निश्चय के नीरज
धरा पहनना छोड़ रही है
पानी वाला 'गाउन'।
समाचार-पत्रों के 'कालम'
क्या-क्या कहते हैं,
और आप हैं, पता नहीं किस
ग्रह पर रहते हैं,
पहुँचाते संदेश घरों तक
विज्ञापन के 'नाउन'।
अब तालाब, भूमिगत जल पर
आया है संकट,
वर्षा के जल संरक्षण की
दिव्यदृष्टि वंकट,
बादल ने भी ग्रहण किया है
अनावृष्टि का 'क्राउन'।
विश्ववाद के शहरों में है
अनिष्ट की आहट
कुटिल चाल चलते आए हैं
चतुराई के नट,
पानी बिना मरुस्थल से हैं
कई-कई 'टाउन'।
है समाप्त इन क्षमताओं का
वैज्ञानिक धीरज,
कभी नहीं खिलते होंठों पर
निश्चय के नीरज,
लेकिन 'डॉक्युमेंट' का पारा
हुआ नहीं 'डाउन'।
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अनपढ़ अबश कबीर
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते लोग।
शोभनतम यह रात चाँदनी,
कल थी काली रात,
एक पूर्णिमा की जगमग है,
एक अमावस ज्ञात,
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते रोग।
जहाँ अरुण की अणिमाओं से,
पुलकित होती शाम,
जहाँ कृष्ण-राधा का रसिया,
सरयू तट के राम,
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते योग।
सुख-दुख के इन कठिन कछारों
की नदियों के नीर,
भोजन पा जाते सब भटके
अनपढ़ अबश कबीर,
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते भोग।
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कैसे दिन कटिहें?
लोग न लरिका!
कहो दुवरिका!!
कैसे दिन कटिहें?
तर्ज बुढ़ापे का।
'आगे नाथ न,
पीछे पगहा'
हुई कहावत साँच,
जो थे अपने,
नहीं उठाए
वय अस्सी की खाँच,
थाल पितरिहा!
बुधन बकरिहा!
कैसे दिन कटिहें?
मर्ज बुढ़ापे का।
कहने को तो,
पास-पड़ोसी,
कहते देंगे साथ,
मिलते मौका,
मारे चौका,
पकड़ न पाए हाथ,
कहो अन्हरिया!
कहो अँजोरिया!
कैसे दिन कटिहें?
कर्ज़ बुढ़ापे का।
सुबह-शाम का,
समय सपेरा,
खड़ा लगाए घात,
पढ़-पढ़ पिछले,
दिन की गीता,
कट जाती है रात,
कजरा-कजरी!
बदरा-बदरी!
कैसे दिन कटिहें?
फ़र्ज़ बुढ़ापे का।
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कैसे रात कटेगी, चिंता
बीत गया दिन,
टिक-टिक कर ही,
कैसे रात कटेगी, चिंता।
महुआ खिला-खिला सपनों को,
किसी तरह से घर भेजा है,
घर में एक नहीं है दाना,
एक ब्रेड का ही रेजा है,
चूल्हा हुआ,
जलाना मुश्किल,
कैसे बात बनेगी, चिंता।
गई हुई थी, वह भिनसारे,
लेने कुछ दुकान से माहुर,
किन्तु नियति ने भेज दिया था,
नहीं प्राण देने का पाहुर,
'कोई नहीं,
कमाने वाला'
कैसे दाल गलेगी, चिंता।
सुबह-सुबह, समयी आर्द्राओं,
का बरसा है, झम-झम पानी।
सैलाबी, बढ़ाव उमड़ा है,
दुख-यमुना की, चढ़ी जवानी,
आँगन-द्वार,
हुए जलप्लावित,
कैसे खाट बिछेगी, चिंता।
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नहीं जाना चाहता था
नहीं जाना चाहता था,
छोड़कर मैं यह शहर,
किंतु जाना पड़ रहा है।
सभी परिचित मार्ग, सावन
की घटा-सी, रो रहे हैं,
पर्ण मन-कचनार के भी,
बहुत चिंतित हो रहे हैं,
विलगता के इन क्षणों में,
साथ जब कोई न हो,
मोह-काँटा गड़ रहा है।
लाल चंदन मित्र-सम सब,
दूर मुझसे हो गए हैं,
स्नेह के गुल-गुच्छ अँगना,
मानसिक दुख बो गए हैं,
एक असमंजस अहर्निश,
चेतना की वादियों में,
सांत्वना से लड़ रहा है।
बात सुन कनफूँकनों की,
कान मेरे पक गए हैं,
वर्ष का गट्ठर उठाते,
पैर दोनों थक गए हैं,
आयु की जूती फटी है,
है खड़ा अनजान अवसर,
नाल तलवों जड़ रहा है।
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है अपरिचित पथ
चल रहे हैं,
और इतना जानते हैं,
है अपरिचित पथ।
है पता यह भी नहीं,
हम दूर कितना चल चुके हैं,
छंद के साँचे नए जो,
शब्द कितने ढल चुके हैं,
लिए जाता
है कहाँ? किस अग्निपथ पर?
एक अर्जुन-रथ।
गीत कुछ आरंभ के,
इतने पुराने हो गए हैं,
समय के उपनगर की,
धुँधली किरन में खो गए हैं,
किन्तु उन सब
में दमकती आज भी है,
जड़ित मोती-नथ।
तथ्य सब संदर्भ के
पक, बहुत पीले हो गए हैं,
कोट के जितने बटन
हैं, बहुत ढीले हो गए हैं,
रक्तरंजित,
शहर उजड़े, आज चिंतित,
मनुजता लथ-पथ
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उभरे मन के द्वंद्व
अधिक दिनों तक
नहीं रह सकी
जीवित, मन की सोच।
रचना के मन के विकास की,
करनी है व्याख्या,
देखें कितना साथ दे रही,
विवरण की आख्या,
उभरे मन के
द्वंद्व बने हैं
मार्ग-चिह्न के कोच।
चुभनों के आदर्शों के वन,
छंद-गीत बोए,
गुँथे हुए आटे-सा शब्दों की
आकृति, पोए,
लय-लहरों के
नस तक पहुँची
व्याकुलता की मोच।
ध्रुवण किए उत्पन्न प्रकृति की
कोमलता के सुर,
बसते गए खुले पन्नों पर,
वर्णावलि के पुर,
भावों के
प्रावीण्य-नगर में,
हुई अर्थ की नोच
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शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
कुछ प्रकाशित कृतियाँ -
काव्य संग्रह- 'एक शून्य' (2005), 'जीवन की हलचल' (2006), 'गाँववाला घर' (2007), 'समय की फुँकार' (2008), 'माँ जीत ही जाएगी' (2009), ग़ज़ल संग्रह- 'बिखरा आसमान' (2010)।
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