बुधवार, 14 मई 2025

अंशू कुमार


1.एक स्त्री का बेफिक्र हो जाना


आसान नहीं है एक स्त्री का
बेफ़िक्र हो जाना
क्योंकि उसके बेफ़िक्र हो जाने से
उबलकर गिर जाता है दूध रसोई में

बेफ़िक्री, आलस, आदत ये सब
तुम्हारे हिस्से रखा गया है
चयन, विकल्प और पसंद
तुम्हारे स्वभाव के परिचायक माने गए

बहस, कूटनीति और राजनीति
तुम्हारे मज़बूत हिस्से में रखा गया

फिर बचा क्या
बँटवारे में इतनी गड़बड़ी क्यों?
आख़िर बँटवारा हुआ क्यों?
मुझे पहले पहल बँटवारे से डर लगता,
अपनों को खोने से डर लगता,
युद्ध भला किसे पसंद है,
लेकिन हमारी पसंद का करना क्या है

बात जब समझ आई तो लगा
अभी तो युगों का युद्ध बाक़ी है
हिसाब-किताब बाक़ी है
ज़िंदगी जीना बाक़ी है
मेरा-तुम्हारा एक होना बाक़ी है।

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2. सहेली



हमने सिर्फ़ ख़ुशियाँ बाँटी
दुःख को रहने दिया
वह बड़ा था, अनंत भी...!

हमने साथ हँसना सीखा
रोना एकांत में रोया
आँसू तह तक था
साथ बहता तो बहता रह जाता

हमने साथ अल्हड़ताओं को जिया
दोनो को पता था कि एक दिन
हमें लौटना होगा
किसी न किसी के घर
और वहाँ
कोई माफ़ नहीं करेगा
कोई साथ नहीं देगा
कोई हमें 'हम' नहीं होने देगा…!

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3.प्रेम में ठगी गई औरतें



औरतें सबसे ज़्यादा
ठगी गईं प्रेम में
प्रेम पाने के लालच में
हर बार करती रहीं प्रेम
लेकिन प्रेम में मिले
सबसे ज़्यादा ठग और ठेकेदार
जबकि औरतों को करना था
सबसे पहले ख़ुद से प्रेम
और बदलनी थीं
प्रेम-कहानियाँ और प्रेम-कविताएँ भी

रचनी थी प्रेम की नई परिभाषाएँ
गढ़ने थे नए मायने
जिसमें औरतें नाच रही हों
ख़ुद के लिए
गा रही हों
ख़ुद के लिए
सँवर रही हों
ख़ुद के लिए
लड़ रही हों
ख़ुद के लिए
सबसे पहले
सबसे ज़्यादा
ताकि प्रेम-ठगों को
बता पाएँ उनकी सज़ा
और यह भी कि तुम मामूली इंसान के
दायरे से भी बाहर हो!
क्योंकि जब तुम्हें
सबसे ज़्यादा निर्दोष होना था
तुम निकले सबसे ज़्यादा फ़रेबी
जब तुम्हें भाव को समझना था
तुमने की लफ़्फ़ाज़ी
और जब तुम्हें साथ खड़े रहना था
तुम दूर-दूर तक नहीं थे...

ठग को बताना इसलिए भी ज़रूरी है
ताकि वह प्रेम को समझ सके
औरत को समझ सके
ख़ुद को जान सके
ठग को कठघरे में खड़ा करना ज़रूरी है
ताकि चौराहे पर चौड़ाई लेते वक़्त
उसे आभास हो अपने ईमान के बौनेपन का
ताकि औरत को प्रेम करने और
उसके साथ खड़े होने के बीच के
अंतर को वह जान सके
और पितृसत्ता की फूहड़ दलील में
अपनी रुग्ण होती काया को टटोल सके
और जान सके कि
उसके अंदर अभी भी बचा है :
सदियों से स्त्री के संताप पर
उपहास करता एक पुरुष।

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4. वक्त



कलाई पर लगी घड़ी,
सबका वक़्त कहाँ बताती है,
नहीं बताती वह नौकरों और औरतों का वक़्त,
वक़्त सबका नहीं होता—
कुछ लोगों की ज़िंदगी
वक़्त को बनाए रखने के लिए होती है
वक़्त के हिसाब से भागते रहने के लिए,
एक नौकर और एक औरत रात में भी ख़ाली नहीं सोते,
अगले सुबह के समय को
पकड़ने की तैयारी में सोते हैं
दुपहरी मे चढ़ती धूप के ताप से,
चंद सेकेंड सुस्ताने की फ़िराक़ में,
मुर्ग़े की बाँग के साथ शुरू होती है
उनकी सुबह
मज़दूर मंडी मे काम बँटने से पहले
मालिको के उठने से पहले
आँगन में धूप निकलने से पहले
चूल्हे पर खाना बना लेने तक की होड़ में
तय होता है सुबह का उठना

'वक़्त' सबका वक़्त नहीं बताता
घड़ी ग़रीबों, नौकरों, और औरतों की
कलाई पर बाँधी जाती रही
ताकि मालिकों को वक़्त पर
सब कुछ मिलता रहे
माँ ने कहा था वक़्त सबका आता है
और वह हमेशा के लिए चली गई
उसका वक़्त ठहर गया
लेकिन आया नहीं
माज़ी और मुस्तक़बिल के बीच
फँसा जो मौजूदा मैं हूँ
वह मैं होकर भी मैं नहीं हूँ
क्योंकि वक़्त से मेरी लड़ाई हो रखी है
और तुम—क्या तुमने देखा है
ऐसे किसी एक ग़रीब और औरत को?
अगर नहीं देखा तो यक़ीन करो मेरे दोस्त
तुमने घडी वक़्त और ज़िंदगी नहीं देखी!

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5. हमारे-तुम्हारे बीच की धरती



हमारे-तुम्हारे बीच की धरती
फैलती जा रही है!

ख़ैर ……
धरती चाहे जितनी फैले,
प्रेम से ज़्यादा नहीं फैल सकती।

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अंशू कुमार










अंशू कुमार का जन्म 1990 में बिहार के बेगूसराय में हुआ। इन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.फिल और पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की । कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ और लेख निरंतर प्रकाशित होते रहें हैं।

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