माँ की प्रतिकृति
मेरे हाथों में उभरने लगी है मेरी माँ के हाथों की सी झुर्रियाँमेरे माथे पर पड़ने लगी है माँ के ललाट की सी
तीन समानांतर लकीरें
मेरे चेहरे की लुनाई में
माँ के चेहरे की सी परिपक्वता है
अब मुझे मुझमें मेरी माँ दिखाई देने लगी है।
मेरी बोली में उतर आए हैं
अनायास ही माँ के मुहावरे और लोकोक्तियाँ
मेरे झुके कंधे और किंचित झुक आई रीढ़ में
परछाइयाँ है माँ के दर्द की
मैं आइना देखती हूँ तो
दर्पण में झाँकती है बिलकुल माँ की सी
सजल, सच्ची, वीतरागी आँखें
जैसे कि माँ अदेह होकर
प्रकट हो रही है मुझमें
बचपन में लोग मुझे मेरी माँ की प्रतिकृति कहते थे
मेरे बच्चे आजकल मुझसे कहने लगे हैं
"माँ अब तुम बिलकुल नानी की प्रतिछाया लगती हो।"
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सर्दियों की बारिश
सर्दियों की बारिशों मेंचाहे मिट्टी की सोंधी गंध ना हो
वह मेरे उदास सीले गीले मन को
गर्म कॉफी के मग सी सोंधी खुशबू से भर जाती हैं
कुछ बारिशें सच में ऐसी होती है
कि
मन की टूटी-फूटी सड़क
और
तन के उघड़े घावों को
घिसे हुए चंदन की महक से भर जाती हैं।
मन के कोने में पड़ी
कहीं दबी पड़ी खुशनुमा यादें
हरहरा कर लहरा जाती हैं
उदास स्लेटी घनी बोझिल
सर्दियों की ठिठुरी कंपकंपाती पहली बौछार में।
आत्मा तक उतर आती हैं भूली बिसरी प्रीत
मोगरे की लता सी फैल जाती हैं आसपास
केवड़े की गंध झूम-झूमकर मचलने लगती है।
चंदन सी गमक जाती हैं प्रीत।
किसी की देह का नमक घुलने लगता है ज़ुँबा पर
सर्दियों की उदास शामों में
सर्दियों की बारिशों के पानीयों में मछलियाँ नहीं यादें तैरती हैं।
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नन्हीं नटनी
तने हुए सुरों सी रस्सियों पर,सधी हुई तान सी -
धीमें धीमें लहराती,
मुरकियाँ लेती
नन्हीं-सी बालिका नटनी
करतब दिखाती है।
एक के अँगूठे और उँगली के बीच रस्सी फँसाए
दूजे को हवा में उठा
बैले नर्तकी-सी मुद्राएँ बनाती है
दोनों पैरों की कसी पकड़ से रस्सी पर पींगें झूलती है
कुशल जिमनास्ट सी उछलती-कूदती कसरत दिखाती है।
दो बाँसों के सहारे आठ फुट ऊँची बँधी है ये रस्सी।
बड़ी उम्मीद से वह देखती है आसपास
कितने तमाशबीन जुटे हैं,
कितने बजा रहे हैं तालियाँ
वो जानती है
जितनी तालियाँ
उतने ज्यादा पैसे
ज्यादा तालियों से बढ़ता है उसका जोश
उतने ही जोश से नीचे खड़ा पिता ढोल पीटता है
जिसकी ऊँची-नीची थाप पर वो
देह भंगिमायएँ बदल-बदलकर करतब दिखाती है।
कभी बांस पर चढ़ बंदरों सा उछलते हुए
उसका छोटा-सा भाई भी आ जाता है
उसका साथ देने
बहन सँभल कर झुकती है रस्सी पर
वह चढ़ जाता
छोटे-छोटे पाँव टिकाए
बहन के कंधे पर।
बहन के कंधें भी छोटे ही हैं।
करतब दिखाकर हवा में गुलाटी मारता भाई कूद जाता है
नीचे खड़ी माँ लपक लेती है उसे।
गोदनों से गुदे उसके गेहूँऐ चेहरे पर
जाने कोई दबा छिपा दुख है या डर
वो भींच लेती है बालक को अंक में।
मैदान में रस्सी के नीचे रखी टोपी आज खूब सिक्कों से भरी है।
नन्हीं नटनी रस्सी पर तनी खड़ी
भीड़ को सलाम ठोकती है।
उस के ताम्बई चेहरे पर पसीना
ढलती धूप में मोतियों सा चमकता है।
उसके अंग-अंग में पिराते दर्द को आज तसल्ली है -
रात आँते भूख से नहीं ऐंठेंगी।
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परिणति
एक गुम हो गई नदीएक गुम हो गया पहाड़।
वो पहाड़ -
जो बदल गया कंक्रीट के जंगल में
वो नदी जो गुज़री
इस जंगल से होकर
अपने गुम हो जाने से पहले
सदा - सदा के लिए
दोनों ही
कह नहीं पाए
कि
बदक़िस्मती से ये पहला नहीं
आख़िरी उजड़ना था
इस आख़िरी उजड़न के बाद
गुम हुई नदी और पहाड़
गुम हो जाते हैं सदा सदा के लिए
अतल में सिसकती रहती हैं मछलियाँ, कमल और
नील सिरि बतखें
देवदार, चीड़ और सरूँ के दरख़्त
और दबी-घुटी सिसकती रहती है सभ्यता
गुपचुप।
किसी को नहीं पड़ी
कि
गुम गई नदी और गुम गए पहाड़ को
ढूँढता फिरे -
वापिस लौटा लाने के लिए जीवन में
नदियाँ गुम हो जाती हैं
पहाड़ गुम हो जाते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे मरे हुए लोग गुम हो जाते हैं
सदा सदा के लिए -
मरे पहाड़ों की भुरभुरी देह पर उगे
कंकरीट के जंगलों में
नदी की गंधाती सड़ती मृत देह
लावारिस पड़ी रहती है
सदा - सदा के लिए।
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गज़ब की औरतें
गज़ब की औरतें हैं येयह प्रेम तो करती हैं
पर
ना निभे तो
ये पल्ला झाड़ती हैं और बिंदास निकल पड़ती है
नए रास्ते चुनने।
ये भटकती हैं यायावरों की तरह
इन्हें चाहिए खुद की जड़ें जमाने को
खुद की ज़मीन
इन्हें चाहिए लंबी उड़ान भरने को
खुला आसमान
इनकी पीठ पर उगे हैं पंख
यह ढूँढ लाती हैं अपने हिस्से की
धूप, हवा, पानी, आकाश और खुशी
गज़ब की औरतें हैं ये
चूल्हे की आग
दाल का पानी
छौंक के मसालों की नाप-तौल में
माहिर हैं ये औरतें
सधे हाथों से साध लेती हैं ये गृहस्थी
चौखट के बाहर निकल अपने अडिग कदमों से
नाप आती हैं ये दुनियाँ सारी
गज़ब की औरतें हैं ये
लॉन्ग ड्राईव पर जाती हैं दोस्तों संग
ठहाके लगाती हैं कॉफी हाउस में बैठकर
सिनेमा का लास्ट शो भी देख आती हैं सहेलियों के संग
पार्लर जाती है, शॉपिंग करती है
मनचाहे कपड़े पहनती हैं
बेहिचक सबसे खुल के मिलती हैं
गज़ब की औरतें हैं यह
नाजायज दबती नहीं है ये किसी से
लड़ने को लड़ भी आती हैं
गालियाँ भी बरसाती है इनकी जुबाँ
पर यारों दोस्तों के बीच
जुबाँ पर ताले मारने की आदत बिसरा चुकी हैं ये
एक दूसरे के कच्चे चिट्ठे खोलने में हैं सबसे आगे
मजे की बात यह कि
झगड़ों में हुए गिले-शिकवे ढोती नहीं है अपनी पीठ पर
गजब की औरतें हैं ये
रीति-रिवाज, ढकोसले, पाखंड सारे
ये गली के मुहाने पर छोड़ आती हैं
दिन त्यौहार मनाती हैं ये पूरे ताम-झाम से
करती हैं गेट टुगेदर, मौका बेमौका
सहेलियों और दोस्तों में हॉट संसैंशन है ये
पति की अनुगामिनी नहीं , सहचरी है ये
बच्चों की यह माँ नहीं , मॉम हैं ये
देवियाँ नहीं है ये औरतें,
इंसान होने की राह पर हैं -
ये गजब की औरतें
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बुलबुले
लोहे के पतले से छल्ले कोडूबो के साबुन के घोल में
तुम ले आती हो होठों के पास
तनी ग्रीवा
ओस में भीगा धवल - दीप्त चेहरा
ऊर्ध्वान्मुख....
भींच जाती है आँखें स्वतः ही
फूँकती हो तुम प्राणवायु...
छल्लों में।
जनमते है बुलबुले
एक साथ ढेरों --
लहराते - तैरते हवा में,
नन्हें-नन्हें गुब्बारे
चमकीले पारदर्शी।
तुम सतत खेलती,
दौहराती जाती हो ये क्रिया
अनायास
फिर ---
औचक ही दौड़ पड़ती हो
मेरी ओर
सृजन सुख के अतिरेक में लिपटी
तालियाँ बजाती, कूदती नाचती
“माँ, देखो कितने बुलबुले“
फहराती पताका सी
लहरा जाती है तुम्हारी ख़ुशी
रगों में मेरी
उतर आती है
तितलियाँ
मैं देखती हूँ,
बुलबुले
भीतर भरी तुम्हारी प्राणवायु
संसर्ग में आते ही जो सूर्य रश्मियों के
हो उठी है
सतरंगी- इंद्रधनुषी
कस्तूरी-सी महकती गमकती
ममतामयी
एहसासों में घिरी-लिपटी
तुम झूल जाती हो मेरी बाँहों में।
झर - झर झरती
तुम्हारी
खिलखिलाहटें।
ठिठककर ठहर जाता सब कुछ।
इसी पल में
अजर-सा
अमर-सा
मेरी ममता सा।
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लतिका बत्रा
लेखक एंव कवियित्री। एम०ए०, एम०फिल० बौद्ध विद्या अध्धयन।तीन उपन्यास, तीन कवयित्रियों का साझा काव्य संग्रह (दर्द के इन्द्र धनु), आत्मकथात्मक उपन्यास (पुकारा है जिन्दगी को कई बार... डियर कैंसर), साझा लघुकथा संग्रह(लघुकथा का वृहद संसार)
कथादेश, साहित्य कुंज, अनहद कृति, गर्भनाल, अमर उजाला काव्या, नई गूंज, हम रंग, सरिता, गृहशोभा इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता और लेख प्रकाशित।
पुकारा है ज़िन्दगी को ई बार dear cancer के लिए मध्यप्रदेश, भोपाल से हिंदी लेखिका संघ का श्यामलाल सोनी स्मृति पुरस्कार 2020/21, कविकुंभ बींइग वीमेन फलक 2017, स्वयं सिद्धा सृजन सम्मान
व्यंजन विशेषज्ञ, फूड स्टाईलिस्ट
ई मेल - latikabatra19@gmail.com
मोबाईल नं० - 8447574947
वाह! परिणति और गजब की औरतें कविता बेहद अच्छी हैं।
जवाब देंहटाएंअरूण चन्द्र रॉय जी हार्दिक धन्यवाद
हटाएंलतिका जी, वाह! हर कविता लाजवाब। आपने विभिन्न मुद्दों पर कविताएँ प्रस्तुत कीं और प्रत्येक लाजवाब। हर कविता में आपका संवेदनशील हृदय साफ़ झलकता है
जवाब देंहटाएंप्रिय प्रगति यह तो शाश्वत सत्य है कि संवेदनशील हृदय ही कविता को समझ सकता है। अपने कविता के मर्म को समझा, सराहा उसके लिए हार्दिक धन्यवाद।
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