभार। बहुत सुंदर, समसामयिक और सशक्त कविताएँ हैं।

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  2. अंधेरे में दीप धरने वाले कवि की सारी कविताएं बेहद अच्छी हैं। शुभकामनाएं।

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  3. दिल की धड़कने सुन कर कविता लिखने वाले कवि की मधुर कविताएँ पढ़ कर दिल तरंगित होगया
    जूझें या हथियार डाल दें कविता में व्यक्त जीजिविषा ही जीवन का असली मंत्रा है।

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  4. लाज़वाब, एक से बढ़कर एक।
    सभी पसंदीदा रचनाएं। हार्दिक शुभकामनाएं।

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