बुधवार, 2 अप्रैल 2025

जावेद आलम ख़ान

 

1. हजारों ख्वाहिशें ऐसी


ऐसा होता कि मैं होता, तुम होती और बियाबां होता
पास में नदी होती तारों जड़ा आसमां होता
हमारे पास एक हँसिया होता
एक दरांती एक हथौड़ा बाँस की पतली-सी लकड़ी होती

जिसे जरूरत के हिसाब से बकरियों को हाँक लगाने में इस्तेमाल करते
और उसके छिद्रों में अपनी साँसें भरकर 
एक सरगम को रवाना करते हवा की देह चूमने
हम प्रेम के लिए क्रांति करते क्रांति के लिए प्रेम
चिड़ियों की आवाज पर जागते और झींगुरों की आवाज़ पर सो जाते

एक फूस की झोपड़ी होती और जामुन के कुछ दरख़्त
कुछ फूल होते कुछ फसलें कुछ कहानियाँ 
लकड़ियाँ सिर्फ इतनी होती जिनके अलाव में
आटे की गीली देह को तपाकर रोटियाँ बनाई जाती
पानी का कोई सोता होता और चार गगरिया 
हम हँसते और इतना हँसते
कि इतिहास के खंडहर बर्फ के पहाड़ों में तब्दील हो जाते

खानाबदोश पैरों में ठहर जाते अनथक यात्राओं के स्वप्न
शहरों की चकाचौंध मोटरों की चिल्लपों से दूर
साहित्य की कुछ किताबें होतीं
भित्तिचित्र वाली गुफाएँ होतीं
झरने हवा नदी पंछियों के साथ बहता आदिम संगीत होता


प्यार का चेहरा न होता
काश ऐसा होता
मैं होता
तुम होती
बियाबां होता
ख्वाबों पे पहरा न होता
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2. बेवजह 


अगर देह में स्नेह हो
तो बाँहें फैलाकर लिपटा जा सकता है हवा से भी
पोरों को भिगोकर नदी को उतारा जा सकता है अपने भीतर
बंद गुफा में मुखातिब हो सकते हैं अपनी ही साँसों से
अधैर्य होकर नाप सकते है कोई पहाड़ी दुर्ग
हल कर सकते है कई गैरजरूरी मसअले

कारण कार्य संबंध निभाती दुनिया में
बेकार भी करना चाहिए कभी कोई कार्य
बेसबब भी मुस्कुरा देना चाहिए किसी को देखकर
बेवजह किसी को प्यार तो कर ही लेना चाहिए
अनियोजित यात्राओं का अपना आनंद है

अनायास उपजी कविताओं की अपनी पुलक
प्रदर्शन से नकली हो जाता है संगीत
बड़प्पन में कुरूप हो जाती है कविता
फोटो के लिए बनावटी हो जाती है मुस्कान
मक़सद आने पर हल्का हो जाता है प्यार
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3. गुलमोहर 


गुलमोहर की फुनगियों पर

पीत पुष्पों का गझिन विस्तार
एक जोड़ा बुलबुलों का फासले से बैठकर
देखता है तितलियों को चूमते फूलों के गुच्छे
हो रहा चुपचाप

संक्रमण सौंदर्य का इस पात से उस पात
बालकनी में खड़े होकर सोच रहा हूँ 
कि धरती पर इतने फूल होते हुए भी

दुनिया इतनी उदास क्यों है
जबकि एक गुलमोहर को देखकर
तमाम दुख चाय के घूंटों में पिया जा सकता है।
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3. अनुर्वर 


बीज है, बसंत है, बाँसुरी है
मिट्टी है, महक है, मंजरी है
प्यार है, प्यास है, पानी है, पावस है

दिल है, दर्द है, दरिया है, दरख़्त है
फूल है, फल हैं, फसल है, फसाने हैं
नग है, नगर है, नज़र है, नज़ारे हैं

पर धुंध है कि छंटती ही नहीं
अमर बेल जैसी फैल गई है अनुर्वरता की रुत
यह उदासी नहीं कवि की हताशा का समय है

कि कागज है
कलम है
कीबोर्ड है
कविता नहीं है
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4. वे दिन 


यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
हम नहीं जानते थे
नया सूरज दिन बदलेगा या तारीख 
सफेद चादर ओढ़कर निकलेगा या कोहरे को चीरकर
भात-भात करता आदमी
भूख से मरता है या भोजन की अधिकता से

संसदीय मुबाहिसों से बेखबर
ग्रेजुएशन के आखिरी साल की पीढ़ी
दिन रात छाए धुंधलके से हैरान थी
मधुमक्खियों के हुनर से बेखबर

कुछ लोग थे जो फूलों से इत्र बनाना चाहते थे
खुशबुओं को शीशी-कैद देने की उनकी सनक में
फूल, चंदन, जंगल सब खौफ़ज़दा थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
क्षितिज के सूरज पर काला रंग चढ़ रहा था
उसकी गुलाबियत पैमानों में उतर आई थी

यह शिकारियों की आँखो में चमकती खुशी के दिन थे
यह अमराइयों और महुओं की खुदकुशी के दिन थे
ब्याहता ऋतुओं की नाउम्मीदी बूढ़े मौसमों की बाईस-ए फ़िक्र थी

बचपन खेल के मैदानों के साथ चौहद्दी में सिमट रहा था
प्रेम कबूतरों के पंजों से निकलकर इंटरनेट पर उड़ना सीख रहा था
बासी होने के आरोप में कविता से बेदखल हुए कमल
चेहरों और तालाबों में अपनी उदासी छोड़ गए थे
रोशनी की चंद किरचों में ख़्वाब जमा थे और क़तरों में आसमान

यात्राएँ नींद के पैरों पर चल रही थीं
प्रेम नई पीढ़ी की प्रतीक्षा में स्थगित था
दूब पर फैली पीली उदासी से हताश

कोटरों में बंद बेरोजगार परिंदों के मौन में डूबी
दिसंबर के आसमान में छाई ऊब ढोने के दिन थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे

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जावेद आलम ख़ान 

 












जावेद आलम ख़ान का जन्म शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश में हुआ। हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, गगनांचल, परिंदे, कृति बहुमत, सदानीरा, हिंदवी, कविताकोश, पोशम पा, पहली बार, सेतु, कृत्या आदि आदि पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। 'स्याह वक्त की इबारतें', कविता संग्रह तथा 'बारहवाँ युवा द्वादश' में जावेद आलम ख़ान की कविताएँ संकलित हैं।
ईमेल-javedaoamkhan1980@gmail.com

जानकीपुल का साभार!
 


बुधवार, 19 मार्च 2025

एकता वर्मा

 1. नमक


जिनके लिए कहा गया था
मज़दूरी पसीना सूखने से पहले मिल जानी चाहिए,
समंदर उनके पसीने से बने हैं।

घर की रसोई में
उसी समंदर का
डब्बा बंद नमक रखा है।

सभ्यताओं के आरंभ में
निर्वासित समंदरों की यह सांद्र खेप
संस्कृति की रोटी पर
चुटकियों से बुरककर खायी जा रही है
अपने-अपने स्वादानुसार।
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2. सारकेगुड़ा


बुधिया महुवा की छाल पर गीली मिट्टी लेस रही है।
उसमें गोलियों के कई सूराख हैं।

वह ऐसा इसलिए नहीं कर रही कि उसके घर के दो जने;
उसका पति और बेटा
छाती और कनपटी में हुए ऐसे ही सूराख से मारे गए हैं

वह ऐसा कर रही है क्योंकि
उस अकेले पेड़ ने
उसके घर की तीन पीढ़ियों को पाला था
और अब उसकी बारी थी।
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 3. लोहा


शहर के स्त्री रोग विभाग के बाहर
औरतों की लंबी क़तार है।

डॉक्टर खून जाँचती है,
देती है सबको
-आयरन की गोलियाँ।

समझ से परे है,
शहर भर की इन औरतों के खून का लोहा
आख़िर कहाँ चला गया?
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 4. रोटियाँ


रोटियों की स्मृतियों में आँच की कहानियाँ गमकती हैं।

अम्मा बताती हैं,
सेसौरी के ईंधन पर चिपचिपाई सी फूलती हैं रोटियाँ
सौंफ़ला पर सिंकी रोटियाँ धुँवाई; पकती हैं चटक-चटक
नीम के ईंधन पर कसैली सी, करुवाती हैं रोटियाँ
पर, अरहर की जलावन पर पकती हैं भीतर-बाहर बराबर।

अम्मा का मानना है, शहर रोटियों के स्वाद नहीं जानते
स्टोव की रोटियों में महकती है किरोसिन की भाप
और ग़ैस पर तो पकती हैं, कचाती, बेस्वाद, बेकाम रोटियाँ।

रोटियों की इन सोंधाती क़िस्सागोई के बीचों-बीच
मेरे सीने पर धक्क से गिरता है एक सवाल
सवाल कि –
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी?

गाजा की रोटी कैसी महकती होगी,
जिसे सेंक रही हैं बुर्कानशीं औरतें ध्वस्त इमारत के बीचों-बीच
उन्हीं इमारतों का फ़र्नीचर जलाकर।

क्या गाज़ा की रोटियों में महकता होगा खून
अजवाइन की तरह बीच-बीच में
कि राशन के कैंप में,
रक्तरंजित लाशों बीच से खींचकर लायी जाती हैं आँटे की बोरियाँ

क्या किसी कौर में किसक जाती होगी कोई चिरपरिचित ‘आह’
कि चूल्हे के ठीक नीचे, मलबे की तलहटी में
दफ़्न हो गए उस परिवार के सात लोग एक ही साथ

इन रोटियों को निगलते हुए गले में अटकता होगा
उन किताबों का अलिफ़,
गृहस्थी की सबसे व्यर्थ सामग्री की तरह
जिन्हें सुहूर की दाल बनाने में चूल्हे में झोंक दिया गया

क्या गाज़ा की रोटियाँ
कचाती सी,
तालु में चिपकती होंगी
कि पूरा देश जल जाने बावजूद
दुनिया देखती है फ़िलिस्तीन की तरफ़, अब भी बहुत ठंडी, सूखी आँखों से।
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 5. मृत्यु के चरण


रात के 2:30 बजे हैं।
आसमान के कोने आगज़नी की रौशनी में लपक रहे हैं।

अल-अक्शा अस्पताल के शीशों पर
खून से उठी भाप
जमा होकर धीरे-धीरे टपक रही है।

एक बहुत छोटी बच्ची है,
जिसके रूई जैसे गाल, लपट से छूकर
रूई की तरह ही झुलसकर ग़ायब हो गये हैं।
भीतर के जबड़े झांक रहे हैं,
उनमें अभी पूरे दांत नहीं उगे हैं।
ज़रूर वह बोलती होगी, तब तुतलाती होगी।
अभी मर्मांतक कराह में काँप रही है।

डॉक्टर अब उसका इलाज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उसका मरना तय है।
लेकिन सिर्फ़ मरना उसकी नियति नहीं है
उसको पीड़ा के अनंत नरकों से गुज़रकर, फिर मरना है।

अस्पताल में मॉर्फ़िन नहीं है
या जो है भी, उसे मरते हुए आदमी पर खर्च नहीं किया जा सकता।
किंतु, यह नियति भी उसका अंत नहीं है!

उसको मरने में जितना समय लगेगा
उस समय के लिए उसको रखने की कोई जगह शेष नहीं बची है
न घर, न पड़ोस, न जबलिया, न फ़िलिस्तीन, न दुनिया, कब्र में भी अभी नहीं।

इसलिए
लाल, हरे, सफ़ेद, काले रंग के चीथड़ों में लिपटी
वह रूई से गालों वाली, तोतली बोली वाली सद्यःअनाथ बच्ची
मरने तक के लिए इमरजेंसी वार्ड के फ़र्श पर रख दी गई है।
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 6. समाज उन्हें मर्दाना कहता है।


जो राजाओं के युद्ध से लौटने का इंतज़ार नहीं करतीं
उनके पीछे जौहर नहीं करतीं,
बल्कि निकलती हैं संतान को पीठ पर बांधकर,
तलवार खींचकर रणभूमि में

समाज उन्हें मर्दाना कहता है!

जो थाली में छोड़ी गई जूठन से संतोष नहीं धरतीं
जो अपनी हथेलियों से दरेरकर तोड़ देती हैं भूख के जबड़े
जो खाती हैं घर के मर्दों से ड्यौढ़ी खुराक
और पीती हैं लोटा भर पानी

समाज उन्हें मर्दाना कहता है।

जिनके व्यक्तित्व में स्त्रियोचित व्यवहार की बड़ी कमी होती है
जिनकी चाल में सिखाई गई सौम्यता नहीं है,
स्त्रीत्व नहीं, बल्कि गुरुत्व के अनुकूल
जो धमककर चलती हैं, टाँगे खोलकर; पसरकर बैठती हैं

जिनके खून की गर्मी सारे षड्यंत्रों के बावजूद शेष है

समाज उन्हें मर्दाना कहता है।

जो गरज सकती हैं, क्रोध में बरस सकती हैं
आशंकाओं से निश्चिंत
जो अपनी जंघाओं पर ताव देकर खुले आम चुनौती दे सकती हैं
भरी सभा मूछे ऐंठ सकती हैं
मूछदार बेटियाँ जन सकती हैं

समाज उन्हें मर्दाना ही कहता है।

वे, मर्दानगी के खूँटे में बंधी सत्ता को
उसके नुकीले सींघों से पकड़कर दुहती हैं

घर की इकलौती कमाऊ लड़कियों से लेकर
प्रदेश की मुख्यमंत्री
अथवा देश की प्रधानमंत्री तक
वे सभी औरतें, जो नायिकाओं की तरह सापेक्षता में नहीं,
अपितु एक नायक की भाँति जीती हैं केंद्रीय भूमिकाओं में।

यह समाज, यह देश मर्दाना ही कहता है।

इसलिए प्राची, तुम्हें जब यही समाज
मर्दाना कहे,
तो तुम गर्व से मुस्कुराना।
तुम अपनी कॉपी में स्त्रीत्व को बहुत सुंदर, नए ढंग से लिख रही हो।
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एकता वर्मा


 







एकता वर्मा, जन्म: 24 अप्रैल 1996
हरदोई, उत्तर प्रदेश से। वर्तमान में CWDS (Centre for Women Development Studies) में 'चाँद' पत्रिका पर शोधरत। दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘विश्व साहित्य की अवधारणा और ‘वर्ल्ड लिटरेचर टुडे’ पत्रिका में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन’ विषय पर शोध कार्य। सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों में विशेष रुचि एवं उन पर लिखीं रिपोर्ट ‘न्यूज़क्लिक’, ‘मीडिया विजिल’ आदि में प्रकाशित। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका TMYS review के ‘आदिवासी विशेषांक’ जून 23 अंक में अनूदित कविताएँ प्रकाशित। कई पत्रिकाओं में शोध-आलेखों का प्रकाशन। ‘रमा मेहता स्मृति लेखन पुरस्कार 2024’ से सम्मानित। नई धारा, नई आवाज़ें 2024 से सम्मानित। 
संपर्क : ektadrc@gmail.com एवं everma.edu@gmail.com








बुधवार, 12 मार्च 2025

अनुजीत इक़बाल

1. नया राग


आखिर एक दिन वह क्षण भी आएगा
जब तुम, समय की देहरी पर खड़े
स्वयं को निहारोगे और
स्वयं का ही अभिवादन करोगे

संध्या के अस्त होते आलोक में
जब आकाश गोधूली रंगों से भर जाएगा 
और दूर मंदिर की घंटियाँ 
किसी भूले-बिसरे स्वर को जाग्रत करेंगी
तुम खुद को कहोगे, “आओ, विश्राम करो अब, बहुत हुआ...”

राग यमन की मधुरता में डूबा क्षितिज
धीमे-धीमे तुम्हें अपनी बाँहों में समेटने लगेगा
सप्तक के मध्यम सुर पर थिरकते सरोद और सितार की ध्वनियाँ
तुम्हारे मन के रिक्त कोनों को भरने लगेंगी

तुम अपनी उस विलुप्त छवि को आलिंगन दोगे
जो अनवरत तुम्हारे साथ चली
पर तुमने उसे कभी अपना नहीं माना
तुम उसके हाथ में धरोगे वह सारा प्रेम
जिसे तुम लोगों को अर्पित करते-करते
स्वयं रिक्त हो गए थे...
और वह छवि प्रतीक्षा करती रही
राग अहीर भैरव की तरह
जो भोर में फिर से स्वर पा सके…

अब, वह राग फिर से लौटेगा
राग संधिप्रकाश, जिसे केवल संध्या जानती है

फिर तुम अपने हृदय से झरने दोगे
वह समस्त विषाद, वे अवसन्न स्वर
वे विफल स्वप्न
जो आजीवन शोकगीत बने रहे
और तब, झंकार उठेगी
रात्रि के गंभीर आकाश में, राग मालकौंस की

रुद्रवीणा की कंपन भरी ध्वनि
जब रात्रि के प्रथम प्रहर में घुल जाएगी
और पखावज की थाप गूंजेगी
तब तुम अपनी ही धुन में खो जाओगे

और स्वयं का मंगल गान करते हुए  
रचोगे एक नया राग
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2. कामना


युगों से अभिशप्त 
मेरे स्वछंद हृदय की कामना
विस्थापित हो सूर्य हुई
जिसकी ऊष्मा से
मेरे समस्त दुश्चरित्र स्वप्नों के बीज
अंतहीन विस्तार पा गए
और तुम्हारे मौन प्रेम के जल से
रक्त पुष्प प्रस्फुटित हुए

मेरे बोधिसत्व प्रेम
तुम आना अपने स्फुट उत्कर्ष में
मेरे ऊर्जा केंद्र जाग्रत करने

मैं चाहती हूँ तुम अपने ईश्वर को नकार दो
और मेरे उन्माद को विक्षिप्तता में बदल दो
जैसे प्रकृति अनगढ़ मौन में
निर्माण को विध्वंस में बदल देती है
और फिर आता है
परम स्थैर्य

तुम्हारे हाथ के कंपन 
मेरी अबूझ, अदेह भाषा समझते हैं
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3. वचन


हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भांति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूँ 

गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर


तुम्हारी समस्त इंद्रियाँ 
हिमखंड की भांति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए 
प्रक्षालन करना चाहती हूँ 
तुम्हारी सघन जटाओं का

मोक्ष के लिए 
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए

वचन देती हूँ 
वो दिन अवश्य आएगा
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4. पैंडोरा बॉक्स 


मन की अतल गहराइयों में
एक बक्सा पड़ा है
बंद, जर्जर, धूल से ढका
पर भीतर…
आवाज़ें गूंजती हैं

सपनों के छिन्न अवशेष
कुछ रक्तरंजित यथार्थ 
कुछ घाव, जो स्पर्श मात्र से
रिसने लगते हैं 

यह बक्सा खुलते ही
हवाओं में घुल जाएगा
विष का पुराना स्वाद
रातें फिर से डरावनी हो जाएंगी 

फिर भी
कब तक सिसकियों को 
चुप रहने का आदेश दिया जाए 
कब तक तड़प को शब्दों से वंचित रखा जाए
कब तक मौन के आवरण में
घावों को सड़ने दिया जाए

आज नहीं तो कल
इस पैंडोरा के बक्से को खोलना ही होगा

और फिर समय
एक निर्दयी वैद्य की भाँति
किसी दिन संधान करके 
विष की गाँठ खोल देगा

और हम...
अग्निस्नान करके 
निर्बंध, मुक्त, निर्वसन
पुनः जन्मेंगे
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5. मायोसोटिस के फूल 


आकाश पर धूम्र-पुष्प दिखने लगे हैं 
बिखर रहे हैं जो हर जगह अव्यवस्थित 
और एक तीव्र तड़प
एक असीम विक्षोभ भरा है 
जिसे बरस कर रिक्त होना है

पहाड़ की एकाकी धूसर पाल के पीछे 
छिप गया है सूरज 
जो कर गया है खत्म दिन को
अपने सुनहरी वज्र के साथ

और अब मुझे दिखती है 
आकाश में उल्टी बहती हुई एक नदी

हरियाली रहित खड़ी चट्टानों
और सूखे अरण्यों का
उत्कट एकाकीपन है मुझ में 
उपेक्षा और अमर्ष से उन्मत्त
देवताओं से श्रापित हूँ मैं

विनम्रता से स्वीकार करने दो कि 
मायोसोटिस के रहस्यमय नीले फूल की
पीली अबाबील जैसी आँखें 
याद दिलाती हैं तुम्हारी 
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6. प्रेम


हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूँ 

तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”

थमा देना चाहती हूँ अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई 
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूँ तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”

मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूँ इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूँ 
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती” 
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर 
तीक्ष्ण प्रहार 
और होगी मेरी क्षुधा शांत


हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है


धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।
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अनुजीत इक़बाल















अनुजीत इकबाल हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती रही हैं। अनुजीत जी लखनऊ में पुस्तक मेला द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की हिंदी और कविता लेखन और अंग्रेजी कविता लेखन प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान एवं सम्मान अर्जित कर चुकी हैं। अंग्रेजी कविता के लिए इन्हें कोलंबिया से 'Antonio Machado National Universal Award' और 'Ruben Dario Award' भी प्राप्त है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा पेंटिंग,लेखन, योग के लिए 150 से अधिक सम्मान पत्र प्राप्त।'हिंदवी','स्त्री दर्पण','गृह शोभा' दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के 'स्त्रवंति', भारतीय भाषा परिषद की 'वागार्थ', 'गर्भनाल' पत्रिका, 'शुभ तारिका','जानकीपुल','पोषमपा', 'विभोम स्वर','नवभारत टाइम्स','हम हिंदुस्तानी अमेरिका', 'हिंदी अब्रॉड' कनाड','साहित्य कुंज'आदि देश-विदेश सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं।

बुधवार, 5 मार्च 2025

सुशील द्विवेदी

1.  शोर 


शोर 
सन्नाटे के विरूद्ध की गई 
क्रांति है मेरे दोस्त
तुम्हें यह क्रांति करनी होगी।
 
तुम्हारे साथ खड़े होंगे- 
ऊँचे पर्वतों को चीरती हुई हवाएँ
धरती में धँसता हुआ जलप्रपात
नदियाँ भागेंगी शोर करते हुए
सागर भी शोर मचाएंगे। 

शेर दहाड़ेंगे, हाथी चिंघाड़ेंगे 
कुत्ते भौंकेंगे, और गीदड़ भी हुआँ- हुआँ करेंगे। 
कोई चिक-चिक करेगा, कोई चीं -चीं
कोई हिन्-हिन्, कोई सीं-सीं

कोई रेंगेगा, कोई उछलेगा, कोई दौड़ेगा
कोई फुदकेगा, कोई आकाश तक उड़ेगा

लेकिन वह शोर करेगा, 
वह ज़िंदा रहेगा, तुम्हारे साथ रहेगा। 
जो कायर होगा, 
मौन रहेगा, मारा जाएगा। 
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2. दुनिया


मेरी एक दुनिया है
धूल है, शुष्क हवाएँ हैं
जहाँ कभी-कभार 
मृत पत्थर गिरते हैं बड़ी ऊँचाइयों से
जहाँ स्वप्न डरते हैं, स्वप्न होने से। 

मेरी एक और दुनिया है
जहाँ सब कुछ 
हवाओं में लटका है
स्वयं मैं भी । 

फिर एक और दुनिया है
जहाँ तुम हो, मेरे पिता हैं
जहाँ मैं महफ़ूज़ रहता हूँ

एक दिन पिता ने कहा था
कि मेरी दो आँखें हैं- 
एक तुम, दूसरी तुम्हारी भगिनी

उस दिन 
मैं पिता के कंधे तक 
बड़ा हो गया था । 
और तुम भी
सागर उर्मियों-सी पिता के
 माथे को छूने लगी थी।
 
हमारे मन में
पिता के अनेक संस्मरण हैं
और तुम उन संस्मरणों में मंदाकिनी-सी। 

कभी-कभार 
तुम पिता होती हो
और मैं तुम्हारी छाँव में खरगोश। 

हे ईश्वर ! मेरी इस दुनिया को महफ़ूज़ रखना । 
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3. सड़क


कनॉट प्लेस की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
जंतर-मंतर की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
काशी, कश्मीर, काँचीपुरम की सड़कें
तुम तक आती हैं
माना, छितकुल, गर्तांग, नीलांग
ऐसी बहुत-सी सड़कें हैं 
जो तुम तक आती हैं
किंतु एक पगडंडी है, 
जिस पर किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
उसे तुमने स्नेह से बुहारा है।

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4. गीत


घर से चला था घर ढूँढने को
ताउम्र गुजरी घर ढूँढने को। 

चला फिर, गिरा, उठा फिर, चला 
मगर घर मिला क्या घर ढूँढने को।
 
कई ख़्वाब देखे अँधेरे-उँजाले
जिन्हें देखकर मन परेशाँ हुआ है। 

कई रात अपनी ही परछाइयों ने
कभी हाथ पकड़ा, कभी हाथ छोड़ा।
 
नहीं ठौर अपना, न यहाँ कोई ठहरा 
किधर तू चला है, किसे ढूँढने को । 

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5. रंग


(१)

दुनिया में 
कई रंग हैं
रंगों के भीतर 
कई रंग हैं
तुम्हारा रंग 
कुछ भी हो सकता है
किंतु गोरा नहीं
गोरा कोई रंग नहीं होता। 

 
(२)

दुनिया
ब्लैक कैनवास पर 
खींची गई रंगीन रेखा है। 

(३)

हम रंग हैं
रंगहीन होकर
रंग भरना चाहते हैं।

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सुशील द्विवेदी















डॉ.सुशील द्विवेदी का जन्म 3 अगस्त 1995 में उत्तर प्रदेश के कौशांबी में हुआ। कवि, आलोचक और संपादक के साथ-साथ भारतीय संस्कृत में इनकी गहरी रुचि है। समय-समय पर यह हिंदी की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की भूमिका, ब्लर्ब और समीक्षाएं लिखते रहे हैं। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से रचनात्मक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी रही है। 2017 से 'हस्तांक' अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन शुरू किया। 'हस्तांक' के 'त्रिलोचन शास्त्री' और 'मध्यकालीन कविता' विशेषांक विशेष चर्चित रहे। 'अनभैं साँचा' के अतिथि संपादक (2020) के रूप में भी कार्य किया। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के फेलो भी रह चुके हैं। 'सर्जक की साधना', 'कथालोचन: समय की फ़ाँस', 'डायरी का पीला वरक', संस्कृत का समाजशास्त्र, आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 2023 में 'डायरी के पीला वरक' संग्रह के लिए इन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार' के लिए नामांकित किया गया है। 
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बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

अरुणचंद्र राय

1. मायके लौटी स्त्री


 मायके लौटी स्त्री

फिर से बच्ची बन जाती है

लौट जाती है वह 

गुड़ियों के खेल में 

दो चोटियों और 

उनमें लगे लाल रिबन के फूल में


वह उचक-उचक कर दौड़ती है

जैसे पैरों में लग गए हों पर

 घर के दीवारों को छू कर 

अपने अस्तित्व का करती है एहसास

मायके लौटी स्त्री। 


मायके लौटी स्त्री

वह सब खा लेना चाहती है

जिनका स्वाद भूल चुकी थी

जीवन की आपाधापी में 

घूम आती है अड़ोस-पड़ोस

ढूंढ आती है

पुराने लोग, सखी सहेली

अनायास ही मुस्कुरा उठती है

मायके लौटी स्त्री। 


मायके लौटी स्त्री

दरअसल मायके नहीं आती

बल्कि समय के पहिए को रोककर वह

अपने अतीत को जी लेती है

फिर से एक बार। 


मायके लौटी स्त्री

भूल जाती है 

राग-द्वेष

दुख-सुख

क्लेश-कांत

पानी हो जाती है

किसी नदी की । 


हे ईश्वर ! 

छीन लेना 

फूलों से रंग और गंध

लेकिन मत छीनना कभी 

किसी स्त्री से उसका मायका।
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2. फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य


सौंदर्य की गढ़ी हुई परिभाषों से इतर 

एक अलग सौंदर्य होता है 

फटी हुई एड़ियों में 

फटी एड़ियों वाली स्त्री में !


वह सौंदर्य साम्राज्ञी नहीं होती 

उसके चेहरे पर नहीं दमकता 

ओढ़ा हुआ ज्ञान 

या लेपी हुई चिकनाहट 

वे अनगढ़ होती हैं 

जंगल के पुटुश के फूल की तरह 

मजबूत है, चमकदार भी

हाँ, छुईमुई भी । 


फटी एड़ियों वाली स्त्री के हाथ भी 

होते हैं अमूमन खुरदुरे

नाखून होते हैं घिसे 

जिस पर महीनों पहले चढ़ा नेलपेंट 

उखड़ चुका होता है 

उसकी उँगलियों में भी दिखती है दरारें 

जो सर्दियों में अक्सर बढ़ जाती है 

लेकिन वह इसकी फिक्र ही कहाँ करती 

या फिर कर ही नहीं पाती


फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य 

दिखता है

शहर के चमचमाते बिजनेस या दफ्तर परिसर में

सफाई कर रही स्त्रियों में 

कहीं दूर गाँवो में धान काट रही स्त्रियॉं में 

गेंहूँ बोती हुई गीत गाती स्त्रियॉं में 

शहरी मोहल्लों में सड़क बुहारती स्त्रियॉं में 

या फिर गोद में बच्चे को उठाये बोझ उठाती मजदूर स्त्रियॉं में 

हाँ, सुबह-सुबह लगभग दौड़ कर 

फैक्ट्री पहुँचती स्त्रियॉं की एड़ियाँ भी फटी पायी जाती हैं!


फटी हुई एड़ियाँ  नहीं है 

कोई हँसने या अफसोस जताने वाली बात 

यह श्रम का प्रतीक है 

यह स्वावलंबन और सम्मान  का प्रतीक है 

 प्रतीक है स्त्रियॉं (स्त्रियों) के सशक्त होने का!


सौंदर्य की परिभाषा से अनिभिज्ञ 

फटी एड़ियों वाली स्त्री  भी 

भीगती है नेह से 

उसकी आँखों के कोर गीले हो जाते हैं जब 

फटी हुई एड़ियों को हृदय से लगा 

चूमता है उनका प्रेमी! 
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3. गोल रोटियों का भय

 
रोटियाँ गोल ही क्यों होनी चाहिए 

यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आई 

जबकि रोटियों को खाना होता है 

छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ कर 


रोटियों को गोल बेलने में 

शताब्दियों से भय जी रही औरतों ने 

क्यों नहीं उठाई आवाज़ 

यह बात भी मुझे आज तक समझ नहीं आई 

जबकि रोटियों के गोल होने या न होने से 

नहीं बदलता, न ही संवर्धित होता है उसका स्वाद 


रोटियों के गोल बेलने का दवाब

लड़कियों पर होता है शायद बचपन से 

और उतना ही कि 

उनकी नज़रें नहीं उठें ऊपर 

उनके कदम नहीं उठें इधर-उधर 


किताबों के ज्ञान से कहीं अधिक मान 

आज भी दिया गया है 

रोटियों के गोल होने को 

चाहे स्त्रियाँ उड़ा ही रही हो जहाज़, 

दे रही हो नए-नए विचार 


यहाँ तक कि कई बार स्वयं स्त्रियाँ भी 

बड़ा गर्व करती हैं अपने रोटी बेलने की कला  पर ! 

जबकि गोल रोटी को देख मुझे 

हर बार लगता है जैसे बेड़ियों में जकड़ी स्त्री खड़ी हो सामने !

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4. स्त्रियों की नींद


गृहणी स्त्रियॉं अक्सर 

सोती कम हैं 

सोते हुये भी वे 

काट रही होती हैं सब्जियाँ 

साफ कर रही होती हैं 

पालक, बथुआ, सरसों

या पीस रही होती हैं चटनी 

धनिये की, आंवले की या फिर पुदीने की । 


कभी-कभी तो वे नींद में चौंक उठती हैं 
मानो खुला रह गया 
हो गैस-चूल्हा 

या चढ़ा रह गया हो 
दूध उबलते हुए

वे आधी नींद से जागकर कई बार 
चली जाती हैं छत पर हड़बड़ी में 

या निकल जाती हैं आँगन में 

या बालकनी की तरफ भागती हैं कि सूख रहे थे 
कपड़े और बरसने लगा है बादल !


कामकाजी स्त्रियों की नींद भी 

होती है कुछ कच्ची-सी ही 

कभी वे बंद कर रही 
होती हैं नींद में 

खुले ड्रॉअर को 

तो कभी ठीक कर रही होती हैं आँचल 

सहकर्मी की नज़रों से 


स्त्रियॉं नींद में चल रही होती हैं 

कभी वे हो आती हैं मायके 

मिल आती हैं भाई-बहिन से 

माँ की गोद में सो आती हैं 

तो कभी वे बनवा आती हैं 
दो चोटी 

नींद में ही 

कई बार वे उन आँगनों में चली जाती हैं 

जहाँ जाना होता था मना 


स्त्रियों की मुस्कुराहट 

सबसे खूबसूरत होती है 

जब वे होती हैं नींद में 

कभी स्त्रियों को नींद से मत जगाना 

हो सकता है वे कर रही हों 

तुम्हारे लिए प्रार्थना ही !

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अरुणचंद्र राय















अरुणचंद्र राय जी गृह मंत्रालय में सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं।
                     अरुण जी के दो कविता संग्रह 'खिड़की से समय' और 'झारखण्ड एक्सप्रेस' पाठकों के बीच आ चुके हैं।


राकी गर्ग


1. पेड़ हो जाना


कभी लौटना 

तो देखना

वहाँ उग आया है

एक पेड़

पर फूल नहीं आते उसमें

आती है सिर्फ पत्तियाँ 

नहीं उठती उनसे कोई महक

वह कहती है हर उससे

जो बारिश और ताप से बचने

खड़े हो जाया करते उसके पास

प्रेम करने से पहले 

दस बार सोचना

प्रेम करना 

प्रतीक्षा करना है

अनंत काल तक

और फिर पेड़ हो जाना है।

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2. शाम का आसमान


शाम का आसमान

कुछ रंग-बिरंगा

कुछ धुँधला

कुछ स्याह

जैसे जाने की हड़बड़ी में हो

वह अपने घर

अपनी हथेलियों पर 

लौटते पक्षियों की उड़ान देख 

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3. चिड़ियाँ


चिड़ियाँ 

पहचानती हैं बिल्लियों की आहट

वह रोक देती हैं फुदकना, 

फड़फड़ाना और दाने चुगना

लैम्प पोस्ट के गहरे रंग में 

कर लेती कैमफ्लाज

बिल्ली घात लगाए 

बैठी दानों के पास

अंधेरा बढ़ा 

बिल्ली किसी 

और शिकार में आगे बढ़ी

चिड़िया फुर्र-फुर्र

चहकी चुगती दाने

लौटी घोसले में 

ज़िंदगी की लड़ाइयाँ लड़ना 

किसी पाठशाला में 

नहीं सिखाया जाता 

इसे जीतना पड़ता है 

अपनी उड़ान के लिए 

आसमान के लिए 

चिडियाँ हमसे कितना 

बेहतर जानती हैं।

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4. दरवाज़े 


घर में बहुत से दरवाजे थे,

कुछ लकड़ी के

कुछ जाली के

और कुछ पारदर्शी

कुछ से छनकर आती थी रोशनी

और कुछ से आती थी हवा

जिनकी ओट से 

हम देख सकते थे

एक-दूसरे को बिना छुए,

सिर्फ दूर से

भीतर तक भीगते हुए

धीरे-धीरे सारे दरवाजे 

 बंद होते गए

और चुनती गई दीवारें

अब कोई दरवाज़ा नहीं बचा

तुम्हारी ओर खुलने के लिए

बची हैं सिर्फ दीवारें 

जिन पर बनाने लगे हैं

दीमक और मकड़ियाँ 

अपने-अपने घर

जब सांस लेने की जगह बची न हो

और घर के बाहर खिंची हो

बहुत-सी रेखाएँ  

जो हों लक्ष्मण रेखा से भी 

अधिक खतरनाक

तब आहिस्ता-आहिस्ता

इन्हीं मकड़ी और दीमकों के साथ

जीने की आदत डालनी पड़ती है

बस, सालती है एक कसक

दरवाज़े और खिड़कियों वाले घर 

कितने खूबसूरत हुआ करते थे!

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5. अनुपस्थिति


रोज नाश्ते की टेबल पर

तुम्हारी अनुपस्थिति

पूरा करना चाहती हूँ

अखबार के कुछ पन्नों से

बार-बार नजरें ढूँढती हैं

गुमशुदा के विज्ञापनों को

शायद हो कोई विज्ञापन

तुम्हारे नाम का

पर कहीं नहीं मिलता

तुम्हारा नाम

वह, जो कभी आया ही नहीं,

उसका जाना कैसा?

कैसे हो सकता है गुमशुदा वह?

फिर भी काले अक्षरों के बीच 

ढूँढती रहती हूँ तुम्हारा नाम

प्रेम भी न जाने 

कितने भ्रमों में जीता है

प्रेम में शायद 

हर आदमी अभिमन्यु होता है

जिसे चक्रव्यूह में प्रवेश 

करना तो आता है

पर आखिरी द्वार 

तोड़ना नहीं आता

तो मैं भी कह सकती थी

विदा...

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6. रिश्ते


मुझे रिश्ते संभालने नहीं आए 

पेड़-पौधों की तरह

उन्हें सींचना भी नहीं आया

पर कुछ रिश्ते

उम्र-दर-उम्र

वक़्त की चौखट पार करते गए

यकीन के साथ

कि सारी दुनिया 

जब होगी खिलाफ

हम एक-दूसरे के साथ होंगे। 

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7. तुम्हारे लिए


तुम्हारे लिए

जो सिर्फ शब्द थे

अधूरी इच्छाओं को

अभिव्यक्त करने का माध्यम

मुझे यकीन है 

वो बाण तो नहीं थे

और न ही छर्रे 

वरना एक ही आदमी

नहीं मरता

हर दिन 

बार-बार

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राकी गर्ग















उत्तर प्रदेश के बहराइच में जन्मी डॉ. राकी गर्ग लंबे समय से हिंदी साहित्य में अपना योगदान दे रहीं हैं। इनकी कई रचनाएँ और अनुवाद अस्तित्व में आ चुके हैं। 'अच्छे विचारों का अकाल' प्रसिद्ध पर्यावरणविद और गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र के व्याख्यानों का संकलन है। बच्चों के ज्ञानवर्धन के लिए गोस्वामी तुलसीदास एवं रवीन्द्रनाद टैगोर की जीवनी का प्रकाशन, 'युवा कवि को पत्र' में जर्मन कवि रिल्के के पत्रों का हिंदी अनुवाद, 'विश्व कविता संवाद' पत्रिका के पाँच अंकों का सह-संपादन। 2024 में 'दरवाज़े' कविता संग्रह बोधि प्रकाशन से प्रकाशित।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

श्रुति कुशवाहा

1. भाषा


इन दिनों रास्ता 
भटक रही है भाषा
अब विरोध कहने पर 
विद्रोह सुनाई देता है
असहमति कहने पर अराजक
लोकतंत्र कहते ही 
होने लगती है जोड़-तोड़
धर्म कहो सुनाई देता है भय
अब तो सफ़ेद भी सफ़ेद नहीं रहा
और लाल भी हो गया है नीला
यहाँ तक कि अँधेरे समय को बताया जा रहा है सुनहरा
ऐसे भ्रमित समय में 
मैं शब्दों को उनके सही अर्थों में पिरोकर देखना चाहती हूँ
सोचती हूँ शहद हर्फ़ उठाकर उँडेल दूँ शहद की बोतल में
तुम्हारे नमकीन चेहरे पर 
मल दूँ नमक का नाम
आँसू को चखा दूँ खारा समंदर
रोशनी को रख दूँ 
मोमबत्ती की लौ पर
मैं इंसाफ बाँट आना चाहती हूँ गली के आखिरी छोर तक
और बचपन लिखने के बजाय
बिखेर देना चाहती हूँ 
अखबार बेचते बच्चों के बीच
सपने टूटने से पहले
सजा देना चाहती हूँ आँखों में
और प्यार को इश्तिहारों से उठा
मन में महफूज़ रखना चाहती हूँ
मैं भटकी हुई भाषा को 
उसके घर पहुँचाना चाहती हूँ।
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2. उम्मीद


मैंने थोड़ा अनाज बचा रखा था
कड़े दिनों के लिए
थोड़े पैसे छिपाए किताब में
बुरे वक़्त के लिए
थोड़े-से रिश्ते सहेजे थे
भविष्य का सोच
थोड़ा नाम कमाया
पहचाने जाने को
मैंने उदासियों के मौसम में
उम्मीद के कुछ बीज बोए थे
ज़रूरत पड़ी तो पाया
आधा अनाज चूहे खा गए
पैसों के साथ किताब भी 
सील गई
रिश्ते सब छूट गए
नाम गुम गया
मैं थोड़ी और उदास हो गई
तभी देखा
उम्मीद की फसल 
लहलहा रही थी
इस उम्मीद ने मुझे हर बार
भूख-प्यास या सदमे में मरने से बचाया है।
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3. राई का पहाड़


पहाड़ से जीवन के लिए 
काफी था राई बराबर प्रेम
राई बराबर प्रेम में
रत्तीभर कमी रह ही जाती है
रत्तीभर कमी भी मंज़ूर नहीं थी मानवाली स्त्री को
एक रोटी कम स्वीकार थी, 
कौरभर कम प्रेम नहीं
उसने प्रेम को हृदय में रखा
मान को ललाट पर
स्त्री का हृदय हमेशा घायल रहा
और जीवन भर दुखता रहा माथा
मानिनी स्त्री को 
राईभर प्रेम मिला
उसने राई का पहाड़ बना दिया
पहाड़ों को काटकर निकाली नहर
बंजर में उगाया धान
पत्थरों में फूल खिलाए
प्रेम सबसे सुंदर फूल था
नेह के बिना पहाड़ तो 
जी जाते हैं, फूल नहीं
मान वाली स्त्री का 
मन भी बड़ा होता है
बड़े मन और बड़े मानवाली 
स्त्री को
भला कब सहेज पाई है दुनिया
इसलिये अब स्त्री ने ख़ुद से प्रेम करना सीख लिया है।
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4. पंचतत्व

मैंने तुम्हें देखा
आकाश-सी विस्तृत 
हो गई कल्पनाएँ
पृथ्वी-सा उर्वर हो गया मन
सारा जल उतर आया आँखों में
अग्नि दहक उठी कामना की
विचारों को मिल गए वायु के पंख
देखो न
कितना अच्छा है देखना तुमको।
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5. दुख


दुख के ताप से सूरज को 
मिलती है जलने की ऊर्जा
इस संसार में जितनी 
आग है, जितना लावा
जितने भी धधकते हुए सीने हैं
सब दुख की दमक से भरे हैं
दुख की धुरी पर घूमती है पृथ्वी
सुख एक चमत्कार है
जो कभी-कभी घटता है
अक्सर भ्रम अधिक सत्य कम
दुख धरती की दिनचर्या है
पेड़ों के फल भले सूखे हों
जड़ें दुख से गुँथी हुई हैं
सुख को पालना कठिन हैै
उसे हर वक्त प्रशस्ति की 
कामना रहती है
वहीं थोड़े में गुज़ारा
कर लेता है दुख
दो आँखों और मुट्ठीभर हृदय में
जीवनभर के लिये बस जाता
दुख को आदत है 
साथ निभाने की
दुख और सुख सहोदर हैं
और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न
दोनों की आपस में 
बिलकुल नहीं बनती
दोनों एक साथ कभी नहीं ठहरते
सुख घुमक्कड़ आवारा है
दुख स्थायी ठिकाना
सुख एक बेईमान प्रेमी है
जिसके पीछे-पीछे चला 
आता है हमसफ़र दुख।
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श्रुति कुशवाहा 

श्रुति कुशवाहा का जन्म 13 फरवरी 1978 में मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में हुआ। इन्होंने 2001 में पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया। इनका एक कविता संग्रह 'कशमकश' नाम से आ चुका है जिसे 2016 में 'वागीश्वरी पुरस्कार' प्राप्त हुआ। शीघ्र ही इनका एक और कविता संग्रह राजकमल से प्रकाशित होने जा रहा है। श्रुति जी को पत्रकारिता हेतु 2022 में 'अचला सम्मान' से भी सम्मानित किया गया। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं।
वे ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज़ दिल्ली, लाइव इंडिया मुंबई सहारा न्यूज़/बंसल न्यूज़ भोपाल, टाइम टुडे आदि न्यूज़ चैनलों में कार्य कर चुकी हैं। वर्तमान समय में श्रुति जी गृहनगर भोपाल में पत्रकारिता एवं लेखन कार्य में संलग्न हैं।
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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

वंदना मिश्रा

 1.आदेश 

        
 उठो!
 कहा तुमने मेरे बैठते ही
 जबकि बैठी थी मैं
 तुम्हारे ही आदेश पर।

 डाँटा तुमने इस बेमतलब की
 उठक-बैठक पर,
 फरमाया दार्शनिक अंदाज़ में
 कितनी प्यारी लगती हो 
 डाँट खाती हुई तुम
 मैं खिल उठी।

 देखा सिर से पाँव तक तुमने
 और कहा "क्या है ही प्यार करने लायक तुम में"।

 मैं सिमट गई 
 सारी ज़िंदगी देखा
 मैंने खुद को 
 तुम्हारी नज़र से 
 और खुद को
 कभी प्यार ना कर सकी।
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2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में 

        
कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
अपनी पसंद, नापसंद के विषय में 
शायद बेमतलब लगे उसे 
इस तरह सोचना।

दहशत होती है शायद देखने में 
गहरे दबे सपनों वाले मन को 
जहाँ दबी पड़ी है 
उसकी गुड़ियों की
रेशमी चुन्नी
सजीले गुड्डे की पाग और सखियों के
गीत।

झूले के ऊँचे पेंग और खनकती चूड़ियों 
को चीरकर आती 
किसी राजकुमार की आवाज़

डरती है स्त्री सपनों से 
जिस समय डूबी होती है प्रेम में
उस क्षण भी नकारती है 
ऐसा सचमुच होने से 

उम्मीदों की बारिश में भीगती है
औरत डरते-डरते।
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3. गुलाबी मौसी 
     

जब से होश संभाला 
उन्हें झुर्रियों की झोली ही पाया

बाल-विधवा थी ‘गुलाबी मौसी’
क्या मज़ाक कि
जिसके जीवन से 
सभी रंग को ख़ारिज होना था
उनका नाम
रख दिया गया था 'गुलाबी'।
कभी ससुराल की दहलीज़ पर
क़दम नहीं रखा।

हम उन्हें 
कभी ‘रोज़ी मौसी' कहते, कभी ‘पिंकी’
माँ से बीस बरस बड़ी रही होंगी शायद

माँ को तो,
अपनी माँ की याद ही नहीं थी
गुलाबी मौसी ने ही पाला था उन्हें
(जिन्हें माँ ‘बहिन' कहती थी )

बिना माँ-बाप के पले-बढ़े 
पिता जी की लापरवाहियों को 
प्यार से ढक देती थी मौसी
अपने पास रखी 
नई-नकोर साड़ी और गहनों से

कहती समाज में सबको दिखा 
'देखो वकील साहब की पसंद अच्छी है
पत्नी के लिए 
कितना सुंदर सामान लाएँ हैं
अब सब समझ जाएँ तो उनकी बला से'
कौन लड़ सकता था उनसे।

सबकी इज़्ज़त
यूँ ही संभालती थी
सबका काज-परोजन।

जब से होश संभाला
उन्हें सफ़ेद किनारी वाली 
साड़ी में ही देखा
बालों को लपेटकर जूड़ा-सा
बना लेती,

सगा भाई कोई था नहीं 
पर थे 
सगों से बढ़कर 
मौसी हम लोगों के लिए उनसे लड़ती 
हमारे 'जमैथा' जाने पर।

और उनके बच्चों के लिए हमसे लड़ती 
हमारे घर आने पर।

किसी के न होने के ज़माने में 
हम सबकी थी वो।

नाना बहुत समझाने पर 
जीते-जी अपने खेतों पर 
उनका हक़ 
लिख गए थे
पर बेचने और किसी को देने का नहीं
वो बाद में आधा-आधा 
मिला दोनों चचेरे मामाओं को।

अपनी रुपयों की थैली छिपाकर रखती 
खाना कम खाती
पैदल चलती दूर तक 
धूप-धूप घूमती खेतों में 
मज़दूरों से लड़ती-झगड़ती 
ज़रा-ज़रा से पैसों के लिए 
दो धोती से काम चला लेती।

शादियों में माँ के लिए चौक 
और दुल्हन के लिए 
गहने कपड़े लाती मौसी
रस्मों पर छिप-छिप जाती 
अपशगुन के भय से।
लाख कहने पर भी कटती-सी थी

माँ के बाद गई
कहती "मौत को भी मैं पसंद नहीं"

अपने लिए कभी कोई सुविधा नहीं ली 
हमें जितना देती 
और-और चाहते 
हम कहते  
बड़ी कंजूस हैं 'गुलाबी मौसी'

भाई चिढ़ाते 
“तुम्हारे भोज में क्या-क्या बनेगा मौसी?
पैसा लगाएंगे हम लोग"
अभी दे दो न
तुनक कर कहती वो  
“हम अपना इंतज़ाम करके जाएँगे।"

सचमुच अंतिम समय में 
सबकी सदाशयता को ठुकरा
उनके तकिया के नीचे से  
क्रिया-कर्म और सब कार्यक्रम के लिए 
मिले पैसे एक चिट के साथ

सोचती हूँ
कितना कम भरोसा था उन्हें
हम सब पर।

'गुलाब दिवस' पर 
जब सब डूबें हो 
गुलाब के प्रेम में
मुझे हर बार
क्यों याद आ जाती हैं?
'गुलाबी मौसी'!
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 4. किताबें

किताबों की अलमारी से
निकालने जाइए कोई किताब
तो और किताबें बच्चों की सी 
ज़िद्द कर फैलाने लगती हैं हाथ
हम भी, हम भी
ज़रा-सा छू लो हमें भी।

जाने कब से बैठे हैं 
इस बंद अलमारी में
मुँह फुलकर कहती हैं
 
दिनों से पन्ने नहीं 
पलटे गए हमारे
हवा पानी धूप की ज़रूरत नहीं क्या हमें!

किंचित रोष से कहती हैं 
क्यों इकट्ठा किया था जब पढ़ना नहीं था?

पुचकारते आश्वासन देते किसी तरह
लौटे वहाँ से तो 
हाथ की किताब का 
प्रसन्न मुख पुलकित कर देता है।

पुरानी पढ़ी क़िताब को दोबारा पढ़ने पर
लगता नहीं क्या?
जैसे मिल रहे हों
किसी पुराने मित्र से 
जिसकी हर बात जानते हों
इतनी अच्छी तरह से 
कि प्रायः आप दोनों के 
मुँह से, निकलने लगती हो
एक-सी बात।

कभी-कभार जाने पहचाने अक्षर भी,
खोलने लगते हैं
अपना अनजाना अर्थ,
जैसे अपरिचय का संकोच
टूटा हो, 
अब जाकर 
जैसे देखा हो हमने
किसी मित्र का 
बिलकुल नया रूप 
बरसों बाद।
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5. सिर्फ़ दवा नहीं

     
अपनी शारीरिक पीड़ा को
ग़लती की तरह
बताती 

बढ़ती उम्र को
ग्लानि की तरह
लेती स्त्रियों को

सिर्फ़ दवा नहीं
प्रेम का मरहम भी देना।
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6. कोई गुनाह नहीं 

        
कोई गुनाह नहीं किया तुमने कि
छुप जाओ तुम किवाड़ों की ओट में

कि निराश लौटे पिता को 
और मत थका बच्ची

कि तेरे प्यार से पानी पकड़ाने से 
धुल जाएगी उनकी उदासी

एक प्याला गर्म चाय का 
रख उनके सामने
और प्यार से पकड़ उनका हाथ
समझा उन्हें कि
तो क्या हुआ 
जो नहीं तय कर पाए विवाह 
बोल कि यूँ ही भटका न करो 
इस उसके कहने पर
लड़के खोजने 

कि इतनी क्या जल्दी है
मुझे घर से निकालने की
हल्के से छुओ 
उनके मुरझाए चेहरे को
और बताओ
कि कितनी तो सुकून से भरी रहती हो
उनके साथ 
पूछो थोड़ा रूठकर कि
यूँ कौन तड़पता है 
अपने दिल के टुकड़े को 
दिल से दूर करने के लिए।

मुस्कुराओ 
कि पिता के पास हो तुम 

मुस्कुराओ 
कि तुम्हीं 
ला सकती हो मुस्कुराहट
पिता के चेहरे पर।
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वंदना मिश्रा 















वंदना मिश्रा हिंदी साहित्य में सक्रिय रूप से लिखती रही हैं। इनके तीन कविता संग्रह 'कुछ सुनती ही नहीं लड़की', 'कितना जानती है स्त्री अपने बारे में', 'खिड़की जितनी जगह' प्रकाशित हैं। 'महादेवी वर्मा का काव्य और बिंब शिल्प' तथा 'समकालीन लेखन और आलोचना' कृतियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदवी, कविता कोश, गूँज, बिजूका, पहली बार, लोकराग, समकालीन जनमत, अनहद एवं कोलकाता वेबपोर्टल पर भी इनकी कविताएँ  प्रकाशित होती रहीं हैं।
          



बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

जसवीर त्यागी

1. गेहूँ


गेहूँ से भरी बैलगाड़ी
मंडी जा रही है

रास्ते में
गेहूँ के कुछ दाने
धरती पर गिर गये हैं

बैलगाड़ी में भरे दानें
भावुक हो रहे हैं

धरा पर छूट गए दानों को देखकर
बिछुड़न की पीड़ा में भीग रहे हैं

मिट्टी दानों की माँ है
और बाज़ार साहूकार

दुनिया में कौन है?
जो अपनी माँ से बिछुड़कर
साहूकार की शरण जाना चाहेगा।
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2. कारागार 


घर में कोई सामान रखकर भूल जाता हूँ
खोजने पर भी
जब नहीं मिलता
तब पत्नी से पूछता हूँ

वह अपनी जादुई निगाहों से
सामान को प्रकट कर देती है
मेरे चेहरे की खुशी
उस समय देखते ही बनती है

पढ़ते-पढ़ते कोई प्रसंग याद आता है
उससे जुड़ी कोई पुस्तक
या रचनाकार को याद करता हूँ

बार-बार के याद करने पर भी
स्मृति को हाथ से छूटी हुई बाल्टी की तरह
कुँए में गिरते हुए देखता हूँ

तब बिटिया झट से उस पुस्तक या लेखक को
सामने लाकर खड़ा कर देती है
मैं बुझे हुए चिराग-सा 
रोशनी से जगमगा उठता हूँ

स्त्रियाँ न हो जीवन में
तो यह दुनिया
किसी कारागार से कतई कम नहीं लगती।
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 3. रंग


मेरे घर की खिड़की से
एक हरा पेड़
और नीला आसमान दिखता है

हरा और नीला रंग
मेरे रक्त के लाल रंग को
दुरुस्त रखते हैं।
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4. नयन


जाड़ा आने पर 
माँ आँगन में 
एक खाट पर बैठ जाती है 

प्रातः की सुनहरी धूप 
माँ के चेहरे पर विराजती है 

उस समय 
माँ व धूप को देखना
आत्मीय लगता है 

जिंदगी के दो नयन हैं 
माँ और धूप

जिनसे मैं
इस जगत को देखता हूँ।
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5. रोटी की सुगंध 


सड़क किनारे पटरी पर, दो स्त्री- पुरुष
रेहड़ी पर रोटी सब्जी बना रहे हैं 

स्त्री के छोटे-छोटे हिम्मती हुनरमंद हाथ 
तेज गति से गोलाकार रोटियाँ बेल रहे हैं 
पुरुष खाली थालियों को भरने में मगन हैं

तवे पर सिकती रोटियों की गंध 
हवा में घुल रही है धीरे-धीरे 
जैसे धीरे-धीरे सब्जी में घुलता है नमक 

रोटी की गंध 
संसार की प्रिय गंधों में सबसे ऊपर है 

चम्मच,कटोरी,थाली और चिमटे की आवाज़ 
भूखे आदमी को 
भोज का आमंत्रण दे रही है 

रेहड़ी के इर्द-गिर्द 
चाव से भोजन कर रहे हैं मेहनत कश-मजदूर 
भोजन करता हुआ आदमी 
हर भाषा में श्रेष्ठ कविता है 

रोटियाँ सेंकती स्त्री और भोजन करते लोग 
दूर से ही चमकते हैं 
ज्यों चमकती है चूल्हे में आग।
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6. लेखन-प्रक्रिया 

लेखक 
जब लिख नहीं रहे होते 

तब भी 
लेखन-प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं 

जैसे खाली पड़े खेत 
तैयार करते हैं खुद को 
अगली फसल के लिए 

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जसवीर त्यागी 







                               



जसवीर त्यागी जी दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में प्रोफ़ेसर हैं। वे निरंतर हिंदी साहित्य में लेखन कार्य करते रहे हैं। साप्ताहिक हिंदुस्तान, पहल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया पथ, आजकल, कादंबिनी, जनसत्ता, हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, वसुधा, इंद्रप्रस्थ भारती, नई दुनिया, नया जमाना, दैनिक ट्रिब्यून आदि पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख व कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं।'अभी भी दुनिया में'(काव्य संग्रह), कुछ कविताओं का अँग्रेज़ी, गुजराती, पंजाबी तेलुगू, मराठी, नेपाली भाषा में अनुवाद, 'सचेतक और डॉ. रामविलास शर्मा' (तीन खंड- संकलन संपादन), रामविलास शर्मा के पत्र, रामविलास शर्मा के पारिवारिक पत्र (संकलन- संपादन) आदि पुस्तकें अस्तित्व में आ चुकी हैं। त्यागी जी हिंदी अकादमी दिल्ली के नवोदय लेखन पुरस्कार से भी सम्मानित हैं।
ईमेल: drjasvirtyagi@gmail.com

           

बुधवार, 29 जनवरी 2025

आशा जोशी

1. प्रेम


जब प्रेम होता है तो 
हम, हम नहीं होते।
हो जाते हैं टिमटिमाते दिए, 
आकाश का नक्षत्र, 
धरती का बसंत।
हमारी देह गाने लगती है,
रोम-रोम नाचता है। 
बड़े से बड़े संकट से भी 
हमें चुपचाप 
उबार लेता है प्रेम।
दुःख की सर्द रात में,
अलाव की आँच सा
दहकता है प्रेम।
धीरे से 
सहलाता है प्रेम।
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2. प्रकृति

 
पत्तों पर टिकी बूंदें,
कर रही हैं चुगली 
रात भर बरसा होगा पानी।
माना कि 
मौसम ख़ुशगवार है,
पर टपकी होगी किसी की छत, 
जानता है आसमान,
इसलिए वह,
बरस रहा है चुपचाप।
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3. यादें


दिन के मोती
बदल जाते हैं यादों के
पुखराज में,
साल दर साल 
बढ़ती है उम्र,
पर मन
बच्चा होता चला जाता है।
 बचपन
 जीवन का 
सबसे सुंदर पड़ाव है शायद।
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4. लड़की


लड़की हँसती है, तो 
मोती झरते हैं 
लड़की खिलखिलाती है, तो
झरते हैं फूल
लड़की रोती है, तो
ओस गिरती है,
बोलती है लड़की, तो घर 
बांसुरी गमकती है 
काम करती है लड़की तो 
 घर दीपक बन जाता है लड़की सजती है
तो थिरकने लगता है घर
लड़की थकती है तो
थम जाता है घर 
घर और लड़की- जैसे 
बसंत और धरती 
फिर भी 
लड़की अनचाही
बिनमांगी रहती है 
अनाहूत 
जंगली बेल की तरह
आती है लड़की 
जाती है लड़की
 बेची-खरीदी 
जलाई-भगाई जाकर
हँसती है लड़की 
खिलखिलाती है लड़की 
आंसू झटक कर 
मुस्कुराती है लड़की।

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5. समझदार  स्त्रियाँ 


समझदार स्त्रियाँ 
रोती नहीं हैं
मुस्कुरा कर निभाती हैं
भीड़ भरी ज़िम्मेदारियाँ 
फिर ढूंढती हैं 
थोड़ा सा एकांत 
अपने लिए 
जो मुश्किल से मिलता है।
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आशा जोशी















आशा जोशी का जन्म 13 अगस्त 1950 में हुआ। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन किया। इनके दो कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख, कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं। वर्तमान समय में आशा जी 'आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया' की पत्रिका 'पुरा प्रवाह' के संपादन का कार्यभार संभाल रही हैं।

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