गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

अशोक शाह

रोटियों की शक्ल बदल गयी है

कैसा अटूट रिश्ता है
द्रव्य और समय का 
धरती पर हमेशा देखे गये सम्पूरक 
समय ने संभाल रखा है द्रव्य को
न जाने कितने रूप बनते-बिगड़ते 
नये से पुराने, फिर नये होते 
और द्रव्य की सतह पर रेंगता समय 
खोजता रहता खोई कोई शक्ल

कितनी अजीब बात है

मैं बैठा रह गया था लकड़ी की बेंच पर

जब ट्रेन निकल गयी थी
पहुँचा है समय फिर ट्रेन लेकर
आज सीमेंट की बेंच पर बैठा 
मोबाइल से पूछ रहा हूं
मंडी में कितने भाव बिके अनाज

तब बाज़ार से कोई भूखा नहीं लौटता
आज बाज़ार में भूख बिक रही है
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ गए हैं लोग
खेतों की नमी हिमालय में जम गयी  है
समय तब भी था
समय अब भी है
सिंक-सिंक कर रोटियों की शक्ल बदल गयी है
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हर तीसरा आदमी अस्वस्थ है

सहमती सकुचाती उतरती धरती पर
सूर्य की प्रथम किरण की तरह
पहला आदमी एकदम स्वस्थ था

दूसरे आदमी का मन हुआ अस्वस्थ
विचार फैलते गए
भूमंडल- वायुमंडल में

तीसरा आदमी अस्वस्थ है
मन से, शरीर से
जो भी आता उसके संपर्क में
हो जाता अस्वस्थ : पौधे और जीव

आज धरती पर वे ही बचे हैं स्वस्थ -
पानी की बूंद
हवा का झोंका
वृक्ष और पशु
जो आदमी के संपर्क में नहीं हैं
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मेरे जूते का रंग काला है


क्यों बहुत गर्व है ख़ुद पर
पढ़ा,लिखा पुरुष हूँ 
मेरा नाम कुछ अलग है
विचार ज़रा विशिष्ट?

मुझसे बुरे बहुत
इसलिए अच्छा हूँ बहुत
मेरी ख़ास रुचि
अपनी पहचान के अनुरूप
मेरी तारीफ़ के पुल ऊँचे हैं
बाकी सब ओछे हैं

घर में कालीन है
छवि है कुलीन

मेरे लोभ पर मत जाइए
थोड़ी इर्ष्या तो होती है औरों से
झूठ को आपने ही चलाया 
आटे में नमक-सा

पर कहे देता हूँ
औरों की तरह हूँ नहीं
दुनियादारी तो निभानी है
दूध का धुला नहीं
पर दूध का जला हूँ
समझौतावादी नहीं हूँ
पर छाछ फूँक-फूँक कर पीता हूँ

मेरी क्या गलती है
समय ही बदल गया 
शुरू में तो हीरा था
अभी ताबीज़ हो गया 

डर जमा मेरे भीतर
फिर भी साहसी बहुत
अपनी कमजोरियों से सिले हैं
रंग-रंग के झंडे बहुत

कहता जरूर हूँ
परवाह नहीं है उनकी
पर जो दिखाया रास्ता
उस लीक से हटा भी नहीं

पर क्यों सोचता
मैं क्या हूँ
जिन्हें आज रखा सहेज
कल उन्हीं से था परहेज

मेरा क्या है अपना
साथ रहा सिर्फ सपना
मरने से ठीक पहले तक
जिस खाट पर लेटा था
एकटक उसे देख रहा
वह मेरा ही बेटा था

पर तुलनात्मक गर्व से
तना हुआ चेहरा था
जो लिया था बाहर से, उन पर
समाज का सख्त पहरा था

फिर भी मैं समझदार हूँ
मेरे जूते का रंग काला है
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एक बड़े लेखक से अनुरोध करते 


मैंने फिर दुहराया
कुछ लिख दो

उनकी आँखें ख़ाली
दिल सुन्न
और होंठ सूख गये

तभी देखा शून्य में
तितलियों को
अपने नन्हें परों से
आकाश को चीरते हुए

मैंने अपनी कलम उठा ली
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आख़िरी कविता

सूरज ने लिखी जो ग़ज़ल
वह धरती हो गई

धरती ने जो नज़्म कहा
नदी बन गयी

नदी-मिट्टी ने मिलकर 
लिख डाले गीत अनगिन
 
होते गए पौधे और जीव

इन सबने मिलकर लिखी 
वह कविता आदमी हो गई

धरती को बहुत उम्मीद है 
अपनी आखिरी कविता से
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अशोक शाह
जन्म: 11 जनवरी 1963
शिक्षा: आईआईटी कानपुर एवं आईआईटी दिल्ली, 
एक वर्ष भारतीय रेलवे इंजीनियरिंग सेवा, तदोपरांत 1990 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पदों पर कार्यभार सँभाला|

रचनाएँ: कविता-संग्रह - माँ के छोटे घर के लिए, उनके सपने सच हों, समय मेरा घर है, समय की पीठ पर हस्ताक्षर है दुनिया, समय के पार चलो,पिता का आकाश, जंगल राग, अनुभव का मुँह पीछे है, ब्रह्माण्ड एक आवाज़ है, कहानी एक कही हुई, जब बोलना ज़रूरी हो, उसी मोड़ पर, उफ़क़ के पार(उर्दू)
कहानी-संग्रह: अजोर 
सम्पादन: मध्यप्रदेश की जनजातियों के जीवन, पारम्पर, बोलियों, लोक कथाओं, लोकगीतों एवं संस्कृति के संरक्षण पर आधारित 15 पुस्तकों का सम्पादन|
दर्शन: Total Eternal Reflection
पुरातत्व: The Grandeur of  Granite: the temples of Vyas Bhadora, Vintage Bhopal, 
Ashapuri, The Cradle of  Paramara and Pratihara Art, Temple Unveiled
देश की लगभग सभी पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित। लघु पत्रिका 'यावत्'
 का संपादन ।


प्रीति तिवारी के सौजन्य से 

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