बुधवार, 1 मई 2024

विजय राही

महामारी और जीवन 

कोई ग़म नहीं 

मैं मारा जाऊँ अगर 

सड़क पर चलते-चलते 

ट्रक के नीचे आकर 


कोई ग़म नहीं 

गोयरा  खा जाए मुझे 

खेत में रात को 

ख़ुशी की बात है 

अस्पताल भी नहीं ले जाना पड़े 


कोई ग़म नहीं 

ट्रेन के आगे आ जाऊँ 

फाटक क्रासिंग पर 

पटरियों से चिपक जाऊँ 

बिलकुल दुक्ख  न पाऊँ 


अगर हत्यारों की गोली से 

मारा जाऊँ तो और अच्छा 

आत्मा में सुकून पाऊँ 

कि जीवन का कोई अर्थ पाया 


और भी कई-कई बहाने हैं 

मुझे बुलाने के लिए मौत के पास 

और कई-कई तरीके हैं मर जाने के भी 


लेकिन इन महामारी के दिनों में 

घबरा रहा हूँ मरने से 

उमड़-घुमड़ रहा है मेरे अंदर जीवन 

आषाढ़ के बादलों की तरह 

जबकि हरसू मौत अट्टहास कर रही है।

_____________________________________

 जेबकतरा 

मैं उसे पहचान नहीं पाया 

मुझे पैसे-काग़ज़ातों का ग़म नहीं 

मैं तो उससे पूछना चाहता हूँ 

किस कमजोर पल का इंतज़ार करता है वह 

शातिर प्रेमियों की तरह 


जो खुद को चालक समझने वाला कवि 

मात खा गया आज एक ऐसे आदमी से 

जिसने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है 

आहिस्ता से पीछे की जेब से पर्स पार किया 

इस तरह तीरे-नीमकश भी जिगर के पार नहीं होता 


मैं उसके हाथ चूमना चाहता हूँ

और कहना चाहता हूँ 

पैसों की शराब पी लेना चाहे 

आधार-जनाधार कूड़े में फेंक देना 

अगर मन करे तो पर्स रख सकते हो 

लेकिन पर्स में रखी प्रेम-कविता को मत फेंकना 


उसे अपनी प्रेमिका को सुनाना और बताना 

कि यह मैंने लिखी है तुम्हारे प्यार में 

जिस दी जेब नहीं काट पाया और निराश था 

उस दिन यह कविता और कागज ही मेरे पास था।

___________________________________ 

गर्मियाँ 

सूख गया है तालाब का कंठ 

उसके पास खड़े पेड़ पौधे उसकी ओर झुक गए हैं 

उसको जिलाए रखने के लिए हवा कर रहे हैं 

उनके पत्ते झरते हैं उसकी तपती देह पर 


अचानक उसकी छाती में हिलोर उठती है 

एक औरत घड़ा लेकर गीत गाती आ रही है 

उसको पानी पिलाने के लिए।

_________________________________

बेबसी 

सर्दी की रात तीसरे पहर 

जब चाँद भी ओस से 

भीगा हुआ सा है 

आकाश की नीरवता में 

लगता है जैसे रो रहा है 

अकेला किसी की याद में 

सब तारे एक-एक कर चले गए हैं।

बार-बार आती है कोचर की आवाज़ 

रात के घुप्प अंधेरे को चीरती हुई 

और दिल के आर-पार निकल जाती है 

पांसूओं को तोड़ती हुई 

झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है 

रात के उतार के साथ।

हल्की पुरवाई चल रही है 

काँप रही है नीम की डालियाँ 

हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है 

ऐसे समय में सुनाई देती है 

घड़ी की टिक-टिक भी 

बिलकुल साफ़ और लगातार बढ़ती हुई।

बाड़े में बंधे ढोरों के गले में घंटियाँ बज रही हैं 

अभी मंदिर की घंटियाँ बजने का समय 

नहीं हुआ है 

गाँव नींद की रज़ाई में दुबक है।

माँ सो रही है पाटोड़ में 

बीच-बीच में खाँसती हुई 

कल ही देवर के लड़के ने 

फावड़ा सर पर तानकर 

जो मन में आई 

गालियाँ दी थी उसे 

पानी निकासी की ज़रा सी बात पर।

बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया 

"माँ! आपकी तो उम्र हो गयी 

मर भी गई तो कोई बात नहीं 

आपके बड़े-बड़े बेटे हैं।

हमारे तो बच्चे छोटे हैं!

हम मर गए तो उनका क्या होगा?"

माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है 

डरी हुई काँपती हुई,

घबराती आवाज़ में रुदन 

सीने में कुछ दबाव सा है।

मैं माँ के बग़ल वाली खाट पर सोया हूँ 

मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास 

एक बात ये भी है कि-

माँ की परेशानी का भान है मुझे 

बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र 

माँ अकेले में डरने लगी है।

जब तक बाप था 

माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती 

रात में बेबात पिटती 

मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ  

माँ को दिन-रात कँपाती 

बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियाँ 

माँ को सपनों में डराती 

फिर देवर जेठों से भय खाती रही 

और अब अपनी औलाद जैसों का डर।

 माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई 

कंपकंपाती, डर खाई आवाज़ 

जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही 

जगने पर बड़बड़ाहट मैं बदल जाती है 

मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ 

माँ बताती है कि-

"वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है।

मैं उसे कह रही हूँ-

आ गैबी !

आज मेरे दोनों बेटे यहीं हैं 

इनके सामने मार मुझे!"

मैं चुपचाप सुनता हूँ 

सारी बात बुत की तरह 

कुछ नहीं कह पाता।

माँ भी चुप हो जाती है 

उसे थोड़ी देर  बाद उठना है 

मैं झूठमूठ सोने का बहाना करता हूँ 

मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।

________________________________

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

मुझे घर से निकलना ही पड़ेगा ।


मेरे लहजे में है तासीर ऐसी,

कि पत्थर को पिघलना ही पड़ेगा।


पुराने हो गए किरदार सारे,

कहानी को बदलना ही पड़ेगा।


तुम्हीं गलती से दिल में आ गये थे,

तुम्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा।


वो जो मंज़िल को पाना चाहता है,

उसे काँटों पे चलना ही पड़ेगा।

_________________________________________

विजय राही 

जन्म: 3 फ़रवरी 1990

रचनाएँ: हंस, पाखी, तद्भव, मधुमती, सदानीरा, कथेसर आदि में कविताएँ प्रकाशित।

सम्मान एवं पुरस्कार: दैनिक भास्कर का राज्य युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार,2018

क़लमकार मंच का राष्ट्रीय कविता पुरस्कार (द्वितीय),2019

सम्प्रति राजस्थान सरकार में शिक्षक। 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट