गुरुवार, 25 जनवरी 2024

नीलेश रघुवंशी



 जंगल और जड़ 

इमारत के ऊपर इमारत

खाई के नीचे खाई

दूर-दूर तक फैला कंक्रीट का जंगल

आएगा एक दिन ऐसा आएगा

जब हमें हमारी ज़मीन मिलेगी वापस 

सीमेंट की टंकी में पानी पीती चिड़िया से

कहा पीपल की फूटती जड़ ने 

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बुआ का दुख

चाय की शौक़ीन बुआ

पी जाती जाने कितनी चाय दिन भर में 

और अब मिलती है सिर्फ़ दो चाय 

वो भी दूध कम और ज्यादा पानी वाली


धमकाता जब-तब बेटा कौन जोतेगा ज़मीन उसकी

आसन नहीं किसी दामाद-बेटी का आना घर में बिना उसकी इच्छा के -

और तू भी चली न जाना ड्योढ़ी के पार-

किसी और का अँगूठा लगवा

बुआ की साड़ी ज़मीन-जायदाद कर ली बेटे ने अपने नाम

देखती रह गई भौचक सी अँगूठे को कागज़ पर 

पटवारी ने क्या कहा?बुआ ने कितना सुना? नहीं जानता कोई

रुँधे गले से, आँख से आँसू पोंछती सुनाती बुआ

बाद भी इसके 

घर-परिवार में जन्मती है जब कभी बेटी

बूढ़ी जर्जर बुआ भर जाती है दुख से

पराया धन होती हैं बेटियाँ

माँ-बाप का नहीं, किसी और का जीवन तारती हैं


अँधेरे में रास्ता टटोलती बड़बड़ाती जाती है बुआ|

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स्त्री-विमर्श

मिल जानी चाहिए अब मुक्ति स्त्रियों को

आखिर कब तक विमर्श में रहेगी मुक्ति

बननी चाहिए एक सड़क, चलें जिस पर सिर्फ़ स्त्रियाँ ही

मेले और हाट-बाज़ार भी अलग

किताबें अलग, अलग हों गाथाएँ

इतिहास तो पक्के तौर पर अलग

खिड़कियाँ हों अलग-

झाँके कभी स्त्री तो दिखे सिर्फ़ स्त्री ही 

हो सके तो बारिश भी हो अलग


लेकिन -

परदे की ओट से झाँकती ओ स्त्री 

तुम - 

खेत-खलिहान और अटारी को सँवारो अभी

कामवाली बाई, कान मत दो बातों पर हमारी 

बुहारो ठीक से, चमकाओ बर्तन

सर पर तगाड़ी लिए दसवें माले की और जाती 

ओ कामगार स्त्री 

देखती हो कभी आसमान, कभी ज़मीन 

निपटाओ बखूबी अपने सारे कामकाज

होने दो मुक्त अभी समृद्ध संसार की औरतों को 

फिलहाल संभव नहीं मुक्ति सबकी |

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बित्ता भर जगह 

अपनी एक जवान बेटी और दो बेटों के संग छत पर 

बसाई अपनी गिरस्ती

वे छत पर नहाते, कपड़े धोते और सजाते-सँवरते हैं

जवान लड़की

जब तब ईंटों के बीच रखे आईने को निकाल निहारती है खुद को

वे सबके बाद सोते और सबसे पहले उठते 

पूरी कोशिश करते हैं पड़ोसियों की आँख से बची रहे उनकी गृहस्थी

रहते हैं इस तरह कि रहते हुए भी नहीं होते किसी के आसपास

छत पर मिली बित्ता भर जगह कहीं छूट न जाए 

इसी आशंका को अपने संग लिए......

दिन भर मालकिन की जी हुजूरी में लगी रहती है

वह साँवली और मजबूत औरत

इतनी थकी होती है वह कि ईंट पर सर रखते ही चली जाती है 

गहरी नींद में

आदमी जब तब  पीता है बीड़ी धुएँ को अपने आसपास समेटे 

छत पर रखी ईंटें 

सिरहाना भी हैं उनका और आड़ भी

बचाती हैं जो पड़ोसियों की आँख से

दूर-दूर तक फैली धरती सिकुड़-सिकुड़ जाती है

जब सारा परिवार सोता है छत पर पाँव सिकोड़कर

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जन्म: 4 अगस्त, 1969


रचनाएँ: घर निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में, 

एक कस्बे के नोट्स ,एलिस इन वंडरलैंड, डॉन क्विगजोट, झाँसी की रानी, छूटी हुई जगह, अभी ना होगा मेरा अंत, सैयद हैदर रजा एवं ब.व. कारंत

पुरस्कार और सम्मान: भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा लेखन पुरस्कार, स्पंदन कृति पुरस्कार, प्रेमचंद स्मृति सम्मान, शैलप्रिया स्मृति सम्मान, डी.डी. अवार्ड 2003, 2004|

सम्प्रति: दूरदर्शन केंद्र, भोपाल में कार्यरत


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया, निलेश जी हार्दिक बधाई शुभकामनाएं,

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  2. आखिरी कविता बहुत बेधक।स्त्री विमर्श वाली कविता भी गहरा तंज उन तथाकथित स्त्रीवादियों पर जिनके लिए विमर्श भी फैशन है

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