लड़का और पत्थर
उस लड़के ने पत्थर क्यों मारा
जबकि यह पूरे यकीन से कह सकता हूँ
कि वह ट्रेन के किसी आदमी को नहीं जानता था
वह एक चरवाहा था जो पटरी के किनारे खड़ा था
उसकी भैंसे बगल के खेत में चर रहीं थीं
और वह चुपचाप ट्रेन को आता देख रहा था
उसके देखने में जो दिख रहा था
वह वही था जो मुझे दिख रहा था
ठीक-ठीक नहीं कह सकता
पर अचानक ही
उसने एक पत्थर फेंक दिया
यह मुझे ही लगा मैं नहीं मानता
क्योंकि चलाया उसने किसी और पर था
और जिस पत्थर को उसने उठाया था
वह निश्चित ही इस सब से भारी था
जो उसकी प्रसन्नता भरी तालियों में प्रकट हो रहा था
पता नहीं क्यों आज मैं बहुत प्रसन्न था
और खेत में पसरे गाय, बैल, भैंसों के साथ
बोझा ढोती औरतों को भी देख लेता था
जिसमें कुछ तो बालें बीन रही थीं
और बगल से गुजराती हर ट्रेन को
थोड़ी तिरछी नज़र से देख
मुस्कुरा देती थीं
मैं सोचते हुए सोच रहा था
कि क्या ऐसा हर रोज सोचा जा सकता है
कि बुरे दिनों की सबसे तजा स्मृति की तरह
माँ का चेहरा खिल उठा था
मैं आज भी सोचता हूँ
कि उस लड़के ने पत्थर क्यों मारा
जबकि वह ट्रेन के किसी आदमी को नहीं जानता था
और वह मुझे ही क्यों लगा
जबकि मैं ही उसके बारे में अधिक सोच रहा था
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माँ
दो पन्नों के बीच सटी
या कि सटे पन्नोंके बीच अटी
अक्सर मेरी दुनिया में माँ प्रकट होती है
और इनको चीन्हने की इच्छा से
बचपन की किसी सुनहरी गुफा में घुसता हूँ
और एक पूरा का पूरा जंगल पकड़ लाता हूँ
जो भाषा के उपटन में पड़कर
कविता की परात में झर रहा होता है
माघ के मौसम में
पश्चिम झकोरों के बीच
जब दातों से कड़िया के कूटने की आवाज़ आती है
वह पुवाल की तरह उठती है
और बोरसी की तरह छोप लेती है
अपनी दुनिया की हर मिट्टी में
वह बालों की तरह पकी
तथा खलिहान की तरह खाली होती है
और किसी हमीर जादूगरनी के आतंक से जूझती
सिरहाने की कजरवट में
थोड़ा-थोड़ा रोज घिसती है
माँ जब घिस जाती है
मंदिर की घंटियों से घाटियों की आवाज़ आती है
और विंध्य की पठारों से उठता धुआँ
गंगा की सतह पर फ़ैल जाता है
ठीक ऐसे समय में जब हिमालय पर गिरती है बर्फ
माँ गल रही होती है
मेरे घर में एक मोमबत्ती जल रही होती है
और मैं बड़ा हो रहा होता हूँ|
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टोन्स
शहर में अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं
यद्यपि डाक व्यवस्था सुरक्षित है
और पूरी तरह मुस्तैद भी
चिट्ठियाँ आती नहीं
और सड़क के किनारे खड़ा डिब्बा
तो जाती भी नहीं
किसी बाँझ की तरह
अर्ध-उन्मीलित नेत्रों से
अपने कोख को निहारता
लगता है शहर
भारी सूखे के चपेट में है
और वे शब्द रहे ही नहीं
जो अपनी जड़ों में बजते
भाषा की इच्छा से
धरती को फोड़ते रहते हैं
या कि पूरा का पूरा शहर
किसी पुलिंदा की शक्ल में
मोहनजोदड़ो में कैद हो गया है
जिसकी संचार व्यवस्था को ठीक करने के लिए
किसी कुदाल की जरूरत है
शहर में अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं
तब क्या कहा जाए
कैसे कहा जाए
कि शहर के लोग
गोल होते जा रहे हैं
और चौराहों की संख्या में उभर रहे हैं
यदि आपको इस बात पर विशवास न हो
तो जरा किसी चौराहे पर झाँक कर देखें
होंठ और आँख की दो शिराओं पर टिका यह
अपने एकांत में
सुबह से शाम तक
ह्रदय के दो फेफड़ों के बीच
बजता रहता है
जिसके बीच की दूरी का ठीक-ठाक अनुमान कठिन है
दूरी पैसों में बदल रही है!
शहर में अब चिट्ठियाँ नहीं आतीं
टोन्स आते हैं!
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तनी हुई विफलता
अकड़ी हुई रस्सी
बची रहती है जलने के बाद भी
राख में
वह आदमी जिसकी आँखों में चमक थी
गिरने के बाद भी छोड़ देता है कुछ रोशनी
बनिस्बत उस आदमी के जिसकी आँखें झुकी रहती हैं
अपनी लघुता में पड़ी रहकर
मुट्ठी जो तनी रहती है
ज्यादा भरोसे की होती है
उन खुली हथेलियों के
जो चिपचिपा जाती हैं
दूसरे की महानता को ढ़ोते-ढ़ोते
आँधी में टूटकर गिरा हुआ मकान
तूफ़ान में सूखकर रेत हुई नदी
थककर गिरा हुआ आदमी
ज्यादे भरोसे का होता है
अपनी-अपनी संभावनाओं में
समर्पित सफलता से ज्यादा मूल्यवान होती है
तनी हुई विफलता
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श्रीप्रकाश शुक्ल
जन्म : 18 मई, 1965, सोनभद्र(उ.प्र.)
रचनाएँ: अपनी तरह के लोग, जहाँ सब शहर नहीं होता, बोली बात,
रेत में आकृतियाँ, ओरहन और अन्य कविताएँ, वाया नई सदी,
आलोचना: साठोत्तरी हिंदी कविता में लोक सौन्दर्य, नामवर की धरती
सम्पादन: 'परिचय' तथा 'दोस्त'
पुरस्कार: मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
द्वारा नरेश मेहता कविता पुरस्कार तथा विजयदेव नारायण साही पुरस्कार,
सर्जना पुरस्कार
सम्प्रति : बी.एच,यू. के हिंदी विभाग में प्रफेसर के रूप में कार्यरत:
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