मंगलवार, 29 अगस्त 2023

अनुराग शर्मा

व्यथा कथा

जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
हाथ से बालू फिसले ऐसे वक़्त गुज़रता जाता है
बचपन बीता यौवन छूटा तेज़ बुढ़ापा आता है
जल की मीन को है आतुरता जाल में जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

सपने छूटे, अपने रूठे, गली गाँव सब दूर हुए
कल तक थे जो जग के मालिक मिलने से मजबूर हुए
बुद्धि कितनी जुगत लगाए मन भरमाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

छप्पन भोग से पेट भरे यह मन न भरता है
भटक-भटक कर यहाँ वहाँ चित्त खूब विचरता है
लोभ सँवरता न कोई सीमा है हथियाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

मुक्त नहीं हूँ मायाजाल मेरा मन खींचे है
जितना छोड़ूँ उतना ही यह मुझको भींचे है
जीवन की ये गलियाँ फिर-फिर आने-जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

भारी कदम कहाँ उठते हैं, गुज़रे रस्ते कब मुड़ते हैं
तंद्रा नहीं स्वप्न न कोई, छोर पलक के कम जुड़ते हैं
कोई खास वजह न दिखती नींद न आने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
जीवन एक व्यथा है सब कुछ छूटते जाने की।

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घोंसला

बच्चे सारे कहीं खो गए
देखो कितने बड़े हो गए
घुटनों के बल चले थे कभी 
पैरों पर खुद खड़े हो गए
मेहमाँ जैसे ही आते हैं अब
छोड़ के जबसे घर वो गए
प्यारे माली जो थे बाग में
उनमें से अब कई सो गए
याद से मन खिला जिनकी
यादों में ही नयन रो गए

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भाव-बेभाव

प्रेम तुम समझे नहीं, तो हम बताते भी तो क्या
थे रक़ीबों से घिरे तुम, हम बुलाते भी तो क्या 

वस्ल के क़िस्से ही सारे, नींद अपनी ले गए
विरह के सपने तुम्हारे, फिर डराते भी तो क्या

जो कहा, या जैसा समझा, वह कभी तुम थे नहीं
नक़्शा-ए-बुत-ए-काफ़िर, हम बनाते भी तो क्या

भावनाओं के भँवर में, हम फँसे, तुम तीर पर
बिक गए बेभाव जो, क़ीमत चुकाते भी तो क्या

अनुराग है तुमने कहा, पर प्रीत दिल में थी नहीं
हम किसी अहसान की, बोली लगाते भी तो क्या

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वफ़ा

वफ़ा ज्यूँ हमने निभायी, कोई निभाये क्यूँ
किसी के ताने पे दुनिया को छोड़ जाये क्यूँ॥

कराह आह-ओ-फ़ुग़ाँ न कभी जो सुन पाया
ग़रज़ पे अपनी बार-बार वह बुलाये क्यूँ॥

सही-ग़लत की है हमको तमीज़ जानेमन
न करें क्या, या करें क्या, कोई बताये क्यूँ॥

झुलस रहा है बदन, पर दिमाग़ ठंडा है
जो आग दिल में लगी हमनवा बुझाये क्यूँ॥

थे हमसफर तो बात और हुआ करती थी
वो दिल्लगी से हमें अब भला सताये क्यूँ॥

जो बार-बार हमें छोड़ बिछड़ जाता था 
वो बार-बार मेरे दर पे अब भी आये क्यूँ॥

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अनुराग शर्मा
जन्म स्थान : रामपुर, उत्तर प्रदेश 
शिक्षा : प्रबंधन व सूचना प्रौद्योगिकी में स्नातकोत्तर
प्रकाशित पुस्तकें : मेरी लघुकथाएँ, आधी सदी का किस्सा, अनुरागी मन, छोटी सी बात, पतझड़ सावन वसंत बहार, इंडिया ऐज़ एन आईटी सुपरपॉवर तथा कई साझा संकलन
ऑडियो बुक्स : सुनो कहानी (प्रेमचंद की कहानियों की पहली ऑडियो बुक), विनोबा भावे के गीता प्रवचन, तथा अनेक कहानियाँ, रेडियो नाटक, व ऑनलाइन कवि-सम्मेलन। हिंदी साहित्यिक पॉडकास्टिंग के सबसे पुराने स्तम्भ
पुरस्कार : महात्मा गांधी संस्थान का प्रथम ‘आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान’ 2016-2017 तथा कुछ अन्य उल्लेख
संप्रति : पिट्सबर्ग से हिंदी व अँग्रेज़ी में प्रकाशित मासिक, सेतु के मुख्य समूह संपादक।

सोमवार, 28 अगस्त 2023

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

निश्चय के नीरज

धरा पहनना छोड़ रही है
पानी वाला 'गाउन'।
 
समाचार-पत्रों के 'कालम'
क्या-क्या कहते हैं,
और आप हैं, पता नहीं किस
ग्रह पर रहते हैं,
पहुँचाते संदेश घरों तक
विज्ञापन के 'नाउन'।
 
अब तालाब, भूमिगत जल पर
आया है संकट,
वर्षा के जल संरक्षण की
दिव्यदृष्टि वंकट,
बादल ने भी ग्रहण किया है
अनावृष्टि का 'क्राउन'।
 
विश्ववाद के शहरों में है  
अनिष्ट की आहट
कुटिल चाल चलते आए हैं
चतुराई के नट,
पानी बिना मरुस्थल से हैं
कई-कई 'टाउन'।
 
है समाप्त इन क्षमताओं का
वैज्ञानिक धीरज,
कभी नहीं खिलते होंठों पर
निश्चय के नीरज,
लेकिन 'डॉक्युमेंट' का पारा
हुआ नहीं 'डाउन'।

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अनपढ़ अबश कबीर

तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते लोग।
         
शोभनतम यह रात चाँदनी,
कल थी काली रात,
एक पूर्णिमा की जगमग है,
एक अमावस ज्ञात,
तब दिन होता,
जब जग जाते, 
सोए रहते रोग।
 
जहाँ अरुण की अणिमाओं से,
पुलकित होती शाम,
जहाँ कृष्ण-राधा का रसिया,
सरयू तट के राम,
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते योग।
 
सुख-दुख के इन कठिन कछारों
की नदियों के नीर,
भोजन पा जाते सब भटके  
अनपढ़ अबश कबीर,
तब दिन होता, 
जब जग जाते,
सोए रहते भोग।

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कैसे दिन कटिहें?

लोग न लरिका!
कहो दुवरिका!!
कैसे दिन कटिहें?
तर्ज बुढ़ापे का।
 
'आगे नाथ न,
पीछे पगहा'
हुई कहावत साँच,
जो थे अपने,
नहीं उठाए
वय अस्सी की खाँच,
थाल पितरिहा!
बुधन बकरिहा!
कैसे दिन कटिहें?
मर्ज बुढ़ापे का।
 
कहने को तो,
पास-पड़ोसी,
कहते देंगे साथ,
मिलते मौका,
मारे चौका,
पकड़ न पाए हाथ,
कहो अन्हरिया!
कहो अँजोरिया!
कैसे दिन कटिहें?
कर्ज़ बुढ़ापे का।
 
सुबह-शाम का,
समय सपेरा,
खड़ा लगाए घात,
पढ़-पढ़ पिछले,
दिन की गीता, 
कट जाती है रात,
कजरा-कजरी!
बदरा-बदरी!
कैसे दिन कटिहें?
फ़र्ज़ बुढ़ापे का।

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कैसे रात कटेगी, चिंता

बीत गया दिन,
टिक-टिक कर ही,
कैसे रात कटेगी, चिंता।
 
महुआ खिला-खिला सपनों को,
किसी तरह से घर भेजा है,
घर में एक नहीं है दाना,
एक ब्रेड का ही रेजा है,
चूल्हा हुआ,
जलाना मुश्किल,
कैसे बात बनेगी, चिंता।
 
गई हुई थी, वह भिनसारे,
लेने कुछ दुकान से माहुर,
किन्तु नियति ने भेज दिया था,
नहीं प्राण देने का पाहुर,
'कोई नहीं,
कमाने वाला'
कैसे दाल गलेगी, चिंता।
 
सुबह-सुबह, समयी आर्द्राओं,
का बरसा है, झम-झम पानी।
सैलाबी, बढ़ाव उमड़ा है,
दुख-यमुना की, चढ़ी जवानी,
आँगन-द्वार,
हुए जलप्लावित,
कैसे खाट बिछेगी, चिंता।

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नहीं जाना चाहता था 

नहीं जाना चाहता था,
छोड़कर मैं यह शहर,
किंतु जाना पड़ रहा है।
 
सभी परिचित मार्ग, सावन
की घटा-सी, रो रहे हैं,
पर्ण मन-कचनार के भी,
बहुत चिंतित हो रहे हैं,
विलगता के इन क्षणों में,
साथ जब कोई न हो,
मोह-काँटा गड़ रहा है।
 
लाल चंदन मित्र-सम सब,
दूर मुझसे हो गए हैं,
स्नेह के गुल-गुच्छ अँगना,
मानसिक दुख बो गए हैं,
एक असमंजस अहर्निश,
चेतना की वादियों में,
सांत्वना से लड़ रहा है।
 
बात सुन कनफूँकनों की,
कान मेरे पक गए हैं,
वर्ष का गट्ठर उठाते,
पैर दोनों थक गए हैं,
आयु की जूती फटी है,
है खड़ा अनजान अवसर,
नाल तलवों जड़ रहा है।

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है अपरिचित पथ

चल रहे हैं,
और इतना जानते हैं,
है अपरिचित पथ।
 
है पता यह भी नहीं,
हम दूर कितना चल चुके हैं,
छंद के साँचे नए जो,
शब्द कितने ढल चुके हैं,
लिए जाता
है कहाँ? किस अग्निपथ पर?
एक अर्जुन-रथ।
 
गीत कुछ आरंभ के,
इतने पुराने हो गए हैं,
समय के उपनगर की,
धुँधली किरन में खो गए हैं,
किन्तु उन सब
में दमकती आज भी है,
जड़ित मोती-नथ।
 
तथ्य सब संदर्भ के
पक, बहुत पीले हो गए हैं,
कोट के जितने बटन
हैं, बहुत ढीले हो गए हैं,
रक्तरंजित,
शहर उजड़े, आज चिंतित,
मनुजता लथ-पथ

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उभरे मन के द्वंद्व

अधिक दिनों तक
नहीं रह सकी
जीवित, मन की सोच।
 
रचना के मन के विकास की,
करनी है व्याख्या,
देखें कितना साथ दे रही,
विवरण की आख्या,
उभरे मन के
द्वंद्व बने हैं   
मार्ग-चिह्न के कोच।
 
चुभनों के आदर्शों के वन,
छंद-गीत बोए,
गुँथे हुए आटे-सा शब्दों की
आकृति, पोए,
लय-लहरों के
नस तक पहुँची
व्याकुलता की मोच।
 
ध्रुवण किए उत्पन्न प्रकृति की
कोमलता के सुर,
बसते गए खुले पन्नों पर,
वर्णावलि के पुर,
भावों के
प्रावीण्य-नगर में,
हुई अर्थ की नोच

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शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

सहयोगी जी का जन्म 2 जुलाई 1950 को ग्राम- सुरजन छपरा, जनपद - बलिया, (उ.प्र.) में हुआ। इनकी शिक्षा विज्ञान स्नातक (प्रयागराज विश्वविद्यालय,प्रयागराज), शिक्षा स्नातक (टाउन डिग्री कालेज, बलिया) से हुई।
कुछ प्रकाशित कृतियाँ -
काव्य संग्रह- 'एक शून्य' (2005), 'जीवन की हलचल' (2006), 'गाँववाला घर' (2007), 'समय की फुँकार' (2008), 'माँ जीत ही जाएगी' (2009), ग़ज़ल संग्रह- 'बिखरा आसमान' (2010)।

बुधवार, 23 अगस्त 2023

सरस दरबारी

एक प्रेम कविता

आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखुँ
आज तक जो भी लिखा
तुम से ही जुड़ा था 
उसमें विरह था 
दूरियाँ थीं, शिकायतें थीं
इंतज़ार था, यादें थीं
लेकिन प्रेम जैसा कुछ भी नहीं
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी
हम थे
नींद में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर
सिरहाना बना आश्वस्त हो सोई हूँ
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी
और पहुँचते ही महायुद्ध!
तुम्हारे कहे बगैर 
तुम्हारी चिंताएँ टोह लेना
और तुम्हारा उन्हें यथासंभव छिपाना
हर जन्मदिन पर रजनीगंधा और एक कार्ड
जानते हो उसके बगैर
मेरा जन्मदिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथ ले
चाँदनी रातों में नहीं घूमे
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे
यही तै किया था न 
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद 
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्हीं आदतों में
न जाने कब 
प्यार शुमार हो गया 
चुपके से
दबे पाँव

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फ़र्क पड़ना

तुम्हारा यह कहना की तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
दिन की पहली चाय का पहला घूँट 
तुम लो 
मेरे इस इंतज़ार से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
तुमसे अकारण ही हुई बहस से 
माथे पर उभरीं उन सिलवटों से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
मंदिर की सीढियाँ चढ़ते हुए, दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
इस तरह.. रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बात से तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
फिर जीवन के अहम निर्णयों में -
कैसे मान लूँ ...
कि तुम्हें फ़र्क नहीं पड़ता...!
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर सेंध को भर
उसे मज़बूत बनाता है
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी-छोटी खुशियाँ उस पर खिलकर
उस रिश्ते को संपूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना' तो वह नींव है
जो जितनी गहरी,
उतने ही मज़बूती
और ऊँचाइयाँ पाते हैं रिश्ते...!

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यादें ...कुछ ऐसी भी

अनगिनत यादें
पोटलियों में खुर्सी हुई
आलों पर दुबकी
कुछ सीली सी
अलगनी पर टँगी
कुछ तुम्हारी दी हुई
सूखे फूलों की शक्ल में
किताबों में दबीं
कुछ इबारत बनकर
पन्नों में छपी
कुछ यादें 
आज भी झूल रहीं हैं
पालनों, झबलों,
तिकोनियों, में
कुछ अधूरे खिलौनों में
कुछ कसैली यादें
खूँटा गाढ़ बैठी हैं
मन के नम कोनों में
जहाँ खुशी की धूप
अपनत्व की ऊष्मा
नही पहुँच पाती
पलों हफ्तों महीनों सालों
के विस्तार में फैली यह यादें
बंधी हैं एक मजबूत डोर से 
जिसके दूसरे सिरे पर 
तुम हो....!

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मित्र नीम

तुम्हें कड़वा क्यों कहा जाता है 
तुम्हें तो सदा मीठी यादों से ही जुड़ा पाया 
बचपन के वे दिन जब
गर्मियों की छुट्टियों में 
कच्ची मिटटी की गोद में 
तुम्हारी ममता बरसाती छाँव में,
कभी कोयल की कुहुक से कुहुक मिला उसे चिढ़ाते 
कभी खटिया की अर्द्वाइन ढीली कर
बारी-बारी से झूला झुलाते 
और रोज़ सज़ा पाते
कच्ची अमिया की फाँकों में नमक मिर्च लगा
इंतज़ार में गिट्टे खेलते 
और रिसती खटास को चटखारे ले खाते....
भूतों की कहानियाँ 
हमेशा तुमसे जुड़ी रहतीं 
एक डर, एक कौतुहल, एक रोमांच
हमेशा तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराता
और हम
अँधेरे में आँखें गढ़ा
कुछ डरे... कुछ सहमे
तुम्हारे आसपास 
घुंघरुओं के स्वर और आकृतियाँ खोजते 
समय बीता -
अब नीम की ओट से चाँद को
अठखेलियाँ करता पाते
सिहरते, शर्माते -
चांदनी से बतियाते -
और कुछ जिज्ञासु अहसासों को
निम्बोरियाओं सा खिला पाते 
तुम सदैव एक अंतरंग मित्र रहे
कभी चोट और टीसों पर मरहम बन 
कभी सौंदर्य प्रसाधन का लेप बन 
तेज़ ज्वर में तुम्हें ही सिरहाने पाया 
तुम्हारे स्पर्श ने हर कष्ट दूर भगाया
यही सब सोच मन उदास हो जाता है
इतनी मिठास के बाद भी
तुम्हें क्यों कड़वा कहा जाता है...!

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कुछ क्षणिकाएँ

1.
बचपन की आदतें
कभी नहीं भूलतीं
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा
कितनी शान से घूमते थे
जिस रंग का चश्मा 
उसी रंग की दुनिया 
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है 
आँखों पर -
प्रेम,
द्वेष,
पक्षपात का चश्मा लगाये
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
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2.
बड़प्पन
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ़ एक लकीर
खींचनी है 
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे 
अपने व्यक्तित्व की 
एक छोटी लकीर ..!
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3. 
खुरचन 
तपती कढ़ाई के किनारों पर 
जमी खुरचन -
किसे नहीं सुहाती!
सच..!
दर्द जितना गहरा -
उतना मीठा!
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4. 
कान 
सुना था कभी 
शरीर के अनावश्यक अंग झड़ जाते हैं
जिस हिस्से की नहीं ज़रुरत 
वह छिन्न हो जाते हैं
और जो इस्तेमाल हों 
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं 
मैंने हाल ही में 
दीवारों के कान उगते देखे हैं ...!

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सरस दरबारी

जन्म - 09 सितंबर 1958। मुंबई विश्व विद्यालय से राजनितिक विज्ञान में स्नातक। कविताएँ- दोहे, हाइकु, महिया, गीत छंदमुक्त रचनाएँ, कहानियाँ, आलेख, लघु कथाएँ आदि विधाओं में लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें - 10 साझा काव्य संग्रह व 5 साझा लघुकथा संग्रह। 
वासंती बयार- वसंत पर साझा संकलन। ब्लॉगर्स के अधूरे सपनों की कसक (साझा संस्मरण)। नारी विमर्श के अर्थ में आलेख। महिला साहित्यकारों की समस्या (अयान प्रकाशन) में आलेख। नहीं, अब और नहीं (सांप्रदायिक दंगों की कहानियों का साझा संकलन)। एकल काव्य संग्रह – मेरे हिस्से की धूप। आकाशवाणी मुंबई से 'हिंदी युववाणी' व मुंबई दूरदर्शन से 'हिंदी युवदर्शन' का संचालन। 'फिल्म्स डिविज़न ऑफ़ इंडिया' के पैनल पर 'अप्रूव्ड वॉईस'।
सम्मान - एकल काव्य संग्रह 'मेरे हिस्से की धूप' के लिए 'राधा अवधेश स्मृति पांडुलिपि सम्मान'।
डाक का पता - श्रीमती सरस दरबारी, E-104, सकन्द अपार्टमेंट, लूकरगंज, प्रयागराज 21001
ईमेल - sarasdarbari@gmail.com

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

संतोष श्रीवास्तव

आंदोलिता हवाएँ 

ये आंदोलिता हवाएँ
टिकने न देंगी मोम पर 
जलती, थरथराती लौ

अँधेरे से निपटने की
तमाम कोशिशें 
नाकाम करने पर उतारू 
इन हवाओं का
नहीं कोई ठिकाना

गुज़रती जा रही हैं 
कुसुम दल से,डालियों से,
झील के विस्तार को झकझोरती

मोम के आगोश में 
लौ का बुझता, मरता अस्तित्व
पर यह उतना आसान भी न था

सम्हाल रखा है
एक आतुर प्रण लिए
तरल मोम ने बूँद-सी लौ को 
लड़ने की पूरी ताकत से 
एक आंदोलन हवा के खिलाफ़ 
वहाँ भी तो था

--------

अभिशप्त

रात तेरे रोने की आवाज़ से 
अनंत पीड़ा में भी 
मुस्कुरा उठी थी मैं
मेरे रक्त का हर कतरा 
शिराओं में तेज बहता  
कर रहा था ऐलान 
कि तू आ गई है 

महीनों मैं तुझे 
महसूस करती रही 
खेतों की चटखी दरारों में 
जंगल की भयभीत आवाज़ों में 
गहन अंधकार में 
तड़पती बिजलियों में 
नावों के असंख्य झुके पालों में 
पर्वत पर की अनछुई बर्फ में 
शूलों की नौकों में 
पीत पर्णों की 
पेड़ों की शरण तलाशती
डरी हुई आकांक्षाओं में 

पता नहीं ऐसा क्यों मैंने सोचा 
पता नहीं कुछ बेहतर 
क्यों न सोच पाई मैं 
पता नहीं क्यों लगता रहा 
कि पौ फटते ही असंख्य हाथ 
तेरे पालने की ओर बढ़ेंगे 

कैसे बचा पाऊँगी तुझे 
क्या मैं भयभीत सृष्टि का 
हिस्सा नहीं हो गई 
जिसमें अनंत काल से तू 
जन्म लेते ही या लेने से पहले ही 
छूट जाती रही मेरी सर्जना से 

क्यों साँसों का तेरा हिसाब 
इतना सीमित 
मेरे ज़ख्मों के दस्तावेज़ पर 
मोहर लगाता 
मात्र कुछ घंटों के लिए 
तेरा अवतरित होना 
और विदा कर देना
संवेदनहीन धारणाओं की 
अभिशप्त सोच के द्वारा
 
--------

आषाढ़ की बूँदें

खिड़की के शीशों पर
अनवरत दस्तक देती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

धारासार बारिश में 
दौड़ते शहर के पैरों में 
बेड़ियाँ पहना  
भय और रोमांच की जुगलबंदी 
कराती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

लिखना चाहती हूँ
पर न भाव जुटते, न छंद 
निरर्थक शब्दों के इक्का-दुक्का 
पड़ाव आते हैं 
मेघ के टुकड़े बन 
फिर समा जाती हैं
अथाह मेरे अकेलेपन की मर्मर में 
आषाढ़ की बूँदें

विरही यक्ष विचलित है 
पहाड़ पर लोटते बादलों को देख 
ढूँढना चाहता है दूत
जो यक्षिणी तक पहुँचा सके 
विरह की वेदना 
मिलते ही यक्ष को मेघदूत
थिरक उठती हैं
आषाढ़ की बूँदें

घन घटाओं से लैस 
आषाढ़ का पहला दिन 
शहतूत की कोंपलों पर
वनचंपा के पराग पर 
मधुमालती की लचक पर 
तिरती हैं
आषाढ़ की बूँदें 

मेरी ऊँगलियों के बीच 
फँसी है कलम 
भावों की कुलबुलाहट में 
छिटक जाती हैं 
आषाढ़ की बूँदें 

कलम माँग बैठती है 
पानी नहीं, आग...... आग चाहिए 
ठिठक गई हैं जहाँ की तहाँ 
आषाढ़ की बूँदें
 
--------

चिलमन की गवाही

जैसे ही बाहर आई 
कठोरता से लड़कर 
काँटों पर चलकर 
हौले-हौले 
पंखुड़ी की चिलमन में 
जुंबिश हुई

झाँकना चाहा 
बाहर की दुनिया को 
पेड़ के अधीन रहने की 
परंपरा को तोड़कर 
उन्मुक्त, विस्तार देना चाहा

जबकि बसंत 
अपने पूरे दाँव पेंच से 
सवार था उस पर 
हवा भी तो छू-छूकर 
बार-बार उसे चिढ़ाती रही 
उसके सिकुड़े, अधूरे तन को 
डुलाती रही पेड़ की रची सीमाओं में

चिलमन की चुन्नटे 
कैद दायरे में 
कसमसाती रही

दूर आसमान में 
तड़प के ताप से बने 
बादलों की बूंदों ने 
रिमझिम फुहारों की दस्तक दे चिलमन को 
धरती की ओर झुका दिया

अब साँसे दुश्वार थी 
वह हाँफती अंतिम साँसों में 
हवा के कंधों पर सवार 
...............चिलमन 
एक अधखिली कली की 
गवाही बन 
धरती पर बिखर गई

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संतोष श्रीवास्तव

कहानी, उपन्यास, कविता, स्त्री विमर्श, संस्मरण, लघुकथा, साक्षात्कार, आत्मकथा सहित अब तक 23 किताबें प्रकाशित।
देश-विदेश के मिलाकर कुल 23 पुरस्कार मिल चुके हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि। "मुझे जन्म दो माँ" स्त्री के विभिन्न पहलुओं पर आधारित पुस्तक रिफरेंस बुक के रुप में विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मिलित।
मुंबई में निवास। यूनिवर्सिटी में कोऑर्डिनेटर के पद से अवकाश के बाद अब भोपाल में स्थाई निवास। 
सम्प्रति - स्वतंत्र पत्रकारिता।
मो० - 09769023188
ईमेल - Kalamkar.santosh@gmail.com

सोमवार, 21 अगस्त 2023

कपिल कुमार

याद ये बात उम्र भर रखना

याद ये बात उम्र भर रखना
तुम कहीं भी हो याद घर रखना

आते-जाते रहेंगे ये मौसम
दिल के मौसम पे तुम नज़र रखना

सर झुकाकर जिसे सभी माने
अपने कहने में वो असर रखना

हँसते-गाते ये ज़िंदगी गुज़रे
ऐसी नज़रें-करम इधर रखना

जो ये चाहो कि हो असर उनपे
बात को अपनी मुख़्तसर रखना
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नज़रें-करम = कृपादृष्टि
मुख़्तसर = बहुत छोटी
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रुसवाई बहुत है

गिले-शिकवे हैं रुसवाई बहुत है
इसी कारण ही तन्हाई बहुत है

बनाने को मुकम्मल दर्द मुझको
तेरी यादों की पुरवाई बहुत है

किसी से क्यूं भला रिश्ता बढ़ाऊं
मेरी तुझसे शनासाई बहुत है

ये माना झूठ का पर्वत है ऊंचा
मगर सच में भी गहराई बहुत है

हसीं क़ातिल न क्यों तुमको कहूं मैं
कि जां लेने को अंगड़ाई बहुत है
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शनासाई = परिचय, जान-पहचान
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ये बच्चे भी अब

ये बच्चे भी अब हक़ जताने लगे हैं
कि आँखों से आँखें मिलाने लगे हैं

जो तुतलाते फिरते थे कुछ रोज़ पहले
बड़ों से जुबां अब लड़ाने लगे हैं

इन्हें चाहिए एक दिन में वो सब कुछ
जो पाने में हमको ज़माने लगे हैं

अभी ठीक से पर नहीं निकले लेकिन
परिंदे उड़ानें दिखाने लगे हैं

हुए पैदा जिन घोंसलों में परिंदे
उन्हीं घोंसलों से वो जाने लगे हैं

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चन्द बातें

चन्द बातें, चन्द क़िस्से
ऊँघते हैं आँख मूँदे

चन्द घड़ियाँ, चन्द लम्हें
जा रहे हैं बात करते

है दुआ से चन्द रिश्ते
चन्द रिश्ते बददुआ-से

छूटने को हैं तरसते
जाल में फँसकर परिंदे

बज़्म सारी कह रही है
शे'र अच्छे हैं 'कपिल' के

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कपिल कुमार

एक्टर, लेखक, जर्नलिस्ट। तकरीबन 27 सालों से यूरोप में कार्यरत। भूतपूर्व उपाध्यक्ष बेल्जियम हिंदू फोरम अध्यक्ष, साहित्य समाचार, हिंदी खबर न्यूज़ tv चैनल के लिए बेल्जियम में विशेष सवांददाता। Ten news के लिए यूरोप में कार्य।
फाउंडर वैश्विक भाषा, कला एवं संस्कृति संगठन(यूरोप)। अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड अम्बेसडर हिन्दू वेल्फेयर फाउंडेशन (कला एवं संस्कृति)
प्रकाशित पुस्तक : इश्क़ मुक्कमल (ग़ज़ल संग्रह), सुनहरे अश्क़ (मुक्तक संग्रह), गोल्डन टीयर्स (इंग्लिश पोयम्स), बेपनाह (ग़ज़ल संग्रह), ज़िंदगी है शायराना (ग़ज़ल संग्रह), पलवशा (ग़ज़ल संग्रह) हिंदी और उर्दू दोनों में।

बुधवार, 16 अगस्त 2023

लतिका बत्रा

माँ की प्रतिकृति

मेरे हाथों में उभरने लगी है मेरी माँ के हाथों की सी झुर्रियाँ
मेरे माथे पर पड़ने लगी है माँ के ललाट की सी
तीन समानांतर लकीरें 
मेरे चेहरे की लुनाई में 
माँ के चेहरे की सी परिपक्वता है 
अब मुझे मुझमें मेरी माँ दिखाई देने लगी है।
मेरी बोली में उतर आए हैं 
अनायास ही माँ के मुहावरे और लोकोक्तियाँ
मेरे झुके कंधे और किंचित झुक आई रीढ़ में 
परछाइयाँ है माँ के दर्द की
मैं आइना देखती हूँ तो 
दर्पण में झाँकती है बिलकुल माँ की सी
सजल, सच्ची, वीतरागी आँखें
जैसे कि माँ अदेह होकर 
प्रकट हो रही है मुझमें
बचपन में लोग मुझे मेरी माँ की प्रतिकृति कहते थे 
मेरे बच्चे आजकल मुझसे कहने लगे हैं
"माँ अब तुम बिलकुल नानी की प्रतिछाया लगती हो।"
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सर्दियों की बारिश

सर्दियों की बारिशों में
चाहे मिट्टी की सोंधी गंध ना हो
वह मेरे उदास सीले गीले मन को
गर्म कॉफी के मग सी सोंधी खुशबू से भर जाती हैं
कुछ बारिशें सच में ऐसी होती है
कि
मन की टूटी-फूटी सड़क
और
तन के उघड़े घावों को
घिसे हुए चंदन की महक से भर जाती हैं।
मन के कोने में पड़ी 
कहीं दबी पड़ी खुशनुमा यादें
हरहरा कर लहरा जाती हैं 
उदास स्लेटी घनी बोझिल 
सर्दियों की ठिठुरी कंपकंपाती पहली बौछार में।
आत्मा तक उतर आती हैं भूली बिसरी प्रीत
मोगरे की लता सी फैल जाती हैं आसपास
केवड़े की गंध झूम-झूमकर मचलने लगती है।
चंदन सी गमक जाती हैं प्रीत।
किसी की देह का नमक घुलने लगता है ज़ुँबा पर 
सर्दियों की उदास शामों में 
सर्दियों की बारिशों के पानीयों में मछलियाँ नहीं यादें तैरती हैं।
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नन्हीं नटनी 

तने हुए सुरों सी रस्सियों पर,
सधी हुई तान सी -
धीमें धीमें लहराती, 
मुरकियाँ लेती 
नन्हीं-सी बालिका नटनी
करतब दिखाती है।
एक के अँगूठे और उँगली के बीच रस्सी फँसाए 
दूजे को हवा में उठा
बैले नर्तकी-सी मुद्राएँ बनाती है
दोनों पैरों की कसी पकड़ से रस्सी पर पींगें झूलती है
कुशल जिमनास्ट सी उछलती-कूदती कसरत दिखाती है।
दो बाँसों के सहारे आठ फुट ऊँची बँधी है ये रस्सी।
बड़ी उम्मीद से वह देखती है आसपास 
कितने तमाशबीन जुटे हैं,
कितने बजा रहे हैं तालियाँ
वो जानती है 
जितनी तालियाँ
उतने ज्यादा पैसे
ज्यादा तालियों से बढ़ता है उसका जोश
उतने ही जोश से नीचे खड़ा पिता ढोल पीटता है 
जिसकी ऊँची-नीची थाप पर वो 
देह भंगिमायएँ बदल-बदलकर करतब दिखाती है।
कभी बांस पर चढ़ बंदरों सा उछलते हुए
उसका छोटा-सा भाई भी आ जाता है
उसका साथ देने
बहन सँभल कर झुकती है रस्सी पर
वह चढ़ जाता
छोटे-छोटे पाँव टिकाए
बहन के कंधे पर।
बहन के कंधें भी छोटे ही हैं।
करतब दिखाकर हवा में गुलाटी मारता भाई कूद जाता है 
नीचे खड़ी माँ लपक लेती है उसे।
गोदनों से गुदे उसके गेहूँऐ चेहरे पर 
जाने कोई दबा छिपा दुख है या डर
वो भींच लेती है बालक को अंक में।
मैदान में रस्सी के नीचे रखी टोपी आज खूब सिक्कों से भरी है।
नन्हीं नटनी रस्सी पर तनी खड़ी 
भीड़ को सलाम ठोकती है।
उस के ताम्बई चेहरे पर पसीना 
ढलती धूप में मोतियों सा चमकता है।
उसके अंग-अंग में पिराते दर्द को आज तसल्ली है -
रात आँते भूख से नहीं ऐंठेंगी।
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परिणति

एक गुम हो गई नदी
एक गुम हो गया पहाड़।
वो पहाड़ -
जो बदल गया कंक्रीट के जंगल में 
वो नदी जो गुज़री 
इस जंगल से होकर 
अपने गुम हो जाने से पहले 
सदा - सदा के लिए
दोनों ही 
कह नहीं पाए 
कि 
बदक़िस्मती से ये पहला नहीं 
आख़िरी उजड़ना था 
इस आख़िरी उजड़न के बाद 
गुम हुई नदी और पहाड़ 
गुम हो जाते हैं सदा सदा के लिए 
अतल में सिसकती रहती हैं मछलियाँ, कमल और 
नील सिरि बतखें 
देवदार, चीड़ और सरूँ के दरख़्त 
और दबी-घुटी सिसकती रहती है सभ्यता
गुपचुप।
किसी को नहीं पड़ी 
कि 
गुम गई नदी और गुम गए पहाड़ को 
ढूँढता फिरे -
वापिस लौटा लाने के लिए जीवन में 
नदियाँ गुम हो जाती हैं 
पहाड़ गुम हो जाते हैं 
ठीक वैसे ही 
जैसे मरे हुए लोग गुम हो जाते हैं 
सदा सदा के लिए -
मरे पहाड़ों की भुरभुरी देह पर उगे 
कंकरीट के जंगलों में 
नदी की गंधाती सड़ती मृत देह 
लावारिस पड़ी रहती है
सदा - सदा के लिए।
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गज़ब की औरतें

गज़ब की औरतें हैं ये
यह प्रेम तो करती हैं 
पर
ना निभे तो
ये पल्ला झाड़ती हैं और बिंदास निकल पड़ती है 
नए रास्ते चुनने।
ये भटकती हैं यायावरों की तरह
इन्हें चाहिए खुद की जड़ें जमाने को
खुद की ज़मीन 
इन्हें चाहिए लंबी उड़ान भरने को
खुला आसमान
इनकी पीठ पर उगे हैं पंख 
यह ढूँढ लाती हैं अपने हिस्से की 
धूप, हवा, पानी, आकाश और खुशी
गज़ब की औरतें हैं ये
चूल्हे की आग
दाल का पानी
छौंक के मसालों की नाप-तौल में
माहिर हैं ये औरतें
सधे हाथों से साध लेती हैं ये गृहस्थी
चौखट के बाहर निकल अपने अडिग कदमों से
नाप आती हैं ये दुनियाँ सारी 
गज़ब की औरतें हैं ये
लॉन्ग ड्राईव पर जाती हैं दोस्तों संग 
ठहाके लगाती हैं कॉफी हाउस में बैठकर 
सिनेमा का लास्ट शो भी देख आती हैं सहेलियों के संग
पार्लर जाती है, शॉपिंग करती है 
मनचाहे कपड़े पहनती हैं
बेहिचक सबसे खुल के मिलती हैं
 
गज़ब की औरतें हैं यह
नाजायज दबती नहीं है ये किसी से
लड़ने को लड़ भी आती हैं 
गालियाँ भी बरसाती है इनकी जुबाँ
पर यारों दोस्तों के बीच  
जुबाँ पर ताले मारने की आदत बिसरा चुकी हैं ये 
एक दूसरे के कच्चे चिट्ठे खोलने में हैं सबसे आगे 
मजे की बात यह कि
झगड़ों में हुए गिले-शिकवे ढोती नहीं है अपनी पीठ पर 
गजब की औरतें हैं ये
रीति-रिवाज, ढकोसले, पाखंड सारे 
ये गली के मुहाने पर छोड़ आती हैं 
दिन त्यौहार मनाती हैं ये पूरे ताम-झाम से 
करती हैं गेट टुगेदर, मौका बेमौका 
सहेलियों और दोस्तों में हॉट संसैंशन है ये
पति की अनुगामिनी नहीं , सहचरी है ये
बच्चों की यह माँ नहीं , मॉम हैं ये
देवियाँ नहीं है ये औरतें,
इंसान होने की राह पर हैं -
ये गजब की औरतें
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बुलबुले

लोहे के पतले से छल्ले को
डूबो के साबुन के घोल में 
तुम ले आती हो होठों के पास
तनी ग्रीवा
ओस में भीगा धवल - दीप्त चेहरा 
ऊर्ध्वान्मुख....
भींच जाती है आँखें स्वतः ही 
फूँकती हो तुम प्राणवायु...
छल्लों में।
जनमते है बुलबुले 
एक साथ ढेरों --
लहराते - तैरते हवा में,
नन्हें-नन्हें गुब्बारे
चमकीले पारदर्शी।
तुम सतत खेलती,
दौहराती जाती हो ये क्रिया
अनायास 
फिर ---
औचक ही दौड़ पड़ती हो 
मेरी ओर
सृजन सुख के अतिरेक में लिपटी
तालियाँ बजाती, कूदती नाचती
“माँ, देखो कितने बुलबुले“ 
फहराती पताका सी
लहरा जाती है तुम्हारी ख़ुशी 
रगों में मेरी
उतर आती है 
तितलियाँ 
मैं देखती हूँ,
बुलबुले
भीतर भरी तुम्हारी प्राणवायु
संसर्ग में आते ही जो सूर्य रश्मियों के
हो उठी है 
सतरंगी- इंद्रधनुषी
कस्तूरी-सी महकती गमकती
ममतामयी
एहसासों में घिरी-लिपटी
तुम झूल जाती हो मेरी बाँहों में।
झर - झर झरती 
तुम्हारी
खिलखिलाहटें।
ठिठककर ठहर जाता सब कुछ।
इसी पल में 
अजर-सा 
अमर-सा
मेरी ममता सा।
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लतिका बत्रा

लेखक एंव कवियित्री। एम०ए०, एम०फिल० बौद्ध विद्या अध्धयन।
तीन उपन्यास, तीन कवयित्रियों का साझा काव्य संग्रह (दर्द के इन्द्र धनु), आत्मकथात्मक उपन्यास (पुकारा है जिन्दगी को कई बार... डियर कैंसर), साझा लघुकथा संग्रह(लघुकथा का वृहद संसार) 
कथादेश, साहित्य कुंज, अनहद कृति, गर्भनाल, अमर उजाला काव्या, नई गूंज, हम रंग, सरिता, गृहशोभा इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता और लेख प्रकाशित।
पुकारा है ज़िन्दगी को ई बार dear cancer के लिए मध्यप्रदेश, भोपाल से हिंदी लेखिका संघ का श्यामलाल सोनी स्मृति पुरस्कार 2020/21, कविकुंभ बींइग वीमेन फलक 2017, स्वयं सिद्धा सृजन सम्मान
व्यंजन विशेषज्ञ, फूड स्टाईलिस्ट
ई मेल - latikabatra19@gmail.com
मोबाईल नं० - 8447574947

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