क्रांति
वह चला था
क्रांति की मशाल लेकर
बुझते-बुझते
सिर्फ़ गर्म राख बची है
जिसमें वह आलू भुन रहा है
मशाल और आग से ज़्यादा
अब उसे आलू की चिंता है
राख से छिटक कर उड़ते
क्रांति के आख़िरी वारिस
देख पा रहे हैं कि
भूख चेतना का सबसे वीभत्स रूप होती है |
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परिधि
सब साफ़ दिखाई देता था
शरद पूर्णिमा की अगली रात भी
ढाबे पर पकती दाल की भाप
चन्द्रमा की परिधि पर उभरी
प्रेमिका की ठुड्डी
लौट रही साइकिल
दिख जाता था
मचान पर लटकी
लालटेन का संघर्ष भी
एक अहीर ले आया
दही की कहतरियाँ
सबने देखा
किसी ने नहीं देखे
चमरौटी की लड़की के फटते कपड़े |
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गज़ा के जूते
भागते, उजड़ते गज़ा में
बिखरे पड़े हैं जूते
उद्दाम लालसाओं से बेखबर युवाओं के जूते
गुलों, नज्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते
आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते
बूढों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते
जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर
एक लम्बे समय के निवेश की तरह खरीदे गये
गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते
और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं
ऐसे पैर
जो उनमें सही-सही अंट सकें
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उपेक्षा
मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह
उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर
अनपेक्षित
मैं जड़ें पकडे झूलता रहता हूँ
और जब लगता है
कि उजाड़ जाएगा सब
जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ
में काँटे नहीं उगाऊँगा
और मरुँगा भी नहीं
उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर
तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है |
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नव वर्ष
दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च
और जनवरी में बहुत पास
एक ही दिन में बदल जाता है साल, महिना, मन
जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा
और थका-बझा घर बन जाता है संगीतशाला
एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं
एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल
भारी-भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है
और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है
सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल
अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में
और बसंत की ठिठुरती प्रतीक्षा में
घुल जाती है आशा-मधु अचानक
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अमित तिवारी
प्रत्येक अभिव्यक्ति अत्यंतभावपूर्ण।
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