बुधवार, 4 जून 2025

डॉ. माया गोला

1. गुनहगार

  
धूर्तता करते पाए गए
जातियों के बारे में सोचने वाले लोग
चालाकियों में लिप्त पाए गए 

धर्म का चोला ओढ़ने वाले 
राष्ट्र के निर्माता कई
इतिहास की गंभीर 
भूलें करते पाए गए 
तथाकथित देशप्रेमी 
मुफ़्त की मलाई खाते पाए गए

होरी बेचारा हाड मांस का ढांचा रह गया
रसूखदार लोग मालामाल पाए गए 
श्रम करने वालों के हिस्से सिर्फ़ नमक आया पसीने का
मालिक सब समुन्दर में नहाते पाए गए!
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2. युद्ध


जब भी युद्धों की बात होगी 
मैं कारणों पर बात करुँगी 
बिना कारण होते नहीं युद्ध
युद्धों के कारण होते हैं भरपूर 
कि कारण भी अकारण नहीं होते 

मनुष्य का अतीत ही ऐसा है 
उसका इतिहास भी 
शुरू हुआ युद्ध से 
जाति और संप्रदायों की खुराक पाकर
हुए युद्ध

धरती का कलंक हैं
धरती की कोई भी प्रजाति इतनी कलंकित नहीं
कि जाति, औ' संप्रदायों की चौखटों के भीतर
सोई पड़ी हिंसा की नींव पर
अहिंसा का खोखला पेड़ खड़ा है
कि धर्म की किताबों तक में 
युद्ध के रोचक वर्णन हैं!

जाति की बर्बरता का क्या ठिकाना!
सरहदों की दीवार ख़ून से सनी है!
मैं जब युद्ध की बात करूंगी  
तब जाति और संप्रदाय की बात भी करूंगी  
और चाहूंगी कि 
इन संप्रदायों को 
जातियों को 
उड़ा दिया जाए 
तोपों से
बंदूकों से
ताकि बचा रहे मनुष्य
बची रहे मनुष्यता 
कि युद्धों से शांति न पहले कभी हुई
न होगी
कि प्रेम के दामन में ही खिल सकते हैं
सिर्फ़ शांति के फूल।
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3. फागुन 


गाँव में बौराए आम के पेड़ तले 
बैठा फागुन 
सोचता 
इक उमर भई 
कैसे लौटे पीछे 
बचपन में 
कच्चे घर 
कच्चे आंगन 
कच्चे-पक्के मन 
प्रीत पगे पर
संगी साथी 
खिलते गुलाब भीतर 
महकती खुशबू बाहर 

जवान हुआ तो 
गेहूं के खेतों-सा हरा हुआ 
सरसों-सा फूला 
सेमल-सा लाल 
बालियों में दानों-सा गदराया 
जीवन में बसंत इसी समय आया !

अहा! वो क्या दिन थे 
कितना कुछ बीत गया 
जीवन का घट भरा-भरा तब 
अब कितना कुछ रीत गया 
सोचता फागुन 
करता मलाल
 
बौराया आम
खिला टेसू, गुड़हल, गुलाब सब
कुदरत की माया 
पर सूख रहे नेह के कुएँ
नदी की चाल कुछ ढीली है
प्रेम की रंगत पीली है 

हाय! यह सियासी होली है 
बेसुर हुआ फाग है 
जुम्मन मियाँ का मन उदास है 
धीर-धीरे फिसल रहे मुट्ठी से रंग 
धूल-धूसरित कितने बदरंग
समय सियासत गड्डम-गड्ड
लट्ठम-लट्ठ 

उठा फागुन 
पकड़ी लाठी 
चल दिया 
ज्यों चला जा रहा हो बूढ़ा इक
लचक-लचक। 
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4. कुछ मनुष्य! कुछ आदमी 

   
कुछ मनुष्यों के पास सत्ता है 
सिंहासन है 
अधिकार हैं मुट्ठी में 
जो चाहे करें 

उनके पास 
दिमाग़ है 
तिकड़मी 
उस पर हावी जुबान है 
जो चाहे बोलें 

उनके अहम्  
उनके वहम 
ग़ज़ब हैं 
जिसको चाहे धराशाई करें

धूर्तताएँ हैं 
चालाकी हैं 
मुखौटे हैं 
जैसा चाहे अभिनय करें

उल्लू 
गिरगिट 
नाहक बदनाम हुए 
महापुरुषों की दुनियाँ अजब है!
 
हाँ, आदमियों की बात और थी 
वे इतिहास में इने-गिने ही हुए।
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5. समय


कल सुबह जब मैं सोकर उठूंगी 
दरवाजा खोलूंगी  
तब न हवा बदली होगी और न दृश्य
सूरज रोज की तरह ही उदित होगा 
बीते दिन-सा ही होगा सब कुछ 

त्वरित बदलाव प्रकृति का संस्कार नहीं 
फिर भी तारीखों में दर्ज़ 
समय 
अपना एक टुकड़ा 
मुझे थमाएगा 
मुझे थामना ही पड़ेगा 

समय कुदरत की व्यवस्था है 
तारीखें समाज की  
इन्हें खारिज़ भी नहीं किया जा सकता
रक्त रंजित तारीखें 
बहुत कुछ बताती हैं इतिहास के बारे में 

अतीत में किसी के 
शूल-सी गढ़ी रहती हैं 
कुछ तारीखें काली 

दुख-सुख 
विषाद-उल्लास 
हार-जीत 
क्या नहीं शामिल इनमें !

जैसे थक कर बैठ जाता है यात्री
फिर उठता है 
चलता है
चाहते 
न चाहते 
 
जैसे चलता है समय 
चलता रहता है 
फूलों में 
शूलों में 
कभी न रुकने के लिए। 
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डॉ. माया गोला















डॉ. माया गोला का जन्म 8 फरवरी 1977 को अल्मोड़ा में हुआ। इन्होंने अपनी शिक्षा कुमाऊँ विश्वविद्यालय से पूर्ण की। वर्तमान समय में माया जी कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सोबन सिंह जीना परिसर,अल्मोड़ा के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। 'चीनी, नमक और नीम', 'चयनित कविताएँ', 'उपाधियाँ लौटती हूँ' तथा 'मौलसिरी' नाम से इनके चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
ईमेल:drmayagola@gmail.com 

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