पंच-अतत्त्व
'मैं ताउम्र जलती रही दूसरों के लिए
अब मुझमें ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'
-आग ने यह कहकर
जलने से इनकार कर दिया
'मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे
बाहर की हवा ठीक नहीं है'
-ऐसा हवा कह रही थी
'मेरे पिघले हुए को भी
कहाँ बचा पाए तुम?'
-ऐसा पानी ने कहा
और भाप बनकर गायब हो गया
'मैं अपने आपको समेट लूँगा
इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में
छेद करती बढ़ रही हैं'
-ऐसा आकाश ने कहा
और जाकर छिप गया इमारतों के बीच
बची दरारों में.....
जब धरा की बारी आई
तो उसने त्याग दिया घूर्णन
और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में
दोनों हाथ ऊपर किए हुए
यह कहकर -
'मैं बिना कुछ किए
सज़ा काट रही हूँ!'
इससे पहले कि मेरा शरीर कहता -
'मैं मर रहा हूँ'
वह यूँ मरा
कि न उसे जलने के लिए आग मिली
न सड़ने के लिए हवा
न घुलने के लिए पानी
न गड़ने के लिए धरा
न आँख भर आसमान
फटी रह गईं दो आँखों को........
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पेड़पन
हम ऐसे पेड़ हैं
जिनके पैरों तले
ज़मीन और जड़ें भी नहीं
सूखी हुई बाँहें हैं
उनमें पत्तियाँ भी नहीं
हमारे सूखे हुए में भी इतनी क्षमता नहीं कि
किसी ठंढी देह को
आग दे सके....
जब हमने
अथाह भागने की जिद पकड़ी थी
तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया था|
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पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव
पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव
अपनी जड़ों में दबाकर रखी मिट्टी
बुलाया बादल और बारिशों को
सहेजे रखा पानी अपनी नसों में
दिए तुम्हें रंग
तितलियाँ, परिन्दें
घोंसले और झूले
पेड़ों ने दिए तुम्हें घर
घर के लिए किवाड़ और खिड़कियों के पलड़े
भी दिए तुम्हें
खुद जलकर दी तुम्हें आग
बुझकर के दिया कोयला
सड़कर के दिया ईंधन
पेड़ों ने तुम्हें
वह सब कुछ दिया
जिससे तुम जीवित हो
पेड़ों ने दिया तुम्हें
सम्पूर्ण जीवन
और
पेड़ों को तुमने दी
मृत्यु!
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उधार
मुझे चाहिए
एक पहाड़, उधार
जिसके अंतिम छोर तक
गूँज सकती हो मेरी आवाज़
जिसके काँधे पर
सर रखता हो बादलों का गुच्छा
और रोता हो ज़ार-ज़ार
एक नदी, उधार
जिसके किनारे घंटों बैठकर
पानी में करूँ पैर तर
जिसके दोनों ही किनारे हों
सात समंदर पार
एक पेड़, उधार
जिसकी शाखाएँ
चाहती हैं मुझसे गले लगना
जिसकी छाँव तले
बसा सकता हूँ, पूरा संसार
मुझे एक फूल, उधार
जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर
फिर उसी पौधे में लगा सकूँ
जिस पर एक तितली का
करता था वह इंतज़ार!
यही सब मुझे जीने के लिए
चाहिए उधार!
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खो चुकी क्षमताएँ
उँगलियों ने अब
छू कर पहचान लेने की क्षमता खो दी है
वे नहीं जानतीं-
जीवित और मृत
देहों के तापमान का फ़र्क
एक अदृश्य छुअन
घर बनाती है भीतर-
कसती हुई
दिल की धड़कन अब
फड़फड़ाहट में बदल चुकी है
वह भूल चूका है कि
किसी को बाँहों में भरने पर
कितना तेज़ भागना होता है
कितनी देर के लिए थमना
अब धड़कनें पल-पल चोट करती हैं
आँखों ने सुन्दरता
देखने का हुनर खो दिया है
अब वे गुलाब को ख़ून समझती हैं
चिड़ियों को मौत का संदेशा
धूप को एक शून्य
उन्हें अँधेरे में सुख मिलता है
वे अब चाहती हैं कि
बारिश का रंग भी काला भी रहे
भीतर एक ज़िंदगी रहती थी
वह निकलकर जा चुकी है कहीं
किसी क़ब्र में
वापस आने के लिए
पैरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं
क़लम से ख़ून रिसने लगा है
एक नीली कविता
अब लाल है|
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मुदित श्रीवास्तव
29 नवम्बर 1991 को जन्मे कवि-लेखकमुदित श्रीवास्तव ने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है| पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता इनकी कविताओं की विशेषता है| बाल-पत्रिका 'इकतारा', द्विमासी पत्रिका 'साइकिल' आदि के लिए कविता, कहानी लिखते हैं | देश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| फोटोग्राफी तथा रंगमंच में रूचि रखते हैं|
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