1. मैंने सपना देखा
2. बहता वक्त, थमते कदम
3. रात भर
4. यात्रा हूँ एक

मीता पंत का जन्म 1974 में उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में हुआ। इन्होंने कुमायूं विश्वविद्यालय से बीए और एमए (अँग्रेज़ी) की उपाधि प्राप्त की। इनके दो कविता संग्रह 'झरता हुआ मौन' और 'उजालों का लिबास' नाम से प्रकाशित हुए हैं। इनकी कविताएँ समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक पटलों पर प्रकाशित होती रही हैं।
क्रांति
वह चला था
क्रांति की मशाल लेकर
बुझते-बुझते
सिर्फ़ गर्म राख बची है
जिसमें वह आलू भुन रहा है
मशाल और आग से ज़्यादा
अब उसे आलू की चिंता है
राख से छिटक कर उड़ते
क्रांति के आख़िरी वारिस
देख पा रहे हैं कि
भूख चेतना का सबसे वीभत्स रूप होती है |
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परिधि
सब साफ़ दिखाई देता था
शरद पूर्णिमा की अगली रात भी
ढाबे पर पकती दाल की भाप
चन्द्रमा की परिधि पर उभरी
प्रेमिका की ठुड्डी
लौट रही साइकिल
दिख जाता था
मचान पर लटकी
लालटेन का संघर्ष भी
एक अहीर ले आया
दही की कहतरियाँ
सबने देखा
किसी ने नहीं देखे
चमरौटी की लड़की के फटते कपड़े |
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गज़ा के जूते
भागते, उजड़ते गज़ा में
बिखरे पड़े हैं जूते
उद्दाम लालसाओं से बेखबर युवाओं के जूते
गुलों, नज्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते
आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते
बूढों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते
जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर
एक लम्बे समय के निवेश की तरह खरीदे गये
गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते
और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं
ऐसे पैर
जो उनमें सही-सही अंट सकें
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उपेक्षा
मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह
उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर
अनपेक्षित
मैं जड़ें पकडे झूलता रहता हूँ
और जब लगता है
कि उजाड़ जाएगा सब
जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ
में काँटे नहीं उगाऊँगा
और मरुँगा भी नहीं
उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर
तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है |
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नव वर्ष
दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च
और जनवरी में बहुत पास
एक ही दिन में बदल जाता है साल, महिना, मन
जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा
और थका-बझा घर बन जाता है संगीतशाला
एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं
एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल
भारी-भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है
और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है
सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल
अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में
और बसंत की ठिठुरती प्रतीक्षा में
घुल जाती है आशा-मधु अचानक
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अमित तिवारी
मार्गदर्शन
चौड़ी सपाट सड़क को
फटी चट्टियों में पार करते नन्हें भिखारियों के हुजूम में से
एक स्कूटर धीरे-धीरे निकलता है
जैसे सफ़ेद फॉस्फोरस को काटता चाकू
पापा की शर्ट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कसकर थामे
स्कूटर पर बैठी लड़की
ऊपर को देखती है
सड़क किनारे के हरे-भरे पेड़ों के बीच
एक झुंझलाए, उलझन में डूबे वैज्ञानिक-सा
अस्त-व्यस्त शाखाओं वाला निष्पर्ण पेड़
झाँकता है अँधेरे में से उसकी इन्द्रियों में
शहर के आकारवान स्थापत्य में
अकेला-उजाड़-विद्रूप-खूंसट
कहता है, "तुम कौन हो बेटे?
तुम जानती हो कि तुम्हारे शरीर में नन्हीं कोशिकाएँ
बड़े नियंत्रित तरीक़े से विभाजित हो रहीं हैं
और विशाल अणु सूट-बूट पहन कर
काम पर निकले हैं
तुम्हारा बिंदु-सा अस्तित्व जड़ें फैलाए हैं
पूरे शहर के तलघरों में
तुम कभी मजबूत भुजाओं, गुस्साई आँखों
और मांसल स्तनों वाली
औरत बनोगी
शहर और तुम घूमोगे एक दूसरे के पीछे गोल-गोल
तुमने सोचा है, कितनी लोचदार होगी तुम,
पर झुकते वक़्त कहाँ रुक जाओगी?'
लड़की फटी आँखों से सुनती रही
शहर भर के भगोड़े प्रेतों के
रैन बसेरे की बहकी खड़खड़ाहट
घर पहुँचने पर उसकी माँ उसके छितराए बालों में
तेल लगाएगी
चोटी गूंथते हुए उसकी बात सुनकर मशविरा देगी
कि वो सड़क किनारे के उज्जड वैज्ञानिकों की
झुंझलाईं-बुदबुदाईं कविताएँ न सुने
वे भागे हुए प्रेतों के जहाज हैं
सिर्फ़ सिसकियाँ-छटपटाहट-चीखपुकार
सुनने के लिए
कुछ भी कह देते हैं
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महाखड्ड
तम से लबालब वातावरण में
आभास हुआ
रोशनी की उपस्थिति का
कारगार के अदृश्य कोनों में
चमक उठी आशा
उसने इकठ्ठा किया
धैर्य और हिम्मत
जमीन पर बिखरे
पतले बरसाती कीचड़ की भांति
अपनी कठोर हथेलियों में,
और डगमगाता हुआ
भागा
अँधेरी मृगमरीचिका की ओर
गिर पड़ा
नन्हीं विषाक्त अड़चनों पर से|
यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर
कीचड़ से अभिषिक्त,
ठठाकर हँसा
टुकड़ों में बिखरी चमक को
समय की चौखट में जमाकर
और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा
अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी
उधेड़ दिए समय ने
विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र
तीखी नोकों वाले
त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,
दब गया सत्य
कमर पर हाथ रखकर
उछली चुनौती उसकी ओर,
"उधेड़ दी है तूने
अपने पैरों तले की जमीन
सत्य की तलाश में.....
अब बुन इसे पुनः
या गिर जा
विक्षिप्तता के महाखड्ड में|"
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कानून
दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं
वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं
चारों ओर गीली जीभों की भांति
लपलपाया करते हैं
राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं
गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर
और उतर जातीं हैं
गहरे कुओं में
जिनके पेंदों में हवाएँ चलना बंद कर देतीं हैं
स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं
और तुम उन्हें
डूबने के इंतज़ार में
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बदलना
लोग कहते हैं कि
दुनिया बदल रही है
आगे बढ़ रही है
क्रमिक विकास के नतीज़तन
पर ये सच नहीं है
क्योंकि हम आज भी गिरते हैं
उन्हीं खड्डों में
जो खोदे थे हमने
लाखों साल पहले
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यज्ञ
सड़क किनारे एक बहरूपिया
इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये
झाँक रहा है
अपनी कठौती में
चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई
जल की लपटों के यज्ञ
में धू-धू कर जल रही है
रात के बादल धुंध के साथ मिलकर
छुपा लेते हैं तारों को
और नुकीले कोनों वाली इमारतों
से छलनी हो गया है
आसमान का मैला दामन
ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है
निर्माण के हाहाकार से
उखाड़ दिया गया है
ईश्वरों को मानवता के केंद्र से
और अभिषेक किया जा रहा है
मर्त्यों का
विशाल भुजाओं वाले यन्त्र
विश्व का नक्शा बदल रहे हैं
उसके किले पर
तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है
उस "इत्मीनान" के नीचे
लोहा पीटने की मशीनों की भाँति
संभावनाएँ उछल-कूद कर रही हैं
उत्पन्न कर रही हैं
मस्तिष्क को मथ देने वाला शोर
उसकी खोपड़ी से
चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है
और हिल रही हैं
आस्था की जड़ें
एक रंगविहीन परत के
दोनों ओर उबल रहा है
अथाह लावा
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आशीष बिहानी
11 मार्च 1992 को जन्मे युवा कवि आशीष बिहानी हिंदी और मारवाड़ी दोनों भाषाओं में रचना करते हैं| देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ महत्त्वपूर्ण ई पत्रिकाओं में भी इनकी कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं|
'अन्धकार के धागे' नामक एक काव्य-संग्रह 2017 में प्रकाशित हुआ है|
बीआईटी, पिलानी से अभियांत्रिकी तथा 'कोशिका एवं आण्विक जीव विज्ञान अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सम्प्रति 'मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान(कनाडा)' में शोधकार्य कर रहे हैं|
गाँव से निकले बहुत लोग
१.
गाँव से निकले बहुत लोग
कुछ न कुछ करने
और लौटे भी
जो कुछ बन पड़ा वो करके
लौटे कुछ ईंट-गारा करके
बोझा ढोकर लौटे कुछ
देर शाम तक
नमक-तेल-तरकारी लिए बहुत लौटे
कुछ ऐसे थे
जो लौटे बहुत दिनों बाद
बड़ा-सा बैग, रुपया, कपड़ा और सपने लेकर
लेकिन कुछ ऐसे भी थे
जो नहीं लौटे
खो गए
जो नहीं लौटे
उनमें अधिकतर ऐसे थे
जो कुछ हो गए
वे डॉक्टर, वे प्रोफ़ेसर, वे वकील
वे पत्रकार, वे थानेदार
ये जहाँ गए वहीं के रह गये थे
इधर जिनके लौटने की उम्मीद
खो चुका था गाँव
वे मृतकों के बीच से उठकर लौटे......
२.
ये नायक
गाँव के बेटे थे
अब दामाद की तरह लौटते थे
गाँव बीमार था
डॉक्टर इलाज करने नहीं आया
और निरक्षर गाँव ने
प्रोफेसर से एक अक्षर नहीं पाया
वकील ने गाँव को नहीं दिया कोई न्याय
और पत्रकार क्या जाने गाँव का हाल-चाल
दरोगा ने रौब दिखाया गाँव को ही
जब कभी
दिखाया गया इन्हें कोई सम्मान
तब ज़रूर चर्चा में रहा गाँव का नाम.........
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मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ
मैं दुनिया भर की 'मॉम' को
वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ
चाहता हूँ 'डैड' हो चुके पिता
ऑफिस से लौट
आँगन में सेम के बीज रोपें
'सिस' हो चुकी बहन
और 'ब्रो' बन चुके भाई
दीदी भी 'दी' हो गई हैं
यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास
इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ
षडयंत्र रचती भाषा की जड़ों में
मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ
मकान की यात्रा करते हुए
कमरों में पहुंचे घर को
मैं वापस घर लाना चाहता हूँ|
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पिता इंतजार कर रहे हैं
पिता आकाश देखते हैं
और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है
वो हवाओं को सोखते
और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते
पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है
जैसे लोगों को पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता
फिर भी उनका मानना है
कि हमारा कोई न कोई नाता है ही
इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना
बादलों के रंग और रफ़्तार
पिता खूब समझते हैं
उन्होंने बता दिया था
धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार
हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी
पिता चिंतित हैं
आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते
महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध
जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा
और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी
पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं
और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं
हम जानते हैं
पिता के मना करने के बावजूद
दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी
आँगन की नीम का
जबकि पिता इंतज़ार कर रहे हैं
कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर
लौट आएँगे शहर से
और उस दिन पुरानी शाखाओं पर
एक बार फिर खिल उठेंगे नए-नए पत्ते....
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सरसों के फूल और बच्चियों के सपने
घने कोहरे के बीच
खेतों से घर लौटती है माँ
बहन पीछे-पीछे
माँ के हाथों में हैं
सरसों के कुछ पत्ते
और बहन की अंजुली में भरे हैं
बहुत से फूल सरसों के
द्वार की नीम से
दातुन तोड़ रहे हैं पिता
पड़ोस की बच्चियाँ दौड़-दौड़ बीनती हैं
नीम की सींकें
माँ कतरती है सरसों के पत्ते
पड़ोस की बच्चियाँ
बहन को घेर लेती हैं
सब मिल कर सींकों में पिरोती हैं
सरसों के फूल
पहले कुछ फूलों से बनाती हैं लहरदार झुमका
और लड़ीदार नथिया
एक बच्ची के नाक-कान में लगा कर देखती हैं
हँसती हैं खिलखिला कर
बनाती हैं फिर माँथबेंदी, पायल, कर्धनी
और एक बड़े सींकें में पिरोती हैं
ग्यारह बड़े-बड़े फूल
और सजाती हैं एक सुंदर हार
सबकी सहमति से
ये हार बहन के हिस्से आता है
वह गले के नजदीक लाती है
रुक कर तलाशती हैं नजरें माँ को
बच्चियों के इस कौतुक को
रसोई की रौशनदान से देखती है माँ
और हाथ में नमक लिए सोचती है
'सरसों के ये टूटे फूल
कब तक हरे रख पाएँगे
बच्चियों के स्वप्न को '
दूर से आवाज आती है
पिता के कुल्ला करने की
कड़ाही में नमक डालते हुए
माँ करछुल चलाने लगती है|
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ससुराल में झूला
वो बुआ ही थीं हमारी
पिता को राखी बाँधती
हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती
बहनों को याद हैं
उनकी कजरी
सावनी झूलों के मोहक गीत
मजाल है भौजाइयों की
उनके रहते कोई झूला न चढ़े
झूलना उन्हें बहुत पसंद था
हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ
एक दिन
पंखे से झूलती मिलीं
बच्चियां बताती हैं
ससुराली घर से बाहर आकर
उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी
(आज भी आता है सावन
पड़ जाते हैं झूले
पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)
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गौरव पाण्डेय
विषतंत्र
अपने तंत्र को मजबूत करने के लिए
उन्होंने चुना साँपों को,
तालाब की मछलियों की संख्या
अधिक होने के बावजूद
दानों की लड़ाई ने उन्हें इतना कमजोर बना दिया कि
सांप के फुफकारने मात्र से मछलियाँ
तितर-बितर हो गईं,
बावजूद इसके कुछ मछलियों ने साँपों को
अपना देवता माना|
क्योंकि साँपों ने केंचुली बदल ली थी|
अब चढावे में साँपों ने दूध माँगने की जगह
बस इतना कहा कि
केंचुली बदलने से सांप विषधर नहीं रहते|
मूर्ख मछलियाँ दानों के लालच में
सांप की प्रकृति भी भूल गईं|
काफ़ी समय से
तालाब पर अब सफ़ेद कपोत नहीं दिखते,
और अब मछलियों के अनाथ बच्चों ने साँपों को
अपना सर्वोच्च नेता मान लिया है,
जिन्होंने उन्हें भ्रम में रखा है कि
वो उन्हें विषैले तालाब से आज़ादी दिलाएँगे|
अब मछलियाँ मरती जा रही हैं
तालाब सूखते जा रहे हैं
और साँपों का क्या है
उन्हें तो बस विष उगलना है
चाहे तालाब में या
तालाब के बाहर|
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नरभक्षी
जाते जाते उसने कहा था,
नरभक्षी जानवर हो सकते हैं
पर मनुष्य कदापि नहीं,
जानवर और मनुष्य में
चार पैर और पूंछ के सिवा
समय के साथ
यदि कोई अंतर उपजा था
तो वह धर्म का था
फिर सभ्यता की करवटों ने धर्म को
कितने ही लबादे ओढ़ाएँ ,
पर एक के ऊपर एक लिपटे लबादों में
क्या कभी पहुँच पायी है कोई रोशनी?
धीरे धीरे अँधेरे की सीलन ने
जन्मी बू और रेंगते हुए कीड़े,
वे कीड़े जो आज भी
परजीवी बनकर जीवित हैं
मनुष्य की बुद्धि में,
जो शनै: शनै: समाप्त
कर देंगे मनुष्य की मनुष्यता को|
जाते जाते मुझे उससे पूछना था
मनुष्यता की हत्या होने पर भी
क्या धर्म का जीवित रहना साक्ष्य है
मनुष्य के नरभक्षी नहीं होने का?
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मूर्ख
उसने कहा, तुम मूर्ख हो!
मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया|
हाँ....मैं मूर्ख हूँ, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ख!
मेरी स्वीकारोक्ति ने तो जैसे आग में घी डाल दिया हो|
उसने कहा, तुम जैसों का कुछ नहीं हो सकता!
मैंने कहा, वह तो और भी अच्छा होगा....
आप जैसों का समय बच जाएगा|
अब उसका क्रोध सातवें आसमान पर था|
उसने कहा, तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही
यह दुनिया नर्क हो रखी है!
मैंने संयमित होकर कहा,
ताकि आप जैसे लोग, शायद इसे स्वर्ग बना सकें....
वह धम्म धम्म करता हुआ चला गया पर....
उसकी बड़बड़ाहट में मैंने यह सुना कि,
सयाने लोग सही कहते हैं-
'मूर्खों से मुंहजोरी जी का जंजाल है!'
जबकि मैं....
उससे चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती थी कि
'मूर्ख बने रहना इसलिए भी जरूरी है
ताकि बुद्धिमानी का दंभ जीवित रहे
और
जंजालों के जाल में बुद्धिमानों का वर्चस्व कायम रहे!'
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निषिद्धता
हे मृत्यु!
कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!
इतनी कि रुक ही नहीं रही हो
असंख्य वेदनाओं के रुदन से
अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से
और अब,
इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि
कितनी दिशाओं से आओगी तुम|
मृत्यु कहती है कि
यहाँ जीवन निषिद्ध है
पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,
कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है
क्योंकि
निषिद्धता का नियम
योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन
शासकों के हिस्से आया|
पर यकीन मानो,
हम सब अभ्यस्त हो रहे हैं
असमय और अकारण हो रहे युद्ध के
और हमारा अभ्यस्त होना
इस बात का परिचायक है कि
परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है
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पिता
पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टालता है माँ का गुस्सा
माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते हैं पिता
माँ की चुप्पियों की चाबी होते है पिता
माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते है ताले
इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बांधे रखती है
चाबी
और संसार कहता है,
पिता
"बँधे हुए हैं माँ के पल्लू से"|
पिता के कहने भर से, कहाँ थामते हैं बच्चे हाथ
बच्चों की गहरी नींद में जागते सपने होते हैं पिता
ऊब की परछाइयों में
हाथ थामते पिता इतना जानते हैं कि,
अवसाद कितना भी गहरा हो
उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनुओं से रख देंगें,
मुट्ठी भर रौशनी संसार की विस्तृतता को बढाते हुए
शायद इसलिए
पिता आसमान से होते हैं |
पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते हैं
थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में
ताकि थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे
उन्हें भी
पिता-सा दुलार....
जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते हैं,
हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में
आज भी नहीं मानते पिता
उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक....
ऐसा कहते रहते हैं मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से|
कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा
पिता के जाने बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए
बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का
ऊँगलियों पर हिसाब रखने वाले पिता,
जब चारों ऊंगलियों को बंद करते हुए
सोचते हैं कि उन ऊंगलियों से बंद मुट्ठी ही
यदि मेरा भाग्य है
तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है|
पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते हैं
यहाँ तक वह खुद को भी भूल जाते हैं
मैं उन्हें ढूँढती हूँ
तलाशती हूँ
यहाँ वहां थोड़ा बहुत खोजती हूँ
और वह मंदिर में बैठे 'गोपाल' की तरह
मुस्कुराते हैं,
मुझे भजन सुनाते हैं....
'ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं'|
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हर्षिता पंचारिया
सरई फूल
झरिया उराँव के लिए
दरख्तों को उनके नाम से
न पुकार पाना
अब तक की हमारी
सबसे बड़ी त्रासदी है
कहा उससे -
मुझे सखुआ का पेड़ देखना है
बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से
सुनो! अपरिचय के बोझ से
रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा
साथ चलने का इशारा कर
सारे दरख्तों से बतियाती
उनके बीच से लहराती चली
वह गिलहरी की तरह
एक पेड़ के सामने रुक
तोड़ कर फूल उसकी डाली से
अपने जुड़े में खोंसते हुए
पलट कर कहा मुस्कुराते हुए -
अब चाहोगे भी
तो भुला नहीं पाओगे
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पूछा गौरया ने
एक दिन पूछा गौरया ने
अनुभवी बरगद से
प्यास ज़्यादा पुरानी है
या ज़्यादा पुराना है पानी
जगल में फैलती
घास की गंध की तरह
फैली इस सवाल की बेचैनी
बहुत नीचे, जहां छुपकर मिलती थीं
पानी से बरगद की जड़ें
वहां भी मच गई खलबली
गौरये का मासूम-सा यह सवाल
फैला इतिहास के हर मोड़ तक
पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना
जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार
वहां भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी
शाम को लौटने की बात कह कर
निकल गई वह नदियों-पेड़ों से मिलने
इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा -
क्या समय था वह
जब प्यास और पानी साथ-साथ चलते थे
जब जहां प्यास लगती
पानी वहां पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित
इतना कि कभी-कभी नाक के रास्ते जा पहुंचता गले तक
फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की
सभ्यतायें पानी के किनारे
सभ्यता के नाम पर
इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड कर दिया
बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया
और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे
अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर
और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार
कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार
शाम ढ़ले लौट कर जब आई गौरया
बरगद कहीं नहीं दिखा
इधर-उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़ें थीं
जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंजर था
कहते हैं
उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गौरया भी
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हिम्बो कुजूर
कोड़ा कमाने गए थे
असम के गझिन चाय बगान
शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ
लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त
पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को
चाय बागानों में छूटे रह गए गीत
तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को
जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर
बच्चों की पढ़ाई के लिए
सारी कमाई भेजते रहे थे देस
बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे
नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी ले आई उन्हें
छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी
उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं
अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे
गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे
आकर खेलने लगे उनके मांदर पर
भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अंगड़ाई
रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे
मांदर को बजाते-बजाते जब
अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे
झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली
हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था
फिर एक दिन
जब घर बनाया जा रहा था 'ठीक' से
पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए
पुराना मिटटी का बना मकान था
जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था
पहाड़ की तरफ मुँह करके
आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते
पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला
फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला
पुराने-पुराने पुरखों के गीत
जीवन के रंग से लबालब गीत
अब उनका एक नाती है आठ साल का
उनके साथ अपनी नन्हीं उँगलियाँ फेरता है मांदर पर
पुरखों के किस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से
पूछ बैठा एक दिन -
कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने
आपके लिए एक अलग से कमरा भी है
जैसा मेरा है
आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा
चिहुँकते हुए कहा उसने -
पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है
मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने
थोड़ा बड़े हो जाओ
बढ़ जाए मांदर से दोस्ती और थोड़ी
तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद
आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहां
इसलिए चला आया यहाँ वापस
आज हिम्बो कुजूर को
उनके ही गाँव की नदी से बालू धोने वाली
एक अंजान ट्रक
नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई
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दुखों का मौसम नहीं है पतझड़
हाड़ाम बा कहने लगे-
तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो
पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में
दुःख लिख दिया है
पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है
मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिलकुल नहीं
दिन रात चलते रहने वाले
अनवरत संगीत के इस मौसम में
अपना जीवन जी चुके पत्ते
'नयों को भेजो दुनिया देखने
हम तुम्हारी नींव में समाते हैं' - गाते हुए
अपनी धरती से मिलने आते हैं
पतझड़ में पेड़
दुःख नहीं मनाते
न ही दुःख में डूबते-गलते
डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते
वे तो सोहराय में नाचते-गाते
अपने लोगों से बाहा परब में मिलने आते हैं
इसी से है
हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज
भूत नहीं बनते हमारे लोग
इस दुनिया से जाकर
वे साथ होते हैं हर मौक़े पर
हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं
पेड़ और पत्तों की रज़ामन्दी से आता है पतझड़
वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है
बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते
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राही डूमरचीर
24 अप्रैल 1986 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि-लेखक
राही डूमरचीर की प्रारम्भिक शिक्षा दुमका में, फिर
शान्तिनिकेकन में, तत्पश्चात् जे.एन.यू. और हैदराबाद
विश्वविद्यालय में हुई| सम्प्रति मुंगेर, बिहार में कॉलेज में अध्यापन करते हैं|
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, आलेख एवं अनुवाद
प्रकाशित हुए हैं|
असफलता
सबसे मुश्किल होगा
शहर से वापस
घर, गाँव लौटना
तुम लौटोगे
सालों के रेत के बाद
बारिश की तलाश में
और तुम्हारा लौटना
ऐसे होगा
जैसे बोई गई फ़सल
पकने के वक़्त,
बर्बाद हुई और भूख के लिए कोसी गई.
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ईश्वर के बच्चे
क्या आपने,
ईश्वर के बच्चों को देखा है?
ये अक्सर,
सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में,
धरती से क्षितिज की और,
दौड़ लगा रहे होते हैं,
ये अपनी माँ की कोख से ही मजदूर हैं,
और पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत हैं,
ये किसी चमत्कार की तरह,
युद्ध में गिराए जा रहे खाने के
थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं,
और किसी चमत्कार की तरह ही अदृश्य हो जाते हैं,
ये संसद और देवताओं के
सामूहिक मंथन से निकली हुई संतानें हैं,
जो ईश्वर के हवाले कर दी गयी हैं,
ईश्वर की संतानों को जब भूख लगती है,
तो ये आस्था से सर उठा कर,
ऊपर आकाश में देखते हैं
और पश्चिम से आये देव-दूतों के हाथों मारे जाते हैं
ईश्वर की संतानें
उसे बहुत प्रिय हैं
वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के
नए शिल्प रचता है
और उनके लहू से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है
मैं अक्सर
जब पश्चिम की शोख चमकती रात को
और उसके उगते सूरज के रंग को देखता हूँ
मुझे उसका रंग इंसानी लहू सा
खालिस लाल दिखाई देता है|
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डायन और बुद्ध
कुछ औरतें,
अपने पतियों,
और बच्चों को सोते हुए,
अकेला छोड़ चली गईं,
ऐसी औरतें,
डायन हो गईं,
कुछ पुरुष,
अपने बच्चों और बीवियों,
को सोते हुए,
अकेला छोड़ चले गए,
ऐसे पुरुष बुद्ध हो गए,
कहानियों में,
डायनों के हिस्से आए,
उल्टे पैर,
और बच्चे खा जाने वाले,
लंबे, नुकीले दांत,
और बुद्ध के,
हिस्से आया,
त्याग, प्रेम,
दया, देश,
और ईश्वर हो जाना |
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प्रेमिकाएँ
प्रेम में पड़ा पुरुष,
हर गलती के साथ,
अपने घर लौट जाता है,
और प्रेमिकाएँ लौटती हैं,
नीच, कुलटा और अभिशापित हो कर,
प्रेम में पुरुष,
हारता है,
और प्रेमिकाएँ, ठगी जाती हैं.
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घर से निकले लड़के
घर से निकले लड़के
शहर की संगीन रातों में
पिता की आँखों का सूरमा ढूँढते हैं
उनके कंधे
यौवन के पहले पहर में झुक रहे हैं
और पीठ पर शासन की लाठियों के गहरे निशान हैं
ये बेहया के फूल की तरह
अपने गाँवों से निकल
शहर के वर्जित इलाकों में उग आए हैं
मजिस्ट्रेट के हालिया बयान में
उनके होने की गंध मात्र से
शहर में कर्फ्यू का खतरा है
उनके रतजगे में माशूकाओं की आहट
धुंधली होती जा रही है
और उनकी आँखों में
बहन की महावर का रंग उतर आया है
माँ को अच्छी साड़ी पहनाने की
एक अदद इच्छा
सरकारी नौकरी की विज्ञप्तियाँ चर चुकी हैं
और ये एक सिगरेट और चाय की प्याली से
जैसे-तैसे, अपनी रिक्तता को बचाए जा रहे हैं
घर से निकले लड़के
सड़क से संसद तक
सपनों की तस्करी के बाद
जबजब कुछ नहीं रह जाते
तो उदास, अकेले, खाली हाथ
अन्तात्वोगात्वा
एक दिन घर लौट जाते हैं
लेकिन घर, उन तक, फिर कभी नहीं लौटता|
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आलोक आज़ाद
2 जुलाई 1990 को जन्मे आलोक आज़ाद पोस्ट-डॉक्टरेट शोधार्थी हैं|
बहुमत, पोषम पा, हिन्दवी, हिन्दीनामा, साहित्कीयनामा, कविताएँ और साहित्य जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं और पोर्टल्स में कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| इनका एक काव्य-संग्रह 'दमन के खिलाफ़'(2019) भी प्रकाशित हो चुका है|पंच-अतत्त्व
'मैं ताउम्र जलती रही दूसरों के लिए
अब मुझमें ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'
-आग ने यह कहकर
जलने से इनकार कर दिया
'मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे
बाहर की हवा ठीक नहीं है'
-ऐसा हवा कह रही थी
'मेरे पिघले हुए को भी
कहाँ बचा पाए तुम?'
-ऐसा पानी ने कहा
और भाप बनकर गायब हो गया
'मैं अपने आपको समेट लूँगा
इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में
छेद करती बढ़ रही हैं'
-ऐसा आकाश ने कहा
और जाकर छिप गया इमारतों के बीच
बची दरारों में.....
जब धरा की बारी आई
तो उसने त्याग दिया घूर्णन
और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में
दोनों हाथ ऊपर किए हुए
यह कहकर -
'मैं बिना कुछ किए
सज़ा काट रही हूँ!'
इससे पहले कि मेरा शरीर कहता -
'मैं मर रहा हूँ'
वह यूँ मरा
कि न उसे जलने के लिए आग मिली
न सड़ने के लिए हवा
न घुलने के लिए पानी
न गड़ने के लिए धरा
न आँख भर आसमान
फटी रह गईं दो आँखों को........
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पेड़पन
हम ऐसे पेड़ हैं
जिनके पैरों तले
ज़मीन और जड़ें भी नहीं
सूखी हुई बाँहें हैं
उनमें पत्तियाँ भी नहीं
हमारे सूखे हुए में भी इतनी क्षमता नहीं कि
किसी ठंढी देह को
आग दे सके....
जब हमने
अथाह भागने की जिद पकड़ी थी
तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया था|
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पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव
पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव
अपनी जड़ों में दबाकर रखी मिट्टी
बुलाया बादल और बारिशों को
सहेजे रखा पानी अपनी नसों में
दिए तुम्हें रंग
तितलियाँ, परिन्दें
घोंसले और झूले
पेड़ों ने दिए तुम्हें घर
घर के लिए किवाड़ और खिड़कियों के पलड़े
भी दिए तुम्हें
खुद जलकर दी तुम्हें आग
बुझकर के दिया कोयला
सड़कर के दिया ईंधन
पेड़ों ने तुम्हें
वह सब कुछ दिया
जिससे तुम जीवित हो
पेड़ों ने दिया तुम्हें
सम्पूर्ण जीवन
और
पेड़ों को तुमने दी
मृत्यु!
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उधार
मुझे चाहिए
एक पहाड़, उधार
जिसके अंतिम छोर तक
गूँज सकती हो मेरी आवाज़
जिसके काँधे पर
सर रखता हो बादलों का गुच्छा
और रोता हो ज़ार-ज़ार
एक नदी, उधार
जिसके किनारे घंटों बैठकर
पानी में करूँ पैर तर
जिसके दोनों ही किनारे हों
सात समंदर पार
एक पेड़, उधार
जिसकी शाखाएँ
चाहती हैं मुझसे गले लगना
जिसकी छाँव तले
बसा सकता हूँ, पूरा संसार
मुझे एक फूल, उधार
जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर
फिर उसी पौधे में लगा सकूँ
जिस पर एक तितली का
करता था वह इंतज़ार!
यही सब मुझे जीने के लिए
चाहिए उधार!
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खो चुकी क्षमताएँ
उँगलियों ने अब
छू कर पहचान लेने की क्षमता खो दी है
वे नहीं जानतीं-
जीवित और मृत
देहों के तापमान का फ़र्क
एक अदृश्य छुअन
घर बनाती है भीतर-
कसती हुई
दिल की धड़कन अब
फड़फड़ाहट में बदल चुकी है
वह भूल चूका है कि
किसी को बाँहों में भरने पर
कितना तेज़ भागना होता है
कितनी देर के लिए थमना
अब धड़कनें पल-पल चोट करती हैं
आँखों ने सुन्दरता
देखने का हुनर खो दिया है
अब वे गुलाब को ख़ून समझती हैं
चिड़ियों को मौत का संदेशा
धूप को एक शून्य
उन्हें अँधेरे में सुख मिलता है
वे अब चाहती हैं कि
बारिश का रंग भी काला भी रहे
भीतर एक ज़िंदगी रहती थी
वह निकलकर जा चुकी है कहीं
किसी क़ब्र में
वापस आने के लिए
पैरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं
क़लम से ख़ून रिसने लगा है
एक नीली कविता
अब लाल है|
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मुदित श्रीवास्तव
29 नवम्बर 1991 को जन्मे कवि-लेखकमुदित श्रीवास्तव ने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है| पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता इनकी कविताओं की विशेषता है| बाल-पत्रिका 'इकतारा', द्विमासी पत्रिका 'साइकिल' आदि के लिए कविता, कहानी लिखते हैं | देश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| फोटोग्राफी तथा रंगमंच में रूचि रखते हैं|