सरई फूल
झरिया उराँव के लिए
दरख्तों को उनके नाम से
न पुकार पाना
अब तक की हमारी
सबसे बड़ी त्रासदी है
कहा उससे -
मुझे सखुआ का पेड़ देखना है
बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से
सुनो! अपरिचय के बोझ से
रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा
साथ चलने का इशारा कर
सारे दरख्तों से बतियाती
उनके बीच से लहराती चली
वह गिलहरी की तरह
एक पेड़ के सामने रुक
तोड़ कर फूल उसकी डाली से
अपने जुड़े में खोंसते हुए
पलट कर कहा मुस्कुराते हुए -
अब चाहोगे भी
तो भुला नहीं पाओगे
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पूछा गौरया ने
एक दिन पूछा गौरया ने
अनुभवी बरगद से
प्यास ज़्यादा पुरानी है
या ज़्यादा पुराना है पानी
जगल में फैलती
घास की गंध की तरह
फैली इस सवाल की बेचैनी
बहुत नीचे, जहां छुपकर मिलती थीं
पानी से बरगद की जड़ें
वहां भी मच गई खलबली
गौरये का मासूम-सा यह सवाल
फैला इतिहास के हर मोड़ तक
पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना
जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार
वहां भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी
शाम को लौटने की बात कह कर
निकल गई वह नदियों-पेड़ों से मिलने
इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा -
क्या समय था वह
जब प्यास और पानी साथ-साथ चलते थे
जब जहां प्यास लगती
पानी वहां पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित
इतना कि कभी-कभी नाक के रास्ते जा पहुंचता गले तक
फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की
सभ्यतायें पानी के किनारे
सभ्यता के नाम पर
इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड कर दिया
बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया
और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे
अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर
और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार
कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार
शाम ढ़ले लौट कर जब आई गौरया
बरगद कहीं नहीं दिखा
इधर-उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़ें थीं
जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंजर था
कहते हैं
उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गौरया भी
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हिम्बो कुजूर
कोड़ा कमाने गए थे
असम के गझिन चाय बगान
शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ
लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त
पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को
चाय बागानों में छूटे रह गए गीत
तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को
जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर
बच्चों की पढ़ाई के लिए
सारी कमाई भेजते रहे थे देस
बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे
नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी ले आई उन्हें
छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी
उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं
अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे
गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे
आकर खेलने लगे उनके मांदर पर
भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अंगड़ाई
रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे
मांदर को बजाते-बजाते जब
अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे
झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली
हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था
फिर एक दिन
जब घर बनाया जा रहा था 'ठीक' से
पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए
पुराना मिटटी का बना मकान था
जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था
पहाड़ की तरफ मुँह करके
आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते
पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला
फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला
पुराने-पुराने पुरखों के गीत
जीवन के रंग से लबालब गीत
अब उनका एक नाती है आठ साल का
उनके साथ अपनी नन्हीं उँगलियाँ फेरता है मांदर पर
पुरखों के किस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से
पूछ बैठा एक दिन -
कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने
आपके लिए एक अलग से कमरा भी है
जैसा मेरा है
आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा
चिहुँकते हुए कहा उसने -
पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है
मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने
थोड़ा बड़े हो जाओ
बढ़ जाए मांदर से दोस्ती और थोड़ी
तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद
आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहां
इसलिए चला आया यहाँ वापस
आज हिम्बो कुजूर को
उनके ही गाँव की नदी से बालू धोने वाली
एक अंजान ट्रक
नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई
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दुखों का मौसम नहीं है पतझड़
हाड़ाम बा कहने लगे-
तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो
पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में
दुःख लिख दिया है
पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है
मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिलकुल नहीं
दिन रात चलते रहने वाले
अनवरत संगीत के इस मौसम में
अपना जीवन जी चुके पत्ते
'नयों को भेजो दुनिया देखने
हम तुम्हारी नींव में समाते हैं' - गाते हुए
अपनी धरती से मिलने आते हैं
पतझड़ में पेड़
दुःख नहीं मनाते
न ही दुःख में डूबते-गलते
डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते
वे तो सोहराय में नाचते-गाते
अपने लोगों से बाहा परब में मिलने आते हैं
इसी से है
हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज
भूत नहीं बनते हमारे लोग
इस दुनिया से जाकर
वे साथ होते हैं हर मौक़े पर
हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं
पेड़ और पत्तों की रज़ामन्दी से आता है पतझड़
वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है
बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते
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राही डूमरचीर
24 अप्रैल 1986 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि-लेखक
राही डूमरचीर की प्रारम्भिक शिक्षा दुमका में, फिर
शान्तिनिकेकन में, तत्पश्चात् जे.एन.यू. और हैदराबाद
विश्वविद्यालय में हुई| सम्प्रति मुंगेर, बिहार में कॉलेज में अध्यापन करते हैं|
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, आलेख एवं अनुवाद
प्रकाशित हुए हैं|
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