मंगलवार, 22 अगस्त 2023

संतोष श्रीवास्तव

आंदोलिता हवाएँ 

ये आंदोलिता हवाएँ
टिकने न देंगी मोम पर 
जलती, थरथराती लौ

अँधेरे से निपटने की
तमाम कोशिशें 
नाकाम करने पर उतारू 
इन हवाओं का
नहीं कोई ठिकाना

गुज़रती जा रही हैं 
कुसुम दल से,डालियों से,
झील के विस्तार को झकझोरती

मोम के आगोश में 
लौ का बुझता, मरता अस्तित्व
पर यह उतना आसान भी न था

सम्हाल रखा है
एक आतुर प्रण लिए
तरल मोम ने बूँद-सी लौ को 
लड़ने की पूरी ताकत से 
एक आंदोलन हवा के खिलाफ़ 
वहाँ भी तो था

--------

अभिशप्त

रात तेरे रोने की आवाज़ से 
अनंत पीड़ा में भी 
मुस्कुरा उठी थी मैं
मेरे रक्त का हर कतरा 
शिराओं में तेज बहता  
कर रहा था ऐलान 
कि तू आ गई है 

महीनों मैं तुझे 
महसूस करती रही 
खेतों की चटखी दरारों में 
जंगल की भयभीत आवाज़ों में 
गहन अंधकार में 
तड़पती बिजलियों में 
नावों के असंख्य झुके पालों में 
पर्वत पर की अनछुई बर्फ में 
शूलों की नौकों में 
पीत पर्णों की 
पेड़ों की शरण तलाशती
डरी हुई आकांक्षाओं में 

पता नहीं ऐसा क्यों मैंने सोचा 
पता नहीं कुछ बेहतर 
क्यों न सोच पाई मैं 
पता नहीं क्यों लगता रहा 
कि पौ फटते ही असंख्य हाथ 
तेरे पालने की ओर बढ़ेंगे 

कैसे बचा पाऊँगी तुझे 
क्या मैं भयभीत सृष्टि का 
हिस्सा नहीं हो गई 
जिसमें अनंत काल से तू 
जन्म लेते ही या लेने से पहले ही 
छूट जाती रही मेरी सर्जना से 

क्यों साँसों का तेरा हिसाब 
इतना सीमित 
मेरे ज़ख्मों के दस्तावेज़ पर 
मोहर लगाता 
मात्र कुछ घंटों के लिए 
तेरा अवतरित होना 
और विदा कर देना
संवेदनहीन धारणाओं की 
अभिशप्त सोच के द्वारा
 
--------

आषाढ़ की बूँदें

खिड़की के शीशों पर
अनवरत दस्तक देती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

धारासार बारिश में 
दौड़ते शहर के पैरों में 
बेड़ियाँ पहना  
भय और रोमांच की जुगलबंदी 
कराती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

लिखना चाहती हूँ
पर न भाव जुटते, न छंद 
निरर्थक शब्दों के इक्का-दुक्का 
पड़ाव आते हैं 
मेघ के टुकड़े बन 
फिर समा जाती हैं
अथाह मेरे अकेलेपन की मर्मर में 
आषाढ़ की बूँदें

विरही यक्ष विचलित है 
पहाड़ पर लोटते बादलों को देख 
ढूँढना चाहता है दूत
जो यक्षिणी तक पहुँचा सके 
विरह की वेदना 
मिलते ही यक्ष को मेघदूत
थिरक उठती हैं
आषाढ़ की बूँदें

घन घटाओं से लैस 
आषाढ़ का पहला दिन 
शहतूत की कोंपलों पर
वनचंपा के पराग पर 
मधुमालती की लचक पर 
तिरती हैं
आषाढ़ की बूँदें 

मेरी ऊँगलियों के बीच 
फँसी है कलम 
भावों की कुलबुलाहट में 
छिटक जाती हैं 
आषाढ़ की बूँदें 

कलम माँग बैठती है 
पानी नहीं, आग...... आग चाहिए 
ठिठक गई हैं जहाँ की तहाँ 
आषाढ़ की बूँदें
 
--------

चिलमन की गवाही

जैसे ही बाहर आई 
कठोरता से लड़कर 
काँटों पर चलकर 
हौले-हौले 
पंखुड़ी की चिलमन में 
जुंबिश हुई

झाँकना चाहा 
बाहर की दुनिया को 
पेड़ के अधीन रहने की 
परंपरा को तोड़कर 
उन्मुक्त, विस्तार देना चाहा

जबकि बसंत 
अपने पूरे दाँव पेंच से 
सवार था उस पर 
हवा भी तो छू-छूकर 
बार-बार उसे चिढ़ाती रही 
उसके सिकुड़े, अधूरे तन को 
डुलाती रही पेड़ की रची सीमाओं में

चिलमन की चुन्नटे 
कैद दायरे में 
कसमसाती रही

दूर आसमान में 
तड़प के ताप से बने 
बादलों की बूंदों ने 
रिमझिम फुहारों की दस्तक दे चिलमन को 
धरती की ओर झुका दिया

अब साँसे दुश्वार थी 
वह हाँफती अंतिम साँसों में 
हवा के कंधों पर सवार 
...............चिलमन 
एक अधखिली कली की 
गवाही बन 
धरती पर बिखर गई

-----------------------------------------

संतोष श्रीवास्तव

कहानी, उपन्यास, कविता, स्त्री विमर्श, संस्मरण, लघुकथा, साक्षात्कार, आत्मकथा सहित अब तक 23 किताबें प्रकाशित।
देश-विदेश के मिलाकर कुल 23 पुरस्कार मिल चुके हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि। "मुझे जन्म दो माँ" स्त्री के विभिन्न पहलुओं पर आधारित पुस्तक रिफरेंस बुक के रुप में विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मिलित।
मुंबई में निवास। यूनिवर्सिटी में कोऑर्डिनेटर के पद से अवकाश के बाद अब भोपाल में स्थाई निवास। 
सम्प्रति - स्वतंत्र पत्रकारिता।
मो० - 09769023188
ईमेल - Kalamkar.santosh@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट