बुधवार, 20 नवंबर 2024

आलोक कुमार मिश्रा

1. कुछ भी अकेले नहीं होता घटित 


कुछ भी अकेले नहीं होता घटित
एक के साथ दूसरा, तीसरा, चौथा या और भी होता ही है
हम देख भले न पाएँ सबको 
अब देखो जब पैदा होता है एक शिशु
तो साथ में ही तो पैदा होती है एक माँ भी
ममता और उम्मीदों से भरी 
बिलकुल एक नई स्त्री जैसी
और जन्मता है एक पिता भी
जिम्मेदारियों से लैस एक बेहतर आदमी जैसा।

बारिश के साथ-साथ ही तो 
चली आती है हरियाली, उपज, ज़िंदगी और खुशी
प्रेम के उपजते ही तो पैदा होते हैं
सौंदर्य 
सहचर्य
और बिछोह

तो अगली बार
जब भी देखना किसी एक को
करना कोशिश
देखने की दूसरे, तीसरे, चौथे और अगले को भी।
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2. माँग


तुम छूती हो मुझे
तो छू लेती हो मेरे भीतर की हज़ारों दुनिया भी
तुम चूमती हो मुझे 
तो चूम लेती हो मेरी असंख्य कामनाओं को भी
तुम पकड़ती हो जब भी हाथ मेरा
सख़्त दुनिया बदल जाती है मुलायम फाहों में 

सच बताओ
क्या-क्या होता है क्या बदलता है
मेरे होने से तुम्हारी दुनिया में 

यदि कुछ नहीं तो
मुझ अभागे को तुम्हारी उपेक्षा का शाप चाहिए।
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3. इन दिनों 


जब सब दुखी हैं
जब सभी हैं अपमानित 
जब कुछ भूख से पीड़ित हैं और कुछ लोभ से
कुछ में शक्ति की क्रूरता है और बहुतों पर हैं उसके निशान
तब केवल करुणा ही बचती है 
जो जोड़ती है और बनाती है सबको इंसान

पर मैं देख रहा हूँ
रीत रही है करुणा इन दिनों
होती जा रही है कम पसीजते घड़े के पानी सरीखी
गरीबी और भूख दया या सहानुभूति के नहीं
उपहास के विषय बन गए हैं अब
सरकारों पर अब कोई दबाव नहीं है परिस्थितियों को बदलने का
बल्कि बन गई हैं ये ही उसकी ताकत का जरिया 
मैं देख रहा हूँ कि 
करुणा समेट रही है अपने पंख
धूसर हो रहा है आकाश।
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4. आश्वस्ति का छाता


तड़के ही गुज़र गया
पड़ोस में रहने वाली अधेड़ औरत का पति
उन दो के अलावा नहीं है कोई तीसरा परिवार में 
वर्षों से बीमार पति के साथ अकेली ही थी वह 
और उसके अंत समय में भी अकेली ही रही

उसके अंतिम क्षणों में हुई होगी वो औरत अधीर 
अपने पति से भी ज़्यादा 
तभी भागकर बजाई थी उसने डोर बेल कई पड़ोसियों की
पर कौन जागता यूँ सुबह तीन-चार बजे
जो जगे भी होंगे सो गए होंगे करवट बदल के

सुबह बेटे को स्कूल वैन में बैठाने को बाहर निकला तो देखा
कि सोसायटी का गार्ड खड़ा है उसके दरवाजे पर 
और वो उसी के सहारे अकेली ही बैठी है मृत शरीर के पास
वही मृत शरीर जिससे अब फूट रहीं थीं हजारों स्मृतियाँ
जिसको देखते हुए शून्य में भी फूटती थीं सिसकियाँ

मैंने देखा एक पड़ोसी गर्दन उचकाए उधर ही देखता हुआ चढ़ गया अपनी सीढियाँ
एक दूसरा पड़ोसी पूछते हुए निकल गया आगे
जैसे सब कुछ नॉर्मल सा हो
तीसरे या चौथे को भी कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ा

जुटे बहुत थोड़े-से रिश्तेदार
जिनमें से लगभग सभी सबसे नजदीकी श्मशान की दूरी जानना चाहते थे
और एक किलोमीटर दूर श्मशान तक कांधा न दे पाने की अक्षमता को छुपाते हुए 
तलाश रहे थे कोई वैन या एंबुलेंस लगातार

वह अधेड़ औरत बीच-बीच में अपने रोने की आवाज़ से 
बताती थी कि 
उन सबकी चिंताओं से बड़ा था उसका दुख
वह देखती थी उम्मीद और अपनेपन से हर ओर 
और फिर टिका लेती थी नज़र 
मृत देह पर

कुछ ही थे जो लगे थे
अंतिम क्रियाकर्म की व्यवस्थाओं में 
रोती औरत को समझाने में और
उसके कांधों पर रखके हाथ संसार की निस्सारता बताने में 
उन चंद लोगों के होने से ही दुख और विषाद की बारिश में 
खुल-खुल जाता था आश्वस्ति का एक छोटा छाता।
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5. कुछ पता ही नहीं चला 


वो प्रेमी था या कोई दोस्त था मेरी पत्नी का
ढंग से कुछ पता ही नहीं चला।
उसकी आँखों में झलका था पल भर को
वर्षों बाद अनायास मिल जाने की अप्रतिम खुशी का जल,
निमिष भर को तैरी थीं उनमें उछाह की मछलियाँ, 
उसके चेहरे पर उतरी थी एक गुलाबी आभा,
पूछते हुए उससे कि -
'कैसी हो सविता?'

पता नहीं उसे ये एहसास था भी या नहीं कि 
उसके मायके के इस पारिवारिक आयोजन में शामिल हूँ मैं भी, 
मैं यानी उसका पति, हमसफर, जीवनसाथी।
खाने की सामूहिक टेबल पर पत्नी के सामने की कुर्सी पर जीम रहा था मैं।
मैंने महसूस किया था कि खाना प्लेट में परोसते हुए और किसी के साथ बतियाते हुए भी
रह-रह कर देखता जाता था वो मेरी पत्नी की ओर
और मेरी पत्नी थी कि रमी हुई थी मेरे और बेटे के संग खाने में।

खैर, खाने की टेबल पर 
खाली रह गई दो कुर्सियों पर आकर बैठ गए वह और उसका साथी।
बड़े उत्साह, उछाह, स्नेह लेकिन गरिमा के साथ पूछा उसने- 
'कैसी हो सविता?' 
पत्नी ने कहा- 'ठीक हूँ।' 
कहते हुए चेहरे पर पहचान न पाने का भाव लिए
पहले देखा उसे और फिर मुझे।
उससे ज़्यादा मुझे ही कंधे उचकाकर जताया कि 'पहचानती नहीं इन्हें।' 

उस व्यक्ति ने हार नहीं मानी, बोला- 
'पहचाना नहीं, मैं... मैं...प्रेम!' 
पत्नी फिर भी जड़वत, आवाक् रही।
उसने बड़ी उम्मीद से आगे कुछ अधूरे वाक्य और जोड़े- 
'कक्षा आठ...साथ में परीक्षा देने जाते थे...बभनान का स्कूल...।' 
टोक दिया बीच में ही पत्नी ने- 
'नहीं, नहीं पहचाना।'
और फिर जुट गई बेटे के साथ खाने में।

वह बिलकुल उदास हो गया।
कुछ पल पहले ही उसके अंग-अंग में जो खिल उठे थे सहस्र फूल
सब मुरझाने लगे।
परेशानी, उदासी, हताशा सब एक साथ बरस पड़ीं
उसके चेहरे पर।

वह फिर कुछ बोलने को हुआ,
पत्नी ने बीच में ही टोक दिया-
'इनसे मिलो ये मेरे पति हैं, आपके जीजा जी।'
वह ठहर गया
मेरी ओर देखा पर कुछ न बोला। 
सिर्फ़ अभिवादन जताने को जरा-सा सिर और होंठ हिलाया।
फिर से मुखातिब हो मेरी पत्नी की ओर वह कुछ बोलने को हुआ। 
इस बार उसके साथी ने झिड़का उसे-
'यार चुपचाप खाना खाओ...तुम भी।'
वो सिर झुकाकर रोटी टूँगने लगा।
एक-दो मिनट बाद ही प्लेट लिए उठ गया वहाँ से।

मैं देर तलक सोचता रहा
उसके उत्साह, उमंग, उछाह से भरे हावभावों और स्नेह से भरी आँखों के बारे में,
उस पर अचानक उतर आई उदासी के बारे में, 
पत्नी के व्यवहार के बारे में।
उसका मेरे परिचय में अतिरिक्त रूप से जीजा जी लगाना जँचा नहीं मुझे।
अनुमान लगाता रहा उनके अतीत के बारे में कि 
क्या ये एकतरफा एहसास की कोई अधूरी कहानी थी या
सच में कोई स्नेहिल संबंध और समय रहा होगा ऐसा?
एक खुशनुमा एहसास ने घेर लिया मुझे,
कितने ही ऐसे बीत और रीत चुके अपने प्रेमिल पल याद जो हो आए।

और इस बारे में भी सोचा मैंने कि कहीं
मैं ही तो नहीं बना इस समय इन स्नेहिल स्मृतियों की बाधा
एक हमसफर के बजाय पति ही तो साबित नहीं हुआ ज़्यादा!
ख़ैर, मैं नहीं जान पाया कि कौन था वह
कोई दोस्त था, प्रेमी था, भुलाया जा चुका परिचित था
या जानबूझकर टाला गया कोई अवांछित।

एक पति जाने न जाने 
पर एक हमसफर को तो जानना ही चाहिए 
अपने जीवनसाथी की प्रेमिल स्मृतियाँ। 
धिक्कार है अगर एक पति हरा दे
एक प्रेमी को
एक जीवनसाथी को।
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आलोक कुमार मिश्रा

    

आलोक कुमार मिश्रा का जन्म उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम०ए० (राजनीति विज्ञान), एम०एड० और एम०फिल०(शिक्षाशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की है।
आलोक मिश्रा एससीईआरटी, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) के पद पर कार्यरत हैं। वे कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन करते हैं। उनकी रचनाएँ समय-समय पर जनसत्ता, दैनिक जागरण, वागर्थ, हंस जैसे पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित होती रहती हैं। 
वर्ष 2019 में बोधि प्रकाशन से उनका कविता संग्रह 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' प्रकाशित हुआ। प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित उनके बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' के लिए 2020 में उन्हें 'किस्सा कोताह कृति सम्मान' से सम्मानित किया गया।
ईमेल - alokkumardu@gmail.com

बुधवार, 24 जुलाई 2024

अमित तिवारी

क्रांति

वह चला था 

क्रांति की मशाल लेकर

बुझते-बुझते

सिर्फ़ गर्म राख बची है

जिसमें वह आलू भुन रहा है

मशाल और आग से ज़्यादा

अब उसे आलू की चिंता है

राख से छिटक कर उड़ते

क्रांति के आख़िरी वारिस  

देख पा रहे हैं कि

भूख चेतना का सबसे वीभत्स रूप होती है |

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परिधि

सब साफ़ दिखाई देता था

शरद पूर्णिमा की अगली रात भी

ढाबे पर पकती दाल की भाप

चन्द्रमा की परिधि पर उभरी

प्रेमिका की ठुड्डी

लौट रही साइकिल

दिख जाता था 

मचान पर लटकी

लालटेन का संघर्ष भी

एक अहीर ले आया 

दही की कहतरियाँ

सबने देखा 

किसी ने नहीं देखे 

चमरौटी की लड़की के फटते कपड़े |

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गज़ा के जूते

भागते, उजड़ते गज़ा में

बिखरे पड़े हैं जूते

उद्दाम लालसाओं से बेखबर युवाओं के जूते

गुलों, नज्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते

आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते

बूढों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते

जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर

एक लम्बे समय के निवेश की तरह खरीदे गये

गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते

और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं

ऐसे पैर

जो उनमें सही-सही अंट सकें 

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उपेक्षा

मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह

उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर

अनपेक्षित

मैं जड़ें पकडे झूलता रहता हूँ

और जब लगता है

कि उजाड़ जाएगा सब

जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ

में काँटे नहीं उगाऊँगा

और मरुँगा भी नहीं

उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर

तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है |

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नव वर्ष

दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च

और जनवरी में बहुत पास

एक ही दिन में बदल जाता है साल, महिना, मन

जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा

और थका-बझा घर बन जाता है संगीतशाला

एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं

एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल

भारी-भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है

और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है

सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल

अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में 

और बसंत की ठिठुरती प्रतीक्षा में

घुल जाती है आशा-मधु अचानक

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अमित तिवारी 


1 अप्रैल 1994 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि अमित तिवारी की कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स पर प्रकाशित होती रही हैं| कविताओं के साथ-साथ व्यंग्य एवं अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं| 
सम्प्रति पेशे से सॉफ्टवेयर इंजिनीयर अमित मुंबई में निवास करते हैं| 
 

बुधवार, 17 जुलाई 2024

आशीष बिहानी

मार्गदर्शन

चौड़ी सपाट सड़क को 

फटी चट्टियों में पार करते नन्हें भिखारियों के हुजूम में से

एक स्कूटर धीरे-धीरे निकलता है 

जैसे सफ़ेद फॉस्फोरस को काटता चाकू

पापा की शर्ट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कसकर थामे

स्कूटर पर बैठी लड़की 

ऊपर को देखती है

सड़क किनारे के हरे-भरे पेड़ों के बीच

एक झुंझलाए, उलझन में डूबे वैज्ञानिक-सा

अस्त-व्यस्त शाखाओं वाला निष्पर्ण पेड़

झाँकता है अँधेरे में से उसकी इन्द्रियों में 

शहर के आकारवान स्थापत्य में  

अकेला-उजाड़-विद्रूप-खूंसट 

कहता है, "तुम कौन हो बेटे?

तुम जानती हो कि तुम्हारे शरीर में नन्हीं कोशिकाएँ 

बड़े नियंत्रित तरीक़े से विभाजित हो रहीं हैं

और विशाल अणु सूट-बूट पहन कर 

काम पर निकले हैं

तुम्हारा बिंदु-सा अस्तित्व जड़ें फैलाए हैं

पूरे शहर के तलघरों में

तुम कभी मजबूत भुजाओं, गुस्साई आँखों 

और मांसल स्तनों वाली

औरत बनोगी

शहर और तुम घूमोगे एक दूसरे के पीछे गोल-गोल

तुमने सोचा है, कितनी लोचदार होगी तुम,

पर झुकते वक़्त कहाँ रुक जाओगी?'

लड़की फटी आँखों से सुनती रही 

शहर भर के भगोड़े प्रेतों के 

रैन बसेरे की बहकी खड़खड़ाहट 


घर पहुँचने पर उसकी माँ उसके छितराए बालों में 

तेल लगाएगी 

चोटी गूंथते हुए उसकी बात सुनकर मशविरा देगी

कि वो सड़क किनारे के उज्जड वैज्ञानिकों की

झुंझलाईं-बुदबुदाईं कविताएँ न सुने

वे भागे हुए प्रेतों के जहाज हैं

सिर्फ़ सिसकियाँ-छटपटाहट-चीखपुकार 

सुनने के लिए

कुछ भी कह देते हैं 

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महाखड्ड

तम से लबालब वातावरण में

आभास हुआ 

रोशनी की उपस्थिति का

कारगार के अदृश्य कोनों में 

चमक उठी आशा


उसने इकठ्ठा किया

धैर्य और हिम्मत

जमीन पर बिखरे 

पतले बरसाती कीचड़ की भांति

अपनी कठोर हथेलियों में,

और डगमगाता हुआ

भागा

अँधेरी मृगमरीचिका की ओर 

गिर पड़ा 

नन्हीं विषाक्त अड़चनों पर से|


यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर

कीचड़ से अभिषिक्त,

ठठाकर हँसा 

टुकड़ों में बिखरी चमक को 

समय की चौखट में जमाकर

और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा 

अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी


उधेड़ दिए समय ने 

विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र

तीखी नोकों वाले 

त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,

दब गया सत्य

कमर पर हाथ रखकर 

उछली चुनौती उसकी ओर,

"उधेड़ दी है तूने

अपने पैरों तले की जमीन

सत्य की तलाश में.....

अब बुन इसे पुनः

या गिर जा

विक्षिप्तता के महाखड्ड में|"

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 कानून

दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं

वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं

चारों ओर गीली जीभों की भांति

लपलपाया करते हैं

राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं

गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर

और उतर जातीं हैं

गहरे कुओं में

जिनके पेंदों में हवाएँ चलना बंद कर देतीं हैं

स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं

और तुम उन्हें

डूबने के इंतज़ार में 

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बदलना 

लोग कहते हैं कि 

दुनिया बदल रही है

आगे बढ़ रही है

क्रमिक विकास के नतीज़तन 

पर ये सच नहीं है

क्योंकि हम आज भी गिरते हैं

उन्हीं खड्डों में

जो खोदे थे हमने 

लाखों साल पहले 

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यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया 

इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये

झाँक रहा है 

अपनी कठौती में


चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई

जल की लपटों के यज्ञ

में धू-धू कर जल रही है

रात के बादल धुंध के साथ मिलकर

छुपा लेते हैं तारों को

और नुकीले कोनों वाली इमारतों

से छलनी हो गया है

आसमान का मैला दामन

ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है

निर्माण के हाहाकार से


उखाड़ दिया गया है

ईश्वरों को मानवता के केंद्र से

और अभिषेक किया जा रहा है

मर्त्यों का

विशाल भुजाओं वाले यन्त्र

विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

  

उसके किले पर 

तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है

उस "इत्मीनान" के नीचे 

लोहा पीटने की मशीनों की भाँति

संभावनाएँ उछल-कूद कर रही हैं

उत्पन्न कर रही हैं 

मस्तिष्क को मथ देने वाला शोर 


उसकी खोपड़ी से

चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है

और हिल रही हैं

आस्था की जड़ें


एक रंगविहीन परत के

दोनों ओर उबल रहा है 

अथाह लावा

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आशीष बिहानी   

11 मार्च 1992 को जन्मे  युवा कवि आशीष बिहानी हिंदी और मारवाड़ी दोनों भाषाओं में रचना करते हैं| देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ महत्त्वपूर्ण ई पत्रिकाओं में भी इनकी कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं|

'अन्धकार के धागे' नामक एक काव्य-संग्रह 2017 में प्रकाशित हुआ है|

बीआईटी, पिलानी से अभियांत्रिकी तथा 'कोशिका एवं आण्विक जीव विज्ञान अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सम्प्रति 'मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान(कनाडा)' में शोधकार्य कर रहे हैं|

बुधवार, 10 जुलाई 2024

गौरव पाण्डेय

 गाँव से निकले बहुत लोग

१.

गाँव से निकले बहुत लोग

कुछ न कुछ करने 

और लौटे भी

जो कुछ बन पड़ा वो करके


लौटे कुछ ईंट-गारा करके

बोझा ढोकर लौटे कुछ

देर शाम तक

नमक-तेल-तरकारी लिए बहुत लौटे


कुछ ऐसे थे

जो लौटे बहुत दिनों बाद

बड़ा-सा बैग, रुपया, कपड़ा और सपने लेकर


लेकिन कुछ ऐसे भी थे

जो नहीं लौटे

खो गए


जो नहीं लौटे

उनमें अधिकतर ऐसे थे

जो कुछ हो गए

वे डॉक्टर, वे प्रोफ़ेसर, वे वकील

वे पत्रकार, वे थानेदार

ये जहाँ गए वहीं के रह गये थे


इधर जिनके लौटने की उम्मीद

खो चुका था गाँव

वे मृतकों के बीच से उठकर लौटे......


२.

ये नायक

गाँव के बेटे थे

अब दामाद की तरह लौटते थे


गाँव बीमार था

डॉक्टर इलाज करने नहीं आया

और निरक्षर गाँव ने

प्रोफेसर से एक अक्षर नहीं पाया

वकील ने गाँव को नहीं दिया कोई न्याय

और पत्रकार क्या जाने गाँव का हाल-चाल

दरोगा ने रौब दिखाया गाँव को ही


जब कभी 

दिखाया गया इन्हें कोई सम्मान 

तब ज़रूर चर्चा में रहा गाँव का नाम.........

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मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ

मैं दुनिया भर की 'मॉम' को

वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ 

चाहता हूँ 'डैड' हो चुके पिता

ऑफिस से लौट

आँगन में सेम के बीज रोपें


'सिस' हो चुकी बहन

और 'ब्रो' बन चुके भाई 

दीदी भी 'दी' हो गई हैं

यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास

इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ

षडयंत्र रचती भाषा की जड़ों में 

मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ


मकान की यात्रा करते हुए 

कमरों में पहुंचे घर को 

मैं वापस घर लाना चाहता हूँ|

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पिता इंतजार कर रहे हैं

पिता आकाश देखते हैं

और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है

वो हवाओं को सोखते

और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते


पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है

जैसे लोगों को पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता

फिर भी उनका मानना है

 कि हमारा कोई न कोई नाता है ही 

इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना 


बादलों के रंग और रफ़्तार 

पिता खूब समझते हैं

उन्होंने बता दिया था

धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार

हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी


पिता चिंतित हैं

आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते 

महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध 

जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा 

और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी


पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं

और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं          


हम जानते हैं

पिता के मना करने के बावजूद

दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी    

आँगन की नीम का

जबकि पिता इंतज़ार कर रहे हैं 

कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर 

लौट आएँगे शहर से

और उस दिन पुरानी शाखाओं पर 

 एक बार फिर खिल उठेंगे नए-नए पत्ते....

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सरसों के फूल और बच्चियों के सपने 

घने कोहरे के बीच

खेतों से घर लौटती है माँ

बहन पीछे-पीछे


माँ के हाथों में हैं 

सरसों के कुछ पत्ते

और बहन की अंजुली में भरे हैं

बहुत से फूल सरसों के


द्वार की नीम से

दातुन तोड़ रहे हैं पिता

पड़ोस की बच्चियाँ दौड़-दौड़ बीनती हैं 

नीम की सींकें


माँ कतरती है सरसों के पत्ते

पड़ोस की बच्चियाँ 

बहन को घेर लेती हैं

सब मिल कर सींकों में पिरोती हैं 

सरसों के फूल


पहले कुछ फूलों से बनाती हैं लहरदार झुमका

और लड़ीदार नथिया

एक बच्ची के नाक-कान में लगा कर देखती हैं

हँसती हैं खिलखिला कर

बनाती हैं फिर माँथबेंदी, पायल, कर्धनी

और एक बड़े सींकें में पिरोती हैं 

ग्यारह बड़े-बड़े फूल

और सजाती हैं एक सुंदर हार 


सबकी सहमति से 

ये हार बहन के हिस्से आता है

वह गले के नजदीक लाती है

रुक कर तलाशती हैं नजरें माँ को


बच्चियों के इस कौतुक को 

रसोई की रौशनदान से देखती है माँ

और हाथ में नमक लिए सोचती है

'सरसों के ये टूटे फूल 

कब तक हरे रख पाएँगे

बच्चियों के स्वप्न को '


दूर से आवाज आती है

पिता के कुल्ला करने की

कड़ाही में नमक डालते हुए

माँ करछुल चलाने लगती है|

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ससुराल में झूला

 वो बुआ ही थीं हमारी

पिता को राखी बाँधती

हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती


बहनों को याद हैं

उनकी कजरी

सावनी झूलों के मोहक गीत

मजाल है भौजाइयों की

उनके रहते कोई झूला न चढ़े


झूलना उन्हें बहुत पसंद था 

हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ

एक दिन 

पंखे से झूलती मिलीं


बच्चियां बताती हैं

ससुराली घर से बाहर आकर 

उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी


(आज भी आता है सावन

पड़ जाते हैं झूले 

पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)

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 गौरव पाण्डेय 


26 दिसम्बर 1991 को जन्मे युवा रचनाकार गौरव पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिंदी) और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है| हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स पर कविताएँ और आलेख प्रकाशित हुए हैं | दो कविता-संग्रह 'धरती भी एक चिड़िया है' तथा 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' प्रकाशित हुए हैं | अंग्रेजी के अतिरिक्त बांग्ला, गुजराती, मराठी भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं| 

कवि गौरव पाण्डेय को 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' के लिए वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है |

सम्प्रति गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कर्वी, चित्रकूट, उत्तरप्रदेश में सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापनरत हैं| 


बुधवार, 26 जून 2024

हर्षिता पंचारिया

विषतंत्र

अपने तंत्र को मजबूत करने के लिए 

उन्होंने चुना साँपों को,

तालाब की मछलियों की संख्या

अधिक होने के बावजूद 

दानों की लड़ाई ने उन्हें इतना कमजोर बना दिया  कि

सांप के फुफकारने मात्र से मछलियाँ

तितर-बितर हो गईं,

बावजूद इसके कुछ मछलियों ने साँपों को 

अपना देवता माना|


क्योंकि साँपों ने केंचुली बदल ली थी|


अब चढावे में साँपों ने दूध माँगने की जगह

बस इतना कहा कि

केंचुली बदलने से सांप विषधर नहीं रहते|

मूर्ख मछलियाँ दानों के लालच में

सांप की प्रकृति भी भूल गईं|


काफ़ी समय से

तालाब पर अब सफ़ेद कपोत नहीं दिखते,

और अब मछलियों के अनाथ बच्चों ने साँपों को

अपना सर्वोच्च नेता मान लिया है,

जिन्होंने उन्हें भ्रम में रखा है कि

वो उन्हें विषैले तालाब से आज़ादी दिलाएँगे| 


अब मछलियाँ मरती जा रही हैं

तालाब सूखते जा रहे हैं

और साँपों का क्या है

उन्हें तो बस विष उगलना है

चाहे तालाब में या

तालाब के बाहर|

___________________________________

नरभक्षी

जाते जाते उसने कहा था,

नरभक्षी जानवर हो सकते हैं

पर मनुष्य कदापि नहीं,

जानवर और मनुष्य में

चार पैर और पूंछ के सिवा

समय के साथ 

यदि कोई अंतर उपजा था

तो वह धर्म का था


फिर सभ्यता की करवटों ने धर्म को

कितने ही लबादे ओढ़ाएँ ,

पर एक के ऊपर एक लिपटे लबादों में

क्या कभी पहुँच पायी है कोई रोशनी?


धीरे धीरे अँधेरे की सीलन ने

जन्मी बू और रेंगते हुए कीड़े,

वे कीड़े जो आज भी

परजीवी बनकर जीवित हैं

मनुष्य की बुद्धि में,

जो शनै: शनै: समाप्त 

कर देंगे मनुष्य की मनुष्यता को|


जाते जाते मुझे उससे पूछना था

मनुष्यता की हत्या होने पर भी

क्या धर्म का जीवित रहना साक्ष्य है

मनुष्य के नरभक्षी नहीं होने का?

_____________________________________ 

मूर्ख

उसने कहा, तुम मूर्ख हो!

मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया|

हाँ....मैं मूर्ख हूँ, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ख!

मेरी स्वीकारोक्ति ने तो जैसे आग में घी डाल दिया हो|

उसने कहा, तुम जैसों का कुछ नहीं हो सकता!

मैंने कहा, वह तो और भी अच्छा होगा....

आप जैसों का समय बच जाएगा|

अब उसका क्रोध सातवें आसमान पर था|

 उसने कहा, तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही

यह दुनिया नर्क हो रखी है!


मैंने संयमित होकर कहा,

ताकि आप जैसे लोग, शायद इसे स्वर्ग बना सकें....

वह धम्म धम्म करता हुआ चला गया पर....

उसकी बड़बड़ाहट में मैंने यह सुना कि,

सयाने लोग सही कहते हैं-

'मूर्खों से मुंहजोरी जी का जंजाल है!'

जबकि मैं....

उससे चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती थी कि

'मूर्ख बने रहना इसलिए भी जरूरी है

ताकि बुद्धिमानी का दंभ जीवित रहे

और

जंजालों के जाल में बुद्धिमानों का वर्चस्व कायम रहे!'

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निषिद्धता

हे मृत्यु!

कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!


इतनी कि रुक ही नहीं रही हो

असंख्य वेदनाओं के रुदन से

अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से

और अब,

इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि

कितनी दिशाओं से आओगी तुम|


मृत्यु कहती है कि

यहाँ जीवन निषिद्ध है

पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,

कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है

क्योंकि 

निषिद्धता का नियम 

योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन

शासकों के हिस्से आया|


पर यकीन  मानो,

हम सब अभ्यस्त हो रहे हैं

असमय और अकारण हो रहे युद्ध के

और हमारा अभ्यस्त होना 

इस बात का परिचायक है कि

परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है

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पिता

पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टालता है माँ का गुस्सा

माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते हैं पिता

माँ की चुप्पियों की चाबी होते है पिता

माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते है ताले 

इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बांधे रखती है 

चाबी

और संसार कहता है,

पिता

"बँधे हुए हैं माँ के पल्लू से"|


पिता के कहने भर से, कहाँ थामते हैं बच्चे हाथ

बच्चों की गहरी नींद में जागते सपने होते हैं पिता 

ऊब की परछाइयों में

हाथ थामते पिता इतना जानते हैं कि,

अवसाद कितना भी गहरा हो

उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनुओं से रख देंगें, 

मुट्ठी भर रौशनी संसार की विस्तृतता को बढाते हुए

शायद इसलिए 

पिता आसमान से होते हैं |


पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते हैं 

थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में

ताकि थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे 

उन्हें भी 

पिता-सा दुलार....

जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते हैं,

हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में

आज भी नहीं मानते पिता

उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक....

ऐसा कहते रहते हैं मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से|


कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा

पिता के जाने बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए

बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का

ऊँगलियों पर हिसाब रखने वाले पिता,

जब चारों ऊंगलियों को बंद करते हुए

 सोचते हैं कि उन ऊंगलियों से बंद मुट्ठी ही

यदि मेरा भाग्य है

तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है|


पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते हैं

यहाँ तक वह खुद को भी भूल जाते हैं

मैं उन्हें ढूँढती हूँ

तलाशती हूँ

यहाँ वहां थोड़ा बहुत खोजती हूँ

और वह मंदिर में बैठे 'गोपाल' की तरह 

मुस्कुराते हैं,

मुझे भजन सुनाते हैं....

'ओ पालनहारे

निर्गुण और न्यारे

तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं'|

_______________________________-

हर्षिता पंचारिया


5 नवम्बर 1985 को जन्मी युवा लेखिका हर्षिता पंचारिया ने एमबीए की उपाधि प्राप्त की है| इनकी रचनाएँ ब्लॉग्स, डिजिटल माध्यमों पर तथा 
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं|
'व्योमांजलि' नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है|

बुधवार, 19 जून 2024

राही डूमरचीर

 सरई फूल

झरिया उराँव के लिए


दरख्तों को उनके नाम से

न पुकार पाना

अब तक की हमारी

सबसे बड़ी त्रासदी है


कहा उससे -

मुझे सखुआ का पेड़ देखना है

बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से

सुनो! अपरिचय के बोझ से 

रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा


साथ चलने का इशारा कर

सारे दरख्तों से बतियाती

उनके बीच से लहराती चली

वह गिलहरी की तरह


एक पेड़ के सामने रुक

तोड़ कर फूल उसकी डाली से 

अपने जुड़े में खोंसते हुए

पलट कर कहा मुस्कुराते हुए -

अब चाहोगे भी

तो भुला नहीं पाओगे

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पूछा गौरया ने

एक दिन पूछा गौरया ने

अनुभवी बरगद से 

प्यास ज़्यादा पुरानी है

या ज़्यादा पुराना है पानी 


जगल में फैलती 

घास की गंध की तरह

फैली इस सवाल की बेचैनी

बहुत नीचे, जहां छुपकर मिलती थीं

पानी से बरगद की जड़ें

वहां भी मच गई खलबली

गौरये का मासूम-सा यह सवाल 

फैला इतिहास के हर मोड़ तक

पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना  

जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार 

वहां भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी


शाम को लौटने की बात कह कर 

निकल गई वह नदियों-पेड़ों से मिलने

इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा -

क्या समय था वह

जब प्यास और पानी साथ-साथ चलते थे

जब जहां प्यास लगती

पानी वहां पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित

इतना कि कभी-कभी नाक के रास्ते जा पहुंचता गले तक


फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की 

सभ्यतायें पानी के किनारे 

सभ्यता के नाम पर 

इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड  कर दिया

बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया

और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे

अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर

और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार

कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार 


शाम ढ़ले लौट कर जब आई गौरया

बरगद कहीं नहीं दिखा 

इधर-उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़ें थीं 

जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंजर था

कहते हैं

उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गौरया भी 

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हिम्बो कुजूर 

कोड़ा कमाने गए थे 

असम के गझिन चाय बगान

शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ

लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त 

पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को

चाय बागानों में छूटे रह गए गीत

तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को 

जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर

बच्चों की पढ़ाई के लिए 

सारी कमाई भेजते रहे थे देस

बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे

नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी ले आई उन्हें

छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी

उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं 

अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे 

गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे 

आकर खेलने लगे उनके मांदर पर 

भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अंगड़ाई 

रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे

मांदर को बजाते-बजाते जब

अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे

झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली

हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था


फिर एक दिन

जब घर बनाया जा रहा था 'ठीक' से 

पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए

पुराना मिटटी का बना मकान था

जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था

पहाड़ की तरफ मुँह करके 

आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते 

पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला 

फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला 

पुराने-पुराने पुरखों के गीत

जीवन के रंग से लबालब गीत

अब उनका एक नाती है आठ साल का

उनके साथ अपनी नन्हीं उँगलियाँ फेरता है मांदर पर

पुरखों के किस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से 


पूछ बैठा एक दिन -

कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने

आपके लिए एक अलग से कमरा भी है

जैसा मेरा है

आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा

चिहुँकते हुए कहा उसने -

पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है

मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने

थोड़ा बड़े हो जाओ

बढ़ जाए मांदर से दोस्ती और थोड़ी 

तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद

आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहां

इसलिए चला आया यहाँ वापस


आज हिम्बो कुजूर को

उनके ही गाँव की नदी से बालू धोने वाली 

एक अंजान ट्रक

नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई 

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दुखों का मौसम नहीं है पतझड़

हाड़ाम बा कहने लगे-

तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो

पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में 

दुःख लिख दिया है


पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है

मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिलकुल नहीं

 दिन रात चलते रहने वाले 

अनवरत संगीत के इस मौसम में

अपना जीवन जी चुके पत्ते

'नयों को भेजो दुनिया देखने 

हम तुम्हारी नींव में समाते हैं' - गाते हुए 

अपनी धरती से मिलने आते हैं


पतझड़ में पेड़ 

दुःख नहीं मनाते

न ही दुःख में डूबते-गलते

डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते

वे तो सोहराय में नाचते-गाते

अपने लोगों से बाहा परब में मिलने आते हैं 


इसी से है 

हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज

भूत नहीं बनते हमारे लोग

इस दुनिया से जाकर

वे साथ होते हैं हर मौक़े पर

हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं


पेड़ और पत्तों की रज़ामन्दी से आता है पतझड़

वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है

बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते

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राही डूमरचीर

 24 अप्रैल 1986 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि-लेखक

 राही डूमरचीर की प्रारम्भिक शिक्षा दुमका में, फिर 

शान्तिनिकेकन में, तत्पश्चात् जे.एन.यू. और हैदराबाद

 विश्वविद्यालय में हुई| सम्प्रति मुंगेर, बिहार में कॉलेज में अध्यापन करते हैं| 

प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, आलेख एवं अनुवाद 

प्रकाशित हुए हैं| 

बुधवार, 5 जून 2024

आलोक आज़ाद

 असफलता

सबसे मुश्किल होगा

शहर से वापस 

घर, गाँव लौटना


तुम लौटोगे

सालों के रेत के बाद

बारिश की तलाश में


और तुम्हारा लौटना

ऐसे होगा

जैसे बोई गई फ़सल 

पकने के वक़्त,

बर्बाद हुई और भूख के लिए कोसी गई.

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ईश्वर के बच्चे

क्या आपने,

ईश्वर के बच्चों को देखा है?


ये अक्सर,

सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में,

धरती से क्षितिज की और,

दौड़ लगा रहे होते हैं,


ये अपनी माँ की कोख से ही मजदूर हैं,

और पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत हैं,


ये किसी चमत्कार की तरह,

युद्ध में गिराए जा रहे खाने के

थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं,

और किसी चमत्कार की तरह ही अदृश्य हो जाते हैं,


ये संसद और देवताओं के

सामूहिक मंथन से निकली हुई संतानें हैं,

जो ईश्वर के हवाले कर दी  गयी हैं,


ईश्वर की संतानों को जब भूख लगती है,

तो ये आस्था से सर उठा कर,

ऊपर आकाश में देखते हैं

और पश्चिम से आये देव-दूतों के हाथों मारे जाते हैं


ईश्वर की संतानें 

उसे बहुत प्रिय हैं

वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के

नए शिल्प रचता है

और उनके लहू से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है


मैं अक्सर 

जब पश्चिम की शोख चमकती रात को 

और उसके उगते सूरज के रंग को देखता हूँ

मुझे उसका रंग इंसानी लहू सा

खालिस लाल दिखाई देता है|

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डायन और बुद्ध 

कुछ औरतें,

अपने पतियों,

और बच्चों को सोते हुए,

अकेला छोड़ चली गईं,

ऐसी औरतें,

डायन हो गईं,


कुछ पुरुष,

अपने बच्चों और बीवियों,

को सोते हुए,

अकेला छोड़ चले गए,

ऐसे पुरुष बुद्ध हो गए,


कहानियों में,

डायनों के हिस्से आए,

उल्टे पैर,

और बच्चे खा जाने वाले,

लंबे, नुकीले दांत,


और बुद्ध के,

हिस्से आया,

त्याग, प्रेम,

दया, देश,

और ईश्वर हो जाना | 

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प्रेमिकाएँ

प्रेम में पड़ा पुरुष,

हर गलती के साथ,

अपने घर लौट जाता है,


और प्रेमिकाएँ लौटती हैं,

नीच, कुलटा और अभिशापित हो कर,


प्रेम में पुरुष, 

हारता है,

और प्रेमिकाएँ, ठगी जाती हैं.

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घर से निकले लड़के

घर से निकले लड़के

शहर की संगीन रातों में

पिता की आँखों का सूरमा ढूँढते हैं 


उनके कंधे

यौवन के पहले पहर में झुक रहे हैं

और पीठ पर शासन की लाठियों के गहरे निशान हैं


ये बेहया के फूल की तरह

अपने गाँवों से निकल

शहर के वर्जित इलाकों में उग आए हैं


मजिस्ट्रेट के हालिया बयान में

उनके होने की गंध मात्र से

शहर में कर्फ्यू का खतरा है


उनके रतजगे  में माशूकाओं की आहट

धुंधली होती जा रही है

और उनकी आँखों में

बहन की महावर का रंग उतर आया है 


माँ को अच्छी साड़ी पहनाने की 

एक अदद इच्छा

सरकारी नौकरी की विज्ञप्तियाँ चर चुकी हैं

और ये एक सिगरेट और चाय की प्याली से 

जैसे-तैसे, अपनी रिक्तता को बचाए जा रहे हैं


घर से निकले लड़के

सड़क से संसद तक

सपनों की तस्करी के बाद

जबजब कुछ नहीं रह जाते


तो उदास, अकेले, खाली हाथ

अन्तात्वोगात्वा

एक दिन घर लौट जाते हैं

लेकिन घर, उन तक, फिर कभी नहीं लौटता|

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आलोक आज़ाद 

2 जुलाई 1990 को जन्मे आलोक आज़ाद पोस्ट-डॉक्टरेट शोधार्थी हैं|   

बहुमत, पोषम पा, हिन्दवी, हिन्दीनामा, साहित्कीयनामा, कविताएँ और साहित्य जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं और पोर्टल्स में कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| इनका एक काव्य-संग्रह 'दमन के खिलाफ़'(2019) भी प्रकाशित हो चुका  है| 


गुरुवार, 30 मई 2024

मुदित श्रीवास्तव

 पंच-अतत्त्व

'मैं ताउम्र जलती रही दूसरों के लिए

अब मुझमें ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'

-आग ने यह कहकर 

जलने से इनकार कर दिया


'मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे

बाहर की हवा ठीक नहीं है'

-ऐसा हवा कह रही थी


'मेरे पिघले हुए को भी 

कहाँ बचा पाए तुम?'

-ऐसा पानी ने कहा 

और भाप बनकर गायब हो गया 


'मैं अपने आपको समेट लूँगा

इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में

छेद करती बढ़ रही हैं'

-ऐसा आकाश ने कहा

और जाकर छिप गया इमारतों के बीच

बची दरारों में.....


जब धरा की बारी आई

तो उसने त्याग दिया घूर्णन 

और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में

दोनों हाथ ऊपर किए हुए

यह कहकर -

'मैं बिना कुछ किए

सज़ा काट रही हूँ!'


इससे पहले कि मेरा शरीर कहता -

'मैं मर रहा हूँ'

वह यूँ मरा 

कि न उसे जलने के लिए आग मिली

न सड़ने के लिए हवा

न घुलने के लिए पानी

न गड़ने के लिए धरा

न आँख भर आसमान

फटी रह गईं दो आँखों को........

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पेड़पन

हम ऐसे पेड़ हैं 

जिनके पैरों तले

ज़मीन और जड़ें भी नहीं 

सूखी हुई बाँहें हैं

उनमें पत्तियाँ भी नहीं

हमारे सूखे हुए में भी इतनी क्षमता नहीं कि

किसी ठंढी देह को 

आग दे सके....

जब हमने 

अथाह भागने की जिद पकड़ी थी

तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया था|

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पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

अपनी जड़ों में दबाकर रखी मिट्टी 

बुलाया बादल और बारिशों को 

सहेजे रखा पानी अपनी नसों में


दिए तुम्हें रंग  

तितलियाँ, परिन्दें

घोंसले और झूले 


पेड़ों ने दिए तुम्हें घर

घर के लिए किवाड़ और खिड़कियों के पलड़े

भी दिए तुम्हें


खुद जलकर दी तुम्हें आग

बुझकर के दिया कोयला 

सड़कर के दिया ईंधन


पेड़ों ने तुम्हें

वह सब कुछ दिया 

जिससे तुम जीवित हो


पेड़ों ने दिया तुम्हें 

सम्पूर्ण जीवन 

और

पेड़ों को तुमने दी 


मृत्यु!

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उधार

मुझे चाहिए 

एक पहाड़, उधार

जिसके अंतिम छोर तक 

गूँज सकती हो मेरी आवाज़

जिसके काँधे पर 

सर रखता हो बादलों का गुच्छा

और रोता हो ज़ार-ज़ार


एक नदी, उधार

जिसके किनारे घंटों बैठकर

पानी में करूँ पैर तर

जिसके दोनों ही किनारे हों

सात समंदर पार


एक पेड़, उधार

जिसकी शाखाएँ

चाहती हैं मुझसे गले लगना

जिसकी छाँव तले

बसा सकता हूँ, पूरा संसार


मुझे एक फूल, उधार

जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर 

फिर उसी पौधे में लगा सकूँ

जिस पर एक तितली का 

करता था वह इंतज़ार!


यही सब मुझे जीने के लिए 

चाहिए उधार!

________________________________

खो चुकी क्षमताएँ

उँगलियों ने अब 

छू कर पहचान लेने की क्षमता खो दी है

वे नहीं जानतीं-

जीवित और मृत

देहों के तापमान का फ़र्क


एक अदृश्य छुअन

घर बनाती है भीतर-

कसती हुई

दिल की धड़कन अब

फड़फड़ाहट में बदल चुकी है


वह भूल चूका है कि

किसी को बाँहों में भरने पर

कितना तेज़ भागना होता है

कितनी देर के लिए थमना


अब धड़कनें पल-पल चोट करती हैं

आँखों ने सुन्दरता

देखने का हुनर खो दिया है

अब वे गुलाब को ख़ून समझती हैं

चिड़ियों को मौत का संदेशा

धूप को एक शून्य

उन्हें अँधेरे में सुख मिलता है

वे अब चाहती हैं कि 

बारिश का रंग भी काला भी रहे

भीतर एक ज़िंदगी रहती थी

वह निकलकर जा चुकी है कहीं

किसी क़ब्र में

वापस आने के लिए

पैरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं

क़लम से ख़ून रिसने लगा है

एक नीली कविता

अब लाल है|

__________________________________

मुदित श्रीवास्तव


29 नवम्बर 1991 को जन्मे  कवि-लेखकमुदित श्रीवास्तव ने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है| पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता इनकी कविताओं की विशेषता है| बाल-पत्रिका 'इकतारा',  द्विमासी पत्रिका 'साइकिल' आदि के लिए कविता, कहानी लिखते हैं | देश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| फोटोग्राफी तथा रंगमंच में रूचि रखते हैं|

 








बुधवार, 22 मई 2024

वसु गंधर्व

 भूलना 

अनवरत देखते हुए भी

भूला जा सकता है चीजों को 

आकाश बन सकता है एक नीला खोखल

अन्धकार

मृत्यु के तल में तैरती आँख


चाँद को भूलने के बाद

रात में खुदा हुआ एक गोल गड्ढा दीखता है

जिसमें से झाँकते हैं

रात में ओझल हुए चेहरे

जैसे बुढापे की झुर्रियों में से

झाँकता हो बचपन का धूमिल मुख


अपनी शक्ल भूलने पर 

आईने में दीखता है 

एक अनजान व्यक्ति

जिसकी चौड़ी फैली आँखों के भीतर

एक असंभव प्रतिसंसार भर रिक्तता और

असंख्य स्वप्नों की उदासी होती है कैद


मृत्यु तक पीछा करती हैं

बचपन में भूले चेहरे की रेखाएँ


लौट नहीं जा सकते अब वापस

पुरानी जगहें भूल चुकी हैं

हमारे नाम और चेहरे|

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टूटता वृक्ष

टूटता वृक्ष बहुत धीमी गति से

पृथ्वी को सौंपता है

अपने आध्यात्म के सूत्र

घास को सौंपता है अपनी छाल

चढ़ आने की जगह 

अनेक गिलहरियों, चिड़ियों, बाँबियों में रहते जीवों को 

अपना कष्ट जर्जर शरीर

और अपनी क्षीण होती आत्मा 


कि जब उसके ह्रदय से पूर्णतः लुप्त हो जाए जीवन का संगीत

तब भी पृथ्वी पर जीवन के सर्वत्र अनुनाद में

वह जोड़ सके अपना एक स्वर


ऐसे होता है वह अमर


जिन भी दु:स्वप्नों में मैं टूटता हूँ, ढहता हूँ 

उनमें सबसे अधिक दिखाई देते हैं प्रियजन

और जैसे सीनों पर धरे सुराख़

उनकी विवर्ण, जर्जर आत्माएँ|

_________________________________ 

निकलो रात

निकलो रात

अन्धकार के अपने झूठे आवरण से 

किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से

किसी दुख के बासी हो चुके

प्राचीन वृत्तांत से निकलो बाहर

उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो


निकलो शहज़ादी की उनींदी कहानियों से 

और हर कहानी के ख़त्म होने पर सुनाई देने वाली 

मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से 


अंधी स्मृतियों में बसे 

उन पागल वसंतों के

अनगढ़ व्याख्यान से निकलो


निकल आओ

आकाश से|

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एकांत

रात के सबसे उबाऊ क्षण

घड़ी की अनवरत टिकटिक

चाहे जो कहे तुमसे

लेकिन अकेला ब्रह्माण्ड में कुछ नहीं होता 


उदाहरण के लिए

जिस शुष्क पत्ती को तुमने कुचल दिया था कल

उसके अवशेषों में अब तक

अनगिनत चीजें मुखरित होकर बोलती हैं

उसमें कितना सारा अतीत है,


जीवन के कितने रंग,

कितने राग,

कितने झरने,

कितनी आग


इसमें ऋतुओं के वे आख्यान दर्ज हैं जो वृक्ष ने नहीं सुने, किसी दूसरी पत्ती ने भी नहीं

धूप के ह्रदय में कुछ ऐसा गोपन था जो उसने बस इससे ही कहना चुना

विस्मृति की भाषा बोलता पतझर कितने अलग संगीत में विन्यस्त हुआ इसकी शिराओं में 

कोई नहीं जानता कि रात क्या बुदबुदाती थी इससे हर रोज़


यह जब गिरा पृथ्वी पर 

तो जिस सौम्य सिहरन से कांपा पृथ्वी का अंतर 

उसकी धुँधली  याद शायद कभी पूरी तरह नहीं मिटेगी


इसके होने की कथा ईश्वर तक पहुँच सकती है

अब बहुत सहजता से

निकाल लिए जा सकते हैं गंभीर दार्शनिक निष्कर्ष


लेकिन दरअसल इतनी ही बात खरी है, और सच्ची


कि अकेला कुछ नहीं होता ब्रहांड में|

_______________________________________

 पुराना आदमी

अकेली दीवारों जैसे

हाथों में जमती काई

बंद आँखों पर जमी होती गर्द

टूट कर इधर-उधर बिखरे होते पलस्तर

और बरसात में 

भीतर टप-टप गिरता रहता सीलन का 

पानी

हर रात 

उसके अन्दर

कोई भी जा सकता था

सुन सकता था 

अपनी ही आवाज़ गूँजकर आती

बंद कमरों से

भीतर से खोखली थीं दीवारें

निरर्थक था स्मृतियों का चिट्ठा 

अब बस देखना था

कि वह कब ढहेगा|

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वसु गंधर्व


2001 में जन्मे युवा कवि वसु गंधर्व ने स्नातक की शिक्षा पूर्ण की है|

इनकी एक काव्य कृति 'किसी रात की लिखित उदासी' 

प्रकाशित हुई है| कई पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर इनकी 

कविताएँ प्रकाशित होती रही हौं|  कविता के अतिरिक्त दर्शन, 

अर्थशास्त्र,  विश्व साहित्य में इनकी रूचि है |

ये शास्त्रीय संगीत में भी प्रशिक्षित हैं|


बुधवार, 15 मई 2024

शचीन्द्र आर्य

 चप्पल

शहर के इस कोने से जहां खड़े होकर

इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ, 

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर 

दौड़े भी होंगे?

किसी छूटती बस के पीछे,

बंद होते लिफ्ट के दरवाज़े से पहले,

किसी आदमी के पीछे.


मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,

जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,

किसी अधेड़ उम्र की औरत

और किसी उम्र जी चुकी बूढी महिला को भागते हुए देखा हो.


ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता,

बात दरअसल इतनी-सी है,

जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाए है,

उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे.

पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए 

वह नहीं बना पाया भागने लायक.


सवाल इतना-सा ही है,

उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?

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धौला कुआँ

वह बोले, वहां एक कुआँ होगा और

उन्होंने यह भी बताया,

यह धौला संस्कृत भाषा के धवल शब्द 

का अपभ्रंश रूप है|


जैसे हमारा समय, चिंतन, जीवन, स्पर्श,

दृश्य, प्यास सब अपभ्रंश हो गए 

वैसे ही धवल घिस-घिस कर धौला 

हो गया|


धवल का एक अर्थ सफ़ेद है|

पत्थर सफ़ेद, चमकदार भी होता है|

उन मटमैली, धूसर, ऊबड़ खाबड़ 

अरावली की पर्वत श्रृंखला 

के बीच सफ़ेद संगमरमर का मीठे पानी 

का कुआँ| धौला कुआँ|


कैसा रहा होगा, वह झिलमिलाते पानी

को अपने अन्दर समाए हुए?

उसके न रहने पर भी उसका नाम रह गया |

ज़रा सोचिए, किनका नाम रह जाता है,

उनके चले जाने के बाद?

कहाँ गया कुआँ? कैसे गायब हो गया?

किसी को नहीं पता|


एक दिन,

जब धौलाधार की पहाड़ियाँ इतनी 

चमकीली नहीं रह जाएँगी,

तब हमें महसूस होगा, वह सामने ही था 

कहीं|

ओझल सा|

उस ऊबड़-खाबड़ मेढ़ के ख़त्म होते ही

पेड़ों की छाव में छुपा हुआ सा|


जब किसी ने उसे पाट दिया, तब उसे

नहीं पता था,

कुँओं का सम्बन्ध पहाड़ों से भी वही था,

जो जल का जीवन से है|

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ईर्ष्या का सृजन

जब हैसियत 

सपने देखने की भी नहीं रही

ईर्ष्या का सृजन नहीं हुआ

ईर्ष्या का सृजन तब हुआ 

जब हम नहीं जान पाए 

हमारी सपने देखने वाली रातें

कहाँ और कैसे चोरी हो गईं?

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सड़क जैसी ज़िंदगियां

दिल्ली के कई जाम झगड़ों की तरह थे


जैसे जाम खुलने पर पता नहीं चल पाता था,

क्यों फंसे हुए थे

ऐसी ही कुछ वाजिब वजह नहीं थी

कई सारे झगड़ों की.


जाम और झगड़े बेवजह ही थे

हमारी सड़क जैसी जिंदगियों में.

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कम जगह

मैंने पाया,

कविताएँ कागज़ पर बहुत कम जगह घेरती हैं

इसलिए भी इन्हें लिखना चाहता हूँ.


यह कम जगह उस कम हो गयी संवेदना को कम होने नहीं देगी.

इसके अलावे कुछ नहीं सोचता.

जो सोचता हूँ, कम से कम उसे कहने के लिए कह देता हूँ.


कहना इसी कम जगह में इतना कम तब भी बचा रहेगा.

उसमें बची रहेगी इतनी जगह, जहां एक दुनिया फिर से बनाई जा सके.

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शचीन्द्र आर्य

9 जनवरी 1985 को जन्मे युवा कवि-गद्यकार शचीन्द्र आर्य ने 

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग(सीआईई) से 

शोध किया तथा बी.एड. एवं एम.एड. की उपाधियाँ प्राप्त की हैं|

 इनकी कविताएँ एवं कहानियाँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं 

में प्रकाशित होती रही हैं| "शहतूत आ गए हैं', 'दोस्तोएवस्की का घोडा' 

पुस्तकें प्रकाशित| सम्प्रति अध्यापन |


गुरुवार, 9 मई 2024

अनामिका अनु

क्षमा 

तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए

मैंने बीज के कणों में माफ़ी दी


तुमने पानी से पाप किए

मैंने मीन-सी माफ़ी दी


तुम्हारे पाप आकाश हो गए

मेरी माफी पंक्षी


तुम्हारे नश्वर पापों को

मैंने जीवन से भरी माफ़ी बख्शी


तुमने गलतियां गिनतियों में की 

मैंने बेहिसाब माफ़ी दी


तुमने टहनी भर पाप किए

मैंने पत्तियों में माफ़ी दी


तुमने झरनों में पाप किए

मैंने बूंदों से दी माफ़ी


तुमने पाप से तौबा किया

मैंने स्वयं को तुम्हें दे दिया 


तुम सांझ से पाप करोगे

मैं डूबकर क्षमा दूँगी


तुम धूप से पाप करोगे

मैं माफ़ी में छाँव दूँगी


नीरव, निशब्द पापों

को झींगुर के तान वाली माफ़ी


वाचाल पापों को 

मौन वाली माफ़ी


वामन वाले पाप को

बलि वाली माफ़ी


तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा

मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे

वे दुःख.....

जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे|

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न्यूटन का तीसरा नियम

तुम मेरे लिए 

शरीर मात्र थे

क्योंकि मुझे भी तुमने यही महसूस कराया|


मैं तुम्हारे लिए 

आसक्ति थी,

तो तुम मेरे लिए 

प्रार्थना कैसे हो सकते हो?


मैं तुम्हें 

आत्मा नहीं मानती,

क्योंकि तुमने मुझे

अंतःकरण नहीं माना|


तुम आस्तिक

धरम-करम मानने वाले ,


मैं नास्तिक!

न भौतिकवादी, न भौतिकीविद 


पर फिर भी मानती हूँ

न्यूटन का तीसरा नियम -

क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है,

और हम विपरीत दिशा में चलने लगे......|

__________________________________

शिक्षा

जिस पानी को दरिया में होना था

वह कूप, नल, पानी शुद्धिकरण 

यंत्र से कैसे बोतलों में बंद बिकने लगी?

प्यास ज्ञान की इन बोतलों 

से नहीं मिटने वाली,

दरिया को बचाना होगा|

संकुचन-

दिमागी बौनों की भीड़ गढ़ गया


वे जो दौड़ रहे हैं पत्थर के बुत की और

इंसानों को रौंदकर 

बताते हैं,

दरिया का विकल्प बोतलें नहीं होतीं|

_________________________________

मैं मारी जाऊँगी

मैं उस भीड़ के द्वारा मारी जाऊँगी 

जिससे भिन्न सोचती हूँ|


भीड़-सा नहीं सोचना 

भीड़ के विरुद्ध होना नहीं होता है|

ज्यादातर भीड़ के भले के लिए होता है

ताकि भीड़ को भेड़ की तरह

नहीं हाँका जा सके|


यह दर्ज फिर भी हो 

कि

भिन्न को प्रायः भीड़ ही मारती है|

_______________________________   

अफ़वाह

अफ़वाह है कि एक बकरी है

जो चीर देती है सींग से अपने, छाती शेर की| 


ख़रगोश बिल में दुबका है,

बाघ माँद में डर से,

लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल रहे हैं कुछ भी|


पर एक जोंक है

बिना दांत, हड्डी के रीढ़ वाली

वह चूस आयी है सारा खून बकरी का|


कराहती बकरी कह रही है-

"अफ़वाह की उम्र होती है,

सच्चाई ने मौत नहीं देखी है

 क्योंकि यह न घटती है, न बढ़ती है|"

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अनामिका अनु

जनवरी 1982 को जन्मी केरल निवासी अनामिका अनु मूलतः बिहार के मुजफ्फरपुर से आती हैं| वनस्पति विज्ञान में एम.एससी. और पीएच,डी. अनामिका अनु का 'इंजीकरी' नामक एक काव्य-संग्रह तथा प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ एवं अनुवाद प्रकाशित हुए हैं| 'यारेख' पुस्तक का संपादन भी किया है|
इन्हें वर्ष 2020 में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, 2021 में राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार(सर्वश्रेष्ठ कवि), 2022 में रज़ा फेलोशिप, 2023 में महेश अंजुम युवा कविता सम्मान से सम्मानित किया गया है|



बुधवार, 1 मई 2024

विजय राही

महामारी और जीवन 

कोई ग़म नहीं 

मैं मारा जाऊँ अगर 

सड़क पर चलते-चलते 

ट्रक के नीचे आकर 


कोई ग़म नहीं 

गोयरा  खा जाए मुझे 

खेत में रात को 

ख़ुशी की बात है 

अस्पताल भी नहीं ले जाना पड़े 


कोई ग़म नहीं 

ट्रेन के आगे आ जाऊँ 

फाटक क्रासिंग पर 

पटरियों से चिपक जाऊँ 

बिलकुल दुक्ख  न पाऊँ 


अगर हत्यारों की गोली से 

मारा जाऊँ तो और अच्छा 

आत्मा में सुकून पाऊँ 

कि जीवन का कोई अर्थ पाया 


और भी कई-कई बहाने हैं 

मुझे बुलाने के लिए मौत के पास 

और कई-कई तरीके हैं मर जाने के भी 


लेकिन इन महामारी के दिनों में 

घबरा रहा हूँ मरने से 

उमड़-घुमड़ रहा है मेरे अंदर जीवन 

आषाढ़ के बादलों की तरह 

जबकि हरसू मौत अट्टहास कर रही है।

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 जेबकतरा 

मैं उसे पहचान नहीं पाया 

मुझे पैसे-काग़ज़ातों का ग़म नहीं 

मैं तो उससे पूछना चाहता हूँ 

किस कमजोर पल का इंतज़ार करता है वह 

शातिर प्रेमियों की तरह 


जो खुद को चालक समझने वाला कवि 

मात खा गया आज एक ऐसे आदमी से 

जिसने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है 

आहिस्ता से पीछे की जेब से पर्स पार किया 

इस तरह तीरे-नीमकश भी जिगर के पार नहीं होता 


मैं उसके हाथ चूमना चाहता हूँ

और कहना चाहता हूँ 

पैसों की शराब पी लेना चाहे 

आधार-जनाधार कूड़े में फेंक देना 

अगर मन करे तो पर्स रख सकते हो 

लेकिन पर्स में रखी प्रेम-कविता को मत फेंकना 


उसे अपनी प्रेमिका को सुनाना और बताना 

कि यह मैंने लिखी है तुम्हारे प्यार में 

जिस दी जेब नहीं काट पाया और निराश था 

उस दिन यह कविता और कागज ही मेरे पास था।

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गर्मियाँ 

सूख गया है तालाब का कंठ 

उसके पास खड़े पेड़ पौधे उसकी ओर झुक गए हैं 

उसको जिलाए रखने के लिए हवा कर रहे हैं 

उनके पत्ते झरते हैं उसकी तपती देह पर 


अचानक उसकी छाती में हिलोर उठती है 

एक औरत घड़ा लेकर गीत गाती आ रही है 

उसको पानी पिलाने के लिए।

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बेबसी 

सर्दी की रात तीसरे पहर 

जब चाँद भी ओस से 

भीगा हुआ सा है 

आकाश की नीरवता में 

लगता है जैसे रो रहा है 

अकेला किसी की याद में 

सब तारे एक-एक कर चले गए हैं।

बार-बार आती है कोचर की आवाज़ 

रात के घुप्प अंधेरे को चीरती हुई 

और दिल के आर-पार निकल जाती है 

पांसूओं को तोड़ती हुई 

झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है 

रात के उतार के साथ।

हल्की पुरवाई चल रही है 

काँप रही है नीम की डालियाँ 

हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है 

ऐसे समय में सुनाई देती है 

घड़ी की टिक-टिक भी 

बिलकुल साफ़ और लगातार बढ़ती हुई।

बाड़े में बंधे ढोरों के गले में घंटियाँ बज रही हैं 

अभी मंदिर की घंटियाँ बजने का समय 

नहीं हुआ है 

गाँव नींद की रज़ाई में दुबक है।

माँ सो रही है पाटोड़ में 

बीच-बीच में खाँसती हुई 

कल ही देवर के लड़के ने 

फावड़ा सर पर तानकर 

जो मन में आई 

गालियाँ दी थी उसे 

पानी निकासी की ज़रा सी बात पर।

बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया 

"माँ! आपकी तो उम्र हो गयी 

मर भी गई तो कोई बात नहीं 

आपके बड़े-बड़े बेटे हैं।

हमारे तो बच्चे छोटे हैं!

हम मर गए तो उनका क्या होगा?"

माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है 

डरी हुई काँपती हुई,

घबराती आवाज़ में रुदन 

सीने में कुछ दबाव सा है।

मैं माँ के बग़ल वाली खाट पर सोया हूँ 

मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास 

एक बात ये भी है कि-

माँ की परेशानी का भान है मुझे 

बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र 

माँ अकेले में डरने लगी है।

जब तक बाप था 

माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती 

रात में बेबात पिटती 

मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ  

माँ को दिन-रात कँपाती 

बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियाँ 

माँ को सपनों में डराती 

फिर देवर जेठों से भय खाती रही 

और अब अपनी औलाद जैसों का डर।

 माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई 

कंपकंपाती, डर खाई आवाज़ 

जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही 

जगने पर बड़बड़ाहट मैं बदल जाती है 

मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ 

माँ बताती है कि-

"वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है।

मैं उसे कह रही हूँ-

आ गैबी !

आज मेरे दोनों बेटे यहीं हैं 

इनके सामने मार मुझे!"

मैं चुपचाप सुनता हूँ 

सारी बात बुत की तरह 

कुछ नहीं कह पाता।

माँ भी चुप हो जाती है 

उसे थोड़ी देर  बाद उठना है 

मैं झूठमूठ सोने का बहाना करता हूँ 

मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।

________________________________

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

मुझे घर से निकलना ही पड़ेगा ।


मेरे लहजे में है तासीर ऐसी,

कि पत्थर को पिघलना ही पड़ेगा।


पुराने हो गए किरदार सारे,

कहानी को बदलना ही पड़ेगा।


तुम्हीं गलती से दिल में आ गये थे,

तुम्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा।


वो जो मंज़िल को पाना चाहता है,

उसे काँटों पे चलना ही पड़ेगा।

_________________________________________

विजय राही 

जन्म: 3 फ़रवरी 1990

रचनाएँ: हंस, पाखी, तद्भव, मधुमती, सदानीरा, कथेसर आदि में कविताएँ प्रकाशित।

सम्मान एवं पुरस्कार: दैनिक भास्कर का राज्य युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार,2018

क़लमकार मंच का राष्ट्रीय कविता पुरस्कार (द्वितीय),2019

सम्प्रति राजस्थान सरकार में शिक्षक। 


गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

नेहा नरुका

जेबकतरे

एक ने हमारी जेब काटी और हमने दूसरे की काट ली और दूसरे ने तीसरे की और तीसरे ने चौथे की और 

चौथे ने पाँचवे की

और इस तरह पूरी दुनिया ही जेबकतरी हो गई

अब इस जेबकतरी दुनिया में जेबकतरे अपनी-अपनी जेबें बचाए घूम रहे हैं


सब सावधान हैं पर कौन किससे सावधान है पता नहीं चल रहा 

सब अच्छे हैं पर कौन किससे अच्छा है पता नहीं चल रहा 

सब जेब काट चुके हैं

पर कौन किसकी जेब काट चुका है पता नहीं चल रहा


जेबकतरे कैंची छिपाए घूम रहे हैं

संख्या में दो हजार इक्कीस कैंचियाँ हैं

इनमें से पाँच सौ एक अंदर से ही निकली हैं

अंदर वाली कैंचियाँ भी बाहर वाली कैंचियों की तरह ही दिख रही हैं

कैंचियाँ जेब काट रही हैं

सोचो जब  कैंचियाँ इतनी हैं तो जेबें कितनी होंगी?

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डर

अक्सर आधी रात को मैं डरावने ख्वाब देखती हूँ

मैं देखती हूँ मेरी सारी पोशाकें खो गई हैं

और मैं कोने में खड़ी हूँ नंगी

मैं देखती हूँ कई निगाहों के सामने खुद को घुटते हुए!


मैं देखती हूँ मेरी गाड़ी छूट रही है

और मैं बेइन्तहा भाग रही हूँ उसके पीछे!

मैं देखती हूँ मेरी सारी किताबें 

फटी पड़ीं हैं ज़मीन पर 

और उनसे निकल कर उनके लेखक

लड़ रहे हैं, चीख रहे हैं, तड़प रहे हैं

पर उन्हें कोई देख नहीं पा रहा |


मैं देखती हूँ मेरे घर की छत, सीढ़ियाँ और मेरा कमरा

खून से लथपथ पड़ा है

मैं घबराकर बाहर आती हूँ और बाहर भी मुझे आसमान से खून रिसता हुआ दिखता है 

अक्सर आधी रात को मुझे डरावने खावाब आते हैं 

और मैं सो नहीं पाती|


मैं दिनभर खुद को सुनाती हूँ हौसले के किस्से

दिल को ख़ूबसूरती से भर देने वाला मखमली संगीत 

पर जैसे-जैसे दिन ढलता है

ये हौसले पस्त पड़ते जाते हैं

और रात बढ़ते-बढ़ते डर जमा कर लेता है क़ब्जा मेरे पूरे वजूद पर

मैं बस मर ही रही होती हूँ तभी 

मेरी खिड़की से रोशनी दस्तक देती है मेरी आँखों में

और मेरा ख्वाब टूट जाता है

अक्सर..........

_________________________________________________

बिच्छू

(हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि 'अज्ञेय' की 'सांप' कविता से प्रेरणा लेते हुए)

तुम्हें शहर नहीं गाँव प्रिय थे

इसलिए तुम सांप नहीं,

बिच्छू बने

तुम छिपे रहे मेरे घर के कोनों में 

मारते रहे निरन्तर डंक

बने रहे सालों जीवित


तुमसे मैंने सीखा:


प्रेम जिस वक्त तुम्हारी गर्दन पकड़ने की कोशिश करे

उसे उसी वक्त औंधे मुंह पटककर, अपने पैरों से कुचल दो

जैसे कुचला जाता है बिच्छू,


अगर फिर भी प्रेम जीवित बचा रहा 

तो एक दिन वह तुम्हें डंक मार-मार कर अधमरा कर देगा|

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विविधता

तुम पीपल का पेड़ हो

और मैं आम

न तुम मुझे पीपल बनने की कहना 

न मैं तुम्हें आम


एक तरफ बाग़ में तुम खड़े होगे

और एक तरफ मैं


मेरे फल तुम्हारे पत्ते चूमा करेंगे

और तुम्हारे फल मेरे पत्तों को आलिंगन में भर लेंगे


जब बारिश आएगी

हम साथ-साथ भींगेंगे


जब पतझड़ आएगा 

हमारे पत्ते साथ-साथ झरेंगे


धूप में देंगे हम राहगीरों को छाँव

अपनी शाखाओं की ओट में छिपा लेंगे हम

प्रेम करने वाले जोड़ों की आकृतियाँ


हम साथ-साथ बूढ़े होंगे

हम अपने-अपने बीज लेकर साथ-साथ मिलेंगे मिट्टी में 


हम साथ-साथ उगेंगे फिर से

मैं बाग के इस तरफ, तुम बाग के उस तरफ

न मैं तुम्हें अपने जैसा बनाऊँगी 

न तुम मुझे अपने जैसा बनाना


अगर हम एक जैसा होना भी चाहें तो यह संभव नहीं

क्योंकि इस संसार में एक जैसा कुछ भी नहीं होता

एक माता के पेट में रहने वाले दो भ्रूण भी एक जैसे कहाँ होते हैं....


फिर हम-तुम तो दो अलग-अलग वृक्ष हैं, जो अपनी-अपनी ज़मीन में गहरे तक धँसे हैं


हम किसी बालकनी के गमले में उगाये सजावटी पौधे नहीं 

जिसे तयशुदा सूरज मिला, तयशुदा पानी मिला और नापकर हवा मिली


हम आम और पीपल हैं!

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उनके कांटे मेरे गले में फँसे हुए हैं

वे सब मेरे लिए स्वादिष्ट मगर काँटेदार मछलियों की तरह हैं 

मैंने जब-जब खाना चाहा उन्हें तब-तब कांटे मेरे गले में फंस गए

उकताकर मैंने मछलियाँ खाना छोड़ दिया

जिस भोजन को जीमने का शऊर न हो उसे छोड़ देना ही अच्छा है


अब मछलियाँ पानी में तैरती हैं

मैं उन्हें दूर से देखती हूँ

दूर खड़े होकर तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियाँ देखना 

मछलियाँ खाने से ज़्यादा उत्तेजक अनुभव है


जीभ का पानी चाहे कितना भी ज़्यादा हो

उसमें डूबकर अधमरे होने की मूर्खता बार-बार दोहराई नहीं जा सकती|

_______________________________________________

नेहा नरुका

जन्म:  7 दिसंबर 1987

शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी.

रचनाएँ: फटी हथेलियाँ
'सातवाँ युवा द्वादश', 'आजकल', 'हंस', 'वागार्थ' आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित 

सम्प्रति शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय, कोलारस में सहायक प्राध्यापक, हिंदी के पद पर कार्यरत|


मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

आलोक श्रीवास्तव

बूढ़ा टपरा 

बूढ़ा टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें सच,

उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें सच|


लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?

मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच|


कच्चे रिश्ते, बासी चाहत और अधूरा अपनापन,

मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी भी सौगातें, सच|


जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,

पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच|


धोका खूब दिया है खुद को झूठे मूठे किस्सों से,

याद मगर जब करने बैठे याद आई हैं बातें सच|

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अम्मा 

धूप हुई तो आँचल बनकर कोने-कोने छाई अम्मा

सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा


उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है

धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा 


घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखें

चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा


सारे रिश्ते जेठ-दुपहरी, गर्म हवा, आतिश, अंगारे

झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा


बाबूजी गुजरे; आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं,

तब मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा|

__________________________________________

मैंने देखा है

धड़कते, सांस लेते, रुकते-चलते, मैंने देखा है

कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है


तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं

तुम्हारी आदतों में खुद को ढलते, मैंने देखा है


न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है

ख़ुद अपने-आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है


मेरी खामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाजें

तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है


बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी

बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है


मुझे मालूम है उनकी दुआएं साथ चलती हैं

सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है

___________________________________ 

सात दोहे

आँखों में लग जाएँ तो, नाहक निकले खून,

बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून|


भौंचक्की है आत्मा, साँसें हैं हैरान,

हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान|


तुझमें मेरा मन हुआ, कुछ ऐसा तल्लीन,

जैसे गाए डूब कर, मीरा को परवीन|


जोधपुरी साफ़ा, छड़ी, जीने का अंदाज़,

घर-भर की पहचान थे, बाबूजी के नाज़|


कल महफ़िल में रात भर, झूमा खूब गिटार,

सौतेला-सा एक तरफ़, रक्खा रहा सितार|


फूलों-सा तन ज़िन्दगी, धड़कन जिसे फांस,

दो तोले का जिस्म है, सौ-सौ टन की सांस|


चंदा कल आया नहीं, लेकर जब बरात,

हीरा खा कर सो गई, एक दुखियारी रात|

___________________________________-

 तोहफ़ा

जाने क्या-क्या दे डाला है 

यूं तो तुमको सपनों में...


मेंहदी हसन, फरीदा ख़ानम 

की ग़ज़लों के कुछ कैसेट

उड़िया कॉटन का इक कुर्ता 

इतना सादा जितने तुम

डेनिम की पतलून जिसे तुम 

कभी नहीं पहना करते

लुंगी, गमछा, चादर, कुर्ता, 

खादी का इक मोटा शॉल 

जाने क्या-क्या .....


आँख खुली है, 

सोच रहा हूँ 

गुजरे ख़्वाब 

दबी हुई ख्वाहिश हैं शायद

नज़्म तुम्हें जो भेज रहा हूँ 

ख्वाहिश की कतरन है केवल

____________________________________________

आलोक श्रीवास्तव

जन्म: 30 दिसम्बर 1971

शिक्षा: स्नातकोत्तर(हिंदी)

रचनाएँ: आमीन(गज़ल संग्रह), आफरीन(कहानी-संग्रह), हंस, वागर्थ, कथादेश, इंडिया टुडे, आउटलुक आदि में रचनाएँ प्रकाशित|

सम्पादन: नई दुनिया को सलाम-अली सरदार जाफरी, अफेक्शन-बशीर बद्र, हमकदम-निदा फाज़ली|

विविध: फिल्म एवं टी.वी. धारावाहिकों के लिए गीत तथा कथा लेखन, प्रतिष्ठित पार्श्व गायकों द्वारा ग़ज़ल एवं गीत गायन|

सम्मान एवं पुरस्कार: मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत कुमार पुरस्कार, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, सुखन सम्मान, मॉस्को रूस का अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, कथा यूं.के. की और से ब्रिटेन की संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स में सम्मानित, वर्ष 2020 का अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान|


प्रीति तिवारी के सौजन्य से

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