गुरुवार, 4 जनवरी 2024

मदन कश्यप

ग़नीमत है

गनीमत है

कि पृथ्वी पर अब भी हवा है

और हवा मुफ्त है

 

ग़नीमत है

कि कहीं-कहीं लगे हैं निःशुल्क प्याऊ

और कोई-कोई पिला देता है बिना पैसा लिए पानी

 

ग़नीमत है

कि सड़कें पैदल चलने का भाड़ा नहीं माँगतीं

हालाँकि शहरी घरों में मुश्किल से आ पाती है

फिर भी धूप पर कोई टैक्स नहीं है

 

ग़नीमत है

कि कई पार्कों में आप मुफ़्त जा सकते हैं

बिना कुछ दिए समुद्र को छू सकते हैं

सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य देख सकते हैं

 

ग़नीमत है

कि ग़नीमत है !

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बचे हुए शब्द


जितने शब्द आ पाते हैं कविता में

उससे कहीं ज्यादा छूट जाते हैं

 

बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं

मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में

 

बचे हुए शब्द

थल को

जल को

हवा को

अगिन को

आकाश को

लगातार करते रहते हैं उद्वेलित

 

मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ

तो मुस्कुराकर कहते हैं :

तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता

और मुझ पर छींटे उछालकर

चले जाते हैं दूर गहरे जल में

मैं जानता हूँ इन बचे शब्दों में ही

बची रहेगी कविता !

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चूल्हे के पास

 

गीली लकड़ियों को फूँक मारती

आँसू और पसीने से लथपथ

चूल्हे के पास बैठी है औरत

हज़ारों-हज़ार बरसों से

धुएँ में डूबी हुई

चूल्हे के पास बैठी है औरत

 

जब पहली बार जली थी आग धरती पर

तभी से राख की परतों में दबाकर

आग ज़िन्दा रखे हुई है औरत ! 

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इन चुप्पियों का क्या करें

 

चीख़ और शोर के तो मायने निकाले जा सकते हैं

पर इन चुप्पियों का क्या करें

जो पलकें झुकाए, सिर लटकाए ऐसे खड़ी हैं

कि अपने चेहरे भी पढ़ने नहीं देतीं

 

अर्थ निचुड़े शब्दों के इस युग में यह बहुत आसान है

कि हम इन चुप्पियों पर एकदम चुप्पी साध लें

फिर खूब चीख़ें-चिल्लाएँ कविताएँ लिखें इनसे मुँह मोड़कर

 

हज़ारों विषय पड़े हैं कविता के लिए

इन चुप्पियों पर क्यों की जाए इतनी मगज़मारी

 

महज़ कविता लिखने के लिए कोई क्यों झेले इतना तनाव

 

अब जबकि पदों-पुरस्कारों के लिए लिखी जाती है कविता

यह चुप्पा समाज भला क्या देगा किसी कवि को

उसके पास तो बस चाहत होती है ऐसी कविताओं की

जो उसकी चुप्पियों का रहस्य खोल दे

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लड़की का घर

 

घर में पैदा होती है लड़की

और बार-बार जकड़ी जाती है

घर में ही रहने की हिदायतों से

फिर भी घर नहीं होता लड़की का कोई

बस एक सपना होता है

कि एक घर उसका भी होगा/पति का घर

 

सपना देखती है लड़की

अपने गाँव के सबसे बड़े घर से भी बड़े घर की

पास बुलाते दरवाजे

मुस्कुराती हुई खिड़कियाँ

माँ के आँचल-सी स्नेहिल दीवारें

लड़की के कोमल सपनों में होता है सपने-सा कोमल घर

 

दऊरी में महावरी पाँव रखती

जहां पहुंचती है लड़की

वहाँ घर नहीं होता

वहां होते हैं

मजबूत साँकलों वाले दरवाजे

कभी न खुलने वाली खिड़कियाँ

लोहे की तरह ठंडी दीवारें

जलता धुआंता बुझता चूल्हा

कच्ची मोरी के पास एक घिसा हुआ पत्थर

और कुछ अँधेरे कोने

जहाँ कुछ अँधेरे कोने

जहाँ बैठकर करूँ उसांसों के बीच

अपने लड़कपन के सपने उघेड़ती है लड़की

 

जितना बड़ा होता है घर

उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना

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मदन कश्यप 

जन्म : 29 मई, 1954, वैशाली, बिहार |

वरिष्ठ कवि और पत्रकार। 

रचनाएँ :  छ: कविता-संग्रह–’लेकिन उदास है पृथ्वी’ (1992, 2019),
‘नीम रोशनी में’ (2000), ‘दूर तक चुप्पी’ (2014, 2020),
‘अपना ही देश’, कुरुज (2016) और ‘पनसोखा है इन्द्रधनुष’ (2019)
आलेख संकलन-‘मतभेद’ (2002), ‘लहलहान लोकतंत्र’ (2006)
‘राष्ट्रवाद का संकट’ (2014) 
सम्पादित पुस्तक ‘सेतु विचार : माओ त्सेतुङ’ प्रकाशित। 
चुनी हुई कविताओं का एक संकलन 'कवि ने कहा' श्रृंखला में प्रकाशित|
वैचारिक पत्रिका 'सामयिक विमर्श' का सम्पादन|

पुरस्कार एवं सम्मान:  शमशेर सम्मान, केदार सम्मान, नागार्जुन सम्मान,बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान उल्लेखनीय। 
कुछ कविताओं का अंग्रेजी और कई अन्य भाषाओं में अनुवाद। 
हिन्दीतर भाषाओं में प्रकाशित समकालीन हिन्दी कविता के संकलनों 
और पत्रिकाओं के हिन्दी केन्द्रित अंकों में कविताएँ संकलित और प्रकाशित। 
दूरदर्शन, आकाशवाणी, साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट,
 हिन्दी अकादमी, विश्वविद्यालयों आदि के आयोजनों में व्याख्यान और काव्यपाठ। 


















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