बुधवार, 10 जुलाई 2024

गौरव पाण्डेय

 गाँव से निकले बहुत लोग

१.

गाँव से निकले बहुत लोग

कुछ न कुछ करने 

और लौटे भी

जो कुछ बन पड़ा वो करके


लौटे कुछ ईंट-गारा करके

बोझा ढोकर लौटे कुछ

देर शाम तक

नमक-तेल-तरकारी लिए बहुत लौटे


कुछ ऐसे थे

जो लौटे बहुत दिनों बाद

बड़ा-सा बैग, रुपया, कपड़ा और सपने लेकर


लेकिन कुछ ऐसे भी थे

जो नहीं लौटे

खो गए


जो नहीं लौटे

उनमें अधिकतर ऐसे थे

जो कुछ हो गए

वे डॉक्टर, वे प्रोफ़ेसर, वे वकील

वे पत्रकार, वे थानेदार

ये जहाँ गए वहीं के रह गये थे


इधर जिनके लौटने की उम्मीद

खो चुका था गाँव

वे मृतकों के बीच से उठकर लौटे......


२.

ये नायक

गाँव के बेटे थे

अब दामाद की तरह लौटते थे


गाँव बीमार था

डॉक्टर इलाज करने नहीं आया

और निरक्षर गाँव ने

प्रोफेसर से एक अक्षर नहीं पाया

वकील ने गाँव को नहीं दिया कोई न्याय

और पत्रकार क्या जाने गाँव का हाल-चाल

दरोगा ने रौब दिखाया गाँव को ही


जब कभी 

दिखाया गया इन्हें कोई सम्मान 

तब ज़रूर चर्चा में रहा गाँव का नाम.........

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मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ

मैं दुनिया भर की 'मॉम' को

वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ 

चाहता हूँ 'डैड' हो चुके पिता

ऑफिस से लौट

आँगन में सेम के बीज रोपें


'सिस' हो चुकी बहन

और 'ब्रो' बन चुके भाई 

दीदी भी 'दी' हो गई हैं

यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास

इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ

षडयंत्र रचती भाषा की जड़ों में 

मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ


मकान की यात्रा करते हुए 

कमरों में पहुंचे घर को 

मैं वापस घर लाना चाहता हूँ|

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पिता इंतजार कर रहे हैं

पिता आकाश देखते हैं

और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है

वो हवाओं को सोखते

और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते


पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है

जैसे लोगों को पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता

फिर भी उनका मानना है

 कि हमारा कोई न कोई नाता है ही 

इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना 


बादलों के रंग और रफ़्तार 

पिता खूब समझते हैं

उन्होंने बता दिया था

धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार

हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी


पिता चिंतित हैं

आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते 

महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध 

जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा 

और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी


पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं

और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं          


हम जानते हैं

पिता के मना करने के बावजूद

दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी    

आँगन की नीम का

जबकि पिता इंतज़ार कर रहे हैं 

कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर 

लौट आएँगे शहर से

और उस दिन पुरानी शाखाओं पर 

 एक बार फिर खिल उठेंगे नए-नए पत्ते....

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सरसों के फूल और बच्चियों के सपने 

घने कोहरे के बीच

खेतों से घर लौटती है माँ

बहन पीछे-पीछे


माँ के हाथों में हैं 

सरसों के कुछ पत्ते

और बहन की अंजुली में भरे हैं

बहुत से फूल सरसों के


द्वार की नीम से

दातुन तोड़ रहे हैं पिता

पड़ोस की बच्चियाँ दौड़-दौड़ बीनती हैं 

नीम की सींकें


माँ कतरती है सरसों के पत्ते

पड़ोस की बच्चियाँ 

बहन को घेर लेती हैं

सब मिल कर सींकों में पिरोती हैं 

सरसों के फूल


पहले कुछ फूलों से बनाती हैं लहरदार झुमका

और लड़ीदार नथिया

एक बच्ची के नाक-कान में लगा कर देखती हैं

हँसती हैं खिलखिला कर

बनाती हैं फिर माँथबेंदी, पायल, कर्धनी

और एक बड़े सींकें में पिरोती हैं 

ग्यारह बड़े-बड़े फूल

और सजाती हैं एक सुंदर हार 


सबकी सहमति से 

ये हार बहन के हिस्से आता है

वह गले के नजदीक लाती है

रुक कर तलाशती हैं नजरें माँ को


बच्चियों के इस कौतुक को 

रसोई की रौशनदान से देखती है माँ

और हाथ में नमक लिए सोचती है

'सरसों के ये टूटे फूल 

कब तक हरे रख पाएँगे

बच्चियों के स्वप्न को '


दूर से आवाज आती है

पिता के कुल्ला करने की

कड़ाही में नमक डालते हुए

माँ करछुल चलाने लगती है|

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ससुराल में झूला

 वो बुआ ही थीं हमारी

पिता को राखी बाँधती

हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती


बहनों को याद हैं

उनकी कजरी

सावनी झूलों के मोहक गीत

मजाल है भौजाइयों की

उनके रहते कोई झूला न चढ़े


झूलना उन्हें बहुत पसंद था 

हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ

एक दिन 

पंखे से झूलती मिलीं


बच्चियां बताती हैं

ससुराली घर से बाहर आकर 

उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी


(आज भी आता है सावन

पड़ जाते हैं झूले 

पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)

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 गौरव पाण्डेय 


26 दिसम्बर 1991 को जन्मे युवा रचनाकार गौरव पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिंदी) और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है| हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स पर कविताएँ और आलेख प्रकाशित हुए हैं | दो कविता-संग्रह 'धरती भी एक चिड़िया है' तथा 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' प्रकाशित हुए हैं | अंग्रेजी के अतिरिक्त बांग्ला, गुजराती, मराठी भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं| 

कवि गौरव पाण्डेय को 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' के लिए वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है |

सम्प्रति गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कर्वी, चित्रकूट, उत्तरप्रदेश में सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापनरत हैं| 


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