बुधवार, 25 जून 2025

डॉ. पार्वती तिर्की


1. माख़ा 



जब मनुष्य
खेत, टोंका और ड़ाँड़

बनाने में
अनंत दिनों तक

जुटा रहा,
अनंत दिनों की

थकान को ढोए रहा,
उसने धर्मेश से
विनती की!

तब
धर्मेश ने
उनको ‘रात’ दिए!

फिर मनुष्य रात में सोए
और दिन में खेत कोड़े!

(माख़ा- रात
धर्मेश- कुड़ुख आदिवासियों में धर्मेश 'सूर्य' देवता को कहा जाता है)
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2. नकदौना चिड़िया: एक 



आसमान में उड़ते हुए
नकदौना गीत गा रही थी

उसके गीत की
मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही थी—

पुईं चे चे…
पुईं चे चे…

उसके इस गीत को सुनकर
सभी समझ गए…
कि बारिश आने में अभी देरी है!

(नकदौना चिड़िया- आदिवासी पक्षी)

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3. निरंतर 



इस जंगल में 
चिड़ियों और मनुष्य का संवाद 
नदी की तरह क़ायम था—
निरन्तर...
 
बारिश से पहले 
जंगल गए लोग घर लौट आते थे 
बारिश के पहाड़ पर उतरने से पहले 
मनुष्य पहाड़ से उतर जाता था।
 
इस जंगल में 
जाइनसाला पक्षी का डेरा था, 
बारिश से पहले वह बोल देती थी—
 
‘ओ मनुष्य, देखो! 
बारिश होने वाली है, 
तुम जल्दी अपने घर चले जाओ।’
जाइनसाला का संदेश 
आज भी लोगों को अनचाहे भीगने नहीं देता 
वे बारिश से पहले जंगल से घर लौट आते हैं। 
कि बारिश आने में अभी देरी है!
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4. वे पुरुष 

 
वे पुरुष 
जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया 
पंछियों के प्रति अधिक विनम्र हुए 
और धरती की ओर 
अधिक झुके हुए दिखे
अपनी पीठ पर 
बच्चे को बेतराए हुए 
और उन्हें खेलाते हुए दिखे

 
वे पुरुष 
जो स्त्रियों के गीतों को 
दोहराते हुए सुनाई पड़े 
वे पुरुष 
जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया 
पुरुष होते हुए अधिक स्त्री हुए।

(बेतराए- बच्चों को पीठ पर उठाना)

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5. गीत गाते हुए लोग 


कभी भीड़ का हिस्सा नहीं हुए
धर्म की ध्वजा उठाए लोगों ने 
जब देखा 
गीत गाते लोगों को, 
वे खोजने लगे उनका धर्म
उनकी ध्वजा
 
अपनी खोज में नाकाम होकर 
उन्होंने उन लोगों को जंगली कहा 
वे समझ नहीं पाए 
कि मनुष्य जंगल का हिस्सा है
 
जंगली समझे जाने वाले लोगों ने 
कभी अपना प्रतिपक्ष नहीं रखा
 
वे गीत गाते रहे 
और कभी भीड़ का हिस्सा नहीं बने।
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पार्वती तिर्की 










डॉ. पार्वती तिर्की का जन्म 16 जनवरी 1994 को झारखंड के गुमला जिले के कुड़ुख आदिवासी परिवार में हुआ। पार्वती तिर्की रांची के राम लखन सिंह यादव कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। 'फिर उगना' उनकी पहली काव्य कृति है। यह वर्ष 2023 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई। उनकी 'फिर उगना' कविता संग्रह को 2025 का ' युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है।'

बुधवार, 18 जून 2025

शिवांगी गोयल

1. दुआरे की देवी


जिस दुआरे पर दुर्गा माता की तस्वीर टँगी थी,
बजरंग-बली की मूर्ति लटकी थी
जिसके सहारे अम्मा निश्चिंत सो जाया करतीं
उसी दुआरे से सारे दुख आए
उसी दुआरे से बाबा की पार्थिव देह आई 
उसी दुआरे से वो सभी शुभचिंतक रिश्तेदार आए
जिन्होंने अम्मा के दुख का जश्न मनाया
जिन्होंने चीख-चिल्लाकर रोने का ढोंग किया
हर संभव कोशिश की अम्मा के 
मुँह से दुख के दो बोल सुनने की
अम्मा रोईं तो बस अपने 
मंदिर की कुलदेवी के आगे
किसी और ने उनका दुख नहीं देखा

दुआरे पर बसी देवी को अम्मा के 
टूटने पर उतना दुख नहीं हुआ
जितना अम्मा को एक दिन 
देवी की मूर्ति के कान टूट जाने पर हुआ
उस दिन, दिन भर अम्मा ने खुद को कोसा
देवी ने अम्मा के मंगलसूत्र टूटने पर 
खुद को कितनी बार कोसा होगा पता नहीं
मेरा मन हुआ कहने का “माँ, मूर्ति के कान टूटे हैं, 
असली दुर्गा के नहीं”
लेकिन अम्मा को उस मूर्ति में देवी के
होने का यकीन सबसे ज़्यादा था

अम्मा दुआरे की देवी को बहुत प्यार करती थी,
दुआरे की देवी भी अम्मा से उतना ही 
प्यार करती रही हो, शायद!
दुआरे की देवी अम्मा के सारे दुख 
दुआरे पर ही रोक सकती थी, शायद!
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2. आँधी के बाद


साथी!
हम इतनी भयानक आँधी में साथ थे
और सुब्ह तक बने रहे
जब ये सारे पेड़ अपनी जड़ों समेत
अपनी मिट्टी से बाहर निकल आए, गिर पड़े
ये पत्तियाँ अपनी टहनियों से अलग
ये टहनियाँ अपने चितकबरे तनों से अलग
निकल आईं और गिर पड़ीं
तब तुम और मैं रुके रहे

हम भी तो उजड़ सकते थे 
गलतफ़हमी की आँधी में
कैसी तो उजाड़ रात थी, कैसी डरावनी भोर
हम बिना आखिरी शब्द कहे 
अपनी मिट्टी से उखड़ सकते थे
कौन रोकता हमें? कौन रोपता हमें?
पर हमने सुबह का सूरज एक साथ देखा
हम बने रहे

मिट्टी का जड़ों से क्या रिश्ता है
इतना की जड़ें छोड़ती हैं मिट्टी को
तो पूरी तरह नहीं छोड़ पातीं
दोनों एक-दूसरे के हिस्से में 
थोड़ी बची रह जाती हैं
हमने एक-दूसरे को थोड़ा बचा लिया
हम एक-दूसरे में थोड़ा बने रहे

मैं तुम्हारा घर तो नहीं पर
कभी उड़ान से थक जाओ तो
मेरे पास आ जाना
उस छोटी चिड़िया की तरह जो
आँधी में पेड़ की टहनी पर बैठी रह जाती है
भरोसा करती है

क्या चिड़िया का पेड़ से कोई रिश्ता है
क्या तुम्हारा मुझसे कोई रिश्ता है?
तुम आ जाना साथी, हम बने रहेंगे
अलविदा के बाद भी
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 3. सीता और बुद्ध 

एक दोस्त ने सवाल किया
कि स्त्री हमेशा सीता ही क्यों होती है?
उसे बुद्ध भी तो होना चाहिए!


“क्योंकि बुद्ध की तरह
अपने सोते पति और बच्चे को छोड़कर जाएगी
तो ये घटिया समाज पहले ही घोषित कर देगा
कि प्रेमी के साथ भागी होगी,
कोई यह नहीं जानेगा कि ख़ुद की तलाश में निकली है।”

यह समाज बड़ा दोगला है स्त्री
बुद्ध जंगल से लौटते हैं तो तथागत हो जाते हैं,
सीता लौटती है तो कलंकित हो जाती है।
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4. विद्रोही जड़ें 

कभी देखा है विद्रोह को
अपने भीतर जड़ें जमाते?
जैसे मिट्टी से निकलकर फैलते हैं केंचुए
वैसे ही दिमाग़ से निकलकर
फैलती विद्रोह की नसें;
किसी पेड़ की जड़ सरीखी पनपतीं
चुभ रही हैं अंदर से
बेचैनी का सबब बनती जा रहीं


रोको! वरना मैं विद्रोह का पेड़ हो जाऊँगी
जिसके हाथ और पैरों की जगह होंगी
विद्रोही टहनियाँ , विद्रोही जड़ें;
आ लिपटेंगे स्वतंत्रता की केंचुल ओढ़े हजारों साँप

और एक दिन सामाजिक संस्कारों की कुल्हाड़ी से
काट दी जायेंगी मेरी विद्रोही जड़ें
और तब वह साँप अपनी केंचुल वहीं छोड़
एक नई केंचुल ओढ़ आगे निकल जायेंगे!
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5. घर कितना बड़ा हो 


मैंने आँसू पोंछ कर कहा था
"घर इतना बड़ा तो होना चाहिए
कि रोने के लिए एक कोना मिल सके"

तुमने मुझे गले लगाते हुए कहा था
"घर कभी इतना बड़ा नहीं होना चाहिए
कि तुम अकेली रोती रहो और मुझे पता ना चले!"
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शिवांगी गोयल 















शिवांगी गोयल का जन्म 13 जुलाई 1997 में बिहार के सिवान जिले में हुआ। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। वर्तमान समय में शिवांगी जी इलाहाबाद विश्विद्यालय से अंग्रेजी विषय से पी.एच.डी कर रही हैं।




बुधवार, 11 जून 2025

प्रेम रंजन अनिमेष

1. बच्चे की स्लेट पर लिखे कुछ सवाल


क्या सच में एक दिन
स्वच्छ जल रह जाएगा केवल नारियल में

और खाली बाँस के खोल में साँस की हवा
क्या बस जुगनुओं में रह जाएगी सच की लौ

और उर्वर मिट्टी केंचुओं के बिल में
श्यामपट इतना बड़ा कोरा फैला हुआ

और ज़रा-सी खड़िया नहीं होगी
‘छुट्टी’ लिखने के लिए भी

क्या सच में एक दिन
झींगुरों के पास ही रह जाएगी पुकार

और चिड़ियों को भी
पता नहीं चलेगा सुबह होने का...?
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2. भरोसा - एक


दस्तक दो
तो सबसे छोटे को
दो आवाज़
भले ही वह शिशु हो

चलना नहीं जानता हो अभी
जो छोटे हैं
उन्हीं से
सबसे अधिक उम्मीद है

दरवाज़ों के
खुलने की
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3. भरोसा - दो


भरोसा रखना होगा

डाकिया पहुँचा देगा चिट्ठियाँ
और गाड़ी ले जाएगी मुक़ाम तक

कहीं न कहीं अनजाने होंगे सभी
और वहाँ यह भरोसा ही देगा साथ

कि पूछने पर कोई सही बताएगा रास्ता
और किसी सुनसान में गिर गए चलते-चलते

तो कुत्ते भी खींच लाएँगे बस्ती में
भरोसा रखना होगा

नई माँओं के सीने में उतरेगा दूध
नए फूलों से उमगेगी गंध

चाहे कुछ हो कभी
धोखा नहीं देगी आँखों की नमी

भरोसा रखना होगा
कि नमक की जगह नहीं मिला होगा ज़हर

कि लौटने पर वहीं मिलेगा घर
सूर्य उगेगा फिर

अगली सुबह खुलेंगी
और देखेंगी आँखें

कुछ भरोसों की रेज़गारी
चाहिए गाढ़े दिनों के लिए

इसके बिना
प्यार नहीं किया जा सकता

गीत नहीं रचे जा सकते
जूझा नहीं जा सकता जीवन में
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4. दाय


मिट्टी ने उगाया
हवा ने झुलाया
धूप ने पकाया

बौछारों ने भरा रस
नहीं सब नहीं तुम्हारा

सब मत तोड़ो
छोड़ दो कुछ फल पेड़ पर

पंछियों के लिए
पंथियों के लिए
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5. ठिठकना


एक मिनट के लिए
किसी का हाल पूछने रुकूँगा
और बारिश में घिर जाऊँगा

एक मिनट
राह बताने लगूँगा अजनबी को
और गाड़ी छूट जाएगी

एक मिनट थमकर
एक वृद्ध को सड़क पार कराऊँगा
और काम पर कट चुकी होगी मेरी हाज़िरी

फिर भी चलते-चलते
ठिठकूँगा
एक पल के लिए
कि चौबीसों घंटे में अब
इसी एक मिनट में
बची है ज़िंदगी!
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6. छाता


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करूँगा

और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास जो छाता है

उसमें कोई एक ही आता है
इसलिए

सोचता हूँ
मैं लूँगा

तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जाएँ

और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन!
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7. पहला नाम


बच्चे ने सुना

माँ
त्याग का
दूसरा नाम है

बच्चे ने जाना

माँ
चूल्हे की आग का
दूसरा नाम है

माँ का पहला नाम
ढूँढ़ रहा है बच्चा
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प्रेम रंजन अनिमेष


कवि प्रेम रंजन अनिमेष का जन्म बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी भाषा और साहित्य की शिक्षा प्राप्त की। 'मिट्टी के फल', 'कोई नया समाचार', 'संगत' और 'अँधेरे में अंताक्षरी' उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं। 'अच्छे आदमी की कविताएँ' नाम से उनकी रचनाएँ ईबुक के रूप में प्रकाशित हैं। उन्हें कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वे कहानी और बाल कविता भी लिखते हैं। 
कवि प्रेम रंजन ने नोबल पुरस्कार प्राप्त आयरिश कवि सीमस हीनी और अग्रणी अमरीकी कवि विलियम कार्लोस विलियम्स की कविताओं का अनुवाद किया है। 

बुधवार, 4 जून 2025

डॉ. माया गोला

1. गुनहगार

  
धूर्तता करते पाए गए
जातियों के बारे में सोचने वाले लोग
चालाकियों में लिप्त पाए गए 

धर्म का चोला ओढ़ने वाले 
राष्ट्र के निर्माता कई
इतिहास की गंभीर 
भूलें करते पाए गए 
तथाकथित देशप्रेमी 
मुफ़्त की मलाई खाते पाए गए

होरी बेचारा हाड मांस का ढांचा रह गया
रसूखदार लोग मालामाल पाए गए 
श्रम करने वालों के हिस्से सिर्फ़ नमक आया पसीने का
मालिक सब समुन्दर में नहाते पाए गए!
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2. युद्ध


जब भी युद्धों की बात होगी 
मैं कारणों पर बात करुँगी 
बिना कारण होते नहीं युद्ध
युद्धों के कारण होते हैं भरपूर 
कि कारण भी अकारण नहीं होते 

मनुष्य का अतीत ही ऐसा है 
उसका इतिहास भी 
शुरू हुआ युद्ध से 
जाति और संप्रदायों की खुराक पाकर
हुए युद्ध

धरती का कलंक हैं
धरती की कोई भी प्रजाति इतनी कलंकित नहीं
कि जाति, औ' संप्रदायों की चौखटों के भीतर
सोई पड़ी हिंसा की नींव पर
अहिंसा का खोखला पेड़ खड़ा है
कि धर्म की किताबों तक में 
युद्ध के रोचक वर्णन हैं!

जाति की बर्बरता का क्या ठिकाना!
सरहदों की दीवार ख़ून से सनी है!
मैं जब युद्ध की बात करूंगी  
तब जाति और संप्रदाय की बात भी करूंगी  
और चाहूंगी कि 
इन संप्रदायों को 
जातियों को 
उड़ा दिया जाए 
तोपों से
बंदूकों से
ताकि बचा रहे मनुष्य
बची रहे मनुष्यता 
कि युद्धों से शांति न पहले कभी हुई
न होगी
कि प्रेम के दामन में ही खिल सकते हैं
सिर्फ़ शांति के फूल।
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3. फागुन 


गाँव में बौराए आम के पेड़ तले 
बैठा फागुन 
सोचता 
इक उमर भई 
कैसे लौटे पीछे 
बचपन में 
कच्चे घर 
कच्चे आंगन 
कच्चे-पक्के मन 
प्रीत पगे पर
संगी साथी 
खिलते गुलाब भीतर 
महकती खुशबू बाहर 

जवान हुआ तो 
गेहूं के खेतों-सा हरा हुआ 
सरसों-सा फूला 
सेमल-सा लाल 
बालियों में दानों-सा गदराया 
जीवन में बसंत इसी समय आया !

अहा! वो क्या दिन थे 
कितना कुछ बीत गया 
जीवन का घट भरा-भरा तब 
अब कितना कुछ रीत गया 
सोचता फागुन 
करता मलाल
 
बौराया आम
खिला टेसू, गुड़हल, गुलाब सब
कुदरत की माया 
पर सूख रहे नेह के कुएँ
नदी की चाल कुछ ढीली है
प्रेम की रंगत पीली है 

हाय! यह सियासी होली है 
बेसुर हुआ फाग है 
जुम्मन मियाँ का मन उदास है 
धीर-धीरे फिसल रहे मुट्ठी से रंग 
धूल-धूसरित कितने बदरंग
समय सियासत गड्डम-गड्ड
लट्ठम-लट्ठ 

उठा फागुन 
पकड़ी लाठी 
चल दिया 
ज्यों चला जा रहा हो बूढ़ा इक
लचक-लचक। 
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4. कुछ मनुष्य! कुछ आदमी 

   
कुछ मनुष्यों के पास सत्ता है 
सिंहासन है 
अधिकार हैं मुट्ठी में 
जो चाहे करें 

उनके पास 
दिमाग़ है 
तिकड़मी 
उस पर हावी जुबान है 
जो चाहे बोलें 

उनके अहम्  
उनके वहम 
ग़ज़ब हैं 
जिसको चाहे धराशाई करें

धूर्तताएँ हैं 
चालाकी हैं 
मुखौटे हैं 
जैसा चाहे अभिनय करें

उल्लू 
गिरगिट 
नाहक बदनाम हुए 
महापुरुषों की दुनियाँ अजब है!
 
हाँ, आदमियों की बात और थी 
वे इतिहास में इने-गिने ही हुए।
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5. समय


कल सुबह जब मैं सोकर उठूंगी 
दरवाजा खोलूंगी  
तब न हवा बदली होगी और न दृश्य
सूरज रोज की तरह ही उदित होगा 
बीते दिन-सा ही होगा सब कुछ 

त्वरित बदलाव प्रकृति का संस्कार नहीं 
फिर भी तारीखों में दर्ज़ 
समय 
अपना एक टुकड़ा 
मुझे थमाएगा 
मुझे थामना ही पड़ेगा 

समय कुदरत की व्यवस्था है 
तारीखें समाज की  
इन्हें खारिज़ भी नहीं किया जा सकता
रक्त रंजित तारीखें 
बहुत कुछ बताती हैं इतिहास के बारे में 

अतीत में किसी के 
शूल-सी गढ़ी रहती हैं 
कुछ तारीखें काली 

दुख-सुख 
विषाद-उल्लास 
हार-जीत 
क्या नहीं शामिल इनमें !

जैसे थक कर बैठ जाता है यात्री
फिर उठता है 
चलता है
चाहते 
न चाहते 
 
जैसे चलता है समय 
चलता रहता है 
फूलों में 
शूलों में 
कभी न रुकने के लिए। 
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डॉ. माया गोला















डॉ. माया गोला का जन्म 8 फरवरी 1977 को अल्मोड़ा में हुआ। इन्होंने अपनी शिक्षा कुमाऊँ विश्वविद्यालय से पूर्ण की। वर्तमान समय में माया जी कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सोबन सिंह जीना परिसर,अल्मोड़ा के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। 'चीनी, नमक और नीम', 'चयनित कविताएँ', 'उपाधियाँ लौटती हूँ' तथा 'मौलसिरी' नाम से इनके चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
ईमेल:drmayagola@gmail.com 

बुधवार, 28 मई 2025

हिमांशु विश्वकर्मा

 1. पहाड़ और काफल


मेरी तरह तुम्हारी भी
यादें
पहाड़ से
जुड़ी होंगी

और जब कभी भी
प्रेम में
पहाड़ को
याद करोगी तो
काफल के बिना यह
अधूरा होगा।

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2. नैनीताल पर



यहाँ कभी नहीं आई गर्मियाँ
न ही पिघला पाया सूरज
शहर की सर्द हवाओं को
मई का यह महीना

चिनार के पत्तों
पर होकर सवार
ख़ूब उड़ता है
सैलानियों के दिलों में।
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3. भ्यास



पहाड़ को छोड़कर शहर में बसे ठेठ पहाड़ियों के लिए
पहाड़ के सयाणों ख़ुश रहो,
तुम्हारी ज़मीनें ख़रीदी जा रही हैं
अब अच्छे दामों में

लेकिन
शर्त लगा लो
उस पैसे से तुम
भाबर में ख़रीदे प्लॉट की नींव को
दौड़ती सड़क के बराबर भी नहीं कर पाओगे

और याद रखना
एक दिन तुम्हारी ही नस्लें
तुम्हारे नाती-नातिनें
पोते-पोतियाँ
तुमको देंगे गालियाँ
थूकेंगे तुम्हारी करनी पर

कोसेंगे तुमको कि
उस टैम तुमने
ज़मीन और जंगल और पानी नहीं बेचा होता तो
गति ऐसी नहीं होती
हम ठैरे मिट्टी से अन्न उपजाने वाले
पानी से घराटों को गति देने वाले
पेड़-पहाड़ों और जंगलों में घूमते जंगल चलाने वाले

हाय!
तुमने झूठी ठसक के चक्कर में
पीढ़ियाँ ख़राब कर डालीं
आधा रह गया
तुम्हारा संसार
गाँव में सरकारी सैप हो गए
और शहर में
भ्यास पहाड़ी।
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4. नदियाँ और बेटियाँ 



जैसे सुदूर पहाड़ों से आती हैं नदियाँ
ऊँचे पर्वतों
ताज़ा हवा और
हरे पत्तों पर बिसरी ओस की बूँदों को
उलाँघकर मैदानों तक

ठीक वैसे ही हिमाल की बेटियाँ
उलाँघकर आती हैं मैदानों पर
असंख्य देहलियाँ
अनगिनत भेड़ें
अलौकिक बुरूंश और क्वेराल के पुष्प
मैदानों में आकर
नदियाँ सींचती हैं

तीव्र-निरंतर और नीरस
पिंजरों में बंद
शहरों के फड़फड़ाते ख़्वाबों को
फिर भी मोड़ दी जाती उसकी दिशा
क़ैद कर लिया जाता है उसका संवेग
बदल दिया जाता उसका रंग
और उसकी देह में ठूँसी जाती है
तमाम सभ्यताओं की गंध

मैदानों पर आकर
मेहनत और लगन से
बेटियाँ खींचती हैं
अपने सपनों की लकीरें
ईजा-बाज्यू और दाज्यू भेजते हैं दुआएँ

भेजते हैं—
काफल, ककड़ी, बिरुड़े और घी
बेटियाँ जब बढ़ने लगती हैं
शहर में
अपने भविष्य के लिए
तभी
खींच लिए जाते हैं
उसके हाथ

हाशिये पर रख दिए जाते हैं उसके ख़्वाब
पूछे जाते हैं अनगिनत सवाल
निर्दोष वह जब लड़ती है
हक़ की लड़ाई
बोला जाता है उसे गँवार

पढ़ाई जाती हैं—
संस्कार और मर्यादाओं की पोथियाँ
बेटियों को सताया जाता है
दी जाती हैं
गालियाँ

मैदानों पर आने के लिए
उनके क़दमों को बाँध दिया जाता है
मोड़ दिए जाते हैं उनके रास्ते
छीन लिया जाता है उनसे
उसके जीवन का
हौसियापन
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हिमांशु विश्वकर्मा 









युवा रचनाकार हिमांशु विश्वकर्मा वर्तमान समय में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के 'हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग' में शोधार्थी हैं। 'अनुनाद' एवं दिल्ली के हिंदू कॉलेज की पत्रिका 'हस्ताक्षर' में इनकी कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। 
ईमेल: iamhimanshuvishwakarma@gmail.
Com





बुधवार, 21 मई 2025

संतोष सिंह


1. यादों का कोई विकल्प होता 



मैंने इस शहर में 
कई घर बदले     
घर के साथ 
मोहल्ले, गलियाँ 
घर की दीवारों के 
रंग भी बदले
इसी उम्मीद के साथ 
काश! तुम्हारी याद का 
कोई विकल्प तो होता

बिना तुम्हारी याद के 
कोई तो घर होता
बाद में समझ आया 
यादों का जगह से 
कमरे से, दीवारों से,
गलियों से, रास्तों से 
कोई वास्ता नहीं 

शायद नया जन्म लेना होगा 
तुम्हें भुलाने के लिए 
याद को मिटाने के लिए।

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2. बचपन का एक रहस्य 



बचपन का एक रहस्य 
जो आज भी तिलिस्म बना 
मेरे साथ-साथ रहता है,
बचपन में जब कभी कहीं जाना होता था 
बाबूजी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर 
हम भाई-बहनों का हाथ पकड़कर 
अम्मा से आगे ही चलते थे 
और अगर चलकर दूर निकल आते 
तो रुककर अम्मा का इंतज़ार करते 
अम्मा धीरे-धीरे, पीछे-पीछे 
चलकर आ जाया करती 

बाबूजी और अम्मा के चलने के बीच 
फ़ासला यूँ ही बरक़रार रहता था
मैं अक्सर सोचता हूँ 
दूर-दूर क्यों चलते थे 
जिन्होंने साथ-साथ
कई पड़ाव पार किए 
कई मुश्किलों को झेला 
मगर दूर चलने का रहस्य 
अनसुलझा ही रहा

अम्मा के जल्दी-जल्दी न आ 
पाने पे बाबूजी झल्लाते 
मगर फिर भी इंतज़ार कर 
फिर आगे चल पड़ते 
यह शायद समाज का दबाव था 
या रूढ़ियों का बहाव था 
जैसी प्रथा चली आ रही है 
वही प्रथा निभा रहे थे 
साथ न चलते हुए भी 
कितने पास थे

आज की पीढ़ी साथ 
तो चल रही है 
मगर दूरी के साथ 
मन की दूरी 
जो उस साथ न चलने वाली 
दूरी से कहीं दूर है

आज का मन 
पार नहीं कर पाता
नज़दीकियों के बीच
लगातार फैलती दूरियों को।

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3.चिड़िया कहाँ से आती हो तुम 



चिड़िया कहाँ से आती हो तुम
थोड़ा-सा जल, थोड़ा-सा अनाज
इन सबसे पेट 
भर जाता है तुम्हारा!

दिन भर चहकती-बहकती 
हर जगह जाती हो, रुकती भी नहीं, 
सुस्ताती भी नहीं 
और न जाने कितनों का मन 
तुम साथ ले जाती हो 
अपने नन्हें पंखों पर रखकर 
सब कुछ थोड़ा-थोड़ा जरूरत के 
हिसाब से करना कैसे सुहाता है?
हम इंसानों को यही समझ नहीं आता है।

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4. हाँ! मैं औरत की कमाई खाता हूँ 



हाँ! मैं औरत की कमाई खाता हूँ
सहेज कर रखती है 
वो अपनी कमाई 
दुख के दिनों के लिए 
जब कभी मेरे हाथ 
घर की जिम्मेदारियों के 
बोझ से दबने लगते हैं 
उस हाथ पर रख देती है 
अपनी कमाई 
हाथ को दबने से बचा ले जाती है 
बार-बार, हर बार 
मैं अपने आप को संभाल पाता 
हूँ 
हाँ मैं औरत की कमाई खाता हूँ!
इसमें बुराई है ?
जीवन की यह भी सच्चाई है। 

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5. इस बार जब तुम आना 



इस बार जब तुम आना 
खुद को साथ ले आना 
हर बार जब आते हो 
हज़ारों काम साथ लाते हो 
बॉस के फ़ोन, दुनिया भर के झमेले 
कितना कुछ कर लेते हो अकेले 
इस बार जब आना 
अपना फ़ोन साथ मत लाना 
अपने दिल की बात लिखकर, एक ख़त लाना 

मानती हूँ तुम्हें सफलता पानी है 
ज़िंदगानी अच्छी बनानी है 
तुम्हें फ़र्ज़ निभाना है 
दुनिया को कुछ करके दिखाना है 

तुम्हें थोड़ा आभास होना चाहिए 
प्रेम के थोड़ा पास होना चाहिए 
मैं नहीं माँगती आकाशदीप का किरदार तुमसे 
नहीं चाहती बुद्धगुप्त का प्यार तुमसे 
मैं कुछ वक़्त साथ बिताना चाहती हूँ 
तुम्हें कुछ बातें बताना चाहती हूँ 

लक्ष्य के पहाड़ चढ़ते-चढ़ते जाने कितने,
पनपते दूब पैरों तले कुचले गए 
मन के धागे आपस में बँधने से पहले ही टूट रहे हैं 
इसलिए कम वक़्त ही सही 
पूरा वक़्त लेकर आना 

इस बार जब तुम आना 
खुद को साथ ले आना 

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संतोष सिंह















युवा कवि एवं ग़ज़लकार संतोष सिंह जी का जन्म 3 नवंबर को ठाणे (मुंबई)में हुआ। एमबीए / एम.ए (हिंदी) /अब वे  हिंदी साहित्य में पीएच.डी कर रहे हैं। साथ ही एक प्राइवेट कार कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत हैं। साहित्य में गहरी रुचि होने के कारण लगभग एक दशक से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर इनके कई शे'र प्रसिद्ध हुए हैं। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक सुदीप बनर्जी ने इनकी ग़ज़ल 'खुशरंग' को अपनी आवाज़ से नवाज़ा है। इन्हें 'महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी' द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है। संतोष जी ने 'शब्द फाउंडेशन' तथा 'हिंदी ग़ज़ल फाउंडेशन' जैसे कई साहित्यिक मंचों की नींव रखी। 
ईमेल: Santushssing@gmail.com




बुधवार, 14 मई 2025

अंशू कुमार


1.एक स्त्री का बेफिक्र हो जाना


आसान नहीं है एक स्त्री का
बेफ़िक्र हो जाना
क्योंकि उसके बेफ़िक्र हो जाने से
उबलकर गिर जाता है दूध रसोई में

बेफ़िक्री, आलस, आदत ये सब
तुम्हारे हिस्से रखा गया है
चयन, विकल्प और पसंद
तुम्हारे स्वभाव के परिचायक माने गए

बहस, कूटनीति और राजनीति
तुम्हारे मज़बूत हिस्से में रखा गया

फिर बचा क्या
बँटवारे में इतनी गड़बड़ी क्यों?
आख़िर बँटवारा हुआ क्यों?
मुझे पहले पहल बँटवारे से डर लगता,
अपनों को खोने से डर लगता,
युद्ध भला किसे पसंद है,
लेकिन हमारी पसंद का करना क्या है

बात जब समझ आई तो लगा
अभी तो युगों का युद्ध बाक़ी है
हिसाब-किताब बाक़ी है
ज़िंदगी जीना बाक़ी है
मेरा-तुम्हारा एक होना बाक़ी है।

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2. सहेली



हमने सिर्फ़ ख़ुशियाँ बाँटी
दुःख को रहने दिया
वह बड़ा था, अनंत भी...!

हमने साथ हँसना सीखा
रोना एकांत में रोया
आँसू तह तक था
साथ बहता तो बहता रह जाता

हमने साथ अल्हड़ताओं को जिया
दोनो को पता था कि एक दिन
हमें लौटना होगा
किसी न किसी के घर
और वहाँ
कोई माफ़ नहीं करेगा
कोई साथ नहीं देगा
कोई हमें 'हम' नहीं होने देगा…!

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3.प्रेम में ठगी गई औरतें



औरतें सबसे ज़्यादा
ठगी गईं प्रेम में
प्रेम पाने के लालच में
हर बार करती रहीं प्रेम
लेकिन प्रेम में मिले
सबसे ज़्यादा ठग और ठेकेदार
जबकि औरतों को करना था
सबसे पहले ख़ुद से प्रेम
और बदलनी थीं
प्रेम-कहानियाँ और प्रेम-कविताएँ भी

रचनी थी प्रेम की नई परिभाषाएँ
गढ़ने थे नए मायने
जिसमें औरतें नाच रही हों
ख़ुद के लिए
गा रही हों
ख़ुद के लिए
सँवर रही हों
ख़ुद के लिए
लड़ रही हों
ख़ुद के लिए
सबसे पहले
सबसे ज़्यादा
ताकि प्रेम-ठगों को
बता पाएँ उनकी सज़ा
और यह भी कि तुम मामूली इंसान के
दायरे से भी बाहर हो!
क्योंकि जब तुम्हें
सबसे ज़्यादा निर्दोष होना था
तुम निकले सबसे ज़्यादा फ़रेबी
जब तुम्हें भाव को समझना था
तुमने की लफ़्फ़ाज़ी
और जब तुम्हें साथ खड़े रहना था
तुम दूर-दूर तक नहीं थे...

ठग को बताना इसलिए भी ज़रूरी है
ताकि वह प्रेम को समझ सके
औरत को समझ सके
ख़ुद को जान सके
ठग को कठघरे में खड़ा करना ज़रूरी है
ताकि चौराहे पर चौड़ाई लेते वक़्त
उसे आभास हो अपने ईमान के बौनेपन का
ताकि औरत को प्रेम करने और
उसके साथ खड़े होने के बीच के
अंतर को वह जान सके
और पितृसत्ता की फूहड़ दलील में
अपनी रुग्ण होती काया को टटोल सके
और जान सके कि
उसके अंदर अभी भी बचा है :
सदियों से स्त्री के संताप पर
उपहास करता एक पुरुष।

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4. वक्त



कलाई पर लगी घड़ी,
सबका वक़्त कहाँ बताती है,
नहीं बताती वह नौकरों और औरतों का वक़्त,
वक़्त सबका नहीं होता—
कुछ लोगों की ज़िंदगी
वक़्त को बनाए रखने के लिए होती है
वक़्त के हिसाब से भागते रहने के लिए,
एक नौकर और एक औरत रात में भी ख़ाली नहीं सोते,
अगले सुबह के समय को
पकड़ने की तैयारी में सोते हैं
दुपहरी मे चढ़ती धूप के ताप से,
चंद सेकेंड सुस्ताने की फ़िराक़ में,
मुर्ग़े की बाँग के साथ शुरू होती है
उनकी सुबह
मज़दूर मंडी मे काम बँटने से पहले
मालिको के उठने से पहले
आँगन में धूप निकलने से पहले
चूल्हे पर खाना बना लेने तक की होड़ में
तय होता है सुबह का उठना

'वक़्त' सबका वक़्त नहीं बताता
घड़ी ग़रीबों, नौकरों, और औरतों की
कलाई पर बाँधी जाती रही
ताकि मालिकों को वक़्त पर
सब कुछ मिलता रहे
माँ ने कहा था वक़्त सबका आता है
और वह हमेशा के लिए चली गई
उसका वक़्त ठहर गया
लेकिन आया नहीं
माज़ी और मुस्तक़बिल के बीच
फँसा जो मौजूदा मैं हूँ
वह मैं होकर भी मैं नहीं हूँ
क्योंकि वक़्त से मेरी लड़ाई हो रखी है
और तुम—क्या तुमने देखा है
ऐसे किसी एक ग़रीब और औरत को?
अगर नहीं देखा तो यक़ीन करो मेरे दोस्त
तुमने घडी वक़्त और ज़िंदगी नहीं देखी!

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5. हमारे-तुम्हारे बीच की धरती



हमारे-तुम्हारे बीच की धरती
फैलती जा रही है!

ख़ैर ……
धरती चाहे जितनी फैले,
प्रेम से ज़्यादा नहीं फैल सकती।

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अंशू कुमार










अंशू कुमार का जन्म 1990 में बिहार के बेगूसराय में हुआ। इन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.फिल और पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की । कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ और लेख निरंतर प्रकाशित होते रहें हैं।

बुधवार, 7 मई 2025

पल्लवी गर्ग


1. पाजेब 


एक दिन दादी का बक्सा सही करते हुए

मिल गईं उनकी छुन-छुन करती पाज़ेब
जब पूछा दादी से पहन लूँ इसे
वे बोलीं हम तो छोड़ चुके इसे पहनना
तुमको क्यों पहननी है

मैंने कहा दादी, इसकी आवाज़ तो सुनो
कितनी मधुर है
पैर में बजेगी तो सरगम सी गूँजेगी
मैं मयूरी-सी थिरकूँगी

दादी तुमने उतारा क्यों इनको?
अम्मा क्यों नहीं पहनती इनको?
मेरे सवालों पर दादी मुस्कुराईं
बोली सारा दिन छुन-छुन करती पाज़ेब
तब चुप होती थी जब हम आराम करते
पर चुप पाज़ेब किसी को न भाती
कोई न कोई आवाज़ तुरंत आ जाती
फिर करने लगती पाज़ेब छुन-छुन

मध्य रात्रि जब कभी छुन-छुन कुछ तेज़ हो जाती
बुजुर्गों के खाँसने की आवाज़ भी तेज़ हो जाती
सुबह-सवेरे ताने और कुटिल मुस्कान चेहरों पर नाचती
ऐसा लगता बिट्टो
धरती गड़ जाए
हम धंस जाएँ 
हमारी हर आहट
हमसे पहले पाज़ेब सबको देती
छुन-छुन की आवाज़ खटकने लगती

हमने जो झेला सो झेला
तुम्हारी अम्मा को न बाँधा छुन-छुन से
उसको तो काम पर बाहर भी जाना था
अपना स्वाभिमान भी बचाना था
वैसे ही स्त्री को दूर से सूंघ लेता है समाज
अपना सुरक्षा कवच खुद बनाना पड़ता है
पाज़ेब पहननी है तो पहनो
पर अपनी आहट किसको देनी है
यह तय करो फिर उसमें घुंघरू डालो

तब नहीं समझी थी उनकी बात
दादी अपनी पाज़ेब मुझे दे गईं,
जाते-जाते कह गईं,
जब मेरी बात समझ जाना तभी पहनना इनको!

कितनी आगे की सोच थी
मेरी बे-पढ़ी दादी की
घर की चार दिवारी से कितना सही आँका था उन्होंने समाज को
अब उनकी पाज़ेब अपनी पोटली से निकाल कर
देख लेती हूँ
कुछ देर पहन कर ख़ुश होती हूँ
फिर अपनी आहट को उतार पोटली में सहेज लेती हूँ। 

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2. अब मैं सागर बन रही हूँ 

समुद्र कुछ ले नहीं जाता
नहीं समेटता निष्कासित वस्तुएँ
लौटा देता हर भार
प्लास्टिक, शव, प्रतिमाएँ, कपड़े…सब
कुछ नहीं रखता
जो आत्मा पर बोझ बने

पर सहेजता है
आँसू मुस्कान
प्रेमियों की पुकार
और
इंतज़ार

सहेजता है हर बात
जो बिन बोले कोई कहे उससे
जो उसके क़रीब बैठ
तुम्हें लगाती रही 
समझा उसने आत्मा पर बोझ बने आँसुओं को
कुछ आँसू अपने आँचल से उड़ा दिए उसने
जो अब बरस रहे हैं फुहार बन
अपने मन का बोझा मैं सिरा रही हूँ
मन में विसर्जित हर घाव
लौटा रही हूँ
अब मैं सागर बन रही हूँ। 
सहेजा उसने मेरी पुकार को
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3. मेरे रंग-बिरंगे पंख 

तुम गए तो लगा, साँसे
थम जाएँगी
जीवन रुक जाएगा

तभी दिखा
तितली का बच्चा
अपना खोल तोड़
बाहर आता हुआ
पंख फैला
उड़ जाता हुआ
तुम मेरे जीवन का
एक दर्दीला खोल थे…. बस!

मुझे न,
अपने रंग-बिरंगे पंख
अत्यंत प्रिय हैं।

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4. समझ 


चाँद ने आहट दी
चाँदनी बिखेर कर
पलाश झरकर शाख़ से
उलझ गया बालों में
मत्था टेका ईश के आगे
तो रोली लग गई माथे में

हँसी भी सुनी झुमकी के घुँघरू की
काजल भी शरमा कर
आँखों की कोर में अटका रहा
होठों पर रहस्यमयी मुस्कान तैर गई
चकोर-सा चंचल रहा तन
हिरनी-सी कुलाँचें भरता रहा मन

एक टक शून्य में निहारते हुए
एक परछाईं भी दिखी
मेरी परछाईं में घुलती-मिलती

मैं बावरी
यहाँ-वहाँ
तुम्हें ढूँढती फिरती रही
और तुम रूह छूते रहे
दुनियावी समझ ज़हन में खुद रच बस जाती है
रूहानी समझ वक़्त निकलने के बाद आती है। 
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5. लापता हो जाऊँ 

चंचल थी बेबाक थी 
एक वक्त था जब मैं आज़ाद थी
पर आज मन है कि लापता हो जाऊँ मैं
थक-सी गई हूँ वजह देते-देते, 
क्यों ना आज खुद ही बेवजह-सी हो जाऊँ मैं।

ना आँखों की नमी छुपानी पड़े 
ना मुस्कुराने के लिए किसी को वजह बतानी पड़े 
ना किसी मर्यादा में खुद को बांधू मैं
ना ही कोई लक्ष्मण रेखा लाघूं मैं 
थक गई हूँ कभी खुद को, कभी औरों को समझाते-समझाते मैं 
क्यों ना आज समझ के दरवाजे बंद कर 
अंधेरे में गुम हो जाऊँ मैं
घुट रही हूँ लोगों के फिजूल प्रश्नों, दलीलों और अटकलों में
कब तक औरों की उम्मीद तले खुद की ख्वाहिशें दबाऊँ 
थक-सी गई हूँ लांछनों से दामन बचाते-बचाते
घुटनों के बल हूँ, तो करूंगी भी क्या शस्त्र उठाके 
 
एक-एक खुशी की दवा अब मांगी नहीं जाती 
क्यों ना कहीं अनंत में खो जाऊँ मैं 
कोई भी ढूंढे न मुझे अब, 
मन है बस यूं ही सहसा लापता हो जाऊँ मैं। 

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पल्लवी गर्ग 














पल्लवी गर्ग शिक्षा, साहित्य और संगीत में गहरी रुचि रखती हैं। इन्होंने कई उच्च शैक्षणिक संस्थाओं तथा प्रयागराज साधना टीवी चैनल के कार्यक्रमों का सफल संयोजन व संचालन किया। उज्जैन में 2003 के काव्य-मनीषी सम्मान से इन्हें सम्मानित किया गया है। विभिन्न डिजिटल पटल और पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। 'मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम' इनका प्रथम कविता-संग्रह है। 
pallavigarg1974@gmail.com

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