बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मीता पंत

 1. घास 


नहीं है ख़ास 
घास ही तो है घास
गाहे-बगाहे 
अनचाहे 
उगी-फ़ैली-जमी-उखड़ी-कुचली-रौंदी-दली
फिर भी बली। 

बरसात की हरियायी सौंधी धूप में 
चमचम चमकती 
रौशनी जैसी दमकती 
मखमली 
फैली-फली।

घास 
धरती के भीतर भी 
बाहर भी 
जमी, जड़ पकड़ती
सूखती 
फिर-फिर निखरती
क्या जिजीविषा 
कौन-सा अमरत्व लेकर 
अपने लिए 
कंक्रीट की दरारों में भी रच लेती घर!

ढेर से कीड़े मकोड़े 
गिलहरियाँ -तितलियाँ 
चौपाये, दोपाये सभी हम 
फैली हुई इस हरीतिमा के 
बिना जाने ऋणी हैं
पर कोई नहीं आता बचाने घास को 
ग्रीष्म के जलते शरों से।

कौन सहलाता है 
कुचले हुए तिनके?
कौन कहता है कि ठहरो 
फैलने दो 
झूमने दो घास को 
ढीठ पर 
नन्हा-सा सर 
अपना उठा लेती है
मौक़ा 
जहाँ जब भी पा लेती है।

एक नीले धुले अकाश के नीचे 
हरी चमकीली धरती 
क्या नहीं संदेश ये हम को मिले उस प्रेम का!
क्या नहीं संदेशवाहक 
हरेक ये मामूली तिनका घास का।
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2. युद्ध


वह भी एक सिपाही है 
तुम भी एक सिपाही हो 
वो भी मरने आया है 
तुम भी मारे जाओगे।

देश बचेगा
और बचेंगी वही रंजिशें – वही अदावत 
वही हुक्मराँ – वही सियासत
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 

नारे खूब लगेंगे बेशक 
माला फूल चढ़ेंगे बेशक 
दिए जलाए जाएँगे 
सर भी लोग झुकाएँ
गे

फिर कुछ दिन में भूल-भाल 
सब अपने घर को जाएँगे
कहीं कोई एक घर सिसकेगा
गीली आँखों कोई आँगन 
गए हुओं की राह तकेगा
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 
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3. विश्वास


पेड़ की फुनगी पे बैठी 
एक चिड़िया जानती है 
पेड़ ने थामा हुआ है 
एक पूरा आसमान।

मैं न मानूँ, तुम न मानो 
एक चिड़िया मानती है 
एक पूरा आसमाँ 
एक पेड़ के कंधों पे है।
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 4. मामूली औरतें 


मामूली औरतों के पास हैं ग़ैर मामूली टोटके
अपच-सर्दी-खाँसी-झड़ते बालों से लेकर 
चाय, कॉफ़ी के दाग छुड़ाने 
मूली के पत्तों का सुस्वादु साग बनाने तक के। 

कमरे की दराज़ें पहचानतीं हैं उनकी ऊँगलियों का स्पर्श 
फर्श उनके पैरों की चाप से धड़कता है 
छतें उन्ही के कंधों पर टिकी हैं 
अपने आप में एक पूरा घर हैं ये मामूली औरतें। 

एक दिन कुछ यूँ होगा 
कि सारी मामूली औरतें निकल आएँगी घरों, चौहद्दों से बाहर 
और तोड़ डालेंगी तमाम आड़ी-तिरछी दीवारें। 

वे समतल कर देंगी ऊबड़-खाबड़ ज़मीनें 
बंजर धरती पर बनाएँगी मेड़ों वाली क्यारियाँ 
और रोप देंगी उनमें गेंदे, गुलदुपहरिया, गेहूँ और गुलाब  
वे साफ़ कर देंगी नालियाँ, बुहार देंगी सड़कें,
धो डालेंगी रगड़-रगड़कर ख़ून सनी सीढ़ियाँ 
और ओनों-कोनों में रख देंगी महकते लोबान 
जहाँ-जहाँ वे पैर रखेंगी सिमटती जाएगी बेतरतीबी 
आँगन में साफ़ धुली साड़ी की तरह लहराएगी धूप 
उम्मीद के धान में से चुन लेंगी वे सारे कंकड़  
हाथ का सब काम निपटा 
किसी बहती नदी के मुहाने बैठ 
धूप भरे पानी के छींटें मार एक दूसरे पर, खुल कर हँसेगी   
उस दिन उन्हें घर लौटने
की कोई हड़बड़ी नहीं रहेगी।
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5. कवि


जिन के हृदय प्रेम से लबालब थे 
वे ऐसी दुनिया को प्रेम करने का दावा करते थे 
जिसमें नहीं बचा था कुछ भी प्रेम के लायक़  
जिनके हृदय घृणा से भरे थे 
उन्होंने अपने विष से फूँक डाला 
जहाँ भी जरा सा कुछ बचा था प्रेम करने लायक़ 
जो भरपूर प्रेम नहीं कर पाए
न ही कर सके भरपूर घृणा 
ऊबते-डूबते रहे प्रेम-अप्रेम के मध्य 
उनके हृदय में बची रही वेदना 
कविता बची रही उन 
ही के पास 
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6. एक और मैं


मेरे अंदर 
एक और मैं हूँ
तुम जिसे देखते हो 
वो भी मैं हूँ, 
और मैं जिसे जानती हूँ 
वो भी

एक आवाज़ है,
जिसे तुम सुन पाते हो
और एक आवाज़ 
बस मुझे ही सुनाई देती है।
मैं तुम्हें नहीं सुना सकती
तुम डर जाओगे।

वो चिड़ियों की तरह,
झरनों की तरह,
पत्तों की सरसराहट की तरह,
गा सकती है कहीं भी,
कभी भी 

एक चेहरा है 
जो तुम्हें दिखता है,
उम्र और थकान के निशानों के साथ।

और एक चेहरा
केवल मुझे दिखता है 
सुंदर, शफ्फाक़, पुरनूर
एक सूरज जैसा चेहरा
तुम देख मत लेना
आँखें दुख जाएँगी

एक हँसी है 
जो तुम सुनते हो,
और बहुत-सी बातें हैं 
जो तुम करते हो मुझ से
पर एक ख़ामोशी है 
जिसे सुनती हूँ केवल मैं
करती हूँ अक्सर उस से बातें
तुम उसे सुनकर क्या करोगे?
समझोगे ही नहीं

ज़िंदगी जीने के लिए 
मैं जानती हूँ 
मुझे हमेशा वही रहना पड़ेगा 
जिसे तुम - 
देख, सुन, छू, समझ सको
वो 'एक और मैं'
मेरे अकेले के हिस्से आई है।
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 मीता पंत





           




मीता पंत का जन्म 1974 में उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में हुआ। इन्होंने कुमायूं विश्वविद्यालय से बीए और एमए (अँग्रेज़ी) की उपाधि प्राप्त की। इनके दो कविता संग्रह 'झरता हुआ मौन' और 'उजालों का लिबास' नाम से प्रकाशित हुए हैं। इनकी कविताएँ समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक पटलों पर प्रकाशित होती रही हैं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आज की कवयित्री मीता पंत की कविताएं प्रभावित करती हैं।
    इनमें जीवन का स्पर्श और ऊष्मा है।
    अपने परिवेश को बारीकी से देखना, समझना और रचना ...इन कविताओं की खासियत प्रतीत होती है।

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  2. मीता पन्त की कविताएं " घास", मामूली औरतें, कवि और एक और मैं"- मानवीय बिंबों के माध्यम से से बाह्य और आन्तरिक कश्मकश का वैचारिक आत्म विलोड़न तो है ही,इसके साथ " स्व" से जुड़े रहने का गहरा सुबूत भी हैं।उनकी कविताओं का नाद पाठक के हृदय कुहर में इको की सुदूर ध्वनि भी पैदा करता है।
    मीता की कविताएं उनके भाव और विचारों का जो तालमेल जमाये हैं ,अपनेआप में सहजता पैदा करता है।वे जैसी व्यक्तित्व में हैं वैसी ही कृतित्त्व में भी हैं-वो मुझे बड़ा भाई मानतीं हैं और वे मेरे लिए निश्छल बहन; तभी तो कह सकता हूँ कि "लेखन" और " जीवन" में दो फाँक नहीं है।उनकी क़लम और उनकी सक्रियता को मेरा आशीर्वाद, और निरन्तरता के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
    दिनेश द्विवेदी--सम्पादक "पुनश्च" एवं "शिनाख़्त",

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  3. बहुत दिनों बाद कुछ बहतरीन, भावों से भरी- छलकती, जीवन की लय में बहती , बहुत कुछ कहती कविताएँ पढ़ने को मिली l धन्यवाद मीता 😊🙏

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