गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

योगेश कुमार ध्यानी

1. शीत युद्ध 


लपटों के बाद
जल कर राख हो गई

ठंडी चीज़ों की भस्म
बैठ जाती है नागरिकों के हृदय में,

बारूद की गंध
ठंडी होकर जम जाती है स्मृतियों में

ग्रीष्म, शरद, वसंत
एक-एक कर बीत जाती हैं ॠतुएँ,

बस स्मृति नहीं बीतती
बीत गए युद्ध की चीख़ों की।
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2. ह्रस्व-दीर्घ 


तीव्र है चीख़
बधिर हैं गुज़र रहे लोग

न के बराबर है उम्मीद
हाँ जितनी संभव है मृत्यु

जानलेवा हो सकते हैं शत्रु के वार
बचाव के पक्ष मे है सिर्फ़ दिन की धूप

लौटते ही जिसके
झुरमुट हो जाते हैं संवेदनशील

जहाँ संवेदनशून्यता
सभ्यता के करती है चीथड़े

और पुलिस की टार्च बढ़ जाती है
“सब ठीक है” का बिगुल बजाते हुए आगे

भाषा पंगु होती है
वहशियत के आगे

दीर्घ होती है वारदात
और हृस्व रह जाती है

कोई भी सद्भावना।
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3. छूटा हुआ ईश्वर 


उपासना से छूट गई जगहों मे
रहता है

एक छूटा हुआ ईश्वर,
उसका ज़िक्र किसी ग्रंथ में नहीं।

एक वही सुनता है सिर्फ़
भीड़ मे से छूट गए

लोगों की पुकार।
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4. समुद्र  


उपस्थिति को ढका जा सकता है
उसपर परदा डाला जा सकता है
उसे अनदेखा किया जा सकता है

लेकिन अनुपस्थिति को कैसे भरें
वह जो 
तमाम दियों, सजावटों और 
झालरों के बीच से 
झांकती रहती है
जब भी कौंधता है फुलझड़ी का प्रकाश
उस प्रकाश में झिलमिलाती है
अनुपस्थिति

इस पर्व
जो खदानों में रह गए 
गाँव से दूर
मालिक के मुनाफे के बाद
शहर की दुकानों के बंद शटर के पीछे
फर्श पर बिछे टाट पर रह गए
जो समुद्रों में रह गए
जो नाव और जहाज में रह गए

जो लौट नहीं सके
जो रास्तों में रह गए
और वो भी
जो लौटने का साहस नहीं जुटा सके
उनके पर्व में कौंध रही है
अपनों की अनुपस्थिति
जबकि उनके घरों में
हर्षोल्लास बधाइयों और 
पर्व की आवाज़ों के बीचों-बीच 
बैठी है उनकी खुद की 
अनुपस्थिति की आवाज़ 

उपस्थिति को ढका जा सकता है
लेकिन अनुपस्थिति को
भरा नहीं जा सकता।
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5. इक कमरा है बिखरा-सिमटा


इक कमरा है बिखरा-सिमटा
चार दीवारें गहरी हल्की
इक दरवाज़ा हिलता-डुलता
एक सींखचों वाली खिड़की

एक बल्ब है जलता-बुझता
एक ही नल से पानी चलता
थप-थप बनती चार रोटियाँ
रोज़ सांझ एक चूल्हा जलता

एक कील पर टंगा कलैंडर 
एक मूर्ति का पूजाघर
एक खूंटी पर बस दो कपड़े
पहन लिए जाते जो तड़के

कोने में एक जोड़ी चप्पल
कुर्सी पर रखा एक गमछा
एक चमड़े का बैग पुराना
जिसमें कोई नहीं खजाना

बीती होली आई दीवाली
सोच रहा है घर जाएगा 
लेकिन इस आने-जाने में
कितना पैसा लग जाएगा 

गाँव में रहते बीवी-बच्चे
मजदूरी में कटता जीवन
शहर की एक गुमनाम गली के
घर में रहता राम सजीवन।
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योगेश कुमार ध्यानी 










 




योगेश कुमार ध्यानी जन्म 3 सितंबर 1983 को हुआ। योगेश पेशे से मरीन इंजीनियर हैं, साहित्य में गहरी रुचि रखते हैं। हंस, वागर्थ, आजकल, परिंदे, कादंबिनी, कृति बहुमत, देशधारा, अन्वेषा, ईरा पत्रिका, शतरूपा अनुनाद, कृत्या, मलोटा फॉक्स, कथांतर-अवांतर आदि साहित्यिक वेबसाइट और पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ-कहानियाँ और लेख प्रकाशित होते रहे हैं । 2022 में समुद्र जीवन पर आधारित कविता संग्रह 'समुद्रनामा' प्रकाशित हुई। 

संपर्क - 9336889840
ईमेल: yogeshdhyaani85@gmail.com


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