1. उसका घर
वह कोई अनुपम नहीं होगा
और न ही बिलकुल अलहदा
लेकिन मेरी कल्पना में वह ऐसा ही था
कभी वह हरी-भरी घाटियों बीच
नज़र आता मुझे
कभी एक झरने के ठीक बगल में
चौड़ी चट्टान पर खड़ा होकर
बाँहें फैलाकर पुकारता
कभी किसी गाँव के कोने में
संकोच के साथ दिखता मुझे
कभी शहर के आस-पास
जैसे उसे गाँव आया ही नहीं हो रास
कभी मैं उदास होता
उदासी के प्रतिरूप में खड़ा करता उसे
एक बियाबान में अकेले तपते हुए
किसी रेगिस्तानी पेड़ की तरह
यह मेरे प्रिय कवि का घर था
जहाँ मैं कभी नहीं गया
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2. बहन
एक घंटे में लहसुन छीलती है
फिर भी छिलके रह जाते हैं
दो घंटे में बर्तन माँजती है
फिर भी गंदे रह जाते हैं
तीन घंटे में रोटी बनाती है
फिर भी जली, कच्ची-पक्की
कुएँ से पानी लाती है
मटकी फोड़ आती है
जब भी ससुराल आती है
हर बार दूसरी ढाणी का
रास्ता पकड़ लेती है
औरतें छेडती हैं तो चुप हो जाती है
ठसक से नहीं रहती बेमतलब हँसने लगती है
खाने-पीने की कोई कमी नहीं है
फिर भी रोती रहती है
"काँई लखण कोनी थारी बहण में"
यह सब
बहन की सास ने कहा मुझसे
चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए
जब पिछली बार बहन से मिलने गया
मैंने घर आकर माँ से कहा
बहन पागल हो गई है
सास ने उसको ज़िंदा ही मार दिया
कुएँ में पटक दिया तुमने उसे
माँ ने कहा
लूगड़ी के पल्ले से आँखें पोंछते हुए
"तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो
म्हारी बेटी खूब मौज में है!"
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3. बारिश
जैसे हमको गाड़ी दूर से दिख जाती है
माँ को दूर से दिख जाती है बारिश
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4. बिछड़ना
जीवन में जो भी शख़्स मिला मुझे
मिला कम और बिछड़ा बहुत
सबसे पहले अपने पिता से बिछड़ा
जब मैं दूसरी क्लास में था
अगले साल चौथी के लिए कह रखा था उन्होंने
उनको लगता था मैं पढ़ने में तेज़ हूँ
परंतु ऐसा कभी नहीं हो पाया
फिर मेरे जीवन में प्रेम आया
लेकिन वह भी आता कम,
जाता अधिक दिखा
बिछड़ने के ग़म का
इतना ख़ौफ़ है मेरे मन में कि
मैं चाहकर भी बच्चे का स्कूल नहीं बदल पा रहा हूँ
मुझे लगता है उसके दोस्त बिछड़ जाएँगे
जो मैं कभी नहीं चाहता
क्योंकि उन्हें देखकर मुझे अपने दोस्तों की याद आती है
और रुलाई अधिक आती है।
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5. याद
सौंफ कट चुकी है
मगर उसकी ख़ुशबू नहीं
डंठलों में भी उतनी ही ख़ुशबू है
जो अभी कुछ दिन और रहेगी हवाओं में
तुम्हारे चले जाने पर भी
तुम्हारी याद की ही तरह
यह तपेगी
जलेगी
ढह पड़ेगी
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6. झाड़ू
पक्षियों के पास होती है पंख की झाड़ू
पशुओं के पास होती है पूँछ की झाड़ू
आसमानों की झाड़ू है बादल
और धरती की झाड़ू है आँधियाँ
कुदरत के पास कितनी ही
दृश्य और अदृश्य झाड़ू है
काश मेरे पास भी होती कोई ऐसी झाड़ू
जिससे बुहार पाता अपनी आत्मा को
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विजय राही
विजय राही का जन्म 3 फरवरी 1990 दौसा राजस्थान में हुआ । इनकी स्नातक शिक्षा राजकीय महाविद्यालय दौसा तथा स्नातकोत्तर की शिक्षा राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से हुई। हंस,पाखी, तद्भव, वर्तमान साहित्य, मधुमती, विश्वगाथा, कथारंग, सदानीरा, किस्सा कोताह, साहित्य बीकानेर, दैनिक भास्कर, समालोचन, कविता कोश जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेब पटलों पर इनकी कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं। रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम 'आज कविता' शृंखला के लिए इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तथा राजस्थान साहित्य अकादमी में इनकी कविताओं का पाठ हुआ। दूरदर्शन राजस्थान एवं आकाशवाणी, जयपुर केंद्र से इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। वर्तमान समय में विजय जी राजकीय महाविद्यालय कानोता में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।
संपर्क - 9929475744
ईमेल - vjbilona532@gmail.com
इन कविताओं को पढ़ना एक सुखद भावपूर्ण अनुभव की तरह बना रहता है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विजया सती जी ।
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया कविता घर 🌼