गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

उषा कांता चतुर्वेदी

1. मैंने सपना देखा


मैंने सपना देखा -
इस शताब्दी के अंत के साथ 
बच्चे फिर से 
निकल आए हैं बाहर 
खुले मैदानों में 
दौड़ते हुए
फलांगते हुए 
उन कँटीले तारों को 
जिनमें उन्हें लाकर 
बंद कर दिया था 
हमारी व्यवस्था की साज़िशों ने 
जिसमें वो 
खिड़की खोलना भूल गए,
भूल गए 
हर आत्मीय स्पर्श 
बस सोचते रहे 
पीठ पर बोझा लादे 
और माथे की सलवटों में गुम होते 
चले गए।

मैंने सपना देखा -
बच्चों ने खिड़की खोलकर 
आसमान देखा 
और झटक दी 
अपने ऊपर आ पड़ी 
असमय ही झुर्रियाँ उम्र की। 
वो हँस रहे थे 
अपनी ही हँसी 
वो खेल रहे थे 
अपना ही बचपन 
और वो ढूँढ रहे थे 
अपने ही खेल... मिट्टी के ढेर में से।

मैंने सपना देखा - 
फूलों की छतरी के नीचे 
रिश्ते आ बैठे हैं 
एक-दूसरे को छूते 
एक-दूसरे को पहचानते। 

आओ -
हम और तुम 
इस खुशनुमा सपने की खाद डालकर 
एक पौधा रोप दें 
आस्था का 
जो कभी तो दरख़्त बनेगा 
जो -
छाया करेगा 
हमारे बच्चों पर 
जब... वो 
मूल्यहीनता की जलती धूप  में 
भटककर लौटेंगे 
एक दिन।
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2. बहता वक्त, थमते कदम


वह भी एक वक़्त था 
जब -
नदी और मेरे बीच 
कुछ नहीं था 
पेड़ और मेरे बीच 
कुछ नहीं था 
मौसम और मेरे बीच भी 
कुछ नहीं था।
अब - 
हमारे बीच 
कुछ ज़िम्मेदारी है 
कुछ दुनियादारी है 
कुछ समझदारी है। 

आज -
दिखती है नदी 
और 
उखड़ने लगते हैं पैर  
धरती पर से 
भरोसे की फिसलती रेत 
चुभने लगती है 
पोर-पोर में 
और 
दिखने लगता है पेड़ 
कहीं हरा भरा 
जीवन से लदा-फदा 
पर 
निशब्द... झरने लगती हूँ मैं 
किसी पीले पत्ते-सी 
उड़ने लगते हैं रिश्ते 
धूल से 
और आँखों में भर जाते हैं। 
एकाएक 
उतर आता है मौसम... भीतर।
मौसम में बहती नदी 
अमलतास का 
काँपता पेड़ 
पर मैं 
दौड़ते वक़्त को पहचानती हूँ आज  
मुट्ठियों में भरे ढेरों सवालों को 
अनदेखा करती 
देखती हूँ वक़्त को 
और 
धीरे-धीरे 
दुनियादार हो जाती हूँ। 
एक सिलसिला है 
खुद के होने 
और खोते जाने के बोध का 
जो बार-बार 
मुझे 
नदी पेड़ और मौसम से 
निकालकर 
समझदार बनाता है।
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3. रात भर


रात भर - 
भीतर नदी उफ़नती रही 
पेड़ों से अँधेरा झरता रहा 
सूरज - 
उगने की बाट जोहता
सागर के पीछे 
ऊँघता रहा।

चौखट -
किसी प्रतीक्षा में 
खुली रही 
सन्नाटा रह-रहकर 
खिड़की पर बजता रहा। 

रात भर -
हवा में सरसराता रहा 
अकेलापन
कोई संबंध 
बड़ी ख़ामोशी से 
बारिश की बूँदों में 
टपकता रहा। 

रात भर -
नींद की चाह में 
खुली रही आँख 
कोशिश करती रही 
देखना वही सपना -
जो एक बार फिर
सपना हो गया।
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4. यात्रा हूँ एक 


मैं -
नाम नहीं 
अपने को उद्घोषित करता 
कोई पता भी नहीं 
होने को स्थापित करता 

मैं -
यात्रा हूँ एक 
अपने से अपने तक पहुँचने की 
इस तीर्थयात्रा में 
शंखनाद की तरह 
तमाम दुखों को 
सुखों में बदलती 
गूँज उठती हूँ मैं 

मैं -
जब होती हूँ 
अपने पास 
एक सत्य की तरह 
तब 
सूरज की साक्षी में 
किसी पुण्य में
बदल जाती हूँ।
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उषा कांता चतुर्वेदी गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लेखन करती हैं। उनकी कहानी, कविता और समीक्षाएँ समय-समय पर हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी दो कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हैं। लेखिका संघ द्वारा प्रकाशित कविता और कहानी संकलनों और दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े कवियों के संग्रह पुनर्सम्भवा में उनकी रचनाएँ संकलित हैं। लंबे समय तक वे आकाशवाणी से संबद्ध रही और शिवाजी कॉलेज से एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त हुईं। वर्तमान में वे दिल्ली में निवास करती हैं।
ईमेल - uk.mithilesh@gmail.com

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

विजय राही

1. उसका घर


वह कोई अनुपम नहीं होगा
और न ही बिलकुल अलहदा
लेकिन मेरी कल्पना में वह ऐसा ही था

कभी वह हरी-भरी घाटियों बीच 
नज़र आता मुझे
कभी एक झरने के ठीक बगल में
चौड़ी चट्टान पर खड़ा होकर
बाँहें फैलाकर पुकारता 

कभी किसी गाँव के कोने में 
संकोच के साथ दिखता मुझे
कभी शहर के आस-पास
जैसे उसे गाँव आया ही नहीं हो रास

कभी मैं उदास होता 
उदासी के प्रतिरूप में खड़ा करता उसे
एक बियाबान में अकेले तपते हुए
किसी रेगिस्तानी पेड़ की तरह

यह मेरे प्रिय कवि का घर था
जहाँ मैं कभी नहीं गया
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2. बहन


एक घंटे में लहसुन छीलती है
फिर भी छिलके रह जाते हैं
दो घंटे में बर्तन माँजती है
फिर भी गंदे रह जाते हैं 
तीन घंटे में रोटी बनाती है
फिर भी जली, कच्ची-पक्की

कुएँ से पानी लाती है 
मटकी फोड़ आती है
जब भी ससुराल आती है
हर बार दूसरी ढाणी का
रास्ता पकड़ लेती है 

औरतें छेडती हैं तो चुप हो जाती है
ठसक से नहीं रहती बेमतलब हँसने लगती है 
खाने-पीने की कोई कमी नहीं है
फिर भी रोती रहती है
"काँई लखण कोनी थारी बहण में"

यह सब 
बहन की सास ने कहा मुझसे
चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए
जब पिछली बार बहन से मिलने गया 

मैंने घर आकर माँ से कहा
बहन पागल हो गई है
सास ने उसको ज़िंदा ही मार दिया
कुएँ में पटक दिया तुमने उसे 

माँ ने कहा 
लूगड़ी के पल्ले से आँखें पोंछते हुए
"तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो
म्हारी बेटी खूब मौज में है!"
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3. बारिश


जैसे हमको गाड़ी दूर से दिख जाती है
माँ को दूर से दिख जाती है बारिश 
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4. बिछड़ना 


जीवन में जो भी शख़्स मिला मुझे
मिला कम और बिछड़ा बहुत

सबसे पहले अपने पिता से बिछड़ा
जब मैं दूसरी क्लास में था
अगले साल चौथी के लिए कह रखा था उन्होंने 
उनको लगता था मैं पढ़ने में तेज़ हूँ
परंतु ऐसा कभी नहीं हो पाया 

फिर मेरे जीवन में प्रेम आया
लेकिन वह भी आता कम,
जाता अधिक दिखा 
 
बिछड़ने के ग़म का 
इतना ख़ौफ़ है मेरे मन में कि 
मैं चाहकर भी बच्चे का स्कूल नहीं बदल पा रहा हूँ

मुझे लगता है उसके दोस्त बिछड़ जाएँगे 
जो मैं कभी नहीं चाहता 
क्योंकि उन्हें देखकर मुझे अपने दोस्तों की याद आती है
और रुलाई अधिक आती है।
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5. याद


सौंफ कट चुकी है
मगर उसकी ख़ुशबू नहीं
डंठलों में भी उतनी ही ख़ुशबू है
जो अभी कुछ दिन और रहेगी हवाओं में

तुम्हारे चले जाने पर भी
तुम्हारी याद की ही तरह
यह तपेगी
जलेगी
ढह पड़ेगी
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6. झाड़ू


पक्षियों के पास होती है पंख की झाड़ू
पशुओं के पास होती है पूँछ की झाड़ू
आसमानों की झाड़ू है बादल
और धरती की झाड़ू है आँधियाँ

कुदरत के पास कितनी ही 
दृश्य और अदृश्य झाड़ू है
काश मेरे पास भी होती कोई ऐसी झाड़ू 
जिससे बुहार पाता अपनी आत्मा को
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 विजय राही















विजय राही का जन्म 3 फरवरी 1990 दौसा राजस्थान में हुआ । इनकी स्नातक शिक्षा राजकीय महाविद्यालय दौसा तथा स्नातकोत्तर की शिक्षा राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से हुई। हंस,पाखी, तद्भव, वर्तमान साहित्य, मधुमती, विश्वगाथा, कथारंग, सदानीरा, किस्सा कोताह, साहित्य बीकानेर, दैनिक भास्कर, समालोचन, कविता कोश जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेब पटलों पर इनकी कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं। रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम 'आज कविता' शृंखला के लिए इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तथा राजस्थान साहित्य अकादमी में इनकी कविताओं का पाठ हुआ। दूरदर्शन राजस्थान एवं आकाशवाणी, जयपुर केंद्र से इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। वर्तमान समय में विजय जी राजकीय महाविद्यालय कानोता में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।
संपर्क - 9929475744
ईमेल - vjbilona532@gmail.com

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मीता पंत

 1. घास 


नहीं है ख़ास 
घास ही तो है घास
गाहे-बगाहे 
अनचाहे 
उगी-फ़ैली-जमी-उखड़ी-कुचली-रौंदी-दली
फिर भी बली। 

बरसात की हरियायी सौंधी धूप में 
चमचम चमकती 
रौशनी जैसी दमकती 
मखमली 
फैली-फली।

घास 
धरती के भीतर भी 
बाहर भी 
जमी, जड़ पकड़ती
सूखती 
फिर-फिर निखरती
क्या जिजीविषा 
कौन-सा अमरत्व लेकर 
अपने लिए 
कंक्रीट की दरारों में भी रच लेती घर!

ढेर से कीड़े मकोड़े 
गिलहरियाँ -तितलियाँ 
चौपाये, दोपाये सभी हम 
फैली हुई इस हरीतिमा के 
बिना जाने ऋणी हैं
पर कोई नहीं आता बचाने घास को 
ग्रीष्म के जलते शरों से।

कौन सहलाता है 
कुचले हुए तिनके?
कौन कहता है कि ठहरो 
फैलने दो 
झूमने दो घास को 
ढीठ पर 
नन्हा-सा सर 
अपना उठा लेती है
मौक़ा 
जहाँ जब भी पा लेती है।

एक नीले धुले अकाश के नीचे 
हरी चमकीली धरती 
क्या नहीं संदेश ये हम को मिले उस प्रेम का!
क्या नहीं संदेशवाहक 
हरेक ये मामूली तिनका घास का।
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2. युद्ध


वह भी एक सिपाही है 
तुम भी एक सिपाही हो 
वो भी मरने आया है 
तुम भी मारे जाओगे।

देश बचेगा
और बचेंगी वही रंजिशें – वही अदावत 
वही हुक्मराँ – वही सियासत
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 

नारे खूब लगेंगे बेशक 
माला फूल चढ़ेंगे बेशक 
दिए जलाए जाएँगे 
सर भी लोग झुकाएँ
गे

फिर कुछ दिन में भूल-भाल 
सब अपने घर को जाएँगे
कहीं कोई एक घर सिसकेगा
गीली आँखों कोई आँगन 
गए हुओं की राह तकेगा
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 
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3. विश्वास


पेड़ की फुनगी पे बैठी 
एक चिड़िया जानती है 
पेड़ ने थामा हुआ है 
एक पूरा आसमान।

मैं न मानूँ, तुम न मानो 
एक चिड़िया मानती है 
एक पूरा आसमाँ 
एक पेड़ के कंधों पे है।
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 4. मामूली औरतें 


मामूली औरतों के पास हैं ग़ैर मामूली टोटके
अपच-सर्दी-खाँसी-झड़ते बालों से लेकर 
चाय, कॉफ़ी के दाग छुड़ाने 
मूली के पत्तों का सुस्वादु साग बनाने तक के। 

कमरे की दराज़ें पहचानतीं हैं उनकी ऊँगलियों का स्पर्श 
फर्श उनके पैरों की चाप से धड़कता है 
छतें उन्ही के कंधों पर टिकी हैं 
अपने आप में एक पूरा घर हैं ये मामूली औरतें। 

एक दिन कुछ यूँ होगा 
कि सारी मामूली औरतें निकल आएँगी घरों, चौहद्दों से बाहर 
और तोड़ डालेंगी तमाम आड़ी-तिरछी दीवारें। 

वे समतल कर देंगी ऊबड़-खाबड़ ज़मीनें 
बंजर धरती पर बनाएँगी मेड़ों वाली क्यारियाँ 
और रोप देंगी उनमें गेंदे, गुलदुपहरिया, गेहूँ और गुलाब  
वे साफ़ कर देंगी नालियाँ, बुहार देंगी सड़कें,
धो डालेंगी रगड़-रगड़कर ख़ून सनी सीढ़ियाँ 
और ओनों-कोनों में रख देंगी महकते लोबान 
जहाँ-जहाँ वे पैर रखेंगी सिमटती जाएगी बेतरतीबी 
आँगन में साफ़ धुली साड़ी की तरह लहराएगी धूप 
उम्मीद के धान में से चुन लेंगी वे सारे कंकड़  
हाथ का सब काम निपटा 
किसी बहती नदी के मुहाने बैठ 
धूप भरे पानी के छींटें मार एक दूसरे पर, खुल कर हँसेगी   
उस दिन उन्हें घर लौटने
की कोई हड़बड़ी नहीं रहेगी।
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5. कवि


जिन के हृदय प्रेम से लबालब थे 
वे ऐसी दुनिया को प्रेम करने का दावा करते थे 
जिसमें नहीं बचा था कुछ भी प्रेम के लायक़  
जिनके हृदय घृणा से भरे थे 
उन्होंने अपने विष से फूँक डाला 
जहाँ भी जरा सा कुछ बचा था प्रेम करने लायक़ 
जो भरपूर प्रेम नहीं कर पाए
न ही कर सके भरपूर घृणा 
ऊबते-डूबते रहे प्रेम-अप्रेम के मध्य 
उनके हृदय में बची रही वेदना 
कविता बची रही उन 
ही के पास 
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6. एक और मैं


मेरे अंदर 
एक और मैं हूँ
तुम जिसे देखते हो 
वो भी मैं हूँ, 
और मैं जिसे जानती हूँ 
वो भी

एक आवाज़ है,
जिसे तुम सुन पाते हो
और एक आवाज़ 
बस मुझे ही सुनाई देती है।
मैं तुम्हें नहीं सुना सकती
तुम डर जाओगे।

वो चिड़ियों की तरह,
झरनों की तरह,
पत्तों की सरसराहट की तरह,
गा सकती है कहीं भी,
कभी भी 

एक चेहरा है 
जो तुम्हें दिखता है,
उम्र और थकान के निशानों के साथ।

और एक चेहरा
केवल मुझे दिखता है 
सुंदर, शफ्फाक़, पुरनूर
एक सूरज जैसा चेहरा
तुम देख मत लेना
आँखें दुख जाएँगी

एक हँसी है 
जो तुम सुनते हो,
और बहुत-सी बातें हैं 
जो तुम करते हो मुझ से
पर एक ख़ामोशी है 
जिसे सुनती हूँ केवल मैं
करती हूँ अक्सर उस से बातें
तुम उसे सुनकर क्या करोगे?
समझोगे ही नहीं

ज़िंदगी जीने के लिए 
मैं जानती हूँ 
मुझे हमेशा वही रहना पड़ेगा 
जिसे तुम - 
देख, सुन, छू, समझ सको
वो 'एक और मैं'
मेरे अकेले के हिस्से आई है।
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 मीता पंत





           




मीता पंत का जन्म 1974 में उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में हुआ। इन्होंने कुमायूं विश्वविद्यालय से बीए और एमए (अँग्रेज़ी) की उपाधि प्राप्त की। इनके दो कविता संग्रह 'झरता हुआ मौन' और 'उजालों का लिबास' नाम से प्रकाशित हुए हैं। इनकी कविताएँ समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक पटलों पर प्रकाशित होती रही हैं।

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

अर्पिता राठौर

 1. लड़कियाँ 


कवि के पहले ड्राफ़्ट की भाँति
मान ली जाती हैं
लड़कियाँ
वे लिखी जाती हैं
मरोड़कर
फेंक देने के लिए।
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2. गेंदा 

 
तुमने कभी गेंदे का फूल देखा है?
देखा है कि कैसे खिलता है
थोड़ा-थोड़ा…
एक दिन में नहीं लाकर रख देता है
अपने हफ़्तों के किए हुए श्रम को
मेहनत के एक-एक कण को
उभारता है
धीरे-धीरे
इस बीच
गर तुम्हारे सब्र का बाँध टूट जाए
तो घूम आना कुछ देर
गुड़हल के पास
वह ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराता।
जब तक तुम उसे
खिलता-मुरझाता देख आओगे
तब तक गेंदे का ये फूल
इंतज़ार करता रहेगा तुम्हारा
और यूँ ही खिलता रहेगा।
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3. मुझे कविता नहीं आती


वह तो बस कई दफ़े
रोटी सेंकते
नज़र अटक जाती है
दहकते तवे की ओर
और हाथ
छू जाता है उससे
तब उफ़न पड़ती है
कविता।
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4. मैंने अपने जीवन के


मैंने अपने जीवन के 
सबसे उदास क्षणों पर
कविता तब लिखी
जब उस उदासी को लेकर
मैं सबसे ज़्यादा तटस्थ थी।
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5. पिता का 49वाँ जन्मदिन


उम्र के साथ उनके चेहरे पर लटकी मुस्कान को
मैंने उनकी उम्र से आधी होते हुए देखा।
माथे की शिकन
जिसने कभी बैठना नहीं सीखा था
वह पिता की उम्र से
दुगुनी हो चुकी है।
रिटायरमेंट तक पहुँचने से पहले ही
पिता मना चुके होंगे
अपनी शिकन की
डायमंड जुबली।
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अर्पिता राठौर 


अर्पिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. कर चुकी हैं। इन्हें डिजिटल चित्रकारी का शौक है। इनकी रचनाएँ कविता कोश, हिंदवी, सदानीरा जैसे डिजिटल पटलों पर प्रकाशित हैं। आलोचना, बनास जन, मधुमती जैसी पत्रिकाओं में समय-समय पर इनके लेख प्रकाशित होते रहे हैं। 
ईमेल - arpirathor@gmail.com

बुधवार, 20 नवंबर 2024

आलोक कुमार मिश्रा

1. कुछ भी अकेले नहीं होता घटित 


कुछ भी अकेले नहीं होता घटित
एक के साथ दूसरा, तीसरा, चौथा या और भी होता ही है
हम देख भले न पाएँ सबको 
अब देखो जब पैदा होता है एक शिशु
तो साथ में ही तो पैदा होती है एक माँ भी
ममता और उम्मीदों से भरी 
बिलकुल एक नई स्त्री जैसी
और जन्मता है एक पिता भी
जिम्मेदारियों से लैस एक बेहतर आदमी जैसा।

बारिश के साथ-साथ ही तो 
चली आती है हरियाली, उपज, ज़िंदगी और खुशी
प्रेम के उपजते ही तो पैदा होते हैं
सौंदर्य 
सहचर्य
और बिछोह

तो अगली बार
जब भी देखना किसी एक को
करना कोशिश
देखने की दूसरे, तीसरे, चौथे और अगले को भी।
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2. माँग


तुम छूती हो मुझे
तो छू लेती हो मेरे भीतर की हज़ारों दुनिया भी
तुम चूमती हो मुझे 
तो चूम लेती हो मेरी असंख्य कामनाओं को भी
तुम पकड़ती हो जब भी हाथ मेरा
सख़्त दुनिया बदल जाती है मुलायम फाहों में 

सच बताओ
क्या-क्या होता है क्या बदलता है
मेरे होने से तुम्हारी दुनिया में 

यदि कुछ नहीं तो
मुझ अभागे को तुम्हारी उपेक्षा का शाप चाहिए।
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3. इन दिनों 


जब सब दुखी हैं
जब सभी हैं अपमानित 
जब कुछ भूख से पीड़ित हैं और कुछ लोभ से
कुछ में शक्ति की क्रूरता है और बहुतों पर हैं उसके निशान
तब केवल करुणा ही बचती है 
जो जोड़ती है और बनाती है सबको इंसान

पर मैं देख रहा हूँ
रीत रही है करुणा इन दिनों
होती जा रही है कम पसीजते घड़े के पानी सरीखी
गरीबी और भूख दया या सहानुभूति के नहीं
उपहास के विषय बन गए हैं अब
सरकारों पर अब कोई दबाव नहीं है परिस्थितियों को बदलने का
बल्कि बन गई हैं ये ही उसकी ताकत का जरिया 
मैं देख रहा हूँ कि 
करुणा समेट रही है अपने पंख
धूसर हो रहा है आकाश।
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4. आश्वस्ति का छाता


तड़के ही गुज़र गया
पड़ोस में रहने वाली अधेड़ औरत का पति
उन दो के अलावा नहीं है कोई तीसरा परिवार में 
वर्षों से बीमार पति के साथ अकेली ही थी वह 
और उसके अंत समय में भी अकेली ही रही

उसके अंतिम क्षणों में हुई होगी वो औरत अधीर 
अपने पति से भी ज़्यादा 
तभी भागकर बजाई थी उसने डोर बेल कई पड़ोसियों की
पर कौन जागता यूँ सुबह तीन-चार बजे
जो जगे भी होंगे सो गए होंगे करवट बदल के

सुबह बेटे को स्कूल वैन में बैठाने को बाहर निकला तो देखा
कि सोसायटी का गार्ड खड़ा है उसके दरवाजे पर 
और वो उसी के सहारे अकेली ही बैठी है मृत शरीर के पास
वही मृत शरीर जिससे अब फूट रहीं थीं हजारों स्मृतियाँ
जिसको देखते हुए शून्य में भी फूटती थीं सिसकियाँ

मैंने देखा एक पड़ोसी गर्दन उचकाए उधर ही देखता हुआ चढ़ गया अपनी सीढियाँ
एक दूसरा पड़ोसी पूछते हुए निकल गया आगे
जैसे सब कुछ नॉर्मल सा हो
तीसरे या चौथे को भी कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ा

जुटे बहुत थोड़े-से रिश्तेदार
जिनमें से लगभग सभी सबसे नजदीकी श्मशान की दूरी जानना चाहते थे
और एक किलोमीटर दूर श्मशान तक कांधा न दे पाने की अक्षमता को छुपाते हुए 
तलाश रहे थे कोई वैन या एंबुलेंस लगातार

वह अधेड़ औरत बीच-बीच में अपने रोने की आवाज़ से 
बताती थी कि 
उन सबकी चिंताओं से बड़ा था उसका दुख
वह देखती थी उम्मीद और अपनेपन से हर ओर 
और फिर टिका लेती थी नज़र 
मृत देह पर

कुछ ही थे जो लगे थे
अंतिम क्रियाकर्म की व्यवस्थाओं में 
रोती औरत को समझाने में और
उसके कांधों पर रखके हाथ संसार की निस्सारता बताने में 
उन चंद लोगों के होने से ही दुख और विषाद की बारिश में 
खुल-खुल जाता था आश्वस्ति का एक छोटा छाता।
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5. कुछ पता ही नहीं चला 


वो प्रेमी था या कोई दोस्त था मेरी पत्नी का
ढंग से कुछ पता ही नहीं चला।
उसकी आँखों में झलका था पल भर को
वर्षों बाद अनायास मिल जाने की अप्रतिम खुशी का जल,
निमिष भर को तैरी थीं उनमें उछाह की मछलियाँ, 
उसके चेहरे पर उतरी थी एक गुलाबी आभा,
पूछते हुए उससे कि -
'कैसी हो सविता?'

पता नहीं उसे ये एहसास था भी या नहीं कि 
उसके मायके के इस पारिवारिक आयोजन में शामिल हूँ मैं भी, 
मैं यानी उसका पति, हमसफर, जीवनसाथी।
खाने की सामूहिक टेबल पर पत्नी के सामने की कुर्सी पर जीम रहा था मैं।
मैंने महसूस किया था कि खाना प्लेट में परोसते हुए और किसी के साथ बतियाते हुए भी
रह-रह कर देखता जाता था वो मेरी पत्नी की ओर
और मेरी पत्नी थी कि रमी हुई थी मेरे और बेटे के संग खाने में।

खैर, खाने की टेबल पर 
खाली रह गई दो कुर्सियों पर आकर बैठ गए वह और उसका साथी।
बड़े उत्साह, उछाह, स्नेह लेकिन गरिमा के साथ पूछा उसने- 
'कैसी हो सविता?' 
पत्नी ने कहा- 'ठीक हूँ।' 
कहते हुए चेहरे पर पहचान न पाने का भाव लिए
पहले देखा उसे और फिर मुझे।
उससे ज़्यादा मुझे ही कंधे उचकाकर जताया कि 'पहचानती नहीं इन्हें।' 

उस व्यक्ति ने हार नहीं मानी, बोला- 
'पहचाना नहीं, मैं... मैं...प्रेम!' 
पत्नी फिर भी जड़वत, आवाक् रही।
उसने बड़ी उम्मीद से आगे कुछ अधूरे वाक्य और जोड़े- 
'कक्षा आठ...साथ में परीक्षा देने जाते थे...बभनान का स्कूल...।' 
टोक दिया बीच में ही पत्नी ने- 
'नहीं, नहीं पहचाना।'
और फिर जुट गई बेटे के साथ खाने में।

वह बिलकुल उदास हो गया।
कुछ पल पहले ही उसके अंग-अंग में जो खिल उठे थे सहस्र फूल
सब मुरझाने लगे।
परेशानी, उदासी, हताशा सब एक साथ बरस पड़ीं
उसके चेहरे पर।

वह फिर कुछ बोलने को हुआ,
पत्नी ने बीच में ही टोक दिया-
'इनसे मिलो ये मेरे पति हैं, आपके जीजा जी।'
वह ठहर गया
मेरी ओर देखा पर कुछ न बोला। 
सिर्फ़ अभिवादन जताने को जरा-सा सिर और होंठ हिलाया।
फिर से मुखातिब हो मेरी पत्नी की ओर वह कुछ बोलने को हुआ। 
इस बार उसके साथी ने झिड़का उसे-
'यार चुपचाप खाना खाओ...तुम भी।'
वो सिर झुकाकर रोटी टूँगने लगा।
एक-दो मिनट बाद ही प्लेट लिए उठ गया वहाँ से।

मैं देर तलक सोचता रहा
उसके उत्साह, उमंग, उछाह से भरे हावभावों और स्नेह से भरी आँखों के बारे में,
उस पर अचानक उतर आई उदासी के बारे में, 
पत्नी के व्यवहार के बारे में।
उसका मेरे परिचय में अतिरिक्त रूप से जीजा जी लगाना जँचा नहीं मुझे।
अनुमान लगाता रहा उनके अतीत के बारे में कि 
क्या ये एकतरफा एहसास की कोई अधूरी कहानी थी या
सच में कोई स्नेहिल संबंध और समय रहा होगा ऐसा?
एक खुशनुमा एहसास ने घेर लिया मुझे,
कितने ही ऐसे बीत और रीत चुके अपने प्रेमिल पल याद जो हो आए।

और इस बारे में भी सोचा मैंने कि कहीं
मैं ही तो नहीं बना इस समय इन स्नेहिल स्मृतियों की बाधा
एक हमसफर के बजाय पति ही तो साबित नहीं हुआ ज़्यादा!
ख़ैर, मैं नहीं जान पाया कि कौन था वह
कोई दोस्त था, प्रेमी था, भुलाया जा चुका परिचित था
या जानबूझकर टाला गया कोई अवांछित।

एक पति जाने न जाने 
पर एक हमसफर को तो जानना ही चाहिए 
अपने जीवनसाथी की प्रेमिल स्मृतियाँ। 
धिक्कार है अगर एक पति हरा दे
एक प्रेमी को
एक जीवनसाथी को।
_____________________________________ 

आलोक कुमार मिश्रा

    

आलोक कुमार मिश्रा का जन्म उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम०ए० (राजनीति विज्ञान), एम०एड० और एम०फिल०(शिक्षाशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की है।
आलोक मिश्रा एससीईआरटी, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) के पद पर कार्यरत हैं। वे कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन करते हैं। उनकी रचनाएँ समय-समय पर जनसत्ता, दैनिक जागरण, वागर्थ, हंस जैसे पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित होती रहती हैं। 
वर्ष 2019 में बोधि प्रकाशन से उनका कविता संग्रह 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' प्रकाशित हुआ। प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित उनके बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' के लिए 2020 में उन्हें 'किस्सा कोताह कृति सम्मान' से सम्मानित किया गया।
ईमेल - alokkumardu@gmail.com

बुधवार, 24 जुलाई 2024

अमित तिवारी

क्रांति

वह चला था 

क्रांति की मशाल लेकर

बुझते-बुझते

सिर्फ़ गर्म राख बची है

जिसमें वह आलू भुन रहा है

मशाल और आग से ज़्यादा

अब उसे आलू की चिंता है

राख से छिटक कर उड़ते

क्रांति के आख़िरी वारिस  

देख पा रहे हैं कि

भूख चेतना का सबसे वीभत्स रूप होती है |

_____________________________________

परिधि

सब साफ़ दिखाई देता था

शरद पूर्णिमा की अगली रात भी

ढाबे पर पकती दाल की भाप

चन्द्रमा की परिधि पर उभरी

प्रेमिका की ठुड्डी

लौट रही साइकिल

दिख जाता था 

मचान पर लटकी

लालटेन का संघर्ष भी

एक अहीर ले आया 

दही की कहतरियाँ

सबने देखा 

किसी ने नहीं देखे 

चमरौटी की लड़की के फटते कपड़े |

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गज़ा के जूते

भागते, उजड़ते गज़ा में

बिखरे पड़े हैं जूते

उद्दाम लालसाओं से बेखबर युवाओं के जूते

गुलों, नज्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते

आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते

बूढों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते

जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर

एक लम्बे समय के निवेश की तरह खरीदे गये

गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते

और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं

ऐसे पैर

जो उनमें सही-सही अंट सकें 

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उपेक्षा

मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह

उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर

अनपेक्षित

मैं जड़ें पकडे झूलता रहता हूँ

और जब लगता है

कि उजाड़ जाएगा सब

जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ

में काँटे नहीं उगाऊँगा

और मरुँगा भी नहीं

उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर

तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है |

_________________________________

नव वर्ष

दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च

और जनवरी में बहुत पास

एक ही दिन में बदल जाता है साल, महिना, मन

जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा

और थका-बझा घर बन जाता है संगीतशाला

एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं

एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल

भारी-भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है

और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है

सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल

अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में 

और बसंत की ठिठुरती प्रतीक्षा में

घुल जाती है आशा-मधु अचानक

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अमित तिवारी 


1 अप्रैल 1994 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि अमित तिवारी की कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स पर प्रकाशित होती रही हैं| कविताओं के साथ-साथ व्यंग्य एवं अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं| 
सम्प्रति पेशे से सॉफ्टवेयर इंजिनीयर अमित मुंबई में निवास करते हैं| 
 

बुधवार, 17 जुलाई 2024

आशीष बिहानी

मार्गदर्शन

चौड़ी सपाट सड़क को 

फटी चट्टियों में पार करते नन्हें भिखारियों के हुजूम में से

एक स्कूटर धीरे-धीरे निकलता है 

जैसे सफ़ेद फॉस्फोरस को काटता चाकू

पापा की शर्ट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कसकर थामे

स्कूटर पर बैठी लड़की 

ऊपर को देखती है

सड़क किनारे के हरे-भरे पेड़ों के बीच

एक झुंझलाए, उलझन में डूबे वैज्ञानिक-सा

अस्त-व्यस्त शाखाओं वाला निष्पर्ण पेड़

झाँकता है अँधेरे में से उसकी इन्द्रियों में 

शहर के आकारवान स्थापत्य में  

अकेला-उजाड़-विद्रूप-खूंसट 

कहता है, "तुम कौन हो बेटे?

तुम जानती हो कि तुम्हारे शरीर में नन्हीं कोशिकाएँ 

बड़े नियंत्रित तरीक़े से विभाजित हो रहीं हैं

और विशाल अणु सूट-बूट पहन कर 

काम पर निकले हैं

तुम्हारा बिंदु-सा अस्तित्व जड़ें फैलाए हैं

पूरे शहर के तलघरों में

तुम कभी मजबूत भुजाओं, गुस्साई आँखों 

और मांसल स्तनों वाली

औरत बनोगी

शहर और तुम घूमोगे एक दूसरे के पीछे गोल-गोल

तुमने सोचा है, कितनी लोचदार होगी तुम,

पर झुकते वक़्त कहाँ रुक जाओगी?'

लड़की फटी आँखों से सुनती रही 

शहर भर के भगोड़े प्रेतों के 

रैन बसेरे की बहकी खड़खड़ाहट 


घर पहुँचने पर उसकी माँ उसके छितराए बालों में 

तेल लगाएगी 

चोटी गूंथते हुए उसकी बात सुनकर मशविरा देगी

कि वो सड़क किनारे के उज्जड वैज्ञानिकों की

झुंझलाईं-बुदबुदाईं कविताएँ न सुने

वे भागे हुए प्रेतों के जहाज हैं

सिर्फ़ सिसकियाँ-छटपटाहट-चीखपुकार 

सुनने के लिए

कुछ भी कह देते हैं 

_______________________________________

महाखड्ड

तम से लबालब वातावरण में

आभास हुआ 

रोशनी की उपस्थिति का

कारगार के अदृश्य कोनों में 

चमक उठी आशा


उसने इकठ्ठा किया

धैर्य और हिम्मत

जमीन पर बिखरे 

पतले बरसाती कीचड़ की भांति

अपनी कठोर हथेलियों में,

और डगमगाता हुआ

भागा

अँधेरी मृगमरीचिका की ओर 

गिर पड़ा 

नन्हीं विषाक्त अड़चनों पर से|


यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर

कीचड़ से अभिषिक्त,

ठठाकर हँसा 

टुकड़ों में बिखरी चमक को 

समय की चौखट में जमाकर

और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा 

अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी


उधेड़ दिए समय ने 

विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र

तीखी नोकों वाले 

त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,

दब गया सत्य

कमर पर हाथ रखकर 

उछली चुनौती उसकी ओर,

"उधेड़ दी है तूने

अपने पैरों तले की जमीन

सत्य की तलाश में.....

अब बुन इसे पुनः

या गिर जा

विक्षिप्तता के महाखड्ड में|"

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 कानून

दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं

वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं

चारों ओर गीली जीभों की भांति

लपलपाया करते हैं

राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं

गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर

और उतर जातीं हैं

गहरे कुओं में

जिनके पेंदों में हवाएँ चलना बंद कर देतीं हैं

स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं

और तुम उन्हें

डूबने के इंतज़ार में 

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बदलना 

लोग कहते हैं कि 

दुनिया बदल रही है

आगे बढ़ रही है

क्रमिक विकास के नतीज़तन 

पर ये सच नहीं है

क्योंकि हम आज भी गिरते हैं

उन्हीं खड्डों में

जो खोदे थे हमने 

लाखों साल पहले 

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यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया 

इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये

झाँक रहा है 

अपनी कठौती में


चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई

जल की लपटों के यज्ञ

में धू-धू कर जल रही है

रात के बादल धुंध के साथ मिलकर

छुपा लेते हैं तारों को

और नुकीले कोनों वाली इमारतों

से छलनी हो गया है

आसमान का मैला दामन

ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है

निर्माण के हाहाकार से


उखाड़ दिया गया है

ईश्वरों को मानवता के केंद्र से

और अभिषेक किया जा रहा है

मर्त्यों का

विशाल भुजाओं वाले यन्त्र

विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

  

उसके किले पर 

तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है

उस "इत्मीनान" के नीचे 

लोहा पीटने की मशीनों की भाँति

संभावनाएँ उछल-कूद कर रही हैं

उत्पन्न कर रही हैं 

मस्तिष्क को मथ देने वाला शोर 


उसकी खोपड़ी से

चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है

और हिल रही हैं

आस्था की जड़ें


एक रंगविहीन परत के

दोनों ओर उबल रहा है 

अथाह लावा

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आशीष बिहानी   

11 मार्च 1992 को जन्मे  युवा कवि आशीष बिहानी हिंदी और मारवाड़ी दोनों भाषाओं में रचना करते हैं| देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ महत्त्वपूर्ण ई पत्रिकाओं में भी इनकी कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं|

'अन्धकार के धागे' नामक एक काव्य-संग्रह 2017 में प्रकाशित हुआ है|

बीआईटी, पिलानी से अभियांत्रिकी तथा 'कोशिका एवं आण्विक जीव विज्ञान अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सम्प्रति 'मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान(कनाडा)' में शोधकार्य कर रहे हैं|

बुधवार, 10 जुलाई 2024

गौरव पाण्डेय

 गाँव से निकले बहुत लोग

१.

गाँव से निकले बहुत लोग

कुछ न कुछ करने 

और लौटे भी

जो कुछ बन पड़ा वो करके


लौटे कुछ ईंट-गारा करके

बोझा ढोकर लौटे कुछ

देर शाम तक

नमक-तेल-तरकारी लिए बहुत लौटे


कुछ ऐसे थे

जो लौटे बहुत दिनों बाद

बड़ा-सा बैग, रुपया, कपड़ा और सपने लेकर


लेकिन कुछ ऐसे भी थे

जो नहीं लौटे

खो गए


जो नहीं लौटे

उनमें अधिकतर ऐसे थे

जो कुछ हो गए

वे डॉक्टर, वे प्रोफ़ेसर, वे वकील

वे पत्रकार, वे थानेदार

ये जहाँ गए वहीं के रह गये थे


इधर जिनके लौटने की उम्मीद

खो चुका था गाँव

वे मृतकों के बीच से उठकर लौटे......


२.

ये नायक

गाँव के बेटे थे

अब दामाद की तरह लौटते थे


गाँव बीमार था

डॉक्टर इलाज करने नहीं आया

और निरक्षर गाँव ने

प्रोफेसर से एक अक्षर नहीं पाया

वकील ने गाँव को नहीं दिया कोई न्याय

और पत्रकार क्या जाने गाँव का हाल-चाल

दरोगा ने रौब दिखाया गाँव को ही


जब कभी 

दिखाया गया इन्हें कोई सम्मान 

तब ज़रूर चर्चा में रहा गाँव का नाम.........

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मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ

मैं दुनिया भर की 'मॉम' को

वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ 

चाहता हूँ 'डैड' हो चुके पिता

ऑफिस से लौट

आँगन में सेम के बीज रोपें


'सिस' हो चुकी बहन

और 'ब्रो' बन चुके भाई 

दीदी भी 'दी' हो गई हैं

यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास

इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ

षडयंत्र रचती भाषा की जड़ों में 

मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ


मकान की यात्रा करते हुए 

कमरों में पहुंचे घर को 

मैं वापस घर लाना चाहता हूँ|

_______________________________

पिता इंतजार कर रहे हैं

पिता आकाश देखते हैं

और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है

वो हवाओं को सोखते

और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते


पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है

जैसे लोगों को पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता

फिर भी उनका मानना है

 कि हमारा कोई न कोई नाता है ही 

इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना 


बादलों के रंग और रफ़्तार 

पिता खूब समझते हैं

उन्होंने बता दिया था

धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार

हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी


पिता चिंतित हैं

आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते 

महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध 

जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा 

और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी


पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं

और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं          


हम जानते हैं

पिता के मना करने के बावजूद

दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी    

आँगन की नीम का

जबकि पिता इंतज़ार कर रहे हैं 

कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर 

लौट आएँगे शहर से

और उस दिन पुरानी शाखाओं पर 

 एक बार फिर खिल उठेंगे नए-नए पत्ते....

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सरसों के फूल और बच्चियों के सपने 

घने कोहरे के बीच

खेतों से घर लौटती है माँ

बहन पीछे-पीछे


माँ के हाथों में हैं 

सरसों के कुछ पत्ते

और बहन की अंजुली में भरे हैं

बहुत से फूल सरसों के


द्वार की नीम से

दातुन तोड़ रहे हैं पिता

पड़ोस की बच्चियाँ दौड़-दौड़ बीनती हैं 

नीम की सींकें


माँ कतरती है सरसों के पत्ते

पड़ोस की बच्चियाँ 

बहन को घेर लेती हैं

सब मिल कर सींकों में पिरोती हैं 

सरसों के फूल


पहले कुछ फूलों से बनाती हैं लहरदार झुमका

और लड़ीदार नथिया

एक बच्ची के नाक-कान में लगा कर देखती हैं

हँसती हैं खिलखिला कर

बनाती हैं फिर माँथबेंदी, पायल, कर्धनी

और एक बड़े सींकें में पिरोती हैं 

ग्यारह बड़े-बड़े फूल

और सजाती हैं एक सुंदर हार 


सबकी सहमति से 

ये हार बहन के हिस्से आता है

वह गले के नजदीक लाती है

रुक कर तलाशती हैं नजरें माँ को


बच्चियों के इस कौतुक को 

रसोई की रौशनदान से देखती है माँ

और हाथ में नमक लिए सोचती है

'सरसों के ये टूटे फूल 

कब तक हरे रख पाएँगे

बच्चियों के स्वप्न को '


दूर से आवाज आती है

पिता के कुल्ला करने की

कड़ाही में नमक डालते हुए

माँ करछुल चलाने लगती है|

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ससुराल में झूला

 वो बुआ ही थीं हमारी

पिता को राखी बाँधती

हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती


बहनों को याद हैं

उनकी कजरी

सावनी झूलों के मोहक गीत

मजाल है भौजाइयों की

उनके रहते कोई झूला न चढ़े


झूलना उन्हें बहुत पसंद था 

हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ

एक दिन 

पंखे से झूलती मिलीं


बच्चियां बताती हैं

ससुराली घर से बाहर आकर 

उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी


(आज भी आता है सावन

पड़ जाते हैं झूले 

पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)

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 गौरव पाण्डेय 


26 दिसम्बर 1991 को जन्मे युवा रचनाकार गौरव पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिंदी) और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है| हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स पर कविताएँ और आलेख प्रकाशित हुए हैं | दो कविता-संग्रह 'धरती भी एक चिड़िया है' तथा 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' प्रकाशित हुए हैं | अंग्रेजी के अतिरिक्त बांग्ला, गुजराती, मराठी भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं| 

कवि गौरव पाण्डेय को 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' के लिए वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है |

सम्प्रति गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कर्वी, चित्रकूट, उत्तरप्रदेश में सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापनरत हैं| 


बुधवार, 26 जून 2024

हर्षिता पंचारिया

विषतंत्र

अपने तंत्र को मजबूत करने के लिए 

उन्होंने चुना साँपों को,

तालाब की मछलियों की संख्या

अधिक होने के बावजूद 

दानों की लड़ाई ने उन्हें इतना कमजोर बना दिया  कि

सांप के फुफकारने मात्र से मछलियाँ

तितर-बितर हो गईं,

बावजूद इसके कुछ मछलियों ने साँपों को 

अपना देवता माना|


क्योंकि साँपों ने केंचुली बदल ली थी|


अब चढावे में साँपों ने दूध माँगने की जगह

बस इतना कहा कि

केंचुली बदलने से सांप विषधर नहीं रहते|

मूर्ख मछलियाँ दानों के लालच में

सांप की प्रकृति भी भूल गईं|


काफ़ी समय से

तालाब पर अब सफ़ेद कपोत नहीं दिखते,

और अब मछलियों के अनाथ बच्चों ने साँपों को

अपना सर्वोच्च नेता मान लिया है,

जिन्होंने उन्हें भ्रम में रखा है कि

वो उन्हें विषैले तालाब से आज़ादी दिलाएँगे| 


अब मछलियाँ मरती जा रही हैं

तालाब सूखते जा रहे हैं

और साँपों का क्या है

उन्हें तो बस विष उगलना है

चाहे तालाब में या

तालाब के बाहर|

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नरभक्षी

जाते जाते उसने कहा था,

नरभक्षी जानवर हो सकते हैं

पर मनुष्य कदापि नहीं,

जानवर और मनुष्य में

चार पैर और पूंछ के सिवा

समय के साथ 

यदि कोई अंतर उपजा था

तो वह धर्म का था


फिर सभ्यता की करवटों ने धर्म को

कितने ही लबादे ओढ़ाएँ ,

पर एक के ऊपर एक लिपटे लबादों में

क्या कभी पहुँच पायी है कोई रोशनी?


धीरे धीरे अँधेरे की सीलन ने

जन्मी बू और रेंगते हुए कीड़े,

वे कीड़े जो आज भी

परजीवी बनकर जीवित हैं

मनुष्य की बुद्धि में,

जो शनै: शनै: समाप्त 

कर देंगे मनुष्य की मनुष्यता को|


जाते जाते मुझे उससे पूछना था

मनुष्यता की हत्या होने पर भी

क्या धर्म का जीवित रहना साक्ष्य है

मनुष्य के नरभक्षी नहीं होने का?

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मूर्ख

उसने कहा, तुम मूर्ख हो!

मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया|

हाँ....मैं मूर्ख हूँ, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ख!

मेरी स्वीकारोक्ति ने तो जैसे आग में घी डाल दिया हो|

उसने कहा, तुम जैसों का कुछ नहीं हो सकता!

मैंने कहा, वह तो और भी अच्छा होगा....

आप जैसों का समय बच जाएगा|

अब उसका क्रोध सातवें आसमान पर था|

 उसने कहा, तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही

यह दुनिया नर्क हो रखी है!


मैंने संयमित होकर कहा,

ताकि आप जैसे लोग, शायद इसे स्वर्ग बना सकें....

वह धम्म धम्म करता हुआ चला गया पर....

उसकी बड़बड़ाहट में मैंने यह सुना कि,

सयाने लोग सही कहते हैं-

'मूर्खों से मुंहजोरी जी का जंजाल है!'

जबकि मैं....

उससे चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती थी कि

'मूर्ख बने रहना इसलिए भी जरूरी है

ताकि बुद्धिमानी का दंभ जीवित रहे

और

जंजालों के जाल में बुद्धिमानों का वर्चस्व कायम रहे!'

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निषिद्धता

हे मृत्यु!

कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!


इतनी कि रुक ही नहीं रही हो

असंख्य वेदनाओं के रुदन से

अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से

और अब,

इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि

कितनी दिशाओं से आओगी तुम|


मृत्यु कहती है कि

यहाँ जीवन निषिद्ध है

पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,

कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है

क्योंकि 

निषिद्धता का नियम 

योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन

शासकों के हिस्से आया|


पर यकीन  मानो,

हम सब अभ्यस्त हो रहे हैं

असमय और अकारण हो रहे युद्ध के

और हमारा अभ्यस्त होना 

इस बात का परिचायक है कि

परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है

__________________________________

पिता

पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टालता है माँ का गुस्सा

माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते हैं पिता

माँ की चुप्पियों की चाबी होते है पिता

माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते है ताले 

इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बांधे रखती है 

चाबी

और संसार कहता है,

पिता

"बँधे हुए हैं माँ के पल्लू से"|


पिता के कहने भर से, कहाँ थामते हैं बच्चे हाथ

बच्चों की गहरी नींद में जागते सपने होते हैं पिता 

ऊब की परछाइयों में

हाथ थामते पिता इतना जानते हैं कि,

अवसाद कितना भी गहरा हो

उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनुओं से रख देंगें, 

मुट्ठी भर रौशनी संसार की विस्तृतता को बढाते हुए

शायद इसलिए 

पिता आसमान से होते हैं |


पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते हैं 

थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में

ताकि थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे 

उन्हें भी 

पिता-सा दुलार....

जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते हैं,

हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में

आज भी नहीं मानते पिता

उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक....

ऐसा कहते रहते हैं मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से|


कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा

पिता के जाने बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए

बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का

ऊँगलियों पर हिसाब रखने वाले पिता,

जब चारों ऊंगलियों को बंद करते हुए

 सोचते हैं कि उन ऊंगलियों से बंद मुट्ठी ही

यदि मेरा भाग्य है

तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है|


पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते हैं

यहाँ तक वह खुद को भी भूल जाते हैं

मैं उन्हें ढूँढती हूँ

तलाशती हूँ

यहाँ वहां थोड़ा बहुत खोजती हूँ

और वह मंदिर में बैठे 'गोपाल' की तरह 

मुस्कुराते हैं,

मुझे भजन सुनाते हैं....

'ओ पालनहारे

निर्गुण और न्यारे

तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं'|

_______________________________-

हर्षिता पंचारिया


5 नवम्बर 1985 को जन्मी युवा लेखिका हर्षिता पंचारिया ने एमबीए की उपाधि प्राप्त की है| इनकी रचनाएँ ब्लॉग्स, डिजिटल माध्यमों पर तथा 
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं|
'व्योमांजलि' नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है|

बुधवार, 19 जून 2024

राही डूमरचीर

 सरई फूल

झरिया उराँव के लिए


दरख्तों को उनके नाम से

न पुकार पाना

अब तक की हमारी

सबसे बड़ी त्रासदी है


कहा उससे -

मुझे सखुआ का पेड़ देखना है

बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से

सुनो! अपरिचय के बोझ से 

रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा


साथ चलने का इशारा कर

सारे दरख्तों से बतियाती

उनके बीच से लहराती चली

वह गिलहरी की तरह


एक पेड़ के सामने रुक

तोड़ कर फूल उसकी डाली से 

अपने जुड़े में खोंसते हुए

पलट कर कहा मुस्कुराते हुए -

अब चाहोगे भी

तो भुला नहीं पाओगे

________________________________________________

पूछा गौरया ने

एक दिन पूछा गौरया ने

अनुभवी बरगद से 

प्यास ज़्यादा पुरानी है

या ज़्यादा पुराना है पानी 


जगल में फैलती 

घास की गंध की तरह

फैली इस सवाल की बेचैनी

बहुत नीचे, जहां छुपकर मिलती थीं

पानी से बरगद की जड़ें

वहां भी मच गई खलबली

गौरये का मासूम-सा यह सवाल 

फैला इतिहास के हर मोड़ तक

पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना  

जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार 

वहां भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी


शाम को लौटने की बात कह कर 

निकल गई वह नदियों-पेड़ों से मिलने

इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा -

क्या समय था वह

जब प्यास और पानी साथ-साथ चलते थे

जब जहां प्यास लगती

पानी वहां पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित

इतना कि कभी-कभी नाक के रास्ते जा पहुंचता गले तक


फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की 

सभ्यतायें पानी के किनारे 

सभ्यता के नाम पर 

इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड  कर दिया

बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया

और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे

अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर

और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार

कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार 


शाम ढ़ले लौट कर जब आई गौरया

बरगद कहीं नहीं दिखा 

इधर-उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़ें थीं 

जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंजर था

कहते हैं

उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गौरया भी 

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हिम्बो कुजूर 

कोड़ा कमाने गए थे 

असम के गझिन चाय बगान

शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ

लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त 

पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को

चाय बागानों में छूटे रह गए गीत

तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को 

जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर

बच्चों की पढ़ाई के लिए 

सारी कमाई भेजते रहे थे देस

बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे

नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी ले आई उन्हें

छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी

उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं 

अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे 

गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे 

आकर खेलने लगे उनके मांदर पर 

भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अंगड़ाई 

रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे

मांदर को बजाते-बजाते जब

अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे

झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली

हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था


फिर एक दिन

जब घर बनाया जा रहा था 'ठीक' से 

पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए

पुराना मिटटी का बना मकान था

जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था

पहाड़ की तरफ मुँह करके 

आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते 

पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला 

फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला 

पुराने-पुराने पुरखों के गीत

जीवन के रंग से लबालब गीत

अब उनका एक नाती है आठ साल का

उनके साथ अपनी नन्हीं उँगलियाँ फेरता है मांदर पर

पुरखों के किस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से 


पूछ बैठा एक दिन -

कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने

आपके लिए एक अलग से कमरा भी है

जैसा मेरा है

आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा

चिहुँकते हुए कहा उसने -

पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है

मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने

थोड़ा बड़े हो जाओ

बढ़ जाए मांदर से दोस्ती और थोड़ी 

तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद

आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहां

इसलिए चला आया यहाँ वापस


आज हिम्बो कुजूर को

उनके ही गाँव की नदी से बालू धोने वाली 

एक अंजान ट्रक

नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई 

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दुखों का मौसम नहीं है पतझड़

हाड़ाम बा कहने लगे-

तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो

पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में 

दुःख लिख दिया है


पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है

मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिलकुल नहीं

 दिन रात चलते रहने वाले 

अनवरत संगीत के इस मौसम में

अपना जीवन जी चुके पत्ते

'नयों को भेजो दुनिया देखने 

हम तुम्हारी नींव में समाते हैं' - गाते हुए 

अपनी धरती से मिलने आते हैं


पतझड़ में पेड़ 

दुःख नहीं मनाते

न ही दुःख में डूबते-गलते

डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते

वे तो सोहराय में नाचते-गाते

अपने लोगों से बाहा परब में मिलने आते हैं 


इसी से है 

हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज

भूत नहीं बनते हमारे लोग

इस दुनिया से जाकर

वे साथ होते हैं हर मौक़े पर

हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं


पेड़ और पत्तों की रज़ामन्दी से आता है पतझड़

वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है

बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते

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राही डूमरचीर

 24 अप्रैल 1986 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि-लेखक

 राही डूमरचीर की प्रारम्भिक शिक्षा दुमका में, फिर 

शान्तिनिकेकन में, तत्पश्चात् जे.एन.यू. और हैदराबाद

 विश्वविद्यालय में हुई| सम्प्रति मुंगेर, बिहार में कॉलेज में अध्यापन करते हैं| 

प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, आलेख एवं अनुवाद 

प्रकाशित हुए हैं| 

बुधवार, 5 जून 2024

आलोक आज़ाद

 असफलता

सबसे मुश्किल होगा

शहर से वापस 

घर, गाँव लौटना


तुम लौटोगे

सालों के रेत के बाद

बारिश की तलाश में


और तुम्हारा लौटना

ऐसे होगा

जैसे बोई गई फ़सल 

पकने के वक़्त,

बर्बाद हुई और भूख के लिए कोसी गई.

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ईश्वर के बच्चे

क्या आपने,

ईश्वर के बच्चों को देखा है?


ये अक्सर,

सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में,

धरती से क्षितिज की और,

दौड़ लगा रहे होते हैं,


ये अपनी माँ की कोख से ही मजदूर हैं,

और पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत हैं,


ये किसी चमत्कार की तरह,

युद्ध में गिराए जा रहे खाने के

थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं,

और किसी चमत्कार की तरह ही अदृश्य हो जाते हैं,


ये संसद और देवताओं के

सामूहिक मंथन से निकली हुई संतानें हैं,

जो ईश्वर के हवाले कर दी  गयी हैं,


ईश्वर की संतानों को जब भूख लगती है,

तो ये आस्था से सर उठा कर,

ऊपर आकाश में देखते हैं

और पश्चिम से आये देव-दूतों के हाथों मारे जाते हैं


ईश्वर की संतानें 

उसे बहुत प्रिय हैं

वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के

नए शिल्प रचता है

और उनके लहू से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है


मैं अक्सर 

जब पश्चिम की शोख चमकती रात को 

और उसके उगते सूरज के रंग को देखता हूँ

मुझे उसका रंग इंसानी लहू सा

खालिस लाल दिखाई देता है|

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डायन और बुद्ध 

कुछ औरतें,

अपने पतियों,

और बच्चों को सोते हुए,

अकेला छोड़ चली गईं,

ऐसी औरतें,

डायन हो गईं,


कुछ पुरुष,

अपने बच्चों और बीवियों,

को सोते हुए,

अकेला छोड़ चले गए,

ऐसे पुरुष बुद्ध हो गए,


कहानियों में,

डायनों के हिस्से आए,

उल्टे पैर,

और बच्चे खा जाने वाले,

लंबे, नुकीले दांत,


और बुद्ध के,

हिस्से आया,

त्याग, प्रेम,

दया, देश,

और ईश्वर हो जाना | 

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प्रेमिकाएँ

प्रेम में पड़ा पुरुष,

हर गलती के साथ,

अपने घर लौट जाता है,


और प्रेमिकाएँ लौटती हैं,

नीच, कुलटा और अभिशापित हो कर,


प्रेम में पुरुष, 

हारता है,

और प्रेमिकाएँ, ठगी जाती हैं.

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घर से निकले लड़के

घर से निकले लड़के

शहर की संगीन रातों में

पिता की आँखों का सूरमा ढूँढते हैं 


उनके कंधे

यौवन के पहले पहर में झुक रहे हैं

और पीठ पर शासन की लाठियों के गहरे निशान हैं


ये बेहया के फूल की तरह

अपने गाँवों से निकल

शहर के वर्जित इलाकों में उग आए हैं


मजिस्ट्रेट के हालिया बयान में

उनके होने की गंध मात्र से

शहर में कर्फ्यू का खतरा है


उनके रतजगे  में माशूकाओं की आहट

धुंधली होती जा रही है

और उनकी आँखों में

बहन की महावर का रंग उतर आया है 


माँ को अच्छी साड़ी पहनाने की 

एक अदद इच्छा

सरकारी नौकरी की विज्ञप्तियाँ चर चुकी हैं

और ये एक सिगरेट और चाय की प्याली से 

जैसे-तैसे, अपनी रिक्तता को बचाए जा रहे हैं


घर से निकले लड़के

सड़क से संसद तक

सपनों की तस्करी के बाद

जबजब कुछ नहीं रह जाते


तो उदास, अकेले, खाली हाथ

अन्तात्वोगात्वा

एक दिन घर लौट जाते हैं

लेकिन घर, उन तक, फिर कभी नहीं लौटता|

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आलोक आज़ाद 

2 जुलाई 1990 को जन्मे आलोक आज़ाद पोस्ट-डॉक्टरेट शोधार्थी हैं|   

बहुमत, पोषम पा, हिन्दवी, हिन्दीनामा, साहित्कीयनामा, कविताएँ और साहित्य जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं और पोर्टल्स में कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| इनका एक काव्य-संग्रह 'दमन के खिलाफ़'(2019) भी प्रकाशित हो चुका  है| 


गुरुवार, 30 मई 2024

मुदित श्रीवास्तव

 पंच-अतत्त्व

'मैं ताउम्र जलती रही दूसरों के लिए

अब मुझमें ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'

-आग ने यह कहकर 

जलने से इनकार कर दिया


'मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे

बाहर की हवा ठीक नहीं है'

-ऐसा हवा कह रही थी


'मेरे पिघले हुए को भी 

कहाँ बचा पाए तुम?'

-ऐसा पानी ने कहा 

और भाप बनकर गायब हो गया 


'मैं अपने आपको समेट लूँगा

इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में

छेद करती बढ़ रही हैं'

-ऐसा आकाश ने कहा

और जाकर छिप गया इमारतों के बीच

बची दरारों में.....


जब धरा की बारी आई

तो उसने त्याग दिया घूर्णन 

और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में

दोनों हाथ ऊपर किए हुए

यह कहकर -

'मैं बिना कुछ किए

सज़ा काट रही हूँ!'


इससे पहले कि मेरा शरीर कहता -

'मैं मर रहा हूँ'

वह यूँ मरा 

कि न उसे जलने के लिए आग मिली

न सड़ने के लिए हवा

न घुलने के लिए पानी

न गड़ने के लिए धरा

न आँख भर आसमान

फटी रह गईं दो आँखों को........

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पेड़पन

हम ऐसे पेड़ हैं 

जिनके पैरों तले

ज़मीन और जड़ें भी नहीं 

सूखी हुई बाँहें हैं

उनमें पत्तियाँ भी नहीं

हमारे सूखे हुए में भी इतनी क्षमता नहीं कि

किसी ठंढी देह को 

आग दे सके....

जब हमने 

अथाह भागने की जिद पकड़ी थी

तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया था|

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पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

अपनी जड़ों में दबाकर रखी मिट्टी 

बुलाया बादल और बारिशों को 

सहेजे रखा पानी अपनी नसों में


दिए तुम्हें रंग  

तितलियाँ, परिन्दें

घोंसले और झूले 


पेड़ों ने दिए तुम्हें घर

घर के लिए किवाड़ और खिड़कियों के पलड़े

भी दिए तुम्हें


खुद जलकर दी तुम्हें आग

बुझकर के दिया कोयला 

सड़कर के दिया ईंधन


पेड़ों ने तुम्हें

वह सब कुछ दिया 

जिससे तुम जीवित हो


पेड़ों ने दिया तुम्हें 

सम्पूर्ण जीवन 

और

पेड़ों को तुमने दी 


मृत्यु!

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उधार

मुझे चाहिए 

एक पहाड़, उधार

जिसके अंतिम छोर तक 

गूँज सकती हो मेरी आवाज़

जिसके काँधे पर 

सर रखता हो बादलों का गुच्छा

और रोता हो ज़ार-ज़ार


एक नदी, उधार

जिसके किनारे घंटों बैठकर

पानी में करूँ पैर तर

जिसके दोनों ही किनारे हों

सात समंदर पार


एक पेड़, उधार

जिसकी शाखाएँ

चाहती हैं मुझसे गले लगना

जिसकी छाँव तले

बसा सकता हूँ, पूरा संसार


मुझे एक फूल, उधार

जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर 

फिर उसी पौधे में लगा सकूँ

जिस पर एक तितली का 

करता था वह इंतज़ार!


यही सब मुझे जीने के लिए 

चाहिए उधार!

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खो चुकी क्षमताएँ

उँगलियों ने अब 

छू कर पहचान लेने की क्षमता खो दी है

वे नहीं जानतीं-

जीवित और मृत

देहों के तापमान का फ़र्क


एक अदृश्य छुअन

घर बनाती है भीतर-

कसती हुई

दिल की धड़कन अब

फड़फड़ाहट में बदल चुकी है


वह भूल चूका है कि

किसी को बाँहों में भरने पर

कितना तेज़ भागना होता है

कितनी देर के लिए थमना


अब धड़कनें पल-पल चोट करती हैं

आँखों ने सुन्दरता

देखने का हुनर खो दिया है

अब वे गुलाब को ख़ून समझती हैं

चिड़ियों को मौत का संदेशा

धूप को एक शून्य

उन्हें अँधेरे में सुख मिलता है

वे अब चाहती हैं कि 

बारिश का रंग भी काला भी रहे

भीतर एक ज़िंदगी रहती थी

वह निकलकर जा चुकी है कहीं

किसी क़ब्र में

वापस आने के लिए

पैरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं

क़लम से ख़ून रिसने लगा है

एक नीली कविता

अब लाल है|

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मुदित श्रीवास्तव


29 नवम्बर 1991 को जन्मे  कवि-लेखकमुदित श्रीवास्तव ने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है| पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता इनकी कविताओं की विशेषता है| बाल-पत्रिका 'इकतारा',  द्विमासी पत्रिका 'साइकिल' आदि के लिए कविता, कहानी लिखते हैं | देश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| फोटोग्राफी तथा रंगमंच में रूचि रखते हैं|

 








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