इतिहास पुरुष जैसा
काले आखरों की अंतहीन
उलझी दीवार फांदकर
बाहर आने की चाह
स्याह दुनिया में
प्रलाप छोड़ना चाहता है, वो
किताबों की दुनिया से
जो शायद कह ना पाया हो
(अधूरे विचार)
जो जिंदगी से पहले दफ्न हो गए
उसे पकाकर- सिंझाकर
निकालना चाहता है
आना चाहता है
पनियाल ख़ामोशी में
क़ब्र की मिट्टियों में
हौले-हौले
होती है सुगबुगाहट
आता है धीरे-धीरे
कब्रिस्तान से
साथ में मुर्दों की फौज
देखता है जीते जागते इन्सानों की कमीनगी
दुर्गंध देती
लिजलिजी-चिपचिपी दुनिया
अर्थ-विकास-समाज-तंत्र
भागता है कदम
फिर उसी कब्रिस्तान में
जहाँ से आया था
कि दूर से गूंजती है-
नारे की कतार
गड़ासा-भाला- तलवार की
साँय-साँय-साँय
" निकलो ", " बाहर निकलो " की चिल्लाहट
कि सबके सब
मुर्दों के साथ
वह भी ज़ोर से चीखती है
" हमें अंदर ही रहने दो
हम यहीं हैं- तो ठीक हैं "
वो चीखता है
चीखता ही रह रह जाता है
इतिहास पुरुष जैसा कोई एक
पर प्रेतों की आवाज़ है
जो इन्सानों से ऊंची
कभी हो ही नहीं सकती...
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नींद और कविता
जैसे अन्न
भूख के लिए
नदी पानी के लिए
पानी ज़िंदगी के लिए
तुम्हारी बांहे
सुकून के लिए
तुम कविता के लिए
रात नींद के लिए
नींद रात के लिए
वैसे हमारी सभ्यता के लिए
नींद और कविता
सबसे निर्दोष कोशिश है...
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आद्यनायिका
(एक अंश)
स्वर्ण महलों,
अट्टालिकाओं वाला पाटलिपुत्र
जिसके
शौर्य का गीत
सुनाकर नट्टनियाँ नृत्य करतीं थीं
धम्म महामात्रों-ब्राह्मणों के
किन्सक-अहिंसक संघर्ष का
पाटलिपुत्र
न्यायाधिकारियों
श्रमणों
राजुकों वाला पाटलिपुत्र
उत्तर में गंगा
दक्षिण में विन्ध्य से लेकर
समूचा कलिंग
पूर्व में चंपा
पश्चिम में सों
और
राजगृह का कालांतरित रूप
पाटलिपुत्र
उद्यानों,
निकुंजों,
विहारों वाला
पाटलिपुत्र
दार्शनिकों,
विदूषकों,
विद्वानों की शरणस्थली
और सम्राट अशोक के
शौर्य-विजय
और कुशल शासन की
लहरती ध्वज-पताकाएँ
जिस नगर में सूर्य तब अस्त होता था
जब पाटलिपुत्र
स्वयं चाहता हो
असंख्य विजयी अश्वों की
हिनहिनाहट से काँपता नगर
अनेक वंशों के
अभिमान और टकराहट
से ध्वस्त
असंख्य साम्राज्यों के
बनते-बिगड़ते
इतिहास का साथी
विश्व का प्राचीनतम और ऐतिहासिक
एक नगर
इतिहास में ही
सिमटकर खो गया
अन्यथा
सभ्यता की प्राचीनता और भव्यता में
एथेंस-रोम कहाँ टिक पाता
पाटलिपुत्र के आगे
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उस वसंत के नाम
वो वसंत की सरसराहट मुझे याद है
जिसमें कोयली कूक की जगह
कोयल की चोंच से खून टपका था
आम मंजर के धरती पर गिरने से
विस्फोट हुआ था
सरसों की टुस्सियों से बारूद बरसता था
और हवा में हर जगह
लाशों के सड़ने की गन्ध थी
झरने से रक्त की टघार
और शाम
शाम काली रोशनाई में लिपटी
एक क़िताबी शाम थी
रातों की दहशतगर्दी और सन्नाटे
कुत्तों की कुहू ...कू.......कुहू.... से टूटने थे
एकाएक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे थे
एक-एक कर चीथड़े कर रहे थे
इन्सानी माँस के लोथड़े
कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं आँख, कहीं नाक
और हर जगह ख़ून
ख़ून ...ख़ू...न...ख़ू....ऊ...न
पानी की जगह ख़ून
एक वसंत के
रचने, बसने, बनने, गढ़ने, बुनने, धुनने की
क़िताबी प्रक्रिया से दूर...।
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चाय बागन की औरत
उसे ये तो मालूम है
उसके नाज़ुक हाथों से तोड़ी गयी पत्तियों से
जागता है पूरा देश
तब जबकि हरियाली से भरपूर
असम के किसी भी चाय बगान में
आलस्य अपने उफ़ान पे होता है
और आलसी हवा से मुठभेड़ कर
झुंड-की-झुंड असमिया औरतें
निकली जाती है अलसुबह
पहले पहुंचना चाहती है
बंगालिन,बिहारिन और बंगलादेशी औरतों के
कि असम के हर काम-काज में
बाहरी लोगों ने आकार कब्ज़ा जमा लिया है
‘मोय की खाबो...?’
भूख से ज्यादा चिंता उसे भतार के देशी दारू,माछ-भात की है
जिसके नहीं होने पर गालियाँ और लात-घूसे
उसे इनाम में मिलेंगे
पर वो कहती है-
"मुर लोरा सुआलिहोत स्कूलोलोय जाबो लागे"1
पर कमाकर लाती है वो और
घर और मरद साला तो बैठ कर खाता है,
अनवरत पत्तियाँ तोड़ती रहती है वो चाय की
उसे ये नहीं मालूम कि चाय का पैकेट बनकर
कैसे टाटा-बिरला के और देशी-विदेशियों के
लगते हैं मुहर
उसे कितना प्यार मिला है
ये तो कोई नहीं बता सकता
कितनी रातें वो भूख से काटी है
कितनी अंगड़ाइयों में
इसका हिसाब-किताब उसका मरद भी नहीं जानता
चाय बागान ही उसका सबकुछ है
जिसमें पत्तियाँ तोड़ना
उसकी दिनचर्या है
असम की चाय से जागता है देश
जिसकी पत्तियों को तैयार करना
देश के संविधान लिखने जैसा है
तब जबकी चाय को राष्ट्रीय पेय
बनाया जा रहा है
और चाय बागान में उसके तरह की सारी औरतें
अपने सारे दुख बिसराकर
मशगूल अपने कामों में
मधुर कंठ से गा लेतीं है
कोई असमिया प्रेमगीत
जिस प्रेमगीत पर
हमेशा वज्रपात होता है
दिल्ली से
फिर भी गाती है
गाती ही रहती है
पत्तियाँ तोड़ते वक़्त
उसे हरियाली बचाने की पूरी तमीज़ है
उसे रंगाली बीहू आते ही अंग-अंग में थिरकन होती है
उसे मेखला पहन घूमने की बड़ी इच्छा होती है
उसे अपने असम से बहुत प्यार है...
1. मेरे बच्चे को स्कूल जाना चाहिए
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अरुणाभ सौरभ
शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी..
रचनाएँ: दिन बनाने के क्रम में(भारतीय ज्ञानपीठ), आद्यनायिका, लम्बी कविता का वितान(आलोचना), एतबे टा नहि, तें किछु आर(मैथिली कविता संग्रह), मैथिली, असमिया कविताओं का अनुवाद,कन्नड़ के वचन साहित्य का अनुवाद
पुरस्कार एवं सम्मान: भारतीय ज्ञानपीठ का 'नवलेखन पुरस्कार', साहित्य अकादमी का 'युवा पुरस्कार', महेश स्मृति ग्रन्थ पुरस्कार, महेश अंजुम स्मृति युवा कविता सम्मान, आदि|
सम्प्रति: सहायक प्राध्यापक, हिंदी, एन सी ई आर टी
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