गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

चंद्रकांत देवताले

रचना  प्रक्रिया के पूर्व

ख़ाली हाथ और भरे मन 

रेत के ऊपर 

आकाश के नीचे

कोहरे की नदी में

चित लेटे हुए

मैं सूर्य माँगता हूँ 

मुझे बर्फ़ मिलती है

सिर्फ़ वही शब्द नहीं मिलता 

सिर्फ़ वही क्षण नहीं मिलता 

शेष समय की भट्टी में

अतिरिक्त सैकड़ों शब्द फेंकता हूँ

सिर्फ़ वही जगह छूटती है 

जहाँ कुछ हो सकता हूँ 

वैसे फेंकता हूँ अपने को 

शहरों के बीच

सड़कों पर 

लोगों के भीतर|

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अंतिम दिन की अनुभूति

उस दिन हर सूरज उगेगा

और मैं अपने को और अधिक नहीं जानूँगा,

कच्चे बादल-सा तकिया 

पिघलते बर्फ़-सा बिस्तर

कितने अनंत सिमट आएँगे आँखों में

सिर्फ़ अंतिम बार देख लेने के लिए 

ठूँठे नीम पर टिके नंगे आसमान को 

एक क्षण के लिए सब कुछ बेहद उजाला हो जाएगा 

और एक अंतहीन सड़क का सिलसिला 

आँखों में उतरता जाएगा 

और जब गुलमोहर के नीचे गुलाबी साड़ी में रोती हुई 

लड़की का दृश्य आकर आँखों में अटक जाएगा

तब मुझ पर अपनी कविताओं के 

चिंदे बरसने लगेंगे

और मैं आंसूं की बूँद भाप बन जाऊँगा ....

समुद्र प्रार्थना-सा बिछा रह जाएगा

मैदानों के कलेजे सुन्न पड़ जाएँगे

सिर्फ़ जलते रहेंगे पहाड़ 

और उनमें उठती हुई लपटों की परछाईं

पृथ्वी पर छा जाएगी.........

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शब्दों की पवित्रता के बारे में 

रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैंने 

अगला फुलका चन्द्रमा की तरह बेदाग़ हो तो जानूँ

उसने याद  दिलाया बेदाग़ नहीं होता कभी चन्द्रमा

तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं

क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से

वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते

यह है चन्द्रमा जैसी, दे दूं इसे क्या बिना ही आँच दिखाए

अवकाश में रहते शब्द शब्दकोश में टँगे

नंगे अस्थिपंजर

शायद यही है पवित्रता शब्दों की 

अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं 

कौमार्य शब्दों का 

तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं 

प्यार और आक्रमण करने लायक़

मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क 

चुन्दड़ी वाली

नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी |

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 माँ पर नहीं लिख सकता कविता 

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता 

अमर चिऊँटियों का एक दस्ता 

मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है 

माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती है 

मैं जब सोचना शुरू करता हूँ 

यह किस तरह होता होगा 

घट्टी पीसने की आवाज़ 

मुझे घेरने लगती है 

और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ 


जब कोई भी माँ छिलके उतारकर 

चने, मूंगफली या मटर के दाने 

नन्हीं हथेलियों पर रख देती है 

तब मेरे हाथ अपनी जगह पर 

थरथराने लगते हैं 

माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए 

देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे 

और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया 


मैंने धरती पर कविता लिखी है 

चन्द्रमा को गिटार में बदला है  

समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया 

सूरज को कभी भी कविता लिख दूंगा 

माँ पर नहीं लिख सकता कविता |

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औरत 

वह औरत 

आकाश और पृथ्वी के बीच 

कब से कपड़े पछीट रही है,


पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है,

वह औरत आकाश और धूप और हवा से 

वंचित घुप्प गुफा में 

कितना आटा गूँथ रही है?

गूँथ रही है मनों सेर आटा 

असंख्य रोटियाँ

सूरज की पीठ पर पका रही है


एक औरत 

दिशाओं के सूप में खेतों को 

फटक रही है 

एक औरत 

वक्त की नदी में 

दोपहर के पत्थर से 

शताब्दियाँ हो गयीं 

एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को 

अपने स्तनों में समेटे 

दूध के झरने बहा रही है,

एक औरत अपने सिर पर

घास का गट्ठर रख

कब से धरती को 

नापती ही जा रही है,


एक औरत अँधेरे में 

खर्राटे भरते हुए आदमी के पास

निर्वासन जागती

शताब्दियों से सोयी है,


एक औरत का धड़

भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं

उसके पैर 

जाने कब से 

सबसे

अपना पता पूछ रहे हैं|

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चंद्रकांत देवताले 

जन्म: 7 नवम्बर, 1936
मृत्यु: 14 अगस्त, 2017

रचनाएँ: कविता-संग्रह-
हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज़ में बताई गई थी, बदला बेहद महंगा सौदा, पत्थर की बेंच, उसके सपने, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय, जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना-मुक्तिबोध(कविता और जीवन विवेक) 
सम्पादन- दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद- पिसाटी का बुर्ज(मराठी से अनुवाद)

सम्मान एवं पुरस्कार:
साहित्य अकादमी पुरस्कार, कविता समय सम्मान, पहल सम्मान, भवभूति अलंकरण, शिखर सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान|


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