1. यादों का कोई विकल्प होता
मैंने इस शहर में
कई घर बदले
घर के साथ
मोहल्ले, गलियाँ
घर की दीवारों के
रंग भी बदले
इसी उम्मीद के साथ
काश! तुम्हारी याद का
कोई विकल्प तो होता
कई घर बदले
घर के साथ
मोहल्ले, गलियाँ
घर की दीवारों के
रंग भी बदले
इसी उम्मीद के साथ
काश! तुम्हारी याद का
कोई विकल्प तो होता
बिना तुम्हारी याद के
कोई तो घर होता
बाद में समझ आया
यादों का जगह से
कमरे से, दीवारों से,
गलियों से, रास्तों से
कोई वास्ता नहीं
कोई तो घर होता
बाद में समझ आया
यादों का जगह से
कमरे से, दीवारों से,
गलियों से, रास्तों से
कोई वास्ता नहीं
शायद नया जन्म लेना होगा
तुम्हें भुलाने के लिए
तुम्हें भुलाने के लिए
याद को मिटाने के लिए।
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2. बचपन का एक रहस्य
बचपन का एक रहस्य
जो आज भी तिलिस्म बना
मेरे साथ-साथ रहता है,
बचपन में जब कभी कहीं जाना होता था
बाबूजी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाकर
हम भाई-बहनों का हाथ पकड़कर
अम्मा से आगे ही चलते थे
और अगर चलकर दूर निकल आते
तो रुककर अम्मा का इंतज़ार करते
अम्मा धीरे-धीरे, पीछे-पीछे
चलकर आ जाया करती
बाबूजी और अम्मा के चलने के बीच
फ़ासला यूँ ही बरक़रार रहता था
मैं अक्सर सोचता हूँ
दूर-दूर क्यों चलते थे
जिन्होंने साथ-साथ
कई पड़ाव पार किए
कई मुश्किलों को झेला
मगर दूर चलने का रहस्य
अनसुलझा ही रहा
अम्मा के जल्दी-जल्दी न आ
पाने पे बाबूजी झल्लाते
मगर फिर भी इंतज़ार कर
फिर आगे चल पड़ते
यह शायद समाज का दबाव था
या रूढ़ियों का बहाव था
जैसी प्रथा चली आ रही है
वही प्रथा निभा रहे थे
साथ न चलते हुए भी
कितने पास थे
आज की पीढ़ी साथ
तो चल रही है
मगर दूरी के साथ
मन की दूरी
जो उस साथ न चलने वाली
दूरी से कहीं दूर है
आज का मन
पार नहीं कर पाता
नज़दीकियों के बीच
लगातार फैलती दूरियों को।
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3.चिड़िया कहाँ से आती हो तुम
चिड़िया कहाँ से आती हो तुम
थोड़ा-सा जल, थोड़ा-सा अनाज
इन सबसे पेट
भर जाता है तुम्हारा!
दिन भर चहकती-बहकती
हर जगह जाती हो, रुकती भी नहीं,
सुस्ताती भी नहीं
और न जाने कितनों का मन
तुम साथ ले जाती हो
अपने नन्हें पंखों पर रखकर
सब कुछ थोड़ा-थोड़ा जरूरत के
हिसाब से करना कैसे सुहाता है?
हम इंसानों को यही समझ नहीं आता है।
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4. हाँ! मैं औरत की कमाई खाता हूँ
हाँ! मैं औरत की कमाई खाता हूँ
सहेज कर रखती है
वो अपनी कमाई
दुख के दिनों के लिए
जब कभी मेरे हाथ
घर की जिम्मेदारियों के
बोझ से दबने लगते हैं
उस हाथ पर रख देती है
अपनी कमाई
हाथ को दबने से बचा ले जाती है
बार-बार, हर बार
मैं अपने आप को संभाल पाता
हूँ
हाँ मैं औरत की कमाई खाता हूँ!
इसमें बुराई है ?
जीवन की यह भी सच्चाई है।
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5. इस बार जब तुम आना
इस बार जब तुम आना
खुद को साथ ले आना
हर बार जब आते हो
हज़ारों काम साथ लाते हो
बॉस के फ़ोन, दुनिया भर के झमेले
कितना कुछ कर लेते हो अकेले
इस बार जब आना
अपना फ़ोन साथ मत लाना
अपने दिल की बात लिखकर, एक ख़त लाना
मानती हूँ तुम्हें सफलता पानी है
ज़िंदगानी अच्छी बनानी है
तुम्हें फ़र्ज़ निभाना है
दुनिया को कुछ करके दिखाना है
तुम्हें थोड़ा आभास होना चाहिए
प्रेम के थोड़ा पास होना चाहिए
मैं नहीं माँगती आकाशदीप का किरदार तुमसे
नहीं चाहती बुद्धगुप्त का प्यार तुमसे
मैं कुछ वक़्त साथ बिताना चाहती हूँ
तुम्हें कुछ बातें बताना चाहती हूँ
लक्ष्य के पहाड़ चढ़ते-चढ़ते जाने कितने,
पनपते दूब पैरों तले कुचले गए
मन के धागे आपस में बँधने से पहले ही टूट रहे हैं
इसलिए कम वक़्त ही सही
पूरा वक़्त लेकर आना
इस बार जब तुम आना
खुद को साथ ले आना
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संतोष सिंह
युवा कवि एवं ग़ज़लकार संतोष सिंह जी का जन्म 3 नवंबर को ठाणे (मुंबई)में हुआ। एमबीए / एम.ए (हिंदी) /अब वे हिंदी साहित्य में पीएच.डी कर रहे हैं। साथ ही एक प्राइवेट कार कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत हैं। साहित्य में गहरी रुचि होने के कारण लगभग एक दशक से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर इनके कई शे'र प्रसिद्ध हुए हैं। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक सुदीप बनर्जी ने इनकी ग़ज़ल 'खुशरंग' को अपनी आवाज़ से नवाज़ा है। इन्हें 'महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी' द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है। संतोष जी ने 'शब्द फाउंडेशन' तथा 'हिंदी ग़ज़ल फाउंडेशन' जैसे कई साहित्यिक मंचों की नींव रखी।
ईमेल: Santushssing@gmail.com
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