गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

योगेश कुमार ध्यानी

1. शीत युद्ध 


लपटों के बाद
जल कर राख हो गई

ठंडी चीज़ों की भस्म
बैठ जाती है नागरिकों के हृदय में,

बारूद की गंध
ठंडी होकर जम जाती है स्मृतियों में

ग्रीष्म, शरद, वसंत
एक-एक कर बीत जाती हैं ॠतुएँ,

बस स्मृति नहीं बीतती
बीत गए युद्ध की चीख़ों की।
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2. ह्रस्व-दीर्घ 


तीव्र है चीख़
बधिर हैं गुज़र रहे लोग

न के बराबर है उम्मीद
हाँ जितनी संभव है मृत्यु

जानलेवा हो सकते हैं शत्रु के वार
बचाव के पक्ष मे है सिर्फ़ दिन की धूप

लौटते ही जिसके
झुरमुट हो जाते हैं संवेदनशील

जहाँ संवेदनशून्यता
सभ्यता के करती है चीथड़े

और पुलिस की टार्च बढ़ जाती है
“सब ठीक है” का बिगुल बजाते हुए आगे

भाषा पंगु होती है
वहशियत के आगे

दीर्घ होती है वारदात
और हृस्व रह जाती है

कोई भी सद्भावना।
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3. छूटा हुआ ईश्वर 


उपासना से छूट गई जगहों मे
रहता है

एक छूटा हुआ ईश्वर,
उसका ज़िक्र किसी ग्रंथ में नहीं।

एक वही सुनता है सिर्फ़
भीड़ मे से छूट गए

लोगों की पुकार।
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4. समुद्र  


उपस्थिति को ढका जा सकता है
उसपर परदा डाला जा सकता है
उसे अनदेखा किया जा सकता है

लेकिन अनुपस्थिति को कैसे भरें
वह जो 
तमाम दियों, सजावटों और 
झालरों के बीच से 
झांकती रहती है
जब भी कौंधता है फुलझड़ी का प्रकाश
उस प्रकाश में झिलमिलाती है
अनुपस्थिति

इस पर्व
जो खदानों में रह गए 
गाँव से दूर
मालिक के मुनाफे के बाद
शहर की दुकानों के बंद शटर के पीछे
फर्श पर बिछे टाट पर रह गए
जो समुद्रों में रह गए
जो नाव और जहाज में रह गए

जो लौट नहीं सके
जो रास्तों में रह गए
और वो भी
जो लौटने का साहस नहीं जुटा सके
उनके पर्व में कौंध रही है
अपनों की अनुपस्थिति
जबकि उनके घरों में
हर्षोल्लास बधाइयों और 
पर्व की आवाज़ों के बीचों-बीच 
बैठी है उनकी खुद की 
अनुपस्थिति की आवाज़ 

उपस्थिति को ढका जा सकता है
लेकिन अनुपस्थिति को
भरा नहीं जा सकता।
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5. इक कमरा है बिखरा-सिमटा


इक कमरा है बिखरा-सिमटा
चार दीवारें गहरी हल्की
इक दरवाज़ा हिलता-डुलता
एक सींखचों वाली खिड़की

एक बल्ब है जलता-बुझता
एक ही नल से पानी चलता
थप-थप बनती चार रोटियाँ
रोज़ सांझ एक चूल्हा जलता

एक कील पर टंगा कलैंडर 
एक मूर्ति का पूजाघर
एक खूंटी पर बस दो कपड़े
पहन लिए जाते जो तड़के

कोने में एक जोड़ी चप्पल
कुर्सी पर रखा एक गमछा
एक चमड़े का बैग पुराना
जिसमें कोई नहीं खजाना

बीती होली आई दीवाली
सोच रहा है घर जाएगा 
लेकिन इस आने-जाने में
कितना पैसा लग जाएगा 

गाँव में रहते बीवी-बच्चे
मजदूरी में कटता जीवन
शहर की एक गुमनाम गली के
घर में रहता राम सजीवन।
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योगेश कुमार ध्यानी 










 




योगेश कुमार ध्यानी जन्म 3 सितंबर 1983 को हुआ। योगेश पेशे से मरीन इंजीनियर हैं, साहित्य में गहरी रुचि रखते हैं। हंस, वागर्थ, आजकल, परिंदे, कादंबिनी, कृति बहुमत, देशधारा, अन्वेषा, ईरा पत्रिका, शतरूपा अनुनाद, कृत्या, मलोटा फॉक्स, कथांतर-अवांतर आदि साहित्यिक वेबसाइट और पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ-कहानियाँ और लेख प्रकाशित होते रहे हैं । 2022 में समुद्र जीवन पर आधारित कविता संग्रह 'समुद्रनामा' प्रकाशित हुई। 

संपर्क - 9336889840
ईमेल: yogeshdhyaani85@gmail.com


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

सुशोभित

 1. शुरुआतें 


शुरुआतें कितनी सुंदर होती हैं
रूई से भरी, भरी वनघासों से

संभावनाओं में उतरातीं डूबतीं
मुझे ख़ंजरों से भय नहीं लगता

छज्जे से गिरने से नहीं साँप के ज़हर से नहीं
मैं डरता हूँ चीज़ों के बासी हो जाने से

हरेक उत्सुक शुरुआत के बाद
मर जाने का मतलब

ठहर जाना था
जीवित रहने का अर्थ था
उम्रदराज़ हो जाना

जीने की ये मियाद मुझको मायूस करती
कि इतना लंबा भी क्या जीना!

मुझे एक शहर नहीं चाहिए
मुझे चाहिए एक कमरा

आकाश नहीं चाहिए
चाहिए एक खिड़की

जंगल नहीं पांखुरी
समुद्र नहीं अंजुरी
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2. किताब में गुलाब


हाथ
गुलाब भी हो सकते हैं।

हथेलियाँ
किताब भी हो सकती हैं।

तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में

छुपा लो।
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3. ज्वार में वर्षा 


रक्‍त में तैरतीं
छतरियाँ और नावें!

ज्‍वर की
तपती हुई त्‍वचा पर

बारिश का चंद्रमा!
जब,

धमनियों में टूटता है
तिमिर के धनुष

की तरह।
तब,

जनवरी के
धूजते तलुओं पर

देखता हूँ—
मोम का आलता।
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4. अविष्कार 


एक आदिम भय ने
ईश्वर को रचा था,

एक आदिम लालसा ने
प्यार को।

मनुष्य ने इनके बाद
फिर कोई बड़ा आविष्कार
नहीं किया!
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5. तारतम्य के लिए


तारतम्य के लिए उसने
सब कुछ दाँव पर
लगा दिया।
जूतों, किताबों और विचारों को
एक तरतीब में जमाने
के लिए।
बिना इस बात को समझे कि—
जूते
यात्रा करने के लिए होते हैं
किताबें
सीने पर रखकर सोने के लिए
और विचार
ढाल बनाकर अपना निर्लज्ज बचाव
करने को!
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सुशोभित














सुशोभित जी का जन्म 13 अप्रैल 1982 को मध्य प्रदेश के झाबुआ में हुआ। उनकी शिक्षा उज्जैन में संपन्न हुई। 'मैं बनूंगा गुलमोहर', 'मलयगिरी का प्रेत', 'धूप के पंख' आदि कविता संग्रह के साथ-साथ 'माया का मालकौंस', 'सुनो बकुल', 'गांधी की सुंदरता', 'बायोस्कोप', 'दूसरी क़लम', 'अपनी राम रसोई', 'आइंस्टीन के कान', 'बावरा बटोही', 'देखने की तृष्णा', 'पवित्र पाप', 'कल्पतरु' अन्य गद्य रचनाएँ प्रकाशित हैं। इन्हें 2020 में अपनी पुस्तक 'सुनो बकुल' के लिए 'स्पंदन युवा पुरस्कार' प्राप्त है। वर्तमान समय में सुशोभित जी 'अहा! जिंदगी' के सहायक संपादक के रूप में कार्यरत हैं।







गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

शचींद्र आर्य


1. अनुपस्थित


जो अनुपस्थित हैं,
वह कैसे हमें दिखाई देंगे, 
इसकी कोई तरकीब हमारे पास नहीं है।

ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से 
उसके होने का भाव भी ख़त्म हो गया।
पर ज़रूरी है,

हम कभी महसूस कर पाएँ, जितने लोग दिख रहे हैं,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।

जैसे जितनी कविताएँ, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र बना दिए गए,
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।

जितनी किताबें छप सकीं,
उस अनुपात में बहुत 
बड़ी संख्या में वह कभी छप ही नहीं पाईं।

इसे मैं कुछ इस तरह देखता हूँ, जब हम नहीं थे,
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।

हमारे न होने से क्या वह अतीत शून्य हो गया?
कभी वह क्षण भी आएगा,

जब सामने होते हुए, कई लोग 
इस वर्तमान से भविष्य की तरफ़ चल देंगे।
 
उनका या हमारा आमने-सामने न होना, 
क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?

जसे जब कविता नहीं लिख रहा था,
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।

वह प्रक्रिया भी कहीं मन में, मेरे अंदर चल रही थी।
बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।
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2. भाषा में बड़े हुए लड़के 


जिस भाषा में
लोग बस और लड़की के पीछे 
न भागने की हिदायतें देते हों,

हमें उन्हें क्या समझना चाहिए?
उन्होंने लड़कियों को भी बस बना दिया।

जिस तरह सड़कों पर बेतहाशा बसें दौड़ रही हैं,
वैसे ही एक लड़की के चले जाने पर
दूसरी लड़की आ जाने की कल्पना है।

हम भी इसी भाषा में बड़े हुए लड़के हैं,
हमें पता है, तपती हुई दोपहर 
में बस छोड़ देने का मतलब।
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 3. पैमाने 


क्या हम अपनी उदासी को 
किसी तरह माप सकते हैं?
या कुछ भी, जिसे मन करे?

कहीं कोई क्या ऐसा होगा, 
जो हर चीज़ के लिए ऐसे पैमाने बना पाया होगा?
क्या वह हर भाव, क्षण, मनः स्थिति, घटना, अनुभूति,

उसके गुज़र जाने के बाद पैदा हुई 
रिक्तता, अतीत, भविष्य, कल्पना,
ईर्ष्या, कुंठा, भय, स्वप्न, गीत, 
स्वर, जंगल, सड़क, मिट्टी, हवा, स्पर्श

सबके लिए वह कुछ न कुछ
 तय करके गया होगा?
अपने अंदर देखता हूँ तो लगता है, 
बीतते दिन में आती शाम

और उसे अपने अंदर समा लेती 
रात ज़रूर कुछ बता जाती होगी।
मुझे भी वह सब जानना है।

लेकिन यह कैसे संभव होगा?
क्या यह हो सकता है, 
हम किसी भाषा के

सीमित शब्दों में असीमित संभावनाओं को समेटते चले जाएँ?
कभी लगता, इनके बजाय अगर वह 
कुछ युक्तियाँ बता सके, तो बेहतर होगा।

मैं ऐसे प्रेम करना चाहता हूँ, 
जिसे मैं भी ख़ुद न पहचान पाऊँ।
जिससे करूँ, वह मुझमें खुलता बंद होता रहे।

यह पानी और नदी जैसे होगा शायद। 
नहीं तो पेड़ और उसकी परछाईं जैसा।
चाहता हूँ, ऐसी ईर्ष्या जिससे करूँ,

जिसे वह उसे मेरा अनुराग समझे,
 लेकिन तह में यह भाव
किसी कुंठा की तरह मन में बनी हुई 
गाँठ की तरह उसे नज़र न आए।

इसी में कुछ ऐसे सपनों तक पहुँच जाना चाहता हूँ,
जो सपनों की तरह नहीं 
ज़िंदगी के विस्तार की तरह लगें।

उनमें रंग बिल्कुल गीले हो।
 उनसे मेरे हाथ रँग जाएँ।
शायद अब आप कुछ-कुछ
उन नए पैमानों की तासीर तक पहुँच पा रहे होंगे
और यह भी समझ पा रहे होंगे 
कि उनकी मुझे ज़रूरत क्यों है।

मैं अपनी सारी घृणा,
ईर्ष्या और सारे अप्रेम के साथ 
कुछ-कुछ ऐसा हो जाना चाहता हूँ।
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4. चप्पल 

शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले 
इतने पैरों को आते-जाते देख रहा हूँ,

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ 
कि कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे।

मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला 
को भागते हुए देखा हो।

ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, 
या उन्हें भागना नहीं आता।
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत 

भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?
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5. पता पूछने वाला 

मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो, शायद वह बता सकें,

मैं गलत था
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,

आगे से उनकी बताई जगहों पर 
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,
जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए। 
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा,
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में 
भटकना कैसा होता है। 
हो पाता, तो मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता। 
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शचींद्र आर्य













शचींद्र आर्य का जन्म 9 जनवरी 1985 को दिल्ली में हुआ।इनकी कविताएँ हंस, पहल, वागर्थ, तद्भव, समकालीन भारतीय साहित्य, सदानीरा, हिंदवी आदि डिजिटल मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित होती रही है। इनका एक कविता संग्रह 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' और डायरी 'दोस्तोएवस्की का घोड़ा' पुस्तक रूप में आ गई हैं। शचींद्र आर्य जी को 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' काव्य संग्रह के लिए 2025 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त है । 
ईमेल- sachindrakidaak@gmail.com



गुरुवार, 18 सितंबर 2025

गीता मलिक

1. मातृत्व

जैविक मातृत्व से भी बड़ा है
सृष्टि का मातृत्व
मेरे स्वप्न में आती है
वह गुलाम अफ्रीकी काली महिलाएँ
जो बेच दी गई कैरेबियाई द्वीपों अमेरिका और यूरोप के तमाम हिस्सों में
भर दी जाती थी पानी के जहाजों में इतने छोटे केबिनों में
जहाँ पैर फैलाने की जगह तक नहीं होती थी
लंबी यात्राओं में
मातृभूमि की स्मृति में
उन्हें याद रहता प्रतिपल
मोटे चावल का वही अफ्रीकी स्वाद
गुलाम औरतें जिन्हें जोत दिया गया यूरोपियन प्लांटेशन में
जहाँ विषम परिस्थितियों में भी उग आता था उनका धान
गुलाम औरतें संपत्ति के नाम पर मात्र स्मृति लेकर आई थी
पुरखों द्वारा अर्जित किए गए
पारंपरिक ज्ञान और अपनी स्मृति में रचे बसे
चावल के स्वाद को
उन्होंने हर जगह रोपा
जहाँ भी उन्हें रखा गया
 सृष्टि का मातृत्व कितना प्रबल था उनमें
जिसे बचाने के लिए
अफ्रीकी औरतें अपनी बेटियों के बालों में
गूँथ देती थी धान के बीज रात्रि में
इस भय से कि सुबह उन्हें बेच न दिया जाए
एक अजनबी मुल्क की मिट्टी में
और रसोई में
जिन्होंने फैला दी अपने स्वाद की खुशबू
और भर दिए उनकी संततियों के घर भंडार!

2. बूढ़ा नीम

कोई पहर है रात का
शायद तीसरा
घड़ी की टिक-टिक
एक पचपन
एक छप्पन…
निर्जन समय की चीत्कार
पानी की टिप-टिप
अँधेरे की सायँ-सायँ
बूढ़े नीम का स्याह तना
भीगे पत्तों की हरहराहट से भरा
देखता भौंचक, हैरान
मेरे दुख के हरेपन की काई को ओढ़े
मेरे पैरों की फिसलन को थामें
देखता रुग्णाई देह से
नीम मेरे पिता की तरह बूढ़ा हो गया है
मेरी माँ की झुर्रियाँ उभर आई हैं उसके तने में
मेरे हर्फ़ इन दिनों
उसकी पत्तियों की तरह झड़ रहे हैं
यहाँ-वहाँ बिखर रहे हैं हवा में
मैं देख रही हूँ नंगी आँखों से
दिशाहीन समय की अनियमित्ता को भागते हुए
जैसे भाग आई थी मैं
घर से
पिछले माह गंगा के घाट पर
बिना सोचे-समझे
प्रवाह ने बताया
लोग भटक जाते हैं गलत राहों में चलते हुए
लेकिन
नदी जानती है अपने बहने की दिशा
मैं टकरा रही थी
बहाव के विपरीत
हवा के थपेड़ों से
यह दुनिया एक भूलभूलैया में
तब्दील होती जा रही है
रात के इस पहर में
घोर शांति है
सन्नाटा कह रहा है
सभी दिशाएँ कहीं जाती हैं
लेकिन कहाँ?
नीम चुप क्यों खड़ा है
बरसों से!
बताओ तो?

3. निर्वासन का दर्द

इन दिनों
इस रुके हुए दौर में
विश्वास का चाबुक
पीठ को लहूलुहान किए है
हमारी आशाएँ जब्त कर ली गई हैं
हमारे सपनों के पैबंध
कटे हुए अंगों की तरह
नफ़रत से फेंक दिए गए है अँधेरे घने जंगल में
यह जंगल भेड़ियों के झुंड से घिरा है
नुकीले दाँतों से
टपकता हुआ खून
कौन देख पाएगा?
मैंने ईश्वर को लड़खड़ाते हुए देखा है
वह छोटी बच्ची जो रोज़ मुझे मंदिर में ले जाती थी
उदास है
निर्वासन का अर्थ वह नहीं समझती
नफ़रत और विश्वासघात भी नहीं जानती क्या है
लेकिन उससे छीन ली गई वे दीवारें
जहाँ उसने सीखी आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचना
बनाना परिवार के चित्र
जहाँ एक वक्राकार रेखा से
बना देती है वह मुस्कान
दो चोटी वाला अपना स्केच
और लिखती है पापा पागल हैं
जिन दीवारों को
भर दिया था उसने
मांगलिक चिह्नों से,
निर्वासन सोती हुई बच्ची की आँख में एक तीर की तरह चुभा
और टपकने लगा खून
खाली कमरा अब चित्रों से नहीं
खून के छीटों से भरा है
बच्ची रो रही है
यह मेरे बचपन का घर है
मत निकालो!

4. बिना पुल की नदी

चल डूबें!
यह बिना पुल की नदी है
यह कहते हुए
उसने मेरा हाथ पकड़
नदी में छलांग लगा दी
मैं कश्तियों को
किनारे से बाँध आया था
वह छोड़ आई थी
घर की चौखट को
सदा के लिए
दो प्रेमियों को
नदी मिला भी सकती है
यह मर के जाना जाता है

5. अपरिजित भाषाओं का गुढ़

सबसे नुकीले सिरे
होने चाहिए कविताओं के
मैंने बरसों चिट्ठियाँ लिखी
हर बार पहुँच जाती
किसी अदृश्य पते पर
सुना था मौन अपरिचित भाषा का गूढ़ हैं
लेकिन कविताओं को तो मारक होना चाहिए
मीठे ज़हर और अच्छी बातों से मारे जाने का
दुख दीर्घगामी होता है
अभिव्यंजनाओं के दुराग्रह में
एक उफ़नती नदी
एक मौन के पुल से गुज़रती है
यह कितना बेमेल है
नदी चाहती है डूबना
पुल चाहता है पार होना!

6. प्रेम प्रेम गाकर उसने

प्रेम प्रेम गाकर उसने
प्रेम को इतना बेज़ार बना दिया था
कि अब प्रेम
आवारा हथिनी का भारी पैर था
जहाँ पड़ता एक गहरा निशान छोड़ जाता
गड्ढों को पाटने का भार
पीठ पर कूबड़ की तरह उग आया था
चेहरे को ढकती है ब्रांड के किसी दूधिया रंग से
वह सुबह उठती और चाय चढ़ा देती
चीनी कम डालती और मिठास के बारे में अधिक सोचती
अवरुद्ध है उन्मुक्त दौड़
उबलती हुई चाय को लौटा दिया जाता है
छलनी की छपाक से
पैन की तलहटी में
कोई पुकार नहीं है आस-पास
याद आती है रात की चीखें
वह जगाता है अपने आदिम पुरुष को
स्त्री की माद से अनभिज्ञ
जुझारू पुरुष दहाड़ता है
जीत के फर्ज़ी दस्तावेज़ों पर
हस्ताक्षर करके
और भूल जाता है सुबह
वह एक भरी-पूरी स्त्री थी!
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गीता मलिक का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने गृहविज्ञान में परास्नातक, बीएड व बीटीसी की शिक्षा प्राप्त की है। वे शामली जनपद उत्तर प्रदेश के परिषदीय विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं। 

गुरुवार, 11 सितंबर 2025

डॉ. नीलम सिंह

 1. सौदागर

 
वह सौदागर था 
फूलों का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
फूल किसी और को बेचा 
कलियाँ किसी और को 
डाल किसी और को 
बाग किसी और को 

वह सौदागर था 
समय का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
लम्हा किसी और को बेचा 
घंटा किसी और को 
दिन किसी और को 
रात किसी और को

वह सौदागर था 
ख्वाबों का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
ख़्यालों किसी और को बेचा 
नैन किसी और को 
नींद किसी और को 
वादा किसी और को 

वह सौदागर था 
ईमान का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
सच किसी और को बेचा 
झूठ किसी और को 
प्रेम किसी और को 
नफ़रत किसी और को
____________________________________
           

2. बहनें 


तन्हाइयों और स्मृतियों 
का यह 
बहनापा शायद 
उतना ही पुराना है 
जितनी पुरानी है दुनिया 

बहनें 
प्रायः 
थामती हैं 
जब लड़खड़ा रहा होता है 
जीवन 
वैसे ही 
जैसे स्मृतियाँ  
धमक पड़ती है 
जब खाली होता है 
मन

मगन मन
वैसे ही स्मृतियों से 
दूर रहता है 
जैसे रहती है 
ब्याहता बहन 
अपनी दुनिया में 

गाहे-बगाहें 
आती है 
न्योते बुलावे पर 
पिता,भाई 
नाते रिश्ते निभाने 
जैसे 
आती हैं 
यादें 
हमेशा 
किसी जुड़ाव से 
वे नहीं जाती 
अनजान जंगलों में ।
वो गीली जमीं 
खोजती हैं 
जहाँ पनप सके 
कुछ खट्टा 
कुछ मीठा
_____________________________________

3. खिड़की 


रहती है दीवार में एक खिड़की - 
और खिड़की में रहती हैं 
आँखें ...
जो ताकती हैं 
झाँकती हैं 
जीवन के भीतर और बाहर ।
बाहर खड़ा 
झाँकना चाहता है अंदर ।
अंदर की आँखें
देखती है,
बाहर 
जहाँ है खुला आकाश ..
मगर छत नहीं है।
अंदर है छत 
मगर खुला आकाश नहीं है ।
खिड़की उन दोनों के बीच है 
उससे न बाहर जा सकते हैं 
और ना 
आ सकते हैं अंदर।
केवल देख सकते है
दो सीमाओं को 
भीतर से बाहर 
और 
बाहर से भीतर 
एक मन चाहता है 
बाहर का आकाश
एक मन भीतर को 
छोड़ता नहीं है 
दोनों के बीच
रहती है एक खिड़की
_____________________________________

4. तिजोरी 


स्मृतियों के तिजोरी में 
रखे जाते हैं 
अनछुए लम्हे 
वो लम्हे 
जो नाजुक होते हैं 
ओस की बूँदों की तरह 
वो लम्हे 
जिन्हें हम छुपाते है 
दुनिया से 
वो लम्हे 
जिन्हें हम बचाते है 
धूप से 
हवा से 
रूप से 
नैतिकता के उसूलों से 
वो लम्हे 
जो रखे जाते हैं 
अधखुले आँखो में 
साँसों में 
वो अक्सर 
टूट जाते हैं 
अपने ही हाथों में ।
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5. अस्मिता 


नहीं मिलते 
रात और दिन
नहीं मिलते 
चाँद और सूरज
नहीं मिलते 
दो किनारे
नदी के

शायद 
सृष्टि ने ही बनाया होगा 
यह द्वैत 
ताकि 
साथ रहकर भी 
बनी रहे 
अस्मिता 
अपनी 
अपनी
_____________________________________

डॉ. नीलम सिंह















डॉ. नीलम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इन्होंने 
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से धूमिल के काव्य पर शोध किया है। नीलम जी कविताओं के साथ-साथ गद्य भी लिखती हैं और सामयिक विषयों पर भी अपनी लेखनी चलाती हैं। 
संपर्क-9953808001 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

देवेश पथ सारिया

1. भेड़ 


भेड़ों में नहीं होता
सही नेतृत्व चुनने का शऊर

और चुने हुए ग़लत नेतृत्व को
उखाड़ फेंकने का साहस

इतिहास बताता है
इंसानों में भी ये गुण

यदा-कदा ही देखे गए हैं
सर्वप्रथम,

शऊर और हिम्मत की ग्रंथियाँ टटोलकर
दुरूस्त करने के बाद

अनुशासन का पाठ
इंसान को

भेड़ों से सीखना चाहिए।
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2. एक तारा: विज्ञानी का प्रेम 


 उसे चाँद ख़ूबसूरत लगता है
जबकि मुझे लुभाती हैं,

तारों की क़तारें
तारे मेरी रोज़ी हैं

जब अँधेरी रात में तारे खिलें
और मेरी दूरबीन के पहलू में गिरें

तो ही आगे बढ़ पाया मेरा काम
मेरे बैंक अकाउंट की गुल्लक में

सारे सिक्के तारों ने ही डाले हैं
और चाँद?

वह एक आवारा घुसपैठिया है
चाँद के आगे तारे

फीके पड़ जाते हैं
जो तारे पहले ही बहुत धुँधले हैं,

वे दूरबीन से भी नज़र नहीं आते हैं
चाँदनी, तारों के खेत में

चिड़ियों जैसी है
मेरी फ़सल को चट कर जाती है

तारों की ही नेमत‌‌‌‌ हैं
सगाई की अँगूठी

और आर्टिफ़िशियल सस्ता हार
मेरा उसे दिया हर उपहार

मेरा कवि कभी और
ले लेगा

चाँद से
कवियों वाले बिंब उधार

काश,
कम-अज़-कम

एक बार
वह चाँद को कह दे :

चाँद, थोड़ा कम नज़र आया करो!
_____________________________________

3. तारबंदी 


जालियों के छेद
इतने बड़े तो हों ही

कि एक ओर की ज़मीन में उगी
घास का दूसरा सिरा

छेद से पार होकर
साँस ले सके

दूजी हवा में
तारों की

इतनी भर रखना ऊँचाई
कि हिबिस्कुस के फूल गिराते रहें

परागकण, दोनों की ज़मीन पर
ठीक है,

तुम अलग हो
पर ख़ून बहाने के बारे में सोचना भी मत

बल्कि अगर चोटिल दिखे कोई
उस ओर भी

तो देर न करना
रूई का बंडल और मरहम

उसकी तरफ़ फेंकने में
बहुत कसकर मत बाँधना तारों को

यदि खोलना पड़े उन्हें कभी
तो किसी के चोट न लगे

गाँठों की जकड़न सुलझाते हुए
दोनों सरहदों के बीच

'नो मेंस लैंड' की बनिस्पत
बनाना 'एवेरीवंस लैंड'

और बढ़ाते जाना उसका दायरा
धर्म में मत बाँधना ईश्वर को

नेकनीयत को मान लेना रब
भेजना सकारात्मक तरंगों के तोहफ़े

बाज़वक़्त
तारबंदी के आर-पार

आवाजाही करती रहने पाएँ
सबसे नर्म दुआएँ।
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4. शुद्धता एक मिथक है 


वैज्ञानिक शोध ने मुझे सिखाया
कि किसी परिणाम के कोई मायने नहीं

जब तक उसमें त्रुटि न बताई जाए
एक छोटे से पैमाने से मापकर

फटाक से जो हम बोल देते हैं :
फलाँ वस्तु की लंबाई तीन सेंटीमीटर

बिना त्रुटि के है वह बकवास
या मात्र एक आभास

वास्तविकता के आस-पास
त्रुटि आकलन के तरीक़ों में है एक यह भी

कि दोहराते जाओ मापन का कार्यक्रम
अनंत बार में पहुँच जाओगे शुद्धतम मान तक

अनंत एक आदर्श स्थिति है
वह केवल सैद्धांतिक रूप में संभव है

शुद्धता अस्ल में, एक मिथक है
बहुत क़रीब से परखने पर

कुछ भी नहीं होता आदर्श
सममितता की होती है अपनी सीमा

माइक्रोस्कोप से देखने पर धूल
त्रिविमीय विस्तार में समान त्रिज्या की

गोलीय रचना नहीं होती
एक बढ़िया कैमरे से ज़ूम करके देखने पर

रेंगने वाला वह लंबा कीड़ा
मुझे दिखा

पुरानी हिंदी फिल्मों के खलनायक जैसा
दुराचारी नहीं

कैरीकेचर-सा
घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं

इससे आगे की पंक्ति
मुझे मेरे एक रिश्तेदार ने सुनाई थी :

पैंट के नीचे सभई नंगे हैं
उस दूर के रिश्तेदार को

मेरे क़रीबी रिश्तेदार
ख़ानदान की नाक कटाने वाला बताते थे।
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देवेश पथ सारिया

















देवेश पथ सारिया का जन्म 1986 में राजस्थान के भरतपुर में हुआ। वर्तमान समय में यह ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डॉक्टरल शोधार्थी हैं। 
इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'नूह की नाव', स्टिंकी टोफू, 'छोटी आँखों की पुतलियों में', 'हकीकत के बीच, 'यातना शिविर में साथिनें' हैं। 
            देवेश पथ सारिया जी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, स्पेनिश, मंदारिन, रूसी, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और राजस्थानी आदि भाषा और बोलियों में हो चुका है।
         वर्तमान समय में देवेश जी 'गोल चक्कर' वेब पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं।

बुधवार, 27 अगस्त 2025

इति शिवहरे

1. हँस रहे दुख में अधर


हँस रहे दुख में अधर, तो
अश्रु की अवहेलना है,
आह! कैसी वेदना है।

कल्पना की कल्प कंचन कामिनी की कह कथाएँ,
नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।
मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,
मोह-मिथ्या की मुखरता बस कलुषता भर रही है।

द्वंद्व के अंतःकरण में
लुप्त होती चेतना है।
आह! कैसी वेदना है।

वेद मंत्रों का अनाविल स्वर सकल में घोल देगी?
आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?
प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।
स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।

मूँद कर अपने नयन अब
मीन के दृग भेदना है।
आह! कैसी वेदना है।

त्यता सद्भावनाओं, का सतत अतिरेक होगा,
या कि निर्मल नैन जल से, नेह का अभिषेक होगा।
मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,
यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।

बैठ कर उत्तुंग पर, अब
मुक्ति की अन्वेषणा है
आह! कैसी वेदना है।
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2. तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो


तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो,
करो अब अनुगमन है।
यह मिलन, अंतिम मिलन है!

किस तरह की भेंट यह, अलगाव देकर जा रही है!
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।

स्वप्न की मृत देह पर से,
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!

जब कि पहनाने अँगूठी हाथ माँगोगे कभी तुम।
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा 'कुशा' की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली 'दूब' की पायल पहनकर नाचती थी।

एक मन से ही किसी का,
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।

क्या हुआ जो दे न पाए प्रेम, ये ही सोच लेंगे।
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम, दुख मनाकर क्या मिलेगा?

सोचना क्या, यह बिछड़ना,
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
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3. श्रांति रण में


श्रांति रण में धैर्य के धनु-बाण
त्यागोगे धनंजय!
हार मानोगे धनंजय?

वे भला भयभीत जिनके सामने हर भय झुका है।
वे जिन्होंने 'भाग्य' के आगे सदा 'भुजबल' रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में 'दीप' धरकर 'भानु' का भ्रम तोड़ते हों।

आज! हो निष्क्रिय स्वयं पर,
प्रश्न दागोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?

खिन्नता के सिंधु में मन व्यर्थ ही इतना प्लवित है!
'आधि' में रहकर बढ़ावा 'व्याधि' को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?

बाद क्या अनुयायियों को,
मुख दिखाओगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?

हे परंतप! जाग निज सामर्थ्य को पहचान लेना।
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के 'पर' पर निशाना साध लेना।

जिस समय धर्मार्थ प्रत्यंचा,
चढ़ाओगे धनंजय,
जीत जाओगे धनंजय!
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4. ब्याह कर मुझको, दिया


ब्याह कर मुझको, दिया
सुंदर, नवल परिवेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!

द्वार-तक कर दो विदा तुम, अंक में अपने उठाए।
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।

यह नियति है, कष्ट का,
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!

दूर क्या, नजदीक जाने से अकेले, रोकते थे!
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।

किसलिए ये रख रहे हो,
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!

हो नहीं, कृशकाय चिंता में, स्वयं का ध्यान रखना!
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।

भेजते रहना कुशल-मंगल,
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
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5. ओ युवाओं!


ओ युवाओं! प्राण अक्षय,मर्त्य मृत्युंजय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

ज़िंदगी मृदु-भावनाओं में सहज निष्णात होना।
प्रेम की आराधना के प्रति विनय-प्रणिपात होना।
ये मुखर आनंदमय अनुरक्ति की उत्सर्जना है।
मौन यदि अन्याय पर,असुरारि-सुर की भर्त्सना है।
वह नहीं जीवन कि कुंदन-आँच से परिचय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

हर्ष होना चाहिए अवसाद में क्यों हो रहे हो?
साधना के शुभ-समय में भोग में यदि खो रहे हो।
मोह-माया-मोहिनी की रीति आकर्षित करेंगी।
तामसी दुष्वृत्तियाँ हैं सर्वदा विचलित करेंगी।
किंतु इनके अनुसरण की यह यथोचित-वय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

छोड़ जठरानल अभी हे शूर दावानल बुझा लो!
पुण्य-पथ पर पग बढ़ाओ हाथ गंगाजल उठा लो।
खोल लो अब चक्षु अपने बाहुओं में जोश भर लो।
घृणित-कलुषित कृत्य के अवितत समर उद्घोष कर लो।
फिर सुनिश्चित है विजय संघर्ष में, संशय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
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इति शिवहरे 















इति शिवहरे का जन्म 2002 औरैया, उत्तर प्रदेश में हुआ। कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं कई मंचों और चैनलों पर भी उन्होंने काव्य पाठ किया। उनकी कुछ रचनाओं को संगीतबद्ध भी किया जा चुका है।

बुधवार, 20 अगस्त 2025

पराग पावन

 1.पंजे भर ज़मीन 


इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
बलात्कार करने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर और अल्लाह के पसरने की भी जगह है
मगर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है इस धरती के पास

जब भी मैं तुमसे मिलने आता हूँ
भईया की दहेजुआ बाइक लेकर
सभ्यताएँ उखाड़ ले जाती हैं उसका
स्पार्क प्लग

संस्कृतियाँ पंचर कर जाती हैं उसके टायर
धर्म फोड़ जाता है उसकी हेडलाइट
वेद की ऋचाएँ मुख़बिरी कर देती हैं
तुम्हारे गाँव में
और लाल मिरजई बाँधे रामायण तलब करता है
मुझे इतिहास की अदालत में

मैं चीख़ना चाहता हूँ कि
देवताओं को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गई वह ज़मीन
जिस पर दो जोड़ी पैर टिका सकते थे
अपना क़स्बाई प्यार

मैं चीख़ना चाहता हूँ कि
धर्मग्रंथों को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गए वे पन्ने
जिन पर दर्ज किया जा सकता था प्रेम का ककहरा

मैं चीख़ना चाहता हूँ
कि लथेड़ते हुए खींचकर लाया जाए
पीर और पुरोहित को और पूछा जाए
कि क्या हुआ उन सूक्तियों का
जो दो दिलों के महकते भाप से उपजी थीं

मेरे बरअक्स तलब किया जाना चाहिए इन सभी को
और तजवीज़ से पहले बहसें देवताओं पर होनी चाहिए
पीर और पुरोहित पर होनी चाहिए
आप देखेंगें कि देवता बहस पसंद नहीं करते

मैंने तो फ़ोन पर कह दिया है अपनी प्रेमिका से
कि तुम चाँद पर सूत कातती बुढ़िया बन जाओ
और मैं अपनी लोक-कथाओं का कोई बूढ़ा बन जाता हूँ

सदियों पार जब बम और बलात्कार से
बच जाएगी पीढ़ा भर मुक़द्दस ज़मीन
तब तुम उतर आना चाँद से
मैं निकल आऊँगा कथाओं से

तब झूमकर भेंटना मुझे इस तरह कि
‘मा निषाद’ की करकन लिए हुए
सिरज उठे कोई वाल्मीकि का वंशज

अभी तो इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर के पसरने की भी जगह है
पर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है

इस धरती के पास।
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2. जंगल में मोर नाचा किसने देखा


किसी ने नहीं देखा जंगल में मोर को नाचते हुए
तो उसका नृत्य अप्रामाणिक नहीं हो जाता

उसकी कला मात्र इसलिए संदिग्ध नहीं हो जाती
कि उसने प्रदर्शन नहीं किया
आपकी अनुमति और मशविरे की प्रतीक्षा किए बग़ैर
वह नाच उठा

पुरस्कृत होने की भ्रष्टाकांक्षा
आलोचित होने के भय
या उपेक्षित होने के दुख से बहुत दूर
मोर सिर्फ़ इसलिए नाचा
कि उसकी आत्मा का आदिम उत्सव
उसके पैरों को बाँध नहीं पा रहा  था

एक भीतरी हलचल ने स्थिर न रहने दिया
नाचना और इसलिए कला भी
सबसे पहले इस दुनिया की अपूर्णता के विरुद्ध
एक ऐलान है

तो कहिए कि मोर अपनी अपूर्ण दुनिया के लिए नाचा
आपके विशिष्टताबोध से पैदा
वैधता प्रदान करने की ऐतिहासिक आदतों
और स्वतःधारित अधिकारों के ख़िलाफ़
मोर शायद जंगल के लिए नाचा

युग बीत जाते हैं
आप न मुहावरे बदलते हैं न उनका आशय
तो एक दिन जंगल, मोर और नृत्य
एक व्यंग्यात्मक मुस्कान में कहते हुए पाए जाते हैं
कि आपका जानना बाक़ी है

जंगल के बारे में
मोर के बारे में
नृत्य के बारे में।
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3.असली हत्यारे


असली हत्यारे बंदूक़ की असमर्थताओं को जानते हैं
वे पहचानते हैं तलवार की सीमाओं को

असली हत्यारे शब्दों से क़त्ल का काम लेते हैं
असली हत्यारे परिणाम में नहीं प्रक्रिया में शामिल हैं

वे मरघट के मुहाने पर संभोग के गीत बेच रहे हैं
भीषण बारिश के मौसम में
छतरियों को बदनाम कर रहे हैं

असली हत्यारे महफ़िल के केंद्र में बैठे हुए
महफ़िल के केंद्र को गाली दे रहे हैं 
कि महफ़िल का केंद्र सलामत रहे 
उनकी परंपरा के लिए

चाक़ू की निंदा करने का काम
और कच्चे लोहे की दुकान खोलने का काम
वे समान भोली मुस्कान के साथ करते चले जा रहे हैं

असली हत्यारे आपकी बग़ल में खड़े होकर चाय पी रहे हैं
और चाय के ख़ून से महँगा होने की शिकायत कर रहे हैं

असली हत्यारों की उम्र हज़ार साल है
वे धर्मग्रंथों की ओट में बैठे हैं
वे आत्मा नहीं आत्मा की परिभाषा हैं

हवा उन्हें सुखा नहीं सकती
आग जला नहीं सकती
पानी भिगो नहीं सकता

असली हत्यारे पुस्तकालय जाते हैं
संसद जाते हैं
दोस्त की दावत और टेलीविज़न से लौटते हैं
और सो जाते हैं

असली हत्यारे सोने से पहले याद दिलाना नहीं भूलते
कि सब कुछ अच्छा चल रहा है
असली हत्यारे बाँस बोते हैं
उस बाँस से सबसे उम्दा क़िस्म की लाठी
और सबसे निकृष्ट क़िस्म की बाँसुरी बनाते हैं

असली हत्यारों की शिनाख़्त करनी हो
तो उपसंहार तक कभी मत जाना
असली हत्यारे भूमिका में अपना काम कर चुके होते हैं।
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4. तारों भरे आंचल को परसों तक नहीं जलाना चाहिए


हताशाओं और नाउम्मीदी का 
महासागर हमेशा डरावना होता है
फिर भी हौसले का लंगर 
सफ़र पर निकल ही जाता है

पराजय की शाम तानाशाहों की हँसी जितनी 
घृणित और क़ातिल होती है
पर जज़्बातों के पंछी अपने 
मंगलगीत कभी नहीं भूलते

यह भी समझ ही लेना चाहिए कि
जब तक हमारा घर शून्य नहीं है
या जब तक हम निर्वात के नागरिक नहीं हैं
तब तक 'व्यक्तिगत' हिंदी शब्दकोश का व्यर्थतम शब्द है

कहा नहीं जा सकता कि प्रेमिका की बेवफ़ाई का दुःख
प्रधानमंत्री के नैतिक पतन का दुःख
और पट्टीदार से पुश्तैनी पेड़ के विवाद का दुःख
तत्वतः किस तरह अलग है

दुःख की यही आदत है
वह आने के मामूली अवसर 
को भी गँवाना नहीं जानता
दुःख के आने के हज़ार तर्क हैं
और जीवन उन तर्कों में सर्वश्रेष्ठ है

पर जैसा कि मैंने ऊपर कहा
मुश्किलों के भेड़ियों की गुर्राहट
इंसान के पसीने तक पहुँचने से पहले ही
थक कर सो जाती है

जिस दर पर दुनिया वाले रास्तों को दफ़ना देते हैं
वहीं एक रास्ता पैदा होता है और 
इंसान की अँगुली पकड़कर 
श्मशान से बाहर ले जाता है

कहने वाले कहते हैं 
चाँद पर महज़ मिट्टी है 
और सभी तारों पर कमोबेश ऐसा ही है

पर कुछ लोग अब भी 
तारों से एक आँचल बना रहे हैं
वे लोग उस तारों भरे 
आँचल को परसों तक नहीं जलाएँगे।
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5. आत्महत्याओं का स्थगन 


अपने वक़्त की असहनीय कारगुज़ारियों पर
शिकायतों का पत्थर फेंककर
मृत्यु के निमंत्रण को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता

हम दुनिया को
इतने ख़तरनाक हाथों में नहीं छोड़ सकते
हमें अपनी-अपनी आत्महत्याएँ स्थगित कर देनी चाहिए।
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पराग पावन 
















पराग पावन का जन्म 1993 में उत्तर प्रदेश, जौनपुर में हुआ। वर्तमान समय में पराग पावन जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय से पढ़ाई कर रहे हैं। उनकी कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंचों पर प्रकाशित होती रही हैं।
ईमेल:paragpawan577@gmail.co


 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

बलराम कांवट

1. मनहार का फूल

कई बरस पहले
नदी किनारे चलते हुए मैंने तुम्हें एक फूल दिया था
पाँच रंगों वाला
नायाब
चमकीला
बनास की घाटियों में खिला
मनहार का फूल
मैंने कहा भी था
संभालना
यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है
आज वह पूरी तरह खत्म हो चुका है मेरी गौरा
उसे ढूँढो !
ढूँढो उसको
कहाँ जाएगा
यहीं कहीं रखा होगा घर में किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने
मत पूछो किस काम आएगा बस ढूँढो
जैसे काली घटाओं,
मेघों, फुहारों और पवन, पुरवाइयों में फिर से जी उठते हैं
आकाश के नीचे सतरंगी सर्प
यह भी कभी
अनुकूल जल और वायु पाकर खोल सकता है अपनी आँख
सात ना सही
आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं
तो रखेंगे इसे सहेजकर हम
जैसे किसान रखते हैं बरसों बरस घड़ों में बीज
और करेंगे प्रतीक्षा
इसके लिए सही हवाओं, सही पानी, सही नक्षत्रों की
अगर लौटकर आए कभी धरती के दिन तो शायद इसमें भी लौटें नए प्राण
फूल से बनेंगे फूल
एक बार फिर जी उठेंगी बनास की घाटियाँ
एक बार फिर
कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही
नायाब चमकीला पचरंगा
मनहार का फूल!
मेरी गौरा उसे ढूँढो!
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2. अगले जन्म में

अंतिम बार
जिस वृक्ष के नीचे रोते हुए तुमने कहा था
कि अब अगले जन्म में मिलेंगे हम
मनुष्य नहीं
पक्षी बनकर आयेंगे
इसी धरती पर
वह वृक्ष मेरे देखते ही देखते सूख गया है
उसे देखकर
जब देखता हूँ धरती पर दूसरे वृक्षों
पक्षियों
नदियों, ऋतुओं, हवाओं को
तो लगता है
सबकुछ इसी जन्म में ख़त्म होता जा रहा है
मेरे देखते ही देखते
जब नदियाँ नहीं होंगी
मीठी ऋतुएँ और शीतल बहती हवाएँ नहीं होंगी
तो कैसे होंगे वृक्ष
जब वृक्ष नहीं होंगे तो कैसे होंगे पक्षी
जब धरती ही
नहीं होगी
तो कैसे मिलेंगे हम
अगले जन्म में!
_________________________________

3. इस घोर सूखे में


कहते हैं कभी किसी को 
प्यासा नहीं सोना चाहिए
चाहे कितनी ही गहरी
लगी हो आँख
कितना ही आलस भरा हो
तुम्हारी देह में
कितनी ही दूर रखी हो
खाट से मटकी
अगर प्यास बहुत कड़ी है
तो जरूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें जल के पास
बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते-झगड़ते 
हम भाई-बहन छत पर सोते थे
सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए माँ कहती थी
जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं
और मन मरोड़े
अलसाए पड़े रहते हैं
तो अंदर ही अंदर इतने छटपटाने लगते हैं प्राण
कि वे देह से उतरकर
बाहर दुनिया में निकल जाते हैं
जल की खोज में
वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी
कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण जल ढूँढते हुए चले गए
पड़ोस के आँगन में
एक खुले
घड़े के अंदर
तभी उस घर में
कोई उठा
और दो घूँट पानी पीकर
घड़े को ढक आया
इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए उस बुढ़िया के प्राण
सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थी
सबने मृत समझकर
रोते-सुबकते
उसकी काठी बांधी
वे शमशान में
उसे अग्नि देने ही वाले थे
कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन
और इधर
लकड़ियों को हटाती
भड़भड़ाकर
बाहर आई बुढ़िया
इस तरह जलते-जलते वापस लौटे उसकी देह तक प्राण
इस घोर सूखे में
प्यास से अधमरा
बैठा हूँ
किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए
और सोचता हूँ
अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को
तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे वे प्यास बुझाने
और जब तक लौटेंगे
अग्नि देकर
घर लौट चुके होंगे ग्रामीण
देह जलकर
राख हो चुकी होगी!
_________________________________

4. चंबल की आवाज़

चंबल की घाटियों और खेतों में
अकेले भटकते हुए
बुझी आँखों से देखते हुए
साँझ का सूरज
जब भी धरती के दुःखों के बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
कितना जटिल है जीवन
होना कितना असहनीय
जैसे किसी चीज का कोई अर्थ नहीं
जैसे सबकुछ
समझ से कोसों दूर है
ऐसे में कभी-कभी
मन करता है
कि बस! जहाँ जिस खेत में खड़ा हूँ वहीं उतार दूँ अपनी चप्पलें
और चला जाऊँ उस पगडंडी की ओर
जहाँ आगे-पीछे
एक ना एक दिन
सबको जाना है
लेकिन जैसे ही देखता हूँ
इस अनाम दिशा की ओर
सारी दिशाओं से कई आवाज़ें आती हैं बच्चों की तरह दौड़ती हुईं
और उँगली पकड़कर
मुझे थाम लेती हैं
टीलों और खाइयों में खिले
डांग के फूल मुझे मुड़कर देखते हैं
नदी किनारे सरसराते कांस की आवाज़ें
मुझसे कहती हैं
इतना भी मुश्किल नहीं है यह समझना
कि जहाँ-जहाँ पहुँचेगा जल
घास और फूल
खिलते रहेंगे पृथ्वी पर
मुझे उस मल्लाह की आवाज़ रोकती है
जो कहता है
नदी पार करना
इतना भी कठिन नहीं
इन बीहड़ों में
दूर से दिखता मुझे मेरा गाँव रोकता है
गाँव में थान पर बैठा देवता रोकता है
थान पर नाचते मोर
और खेलती गिलहरियाँ
रोकती हैं मुझे
मुझे चिरौल की टहनी पर बैठी
फाख्ता रोकती है
जब उसकी आवाज़ घुलती है पास ही भैंस चराती किसी गूजरी के गीत से
तो उसका गीत मुझे रोकता है
जो कहता है
बहुत सुंदर है पृथ्वी पर फाख्ता की आवाज़
इतना सुख बहुत है
यहाँ ठहरने के लिए
होने के लिए
इतना मतलब बहुत है
मुझे वापस अपनी गोद में बुलाती है
यह कलकल बहती
नदी चंबल
यह कहते हुए कि कहाँ जाएगा मुझे अकेला छोड़कर
मैं तो तब से इस दुनिया से अपशब्द सुन रही हूँ जब मैं एक बूँद हुआ करती थी
कितनी तलवारें
कितनी गोलियाँ
फिर भी जीवन को जल देती हुई
टिकी हुई हूँ
अब भी धरती पर
इस तरह आकाश की ओर जाती उस पगडंडी की ओर जाने से
मुझे धरती पर बहती
एक नदी रोकती है!
_________________________________

बलराम कांवट














बलराम कावंट का जन्म राजस्थान में गंगापुर सिटी के गाँव टोकसी में हुआ। इन्होंने जयपुर, दिल्ली और पुणे से पढ़ाई पूर्ण की तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से विशाल भारद्वाज की फिल्मों पर पीएचडी भी की। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। इनका उपन्यास 'मोरीला' भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित है।
 

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