आग बहुत है
भीतर-भीतर आग बहुत है
बाहर तो सन्नाटा है|
सड़कें सिकुड़ गईं हैं भय से
देख खून की छापें
दहशत में डूबे हैं पत्ते
अन्धकार में काँपे
किसने है यह आग लगाई
जंगल किसने काटा है|
घर तक पहुँचानेवाले वे
धमकाते हैं राहों में
जाने कब सींगा बज जाए
तीर मन बाहों में
कहने को है तेज रोशनी
कालिख को ही बाँटा है|
कभी धूप ने, कभी छाँव ने
छीनी है कोमलता
एक करोटन वाला गमला
रहा सदा ही जलता
खुशियों वाले दिन पर लगता
लगा किसी का चांटा है|
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धार की मछलियाँ
थरथराती टहनियां हैं
हिल रहे हैं पेड़|
एक चर्चा, एक अंदेशा
बीतते दिन का
और चिड़िया ने सहेजा
एक नया तिनका
धार की ये मछलियाँ हैं
लहर लेती हैं घेर|
बूँद जैसे दबी हो भीतर
कहीं इस रेत में
फसल जैसे सूखती हो
भरे सावन खेत में
सूर्यमुख ये फुनगियाँ हैं
रही जल को टेर|
दुःख हो गए इतने बड़े
हम हो गए छोटे
शहर जाकर गाँव को हम
फिर नहीं लौटे
किसी ने पूछा नहीं है
समय का यह फेर|
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गुनगुन करने लगे हैं दिन
चिट्ठी की पांति से खुलने लगे हैं दिन,
सर्दियाँ होने लगी हैं और कुछ कमसिन |
दोहे जैसी सुबहें
रुबाई लिखी दुपहरी,
हवा खिली टहनी-सी
खिड़की के कंधे ठहरी,
चमक पुतलियों में फिर भरने लगे हैं दिन,
नीले कुहासे तनके हुए आंचल पर पिन|
कत्थई गेंदे की
खुशबू से भींगी रातें,
हल्का मादल जैसे
लगी सपन को पांखें,
ऋतू को फिर गुनगुने करने लगे है दिन,
उजाले छौने जैसे रखते पाँव गिन-गिन|
सूत से लपेट धूप को
सहेजकर जेबों में,
मछली बिछिया बजती
पोखर के पाजेबों में,
हाथ में हल्दी-गुण करने लगे है दिन,
सांझ जलती आरती-सी हुई तेरे बिन|
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एक रचाव है नदी
पन्ने लहरों के बदलती हुई
एक किताब है नदी|
किनारों को आँखों से बाँधती
उतरती है पहाड़ों से
चिड़िया के पंखों को सहेजती
मन बसी है कहारों के
हवाओं में रंग घोलती हुई
एक लगाव है नदी|
महाभारत से निकली रोकती
भीष्म के उन वाणों को
खूब आँखों से भी तेज करती
रहती है जो कानों को
गहनों को फिर से तोलती हुई
एक जवाब है नदी|
साँसों में गीतों को गूँथेगी
भरती कविता की जगहें
बचपन के मन को सँभालती-सी
छूती कई अटल सतहें
अनबोली-सी भी बोलती हुई
एक रचाव है नदी|
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नयी बात नहीं
शव किसी युवती का है
इसलिये भीड़ है देखने वालों की
उठानेवालों की नहीं
एक दूसरे का मामला बताकर
गाँव और रेलपुलिस का टालमटोल
कोई नई बात नहीं
जहाँ वह मिली है गटर में
वहाँ सैकड़ों किस्सों के सैकड़ों मुँह
लिखी है जाने कितनी कहानियाँ
उसके सिरहाने पैताने
उसकी आत्मा में ईश्वर नहीं था
या उसकी आत्मा तक नहीं गया ईश्वर
वह सिर्फ़ देह थी, देह के साथ रही
देह लेकर मर गई
मनुष्य होने की आदिम परिभाषा
पर भी पत्थर रख गई |
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जन्म तिथि : १५ सितम्बर १९४२
शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी.
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, म.द. म. महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर
रचनाएँ : गीत संग्रह - ओ प्रतीक्षित, परछाईं टूटती, सुलगते पसीने, पसीने से रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, तप रहे कचनार, भीतर-भीतर आग, मेघ इन्द्रनील(मैथिलि), पंख-पंख आसमान (एक सौ एक चुने हुए गीतों का संग्रह), समय चेतावनी नहीं देता, एक सूर्य रोटी पर; उपन्यास : जल झुका हिरन;
आलोचना : मध्यवर्गीय चेतना और हिंदी का आधुनिक काव्य
सम्पादन : सर्जना, अन्यथा, भारतीय साहित्य, कंटेम्पररी इंडियन लिटरेचर
(दिल्ली), बीज(पटना), देश की प्रमुख साहित्यिक
पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं अनेक आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केन्द्रों से
प्रसारित.
सम्मान एवं पुरस्कार : बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से
साहित्य सेवा सम्मान, हिंदी
साहित्य सम्मलेन, प्रयाग से
कवीरत्न सम्मान, राज भाषा
विभाग, बिहार
राज्य से महादेवी वर्मा सम्मान, अवंतिका, दिल्ली द्वारा विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिलि साहित्य परिषद् द्वारा
विद्या वाचस्पति सम्मान, हिंदी पगति
समिति द्वारा भारतेंदु सम्मान, नारी सशक्तिकरण के उपलक्ष्य में सुर्गामा-सम्मान, विन्ध्य प्रदेश का साहित्य मणि
सम्मान आदि
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