मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

आलोक श्रीवास्तव

बूढ़ा टपरा 

बूढ़ा टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें सच,

उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें सच|


लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?

मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच|


कच्चे रिश्ते, बासी चाहत और अधूरा अपनापन,

मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी भी सौगातें, सच|


जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,

पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच|


धोका खूब दिया है खुद को झूठे मूठे किस्सों से,

याद मगर जब करने बैठे याद आई हैं बातें सच|

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अम्मा 

धूप हुई तो आँचल बनकर कोने-कोने छाई अम्मा

सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा


उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है

धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा 


घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखें

चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा


सारे रिश्ते जेठ-दुपहरी, गर्म हवा, आतिश, अंगारे

झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा


बाबूजी गुजरे; आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं,

तब मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा|

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मैंने देखा है

धड़कते, सांस लेते, रुकते-चलते, मैंने देखा है

कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है


तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं

तुम्हारी आदतों में खुद को ढलते, मैंने देखा है


न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है

ख़ुद अपने-आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है


मेरी खामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाजें

तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है


बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी

बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है


मुझे मालूम है उनकी दुआएं साथ चलती हैं

सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है

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सात दोहे

आँखों में लग जाएँ तो, नाहक निकले खून,

बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून|


भौंचक्की है आत्मा, साँसें हैं हैरान,

हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान|


तुझमें मेरा मन हुआ, कुछ ऐसा तल्लीन,

जैसे गाए डूब कर, मीरा को परवीन|


जोधपुरी साफ़ा, छड़ी, जीने का अंदाज़,

घर-भर की पहचान थे, बाबूजी के नाज़|


कल महफ़िल में रात भर, झूमा खूब गिटार,

सौतेला-सा एक तरफ़, रक्खा रहा सितार|


फूलों-सा तन ज़िन्दगी, धड़कन जिसे फांस,

दो तोले का जिस्म है, सौ-सौ टन की सांस|


चंदा कल आया नहीं, लेकर जब बरात,

हीरा खा कर सो गई, एक दुखियारी रात|

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 तोहफ़ा

जाने क्या-क्या दे डाला है 

यूं तो तुमको सपनों में...


मेंहदी हसन, फरीदा ख़ानम 

की ग़ज़लों के कुछ कैसेट

उड़िया कॉटन का इक कुर्ता 

इतना सादा जितने तुम

डेनिम की पतलून जिसे तुम 

कभी नहीं पहना करते

लुंगी, गमछा, चादर, कुर्ता, 

खादी का इक मोटा शॉल 

जाने क्या-क्या .....


आँख खुली है, 

सोच रहा हूँ 

गुजरे ख़्वाब 

दबी हुई ख्वाहिश हैं शायद

नज़्म तुम्हें जो भेज रहा हूँ 

ख्वाहिश की कतरन है केवल

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आलोक श्रीवास्तव

जन्म: 30 दिसम्बर 1971

शिक्षा: स्नातकोत्तर(हिंदी)

रचनाएँ: आमीन(गज़ल संग्रह), आफरीन(कहानी-संग्रह), हंस, वागर्थ, कथादेश, इंडिया टुडे, आउटलुक आदि में रचनाएँ प्रकाशित|

सम्पादन: नई दुनिया को सलाम-अली सरदार जाफरी, अफेक्शन-बशीर बद्र, हमकदम-निदा फाज़ली|

विविध: फिल्म एवं टी.वी. धारावाहिकों के लिए गीत तथा कथा लेखन, प्रतिष्ठित पार्श्व गायकों द्वारा ग़ज़ल एवं गीत गायन|

सम्मान एवं पुरस्कार: मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत कुमार पुरस्कार, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, सुखन सम्मान, मॉस्को रूस का अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, कथा यूं.के. की और से ब्रिटेन की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में सम्मानित, वर्ष 2020 का अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान|


प्रीति तिवारी के सौजन्य से

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