एक प्रेम कविता
आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखुँआज तक जो भी लिखा
तुम से ही जुड़ा था
उसमें विरह था
दूरियाँ थीं, शिकायतें थीं
इंतज़ार था, यादें थीं
लेकिन प्रेम जैसा कुछ भी नहीं
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी
हम थे
नींद में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर
सिरहाना बना आश्वस्त हो सोई हूँ
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी
और पहुँचते ही महायुद्ध!
तुम्हारे कहे बगैर
तुम्हारी चिंताएँ टोह लेना
और तुम्हारा उन्हें यथासंभव छिपाना
हर जन्मदिन पर रजनीगंधा और एक कार्ड
जानते हो उसके बगैर
मेरा जन्मदिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथ ले
चाँदनी रातों में नहीं घूमे
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे
यही तै किया था न
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्हीं आदतों में
न जाने कब
प्यार शुमार हो गया
चुपके से
दबे पाँव
इंतज़ार था, यादें थीं
लेकिन प्रेम जैसा कुछ भी नहीं
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी
हम थे
नींद में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर
सिरहाना बना आश्वस्त हो सोई हूँ
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी
और पहुँचते ही महायुद्ध!
तुम्हारे कहे बगैर
तुम्हारी चिंताएँ टोह लेना
और तुम्हारा उन्हें यथासंभव छिपाना
हर जन्मदिन पर रजनीगंधा और एक कार्ड
जानते हो उसके बगैर
मेरा जन्मदिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथ ले
चाँदनी रातों में नहीं घूमे
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे
यही तै किया था न
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्हीं आदतों में
न जाने कब
प्यार शुमार हो गया
चुपके से
दबे पाँव
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फ़र्क पड़ना
तुम्हारा यह कहना की तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ताइस सच को और पुष्ट कर देता है कि
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
दिन की पहली चाय का पहला घूँट
तुम लो
मेरे इस इंतज़ार से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
तुमसे अकारण ही हुई बहस से
माथे पर उभरीं उन सिलवटों से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
मंदिर की सीढियाँ चढ़ते हुए, दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
इस तरह.. रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बात से तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
फिर जीवन के अहम निर्णयों में -
कैसे मान लूँ ...
कि तुम्हें फ़र्क नहीं पड़ता...!
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर सेंध को भर
उसे मज़बूत बनाता है
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी-छोटी खुशियाँ उस पर खिलकर
उस रिश्ते को संपूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना' तो वह नींव है
जो जितनी गहरी,
उतने ही मज़बूती
और ऊँचाइयाँ पाते हैं रिश्ते...!
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पोटलियों में खुर्सी हुई
आलों पर दुबकी
कुछ सीली सी
अलगनी पर टँगी
कुछ तुम्हारी दी हुई
सूखे फूलों की शक्ल में
किताबों में दबीं
कुछ इबारत बनकर
पन्नों में छपी
कुछ यादें
आज भी झूल रहीं हैं
पालनों, झबलों,
तिकोनियों, में
कुछ अधूरे खिलौनों में
कुछ कसैली यादें
खूँटा गाढ़ बैठी हैं
मन के नम कोनों में
जहाँ खुशी की धूप
अपनत्व की ऊष्मा
नही पहुँच पाती
पलों हफ्तों महीनों सालों
के विस्तार में फैली यह यादें
बंधी हैं एक मजबूत डोर से
जिसके दूसरे सिरे पर
तुम हो....!
यादें ...कुछ ऐसी भी
अनगिनत यादेंपोटलियों में खुर्सी हुई
आलों पर दुबकी
कुछ सीली सी
अलगनी पर टँगी
कुछ तुम्हारी दी हुई
सूखे फूलों की शक्ल में
किताबों में दबीं
कुछ इबारत बनकर
पन्नों में छपी
कुछ यादें
आज भी झूल रहीं हैं
पालनों, झबलों,
तिकोनियों, में
कुछ अधूरे खिलौनों में
कुछ कसैली यादें
खूँटा गाढ़ बैठी हैं
मन के नम कोनों में
जहाँ खुशी की धूप
अपनत्व की ऊष्मा
नही पहुँच पाती
पलों हफ्तों महीनों सालों
के विस्तार में फैली यह यादें
बंधी हैं एक मजबूत डोर से
जिसके दूसरे सिरे पर
तुम हो....!
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मित्र नीम
तुम्हें कड़वा क्यों कहा जाता है
तुम्हें तो सदा मीठी यादों से ही जुड़ा पाया
बचपन के वे दिन जब
गर्मियों की छुट्टियों में
कच्ची मिटटी की गोद में
तुम्हारी ममता बरसाती छाँव में,
कभी कोयल की कुहुक से कुहुक मिला उसे चिढ़ाते
कभी खटिया की अर्द्वाइन ढीली कर
बारी-बारी से झूला झुलाते
और रोज़ सज़ा पाते
कच्ची अमिया की फाँकों में नमक मिर्च लगा
इंतज़ार में गिट्टे खेलते
और रिसती खटास को चटखारे ले खाते....
भूतों की कहानियाँ
हमेशा तुमसे जुड़ी रहतीं
एक डर, एक कौतुहल, एक रोमांच
हमेशा तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराता
और हम
अँधेरे में आँखें गढ़ा
कुछ डरे... कुछ सहमे
तुम्हारे आसपास
घुंघरुओं के स्वर और आकृतियाँ खोजते
समय बीता -
अब नीम की ओट से चाँद को
अठखेलियाँ करता पाते
सिहरते, शर्माते -
चांदनी से बतियाते -
और कुछ जिज्ञासु अहसासों को
निम्बोरियाओं सा खिला पाते
तुम सदैव एक अंतरंग मित्र रहे
कभी चोट और टीसों पर मरहम बन
कभी सौंदर्य प्रसाधन का लेप बन
तेज़ ज्वर में तुम्हें ही सिरहाने पाया
तुम्हारे स्पर्श ने हर कष्ट दूर भगाया
यही सब सोच मन उदास हो जाता है
इतनी मिठास के बाद भी
तुम्हें क्यों कड़वा कहा जाता है...!
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कुछ क्षणिकाएँ
1.बचपन की आदतें
कभी नहीं भूलतीं
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा
कितनी शान से घूमते थे
जिस रंग का चश्मा
उसी रंग की दुनिया
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है
आँखों पर -
प्रेम,
द्वेष,
पक्षपात का चश्मा लगाये
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
कभी नहीं भूलतीं
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा
कितनी शान से घूमते थे
जिस रंग का चश्मा
उसी रंग की दुनिया
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है
आँखों पर -
प्रेम,
द्वेष,
पक्षपात का चश्मा लगाये
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
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2.
बड़प्पन
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ़ एक लकीर
खींचनी है
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे
अपने व्यक्तित्व की
एक छोटी लकीर ..!
3.
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ़ एक लकीर
खींचनी है
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे
अपने व्यक्तित्व की
एक छोटी लकीर ..!
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खुरचन
तपती कढ़ाई के किनारों पर
जमी खुरचन -
किसे नहीं सुहाती!
सच..!
दर्द जितना गहरा -
उतना मीठा!
तपती कढ़ाई के किनारों पर
जमी खुरचन -
किसे नहीं सुहाती!
सच..!
दर्द जितना गहरा -
उतना मीठा!
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4.
कान
सुना था कभी
शरीर के अनावश्यक अंग झड़ जाते हैं
जिस हिस्से की नहीं ज़रुरत
वह छिन्न हो जाते हैं
और जो इस्तेमाल हों
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं
मैंने हाल ही में
दीवारों के कान उगते देखे हैं ...!
सुना था कभी
शरीर के अनावश्यक अंग झड़ जाते हैं
जिस हिस्से की नहीं ज़रुरत
वह छिन्न हो जाते हैं
और जो इस्तेमाल हों
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं
मैंने हाल ही में
दीवारों के कान उगते देखे हैं ...!
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सरस दरबारी
जन्म - 09 सितंबर 1958। मुंबई विश्व विद्यालय से राजनितिक विज्ञान में स्नातक। कविताएँ- दोहे, हाइकु, महिया, गीत छंदमुक्त रचनाएँ, कहानियाँ, आलेख, लघु कथाएँ आदि विधाओं में लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें - 10 साझा काव्य संग्रह व 5 साझा लघुकथा संग्रह।
वासंती बयार- वसंत पर साझा संकलन। ब्लॉगर्स के अधूरे सपनों की कसक (साझा संस्मरण)। नारी विमर्श के अर्थ में आलेख। महिला साहित्यकारों की समस्या (अयान प्रकाशन) में आलेख। नहीं, अब और नहीं (सांप्रदायिक दंगों की कहानियों का साझा संकलन)। एकल काव्य संग्रह – मेरे हिस्से की धूप। आकाशवाणी मुंबई से 'हिंदी युववाणी' व मुंबई दूरदर्शन से 'हिंदी युवदर्शन' का संचालन। 'फिल्म्स डिविज़न ऑफ़ इंडिया' के पैनल पर 'अप्रूव्ड वॉईस'।
सम्मान - एकल काव्य संग्रह 'मेरे हिस्से की धूप' के लिए 'राधा अवधेश स्मृति पांडुलिपि सम्मान'।
डाक का पता - श्रीमती सरस दरबारी, E-104, सकन्द अपार्टमेंट, लूकरगंज, प्रयागराज 21001
ईमेल - sarasdarbari@gmail.com
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