गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025
योगेश कुमार ध्यानी
गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025
सुशोभित
1. शुरुआतें
2. किताब में गुलाब
3. ज्वार में वर्षा
4. अविष्कार
5. तारतम्य के लिए
सुशोभित
गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025
शचींद्र आर्य
1. अनुपस्थित
वह कैसे हमें दिखाई देंगे,
ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से
पर ज़रूरी है,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।
उस अनुपात में बहुत
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।
कभी वह क्षण भी आएगा,
उनका या हमारा आमने-सामने न होना,
क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।
बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।
2. भाषा में बड़े हुए लड़के
3. पैमाने
4. चप्पल
शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले
इतने पैरों को आते-जाते देख रहा हूँ,
उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ
कि कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे।
मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला
को भागते हुए देखा हो।
ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती,
या उन्हें भागना नहीं आता।
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत
भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?
____________________________________
5. पता पूछने वाला
मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो, शायद वह बता सकें,
मैं गलत था
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
आगे से उनकी बताई जगहों पर
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए।
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा,
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में
भटकना कैसा होता है। हो पाता, तो मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता। ____________________________________
शचींद्र आर्य
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए।
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में
भटकना कैसा होता है।
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता।
शचींद्र आर्य
गुरुवार, 18 सितंबर 2025
गीता मलिक
1. मातृत्व
सृष्टि का मातृत्व
मेरे स्वप्न में आती है
वह गुलाम अफ्रीकी काली महिलाएँ
जो बेच दी गई कैरेबियाई द्वीपों अमेरिका और यूरोप के तमाम हिस्सों में
भर दी जाती थी पानी के जहाजों में इतने छोटे केबिनों में
जहाँ पैर फैलाने की जगह तक नहीं होती थी
लंबी यात्राओं में
मातृभूमि की स्मृति में
उन्हें याद रहता प्रतिपल
मोटे चावल का वही अफ्रीकी स्वाद
गुलाम औरतें जिन्हें जोत दिया गया यूरोपियन प्लांटेशन में
जहाँ विषम परिस्थितियों में भी उग आता था उनका धान
गुलाम औरतें संपत्ति के नाम पर मात्र स्मृति लेकर आई थी
पुरखों द्वारा अर्जित किए गए
पारंपरिक ज्ञान और अपनी स्मृति में रचे बसे
चावल के स्वाद को
उन्होंने हर जगह रोपा
जहाँ भी उन्हें रखा गया
सृष्टि का मातृत्व कितना प्रबल था उनमें
जिसे बचाने के लिए
अफ्रीकी औरतें अपनी बेटियों के बालों में
गूँथ देती थी धान के बीज रात्रि में
इस भय से कि सुबह उन्हें बेच न दिया जाए
एक अजनबी मुल्क की मिट्टी में
और रसोई में
जिन्होंने फैला दी अपने स्वाद की खुशबू
और भर दिए उनकी संततियों के घर भंडार!
2. बूढ़ा नीम
शायद तीसरा
घड़ी की टिक-टिक
एक पचपन
एक छप्पन…
निर्जन समय की चीत्कार
पानी की टिप-टिप
अँधेरे की सायँ-सायँ
बूढ़े नीम का स्याह तना
भीगे पत्तों की हरहराहट से भरा
देखता भौंचक, हैरान
मेरे दुख के हरेपन की काई को ओढ़े
मेरे पैरों की फिसलन को थामें
देखता रुग्णाई देह से
नीम मेरे पिता की तरह बूढ़ा हो गया है
मेरी माँ की झुर्रियाँ उभर आई हैं उसके तने में
मेरे हर्फ़ इन दिनों
उसकी पत्तियों की तरह झड़ रहे हैं
यहाँ-वहाँ बिखर रहे हैं हवा में
मैं देख रही हूँ नंगी आँखों से
दिशाहीन समय की अनियमित्ता को भागते हुए
जैसे भाग आई थी मैं
घर से
पिछले माह गंगा के घाट पर
बिना सोचे-समझे
प्रवाह ने बताया
लोग भटक जाते हैं गलत राहों में चलते हुए
लेकिन
नदी जानती है अपने बहने की दिशा
मैं टकरा रही थी
बहाव के विपरीत
हवा के थपेड़ों से
यह दुनिया एक भूलभूलैया में
तब्दील होती जा रही है
रात के इस पहर में
घोर शांति है
सन्नाटा कह रहा है
सभी दिशाएँ कहीं जाती हैं
लेकिन कहाँ?
नीम चुप क्यों खड़ा है
बरसों से!
बताओ तो?
3. निर्वासन का दर्द
इस रुके हुए दौर में
विश्वास का चाबुक
पीठ को लहूलुहान किए है
हमारी आशाएँ जब्त कर ली गई हैं
हमारे सपनों के पैबंध
कटे हुए अंगों की तरह
नफ़रत से फेंक दिए गए है अँधेरे घने जंगल में
यह जंगल भेड़ियों के झुंड से घिरा है
नुकीले दाँतों से
टपकता हुआ खून
कौन देख पाएगा?
मैंने ईश्वर को लड़खड़ाते हुए देखा है
वह छोटी बच्ची जो रोज़ मुझे मंदिर में ले जाती थी
उदास है
निर्वासन का अर्थ वह नहीं समझती
नफ़रत और विश्वासघात भी नहीं जानती क्या है
लेकिन उससे छीन ली गई वे दीवारें
जहाँ उसने सीखी आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचना
बनाना परिवार के चित्र
जहाँ एक वक्राकार रेखा से
बना देती है वह मुस्कान
दो चोटी वाला अपना स्केच
और लिखती है पापा पागल हैं
जिन दीवारों को
भर दिया था उसने
मांगलिक चिह्नों से,
निर्वासन सोती हुई बच्ची की आँख में एक तीर की तरह चुभा
और टपकने लगा खून
खाली कमरा अब चित्रों से नहीं
खून के छीटों से भरा है
बच्ची रो रही है
यह मेरे बचपन का घर है
मत निकालो!
4. बिना पुल की नदी
यह बिना पुल की नदी है
यह कहते हुए
उसने मेरा हाथ पकड़
नदी में छलांग लगा दी
मैं कश्तियों को
किनारे से बाँध आया था
वह छोड़ आई थी
घर की चौखट को
सदा के लिए
दो प्रेमियों को
नदी मिला भी सकती है
यह मर के जाना जाता है
5. अपरिजित भाषाओं का गुढ़
होने चाहिए कविताओं के
मैंने बरसों चिट्ठियाँ लिखी
हर बार पहुँच जाती
किसी अदृश्य पते पर
सुना था मौन अपरिचित भाषा का गूढ़ हैं
लेकिन कविताओं को तो मारक होना चाहिए
मीठे ज़हर और अच्छी बातों से मारे जाने का
दुख दीर्घगामी होता है
अभिव्यंजनाओं के दुराग्रह में
एक उफ़नती नदी
एक मौन के पुल से गुज़रती है
यह कितना बेमेल है
नदी चाहती है डूबना
पुल चाहता है पार होना!
6. प्रेम प्रेम गाकर उसने
प्रेम को इतना बेज़ार बना दिया था
कि अब प्रेम
आवारा हथिनी का भारी पैर था
जहाँ पड़ता एक गहरा निशान छोड़ जाता
गड्ढों को पाटने का भार
पीठ पर कूबड़ की तरह उग आया था
चेहरे को ढकती है ब्रांड के किसी दूधिया रंग से
वह सुबह उठती और चाय चढ़ा देती
चीनी कम डालती और मिठास के बारे में अधिक सोचती
अवरुद्ध है उन्मुक्त दौड़
उबलती हुई चाय को लौटा दिया जाता है
छलनी की छपाक से
पैन की तलहटी में
कोई पुकार नहीं है आस-पास
याद आती है रात की चीखें
वह जगाता है अपने आदिम पुरुष को
स्त्री की माद से अनभिज्ञ
जुझारू पुरुष दहाड़ता है
जीत के फर्ज़ी दस्तावेज़ों पर
हस्ताक्षर करके
और भूल जाता है सुबह
वह एक भरी-पूरी स्त्री थी!

गुरुवार, 11 सितंबर 2025
डॉ. नीलम सिंह
1. सौदागर
2. बहनें
3. खिड़की
4. तिजोरी
5. अस्मिता
डॉ. नीलम सिंह
गुरुवार, 4 सितंबर 2025
देवेश पथ सारिया
1. भेड़
2. एक तारा: विज्ञानी का प्रेम
3. तारबंदी
4. शुद्धता एक मिथक है
देवेश पथ सारिया
बुधवार, 27 अगस्त 2025
इति शिवहरे
1. हँस रहे दुख में अधर
हँस रहे दुख में अधर, तो
अश्रु की अवहेलना है,
आह! कैसी वेदना है।
नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।
मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,
लुप्त होती चेतना है।
आह! कैसी वेदना है।
आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?
प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।
स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।
मीन के दृग भेदना है।
आह! कैसी वेदना है।
मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,
यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।
मुक्ति की अन्वेषणा है
आह! कैसी वेदना है।
2. तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो
तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो,
करो अब अनुगमन है।
यह मिलन, अंतिम मिलन है!
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा 'कुशा' की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली 'दूब' की पायल पहनकर नाचती थी।
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम, दुख मनाकर क्या मिलेगा?
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
3. श्रांति रण में
श्रांति रण में धैर्य के धनु-बाण
त्यागोगे धनंजय!
हार मानोगे धनंजय?
वे जिन्होंने 'भाग्य' के आगे सदा 'भुजबल' रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में 'दीप' धरकर 'भानु' का भ्रम तोड़ते हों।
प्रश्न दागोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?
'आधि' में रहकर बढ़ावा 'व्याधि' को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?
हार मानोगे धनंजय?
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के 'पर' पर निशाना साध लेना।
चढ़ाओगे धनंजय,
जीत जाओगे धनंजय!
4. ब्याह कर मुझको, दिया
ब्याह कर मुझको, दिया
सुंदर, नवल परिवेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
5. ओ युवाओं!
ओ युवाओं! प्राण अक्षय,मर्त्य मृत्युंजय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
प्रेम की आराधना के प्रति विनय-प्रणिपात होना।
ये मुखर आनंदमय अनुरक्ति की उत्सर्जना है।
मौन यदि अन्याय पर,असुरारि-सुर की भर्त्सना है।
वह नहीं जीवन कि कुंदन-आँच से परिचय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
साधना के शुभ-समय में भोग में यदि खो रहे हो।
मोह-माया-मोहिनी की रीति आकर्षित करेंगी।
तामसी दुष्वृत्तियाँ हैं सर्वदा विचलित करेंगी।
किंतु इनके अनुसरण की यह यथोचित-वय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
पुण्य-पथ पर पग बढ़ाओ हाथ गंगाजल उठा लो।
खोल लो अब चक्षु अपने बाहुओं में जोश भर लो।
घृणित-कलुषित कृत्य के अवितत समर उद्घोष कर लो।
फिर सुनिश्चित है विजय संघर्ष में, संशय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
बुधवार, 20 अगस्त 2025
पराग पावन
1.पंजे भर ज़मीन
इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
बलात्कार करने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर और अल्लाह के पसरने की भी जगह है
मगर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है इस धरती के पास
भईया की दहेजुआ बाइक लेकर
सभ्यताएँ उखाड़ ले जाती हैं उसका
स्पार्क प्लग
धर्म फोड़ जाता है उसकी हेडलाइट
वेद की ऋचाएँ मुख़बिरी कर देती हैं
तुम्हारे गाँव में
और लाल मिरजई बाँधे रामायण तलब करता है
मुझे इतिहास की अदालत में
देवताओं को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गई वह ज़मीन
जिस पर दो जोड़ी पैर टिका सकते थे
अपना क़स्बाई प्यार
धर्मग्रंथों को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गए वे पन्ने
जिन पर दर्ज किया जा सकता था प्रेम का ककहरा
कि लथेड़ते हुए खींचकर लाया जाए
पीर और पुरोहित को और पूछा जाए
कि क्या हुआ उन सूक्तियों का
जो दो दिलों के महकते भाप से उपजी थीं
और तजवीज़ से पहले बहसें देवताओं पर होनी चाहिए
पीर और पुरोहित पर होनी चाहिए
आप देखेंगें कि देवता बहस पसंद नहीं करते
कि तुम चाँद पर सूत कातती बुढ़िया बन जाओ
और मैं अपनी लोक-कथाओं का कोई बूढ़ा बन जाता हूँ
बच जाएगी पीढ़ा भर मुक़द्दस ज़मीन
तब तुम उतर आना चाँद से
मैं निकल आऊँगा कथाओं से
‘मा निषाद’ की करकन लिए हुए
सिरज उठे कोई वाल्मीकि का वंशज
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर के पसरने की भी जगह है
पर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है
2. जंगल में मोर नाचा किसने देखा
किसी ने नहीं देखा जंगल में मोर को नाचते हुए
तो उसका नृत्य अप्रामाणिक नहीं हो जाता
कि उसने प्रदर्शन नहीं किया
आपकी अनुमति और मशविरे की प्रतीक्षा किए बग़ैर
वह नाच उठा
आलोचित होने के भय
या उपेक्षित होने के दुख से बहुत दूर
मोर सिर्फ़ इसलिए नाचा
कि उसकी आत्मा का आदिम उत्सव
उसके पैरों को बाँध नहीं पा रहा था
नाचना और इसलिए कला भी
सबसे पहले इस दुनिया की अपूर्णता के विरुद्ध
एक ऐलान है
आपके विशिष्टताबोध से पैदा
वैधता प्रदान करने की ऐतिहासिक आदतों
और स्वतःधारित अधिकारों के ख़िलाफ़
मोर शायद जंगल के लिए नाचा
आप न मुहावरे बदलते हैं न उनका आशय
तो एक दिन जंगल, मोर और नृत्य
एक व्यंग्यात्मक मुस्कान में कहते हुए पाए जाते हैं
कि आपका जानना बाक़ी है
मोर के बारे में
नृत्य के बारे में।
3.असली हत्यारे
वे पहचानते हैं तलवार की सीमाओं को
असली हत्यारे परिणाम में नहीं प्रक्रिया में शामिल हैं
भीषण बारिश के मौसम में
छतरियों को बदनाम कर रहे हैं
महफ़िल के केंद्र को गाली दे रहे हैं
और कच्चे लोहे की दुकान खोलने का काम
वे समान भोली मुस्कान के साथ करते चले जा रहे हैं
और चाय के ख़ून से महँगा होने की शिकायत कर रहे हैं
वे धर्मग्रंथों की ओट में बैठे हैं
वे आत्मा नहीं आत्मा की परिभाषा हैं
आग जला नहीं सकती
पानी भिगो नहीं सकता
संसद जाते हैं
दोस्त की दावत और टेलीविज़न से लौटते हैं
और सो जाते हैं
कि सब कुछ अच्छा चल रहा है
असली हत्यारे बाँस बोते हैं
उस बाँस से सबसे उम्दा क़िस्म की लाठी
और सबसे निकृष्ट क़िस्म की बाँसुरी बनाते हैं
तो उपसंहार तक कभी मत जाना
असली हत्यारे भूमिका में अपना काम कर चुके होते हैं।
4. तारों भरे आंचल को परसों तक नहीं जलाना चाहिए
फिर भी हौसले का लंगर
पर जज़्बातों के पंछी अपने
जब तक हमारा घर शून्य नहीं है
या जब तक हम निर्वात के नागरिक नहीं हैं
तब तक 'व्यक्तिगत' हिंदी शब्दकोश का व्यर्थतम शब्द है
प्रधानमंत्री के नैतिक पतन का दुःख
और पट्टीदार से पुश्तैनी पेड़ के विवाद का दुःख
तत्वतः किस तरह अलग है
वह आने के मामूली अवसर
दुःख के आने के हज़ार तर्क हैं
और जीवन उन तर्कों में सर्वश्रेष्ठ है
मुश्किलों के भेड़ियों की गुर्राहट
इंसान के पसीने तक पहुँचने से पहले ही
थक कर सो जाती है
वहीं एक रास्ता पैदा होता है और
वे लोग उस तारों भरे
5. आत्महत्याओं का स्थगन
अपने वक़्त की असहनीय कारगुज़ारियों पर
शिकायतों का पत्थर फेंककर
पराग पावन
ईमेल:paragpawan577@gmail.co
बुधवार, 13 अगस्त 2025
बलराम कांवट
1. मनहार का फूल
नदी किनारे चलते हुए मैंने तुम्हें एक फूल दिया था
पाँच रंगों वाला
नायाब
चमकीला
बनास की घाटियों में खिला
मनहार का फूल
मैंने कहा भी था
संभालना
यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है
आज वह पूरी तरह खत्म हो चुका है मेरी गौरा
उसे ढूँढो !
ढूँढो उसको
कहाँ जाएगा
यहीं कहीं रखा होगा घर में किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने
मत पूछो किस काम आएगा बस ढूँढो
जैसे काली घटाओं,
मेघों, फुहारों और पवन, पुरवाइयों में फिर से जी उठते हैं
आकाश के नीचे सतरंगी सर्प
यह भी कभी
अनुकूल जल और वायु पाकर खोल सकता है अपनी आँख
सात ना सही
आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं
तो रखेंगे इसे सहेजकर हम
जैसे किसान रखते हैं बरसों बरस घड़ों में बीज
और करेंगे प्रतीक्षा
इसके लिए सही हवाओं, सही पानी, सही नक्षत्रों की
अगर लौटकर आए कभी धरती के दिन तो शायद इसमें भी लौटें नए प्राण
फूल से बनेंगे फूल
एक बार फिर जी उठेंगी बनास की घाटियाँ
एक बार फिर
कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही
नायाब चमकीला पचरंगा
मनहार का फूल!
मेरी गौरा उसे ढूँढो!
2. अगले जन्म में
जिस वृक्ष के नीचे रोते हुए तुमने कहा था
कि अब अगले जन्म में मिलेंगे हम
मनुष्य नहीं
पक्षी बनकर आयेंगे
इसी धरती पर
वह वृक्ष मेरे देखते ही देखते सूख गया है
उसे देखकर
जब देखता हूँ धरती पर दूसरे वृक्षों
पक्षियों
नदियों, ऋतुओं, हवाओं को
तो लगता है
सबकुछ इसी जन्म में ख़त्म होता जा रहा है
मेरे देखते ही देखते
जब नदियाँ नहीं होंगी
मीठी ऋतुएँ और शीतल बहती हवाएँ नहीं होंगी
तो कैसे होंगे वृक्ष
जब वृक्ष नहीं होंगे तो कैसे होंगे पक्षी
जब धरती ही
नहीं होगी
तो कैसे मिलेंगे हम
अगले जन्म में!
3. इस घोर सूखे में
कहते हैं कभी किसी को
प्यासा नहीं सोना चाहिए
चाहे कितनी ही गहरी
लगी हो आँख
कितना ही आलस भरा हो
तुम्हारी देह में
कितनी ही दूर रखी हो
खाट से मटकी
अगर प्यास बहुत कड़ी है
तो जरूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें जल के पास
बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते-झगड़ते
हम भाई-बहन छत पर सोते थे
सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए माँ कहती थी
जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं
और मन मरोड़े
अलसाए पड़े रहते हैं
तो अंदर ही अंदर इतने छटपटाने लगते हैं प्राण
कि वे देह से उतरकर
बाहर दुनिया में निकल जाते हैं
जल की खोज में
वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी
कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण जल ढूँढते हुए चले गए
पड़ोस के आँगन में
एक खुले
घड़े के अंदर
तभी उस घर में
कोई उठा
और दो घूँट पानी पीकर
घड़े को ढक आया
इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए उस बुढ़िया के प्राण
सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थी
सबने मृत समझकर
रोते-सुबकते
उसकी काठी बांधी
वे शमशान में
उसे अग्नि देने ही वाले थे
कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन
और इधर
लकड़ियों को हटाती
भड़भड़ाकर
बाहर आई बुढ़िया
इस तरह जलते-जलते वापस लौटे उसकी देह तक प्राण
इस घोर सूखे में
प्यास से अधमरा
बैठा हूँ
किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए
और सोचता हूँ
अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को
तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे वे प्यास बुझाने
और जब तक लौटेंगे
अग्नि देकर
घर लौट चुके होंगे ग्रामीण
देह जलकर
राख हो चुकी होगी!
4. चंबल की आवाज़
अकेले भटकते हुए
बुझी आँखों से देखते हुए
साँझ का सूरज
जब भी धरती के दुःखों के बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
कितना जटिल है जीवन
होना कितना असहनीय
जैसे किसी चीज का कोई अर्थ नहीं
जैसे सबकुछ
समझ से कोसों दूर है
ऐसे में कभी-कभी
मन करता है
कि बस! जहाँ जिस खेत में खड़ा हूँ वहीं उतार दूँ अपनी चप्पलें
और चला जाऊँ उस पगडंडी की ओर
जहाँ आगे-पीछे
एक ना एक दिन
सबको जाना है
लेकिन जैसे ही देखता हूँ
इस अनाम दिशा की ओर
सारी दिशाओं से कई आवाज़ें आती हैं बच्चों की तरह दौड़ती हुईं
और उँगली पकड़कर
मुझे थाम लेती हैं
टीलों और खाइयों में खिले
डांग के फूल मुझे मुड़कर देखते हैं
नदी किनारे सरसराते कांस की आवाज़ें
मुझसे कहती हैं
इतना भी मुश्किल नहीं है यह समझना
कि जहाँ-जहाँ पहुँचेगा जल
घास और फूल
खिलते रहेंगे पृथ्वी पर
मुझे उस मल्लाह की आवाज़ रोकती है
जो कहता है
नदी पार करना
इतना भी कठिन नहीं
इन बीहड़ों में
दूर से दिखता मुझे मेरा गाँव रोकता है
गाँव में थान पर बैठा देवता रोकता है
थान पर नाचते मोर
और खेलती गिलहरियाँ
रोकती हैं मुझे
मुझे चिरौल की टहनी पर बैठी
फाख्ता रोकती है
जब उसकी आवाज़ घुलती है पास ही भैंस चराती किसी गूजरी के गीत से
तो उसका गीत मुझे रोकता है
जो कहता है
बहुत सुंदर है पृथ्वी पर फाख्ता की आवाज़
इतना सुख बहुत है
यहाँ ठहरने के लिए
होने के लिए
इतना मतलब बहुत है
मुझे वापस अपनी गोद में बुलाती है
यह कलकल बहती
नदी चंबल
यह कहते हुए कि कहाँ जाएगा मुझे अकेला छोड़कर
मैं तो तब से इस दुनिया से अपशब्द सुन रही हूँ जब मैं एक बूँद हुआ करती थी
कितनी तलवारें
कितनी गोलियाँ
फिर भी जीवन को जल देती हुई
टिकी हुई हूँ
अब भी धरती पर
इस तरह आकाश की ओर जाती उस पगडंडी की ओर जाने से
मुझे धरती पर बहती
एक नदी रोकती है!
बलराम कांवट
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