बुधवार, 20 नवंबर 2024

आलोक कुमार मिश्रा

1. कुछ भी अकेले नहीं होता घटित 


कुछ भी अकेले नहीं होता घटित
एक के साथ दूसरा, तीसरा, चौथा या और भी होता ही है
हम देख भले न पाएँ सबको 
अब देखो जब पैदा होता है एक शिशु
तो साथ में ही तो पैदा होती है एक माँ भी
ममता और उम्मीदों से भरी 
बिलकुल एक नई स्त्री जैसी
और जन्मता है एक पिता भी
जिम्मेदारियों से लैस एक बेहतर आदमी जैसा।

बारिश के साथ-साथ ही तो 
चली आती है हरियाली, उपज, ज़िंदगी और खुशी
प्रेम के उपजते ही तो पैदा होते हैं
सौंदर्य 
सहचर्य
और बिछोह

तो अगली बार
जब भी देखना किसी एक को
करना कोशिश
देखने की दूसरे, तीसरे, चौथे और अगले को भी।
_____________________________________

2. माँग


तुम छूती हो मुझे
तो छू लेती हो मेरे भीतर की हज़ारों दुनिया भी
तुम चूमती हो मुझे 
तो चूम लेती हो मेरी असंख्य कामनाओं को भी
तुम पकड़ती हो जब भी हाथ मेरा
सख़्त दुनिया बदल जाती है मुलायम फाहों में 

सच बताओ
क्या-क्या होता है क्या बदलता है
मेरे होने से तुम्हारी दुनिया में 

यदि कुछ नहीं तो
मुझ अभागे को तुम्हारी उपेक्षा का शाप चाहिए।
_____________________________________

3. इन दिनों 


जब सब दुखी हैं
जब सभी हैं अपमानित 
जब कुछ भूख से पीड़ित हैं और कुछ लोभ से
कुछ में शक्ति की क्रूरता है और बहुतों पर हैं उसके निशान
तब केवल करुणा ही बचती है 
जो जोड़ती है और बनाती है सबको इंसान

पर मैं देख रहा हूँ
रीत रही है करुणा इन दिनों
होती जा रही है कम पसीजते घड़े के पानी सरीखी
गरीबी और भूख दया या सहानुभूति के नहीं
उपहास के विषय बन गए हैं अब
सरकारों पर अब कोई दबाव नहीं है परिस्थितियों को बदलने का
बल्कि बन गई हैं ये ही उसकी ताकत का जरिया 
मैं देख रहा हूँ कि 
करुणा समेट रही है अपने पंख
धूसर हो रहा है आकाश।
_____________________________________

4. आश्वस्ति का छाता


तड़के ही गुज़र गया
पड़ोस में रहने वाली अधेड़ औरत का पति
उन दो के अलावा नहीं है कोई तीसरा परिवार में 
वर्षों से बीमार पति के साथ अकेली ही थी वह 
और उसके अंत समय में भी अकेली ही रही

उसके अंतिम क्षणों में हुई होगी वो औरत अधीर 
अपने पति से भी ज़्यादा 
तभी भागकर बजाई थी उसने डोर बेल कई पड़ोसियों की
पर कौन जागता यूँ सुबह तीन-चार बजे
जो जगे भी होंगे सो गए होंगे करवट बदल के

सुबह बेटे को स्कूल वैन में बैठाने को बाहर निकला तो देखा
कि सोसायटी का गार्ड खड़ा है उसके दरवाजे पर 
और वो उसी के सहारे अकेली ही बैठी है मृत शरीर के पास
वही मृत शरीर जिससे अब फूट रहीं थीं हजारों स्मृतियाँ
जिसको देखते हुए शून्य में भी फूटती थीं सिसकियाँ

मैंने देखा एक पड़ोसी गर्दन उचकाए उधर ही देखता हुआ चढ़ गया अपनी सीढियाँ
एक दूसरा पड़ोसी पूछते हुए निकल गया आगे
जैसे सब कुछ नॉर्मल सा हो
तीसरे या चौथे को भी कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ा

जुटे बहुत थोड़े-से रिश्तेदार
जिनमें से लगभग सभी सबसे नजदीकी श्मशान की दूरी जानना चाहते थे
और एक किलोमीटर दूर श्मशान तक कांधा न दे पाने की अक्षमता को छुपाते हुए 
तलाश रहे थे कोई वैन या एंबुलेंस लगातार

वह अधेड़ औरत बीच-बीच में अपने रोने की आवाज़ से 
बताती थी कि 
उन सबकी चिंताओं से बड़ा था उसका दुख
वह देखती थी उम्मीद और अपनेपन से हर ओर 
और फिर टिका लेती थी नज़र 
मृत देह पर

कुछ ही थे जो लगे थे
अंतिम क्रियाकर्म की व्यवस्थाओं में 
रोती औरत को समझाने में और
उसके कांधों पर रखके हाथ संसार की निस्सारता बताने में 
उन चंद लोगों के होने से ही दुख और विषाद की बारिश में 
खुल-खुल जाता था आश्वस्ति का एक छोटा छाता।
_____________________________________

5. कुछ पता ही नहीं चला 


वो प्रेमी था या कोई दोस्त था मेरी पत्नी का
ढंग से कुछ पता ही नहीं चला।
उसकी आँखों में झलका था पल भर को
वर्षों बाद अनायास मिल जाने की अप्रतिम खुशी का जल,
निमिष भर को तैरी थीं उनमें उछाह की मछलियाँ, 
उसके चेहरे पर उतरी थी एक गुलाबी आभा,
पूछते हुए उससे कि -
'कैसी हो सविता?'

पता नहीं उसे ये एहसास था भी या नहीं कि 
उसके मायके के इस पारिवारिक आयोजन में शामिल हूँ मैं भी, 
मैं यानी उसका पति, हमसफर, जीवनसाथी।
खाने की सामूहिक टेबल पर पत्नी के सामने की कुर्सी पर जीम रहा था मैं।
मैंने महसूस किया था कि खाना प्लेट में परोसते हुए और किसी के साथ बतियाते हुए भी
रह-रह कर देखता जाता था वो मेरी पत्नी की ओर
और मेरी पत्नी थी कि रमी हुई थी मेरे और बेटे के संग खाने में।

खैर, खाने की टेबल पर 
खाली रह गई दो कुर्सियों पर आकर बैठ गए वह और उसका साथी।
बड़े उत्साह, उछाह, स्नेह लेकिन गरिमा के साथ पूछा उसने- 
'कैसी हो सविता?' 
पत्नी ने कहा- 'ठीक हूँ।' 
कहते हुए चेहरे पर पहचान न पाने का भाव लिए
पहले देखा उसे और फिर मुझे।
उससे ज़्यादा मुझे ही कंधे उचकाकर जताया कि 'पहचानती नहीं इन्हें।' 

उस व्यक्ति ने हार नहीं मानी, बोला- 
'पहचाना नहीं, मैं... मैं...प्रेम!' 
पत्नी फिर भी जड़वत, आवाक् रही।
उसने बड़ी उम्मीद से आगे कुछ अधूरे वाक्य और जोड़े- 
'कक्षा आठ...साथ में परीक्षा देने जाते थे...बभनान का स्कूल...।' 
टोक दिया बीच में ही पत्नी ने- 
'नहीं, नहीं पहचाना।'
और फिर जुट गई बेटे के साथ खाने में।

वह बिलकुल उदास हो गया।
कुछ पल पहले ही उसके अंग-अंग में जो खिल उठे थे सहस्र फूल
सब मुरझाने लगे।
परेशानी, उदासी, हताशा सब एक साथ बरस पड़ीं
उसके चेहरे पर।

वह फिर कुछ बोलने को हुआ,
पत्नी ने बीच में ही टोक दिया-
'इनसे मिलो ये मेरे पति हैं, आपके जीजा जी।'
वह ठहर गया
मेरी ओर देखा पर कुछ न बोला। 
सिर्फ़ अभिवादन जताने को जरा-सा सिर और होंठ हिलाया।
फिर से मुखातिब हो मेरी पत्नी की ओर वह कुछ बोलने को हुआ। 
इस बार उसके साथी ने झिड़का उसे-
'यार चुपचाप खाना खाओ...तुम भी।'
वो सिर झुकाकर रोटी टूँगने लगा।
एक-दो मिनट बाद ही प्लेट लिए उठ गया वहाँ से।

मैं देर तलक सोचता रहा
उसके उत्साह, उमंग, उछाह से भरे हावभावों और स्नेह से भरी आँखों के बारे में,
उस पर अचानक उतर आई उदासी के बारे में, 
पत्नी के व्यवहार के बारे में।
उसका मेरे परिचय में अतिरिक्त रूप से जीजा जी लगाना जँचा नहीं मुझे।
अनुमान लगाता रहा उनके अतीत के बारे में कि 
क्या ये एकतरफा एहसास की कोई अधूरी कहानी थी या
सच में कोई स्नेहिल संबंध और समय रहा होगा ऐसा?
एक खुशनुमा एहसास ने घेर लिया मुझे,
कितने ही ऐसे बीत और रीत चुके अपने प्रेमिल पल याद जो हो आए।

और इस बारे में भी सोचा मैंने कि कहीं
मैं ही तो नहीं बना इस समय इन स्नेहिल स्मृतियों की बाधा
एक हमसफर के बजाय पति ही तो साबित नहीं हुआ ज़्यादा!
ख़ैर, मैं नहीं जान पाया कि कौन था वह
कोई दोस्त था, प्रेमी था, भुलाया जा चुका परिचित था
या जानबूझकर टाला गया कोई अवांछित।

एक पति जाने न जाने 
पर एक हमसफर को तो जानना ही चाहिए 
अपने जीवनसाथी की प्रेमिल स्मृतियाँ। 
धिक्कार है अगर एक पति हरा दे
एक प्रेमी को
एक जीवनसाथी को।
_____________________________________ 

आलोक कुमार मिश्रा

    

आलोक कुमार मिश्रा का जन्म उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम०ए० (राजनीति विज्ञान), एम०एड० और एम०फिल०(शिक्षाशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की है।
आलोक मिश्रा एससीईआरटी, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) के पद पर कार्यरत हैं। वे कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन करते हैं। उनकी रचनाएँ समय-समय पर जनसत्ता, दैनिक जागरण, वागर्थ, हंस जैसे पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित होती रहती हैं। 
वर्ष 2019 में बोधि प्रकाशन से उनका कविता संग्रह 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' प्रकाशित हुआ। प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित उनके बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' के लिए 2020 में उन्हें 'किस्सा कोताह कृति सम्मान' से सम्मानित किया गया।
ईमेल - alokkumardu@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट