बुधवार, 18 जून 2025

शिवांगी गोयल

1. दुआरे की देवी


जिस दुआरे पर दुर्गा माता की तस्वीर टँगी थी,
बजरंग-बली की मूर्ति लटकी थी
जिसके सहारे अम्मा निश्चिंत सो जाया करतीं
उसी दुआरे से सारे दुख आए
उसी दुआरे से बाबा की पार्थिव देह आई 
उसी दुआरे से वो सभी शुभचिंतक रिश्तेदार आए
जिन्होंने अम्मा के दुख का जश्न मनाया
जिन्होंने चीख-चिल्लाकर रोने का ढोंग किया
हर संभव कोशिश की अम्मा के 
मुँह से दुख के दो बोल सुनने की
अम्मा रोईं तो बस अपने 
मंदिर की कुलदेवी के आगे
किसी और ने उनका दुख नहीं देखा

दुआरे पर बसी देवी को अम्मा के 
टूटने पर उतना दुख नहीं हुआ
जितना अम्मा को एक दिन 
देवी की मूर्ति के कान टूट जाने पर हुआ
उस दिन, दिन भर अम्मा ने खुद को कोसा
देवी ने अम्मा के मंगलसूत्र टूटने पर 
खुद को कितनी बार कोसा होगा पता नहीं
मेरा मन हुआ कहने का “माँ, मूर्ति के कान टूटे हैं, 
असली दुर्गा के नहीं”
लेकिन अम्मा को उस मूर्ति में देवी के
होने का यकीन सबसे ज़्यादा था

अम्मा दुआरे की देवी को बहुत प्यार करती थी,
दुआरे की देवी भी अम्मा से उतना ही 
प्यार करती रही हो, शायद!
दुआरे की देवी अम्मा के सारे दुख 
दुआरे पर ही रोक सकती थी, शायद!
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2. आँधी के बाद


साथी!
हम इतनी भयानक आँधी में साथ थे
और सुब्ह तक बने रहे
जब ये सारे पेड़ अपनी जड़ों समेत
अपनी मिट्टी से बाहर निकल आए, गिर पड़े
ये पत्तियाँ अपनी टहनियों से अलग
ये टहनियाँ अपने चितकबरे तनों से अलग
निकल आईं और गिर पड़ीं
तब तुम और मैं रुके रहे

हम भी तो उजड़ सकते थे 
गलतफ़हमी की आँधी में
कैसी तो उजाड़ रात थी, कैसी डरावनी भोर
हम बिना आखिरी शब्द कहे 
अपनी मिट्टी से उखड़ सकते थे
कौन रोकता हमें? कौन रोपता हमें?
पर हमने सुबह का सूरज एक साथ देखा
हम बने रहे

मिट्टी का जड़ों से क्या रिश्ता है
इतना की जड़ें छोड़ती हैं मिट्टी को
तो पूरी तरह नहीं छोड़ पातीं
दोनों एक-दूसरे के हिस्से में 
थोड़ी बची रह जाती हैं
हमने एक-दूसरे को थोड़ा बचा लिया
हम एक-दूसरे में थोड़ा बने रहे

मैं तुम्हारा घर तो नहीं पर
कभी उड़ान से थक जाओ तो
मेरे पास आ जाना
उस छोटी चिड़िया की तरह जो
आँधी में पेड़ की टहनी पर बैठी रह जाती है
भरोसा करती है

क्या चिड़िया का पेड़ से कोई रिश्ता है
क्या तुम्हारा मुझसे कोई रिश्ता है?
तुम आ जाना साथी, हम बने रहेंगे
अलविदा के बाद भी
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 3. सीता और बुद्ध 

एक दोस्त ने सवाल किया
कि स्त्री हमेशा सीता ही क्यों होती है?
उसे बुद्ध भी तो होना चाहिए!


“क्योंकि बुद्ध की तरह
अपने सोते पति और बच्चे को छोड़कर जाएगी
तो ये घटिया समाज पहले ही घोषित कर देगा
कि प्रेमी के साथ भागी होगी,
कोई यह नहीं जानेगा कि ख़ुद की तलाश में निकली है।”

यह समाज बड़ा दोगला है स्त्री
बुद्ध जंगल से लौटते हैं तो तथागत हो जाते हैं,
सीता लौटती है तो कलंकित हो जाती है।
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4. विद्रोही जड़ें 

कभी देखा है विद्रोह को
अपने भीतर जड़ें जमाते?
जैसे मिट्टी से निकलकर फैलते हैं केंचुए
वैसे ही दिमाग़ से निकलकर
फैलती विद्रोह की नसें;
किसी पेड़ की जड़ सरीखी पनपतीं
चुभ रही हैं अंदर से
बेचैनी का सबब बनती जा रहीं


रोको! वरना मैं विद्रोह का पेड़ हो जाऊँगी
जिसके हाथ और पैरों की जगह होंगी
विद्रोही टहनियाँ , विद्रोही जड़ें;
आ लिपटेंगे स्वतंत्रता की केंचुल ओढ़े हजारों साँप

और एक दिन सामाजिक संस्कारों की कुल्हाड़ी से
काट दी जायेंगी मेरी विद्रोही जड़ें
और तब वह साँप अपनी केंचुल वहीं छोड़
एक नई केंचुल ओढ़ आगे निकल जायेंगे!
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5. घर कितना बड़ा हो 


मैंने आँसू पोंछ कर कहा था
"घर इतना बड़ा तो होना चाहिए
कि रोने के लिए एक कोना मिल सके"

तुमने मुझे गले लगाते हुए कहा था
"घर कभी इतना बड़ा नहीं होना चाहिए
कि तुम अकेली रोती रहो और मुझे पता ना चले!"
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शिवांगी गोयल 















शिवांगी गोयल का जन्म 13 जुलाई 1997 में बिहार के सिवान जिले में हुआ। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। वर्तमान समय में शिवांगी जी इलाहाबाद विश्विद्यालय से अंग्रेजी विषय से पी.एच.डी कर रही हैं।




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