बुधवार, 1 नवंबर 2023

लीलाधर मंडलोई


कि नमक रोटियों में


सुबह-शाम समुद्र से उठता है

सफ़ेद झक्क धुआँ

फिर भी समुद्र से नहीं आतीं

खाँसते-खाँसते बेदम होने वाली आवाज़ें


इस बार कहूँगा माँ से

चली चले मेरे साथ

और पकाकर देखे समुद्र पर रोटियाँ

जहां धुआँ होता है अत्यधिक 

लेकिन नहीं होती भीतर तक हिला देने वाली खाँसी


माँ जब पकाएगी रोटियाँ

उनमें होगा स्वाद समुद्र का

और कितना किफ़ायती और स्वादिष्ट होगा

रोटियों का पकना कि संभव है

नमक रोटियों में अपने आप पहुँचे


समुद्र पर खाते हुए रोटियाँ

पहुँचेगा समुद्र अपने आप भीतर 


और हम स्वाद का समुद्र हो जाएँगे एक दिन 

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याद आए पिता


उस समय जबकि अपने अवचेतन में 

मैं बढ़ रहा था गूलर के उस आकर्षक पेड़ की सिम्त 

टकराया एक नुकीले पत्थर से और

उठी रक्त और दर्द की लहर

तिस पर बिन बताए अपने साथी को 

मैं उस आनंद में डूबने के यत्न में बहोत 


देखा उसने और चुपचाप हँसिए से

खुरचने लगा उसकी छाल

कूट के उसे पीसने लगा पत्थर पे

कि हो उठे वह रसायन कोई जादू


घाव पर लेप करते ही हुआ कोई चमत्कार

कि दौड़ पड़ी देह में एक ठंडक-सी 

और खून का बहना एकदम बंद


मैंने धन्यवाद में की अपनी आँखें नत 

और टिका के पीठ बैठ गया 

याद आए पिता 

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जलस्वप्न


नारियल के उस बड़े दरख़्त में अटका है चाँद

और मैं जा सकता हूँ पेड़ की छाया से होता हुआ 

जल जहाँ सबसे ज्यादा प्रसन्न है


जहाँ सबसे ज्यादा प्रसन्न है वह

गहरी नींद में वहाँ सोए हैं मेरे बच्चे


अँधेरा हालाँकि बढ़ रहा है चतुर्दिक

बच्चों की नींद में है जलस्वप्न


मैं लौट सकता हूँ आश्वस्त

बच्चों के स्वप्न में कहीं नहीं है ऑक्टोपस


बच्चों के नींद में बच्चों का स्वप्न है अब तक 

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क्षमायाचना


हमारे दुःख इतने एक सरीखे थे कि 

लड़ने के आलावा हमें

कुछ और सोचना नहीं चाहिए था

और जिसे हम मानके चले थे लड़ाई

वह दरअसल एक भ्रम था जो 

बुना गया हमारे चारों तरफ़


बाज़ दफ़ा हम कहना चाहते थे बेटियों से

कि हमारी सिरजी दुनिया 

उनके क़ाबिल नहीं 

कि वहाँ अंत तक उनके हिस्से कुछ भी नहीं 


एक ऐसी चुस्त घेराबंदी थी हमारे आसपास

कि जिसमें लड़ने के सारे रास्ते

बंद कर रखे थे पुरखों ने और

मान-मर्यादा के ऐसे क़ानून 

कि पिंजरों में कैद पक्षी की-सी हालत 


हम बार-बार बोलना चाहते थे कि

हमारी दुनिया से मुक्त हो जाना ही

अंतिम जुगत थी लेकिन इतना साहस भी न था 

कि हमारे गले में लटके थे धर्मग्रन्थ


लगता तो यहाँ तक था हमें

कि बदल देंगे वह प्रारूप जिसमें 

रेहन रख छोड़ें हैं हमने तुम्हारे सपने

हँसी और अकूत ताक़त 

कि असंभव हो उठेगा दूसरा

कोई भी नामुआफ़िक क़ानून


हम सचमुच करना चाहते थे फ़तह 

उस क़िले को जिसमें बंद था

तुम्हारी मुक्ति का बीज-मन्त्र

कभी मुक्त न हो सके अव्वल तो हम ख़ुद

कि इतना सख्त इंतज़ाम


हम गुनाहगार हैं 

पहली फुरसत में छोड़ जाना हमें

कि हमें खोजना ही मुक्ति के रास्ते पहला क़दम

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कुबड़ा यथार्थ


तीन फुट की सीम

निहुरी-निहुरी कमर

एक पूरी उमर

कोयला ढ़ोती रही

भददू पैदा नहीं हुआ कुबड़ा

लेकिन मरा जब 

सब कह रहे थे  

मुश्किल था उसे सीधे बाँध पाना 


मैंने एक कुबड़े यथार्थ को दिया कंधा इस देश में

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डोंगी का गीत 


दुःख में हैं हम सब और कचोट मन में

कि पेड़ तुम्हें काटना पड़ा, करते हुए कोमल पत्तों को जुदा

काटीं शाखाएँ भी, निकालकर मज़बूत तना

छेदते रहे अस्त्रों से बीचों-बीच

जब टपक रहे थे हरे आँसू अनवरत पेड़ से

हमारे भीतर ललक थी डोंगी की


जूझते हुए ख़ुद से बने हमने डोंगी 

हो सकते थे जब औरों की तरह प्रसन्न

व्यथित थे सबके-सब, तब भी


चीरते हुए समुद्र का विराट सीना

करेंगे शिकार अब मछली और कछुओं का 

भर उठेगी डोंगी खुशबू से 

लौटेंगे शिकार लिए पहले-पहल जब

पहुँचेंगे बिना चूक उस कटे-बचे पेड़ तक

और भेटेंगे शिकार का पहला हिस्सा, करेंगे क्षमायाचना

कि किया हमने जीवन  नष्ट 

रखेंगे सदैव ध्यान कि रखें डोंगी 

बचे पेड़ के उसी कटे हिस्से के पास

कि वह महसूस कर सके

जुदा अंग का अपने पास होना 

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लीलाधर मंडलोई


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           लीलाधर मंडलोई का जन्म मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला के 

गुढ़ी नामक गाँव में १९५४ के जन्माष्टमी के दिन हुआ था | आपकी              शिक्षा भोपाल और रायगढ़ में हुई तथा उच्च शिक्षा हेतु १९८७ में काॅमनवेल्थ रिलेशंस ट्रस्ट, लंदन की और से आमंत्रित किए गए |  

रचनाएँ - मूलतः कवि लीलाधर मंडलोई ने गद्य-लेखन में भी अपनी दक्षता का परिचय दिया है | इनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं - रात-बिरात, घर-घर घूमा, मगर एक आवाज़, देखा-अदेखा, क्षमायाचना, उपस्थित है समुद्र, काल बाँका तिरछा|
कविता का तिर्यक(आलोचना), काला पानी(यात्रा वृत्तांत), दाना पानी(डायरी) आदि मुख्य गद्य रचनाएं हैं |                                                                            

सम्मान- पुश्किन सम्मान, रज़ा सम्मान, शमशेर सम्मान, नागार्जुन सम्मान, रामविलास शर्मा सम्मान, वागीश्वरी सम्मान हिंदी अकादमी सम्मान आदि|

फिल्म पटकथा, निर्माण एवं निर्देशन में भी प्रवृत|





 

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

अरुण कमल

ऐसे में 

ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
नहीं जानता कल शाम को छे बजे 
आऊँगा या नहीं 
कुछ भी पक्का नहीं

भग्न है ब्रह्माण्ड का ऑकेस्ट्रा,
हर दीवार पर पड़ी है दरार 
यह इतना पुराना पेड़ अंतिम दाँत-सा
बस लगा भर है पृथ्वी के मसूढ़े से
हिल रहा है सब कुछ हिल रहा है
जो अंतिम आधार थी धरती, वह भी

ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
तेज धार में रोपता चल रहा हूँ पाँव
उखड़ता
डोलती धरती पर दौड़ता 
खुले स्थिर मैदान की खोज में

कह नहीं सकता आऊँगा ही पक्का
कह नहीं सकता मेरा कौन-कौन है जिंदा
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 सन्निपात
खुरच रहा है चारों तरफ़ से
देखने को कि देखें क्या है अन्दर
कि देखें वह नाटा आदमी
क्या सोच रहा है भीतर-भीतर 
क्या पक रहा है कुम्हार के आँवे में 
हालाँकि सत्ता अब निश्चिंत सो रही थी धूप में 

क्योंकि लोगों के माथे में गोद दिया गया था कि
जो भिखमंगा बैठा है मंदिर की सीढ़ी पर वही है दुश्मन
जो दुकान के तलघर में बीड़ी बना रहा है वही है दुश्मन 
जो बंगाल की खाड़ी में मछली मार रहा है वही है दुश्मन

फिर भी सत्ता कभी सोती नहीं 
सो उसने हर तरफ़ अपने आदमी भेजे
किसी ने कहा मैं पक्ष में बयान दूँ
किसी ने कहा विपक्ष में बयान दूँ
और ये सब वही थे जो कभी न कभी 
उसका पुआ खा चुके थे
या जो मुझे गिरवी रख खुद छूटना चाहते थे 

और वे सब मेरा दरवाज़ा कोड़ रहे थे 
और यहीं मुझे अपने को इस तरह घेरना था
जैसे तार की जाली में पौधा
मुझे कुछ भी कहने यहाँ तक कि हाँ-हूँ करने से भी डर था  
अमावस में एक जुगनू भी खतरा है


एक ने तो अचानक चलते-चलते पूछ दिया
आपको कौन-सा फूल पसंद है 
और बस मैं फँस ही जाता कि याद पड़ा डर है 
लगातार उनकी बात पर ताली बजाता 
सभी पितरों नदियों पर्वतों को गाली देता 
किसी तरह साबित करता कि मैं भी वही हूँ जो वे हैं

कि मैं भी ख़ुद उनके द्वार का पाँवपोश
उनके न्यायालय के 
गुम्बद का परकटा कबूतर

पर उन्हें विश्वास न था 
मेरी आँख में कुछ था जो घुलता न था 
और मेरी रीढ़ में थी कलफ़
और शायद रोओं से कभी-कभी फूटता था धुआँ
और सबसे अलग बात ये कि मैं अपना खाता
अपना ओढ़ता

व्यवस्था वैसे खुली थी मुक्त 
पर दिमाग बंद ही शोभता है
इसलिए वे परेशान थे 
इसलिए मैं लगातार घिरता जा रहा था 
जैसे सूअर पकड़ते थे घेर कर

और एक दिन आख़िर में मेरे मुँह से निकल ही गया
मारना ही है तो मार दो, बहाना क्यों?
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 जिस पर बीता

एक औरत पूरे शरीर से रो रही थी
एक पछाड़ थी वह
हाहाकार

उससे बड़ी औरत उसे छाती से 
बाँधे हुई थी पत्थर बनी
और एक रिक्शा खींच रहा था लगातार
चुप एकटक पैडल मारता 

हर घर हर दुकान को उकटेरता 
पूरे शहर में घूम रहा था
हाहाकार|
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 हार की जीत

नहीं, मुझे अपनी परवाह नहीं
परवाह नहीं कि हारें कि जीतें
हारते यों रहे ही हैं शुरू से 
लेकिन हार कर भी माथा उठा रहा 
और आत्मा जयी यवाँकुर-सी हर बार

सो, मुझे हार-जीत की परवाह नहीं 
लेकिन आज ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मैं खड़ा हूँ 
और 
मेरा माथा झुक रहा है
लगता है आत्मा रिस रही है तन से 
रक्त फट पड़ा है 
और मेरे कंधे लाश के बोझ से झुक रहे हैं

नहीं, यह बात किसी को मत बताना खड्ग सिंह 
नहीं तो लोग ग़रीबों पर विश्वास करना छोड़ देंगे|
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 ग़लतफ़हमी

उसने मुझे आदाब कहा और पूछा अरे, कहाँ रहे इतने रोज़
सुना आपके मामू का इंतकाल हो गया?

कौन? लगता है आपको कुछ.........

आप वो ही तो जो रमना में रहते हैं इमली के पेड़ के पीछे?

नहीं, मैं.......

अरे भई माफ़ कीजिए, बिलकुल वैसे ही दिखते हैं आप
वैसी ही शक्ल बाल वैसे ही सुफ़ेद और रंग भी........


कोई बात नहीं भई 
हम तो चाहते हैं कि एक चेहरा दूसरे से
दूसरा तीसरे से मिले और फिर सब एक से लगें,
सब में सब-

और हर बार हम सही से ज़्यादा ग़लत हों|
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  अरुण कमल 
जन्म : १५ फ़रवरी १९५४

शिक्षा : अंग्रेजी में एम.ए., पीएच.डी.

व्यवसाय : सेवानिवृत प्राध्यापक, अंग्रेजी विभाग, पटना विश्वविद्यालय

रचनाएँ : अपनी केवल धार, सबूत, नए इलाके में, पुतली में संसार,
मैं वो शंख महाशंख, योगफल - कविता संग्रह;
कविता और समय, गोलमेज़ - आलोचना; 
कथोपकथन - साक्षात्कार; अनुवाद आदि|

सम्पादन : साहित्यिक पत्रिका आलोचना का सम्पादन  

पुरस्कार : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, सोवियत भूमि पुरस्कार, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि|
                                                                                                   



सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

रीता दास राम

संत नहीं होता ख़ुदा

संत नहीं होता ख़ुदा
बहुत अज़ीज़ भी नहीं
ना ही वह 
जिससे नहीं चलती दुनिया 
ख़ुदा ख़ुदा है 
अपनी पूरी ख़ुदाई के साथ 
ग़म नहीं उसका साथ नहीं 
अकेले ही 
जीवन की जद्दोजहद क्या कम रूमानी है 
सुना है यहीं कहीं होता है... 
पर दिखता नहीं है ख़ुदा।  

सोमवार, 4 सितंबर 2023

पाण्डेय सरिता

यादें

दिन, महीने, साल
की गणना का बोझ!
जब अंक-गणितीय रूप में
दिल-दिमाग़ पर पड़ता है।
तो प्राचीनतम गाथा सा
गज़ब अहसास उभरता है।
वरना प्रत्येक भुलक्कड़ मन को
सांत्वना प्रतीति भ्रामक होती है;
मानो ये कल की ही बात है।
अँगूठी से गुज़रती
रेशमी चादर जैसी यादों में,
जाने कितने दशक
सिमट से जाते हैं।
अंकों की असीम दुनिया में,
किसी नन्हें से दशमलव की तरह।
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स्त्रीत्व

डर कर, थक, ऊब कर
वह प्रत्येक स्त्री!
जो आत्महत्या करके मर गई;
कमल और कुमुदिनी थी।
और जो ज़िंदा रह गई
फिक्र में घर-गृहस्थी,
बाल-बच्चों की 
वह औरत मुझे,
पोखर की हेहर/थेथर 
की डालियाँ लगी।
जिन्हें लाख उखाड़ कर फेंको,
पुनः फफक कर बेतहाशा 
चली आती है
जीवन की संभावना में,
पोखर के उरस जाने के बाद भी
मौजूदगी उनकी,
अचंभित कर जाती मुझे।
ज़िंदा कब्रगाह है,
उस पोखर के याद की,
संघर्षशील अस्तित्व बर्बाद सी।
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हेहर/थेथर - नहर, तालाब के किनारे उगने वाले हरे पौधे।
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सुन्दरियाँ

भगवान सृजते हैं,
स्त्री-काया रूप में
नरम-नाज़ुक कोमल,
मोह, ममतामयी माया!
लालसामय समर्पित
तन-मन जो पाया!
अनंत शौक-शृंगार के प्रति,
वेश-भूषा, जीवन की गति,
प्रेम-उत्साह, भर-भर रति,
रस-रूप-रंग-शृंगार समृद्धि;
सुंदरियाँ!
और फिर सब गुड़-गोबर के लिए,
दे देते बैल रूप में मूर्ख-दुर्मति!
साथ जिसके सुख-चैन की क्षति,
लंगूर के हाथ में हूर संगति!
रही एक तरफ,
सारी दुनिया हाथ मलती।
दूजी तरफ,
आजीवन लड़ते-मरते दुर्गति।
सत्यानाश-सर्वनाश होती;
सुंदरियाँ!
संघर्षशील धूप में पिघलने के लिए
छोड़ दी जाती तिरस्कृत,
मोम की तरह नाजुक सुंदरियाँ!
मृतक-संस्कारों के नाम पर
श्रद्धांजलि में भेंट गुलाब की,
चढ़ा दी जाती ये कोमल पंखुड़ियाँ!
रेगिस्तानी बियाबान में बदल गई,
हरे-भरे उपवन जैसी सुंदरियाँ!
असत्य-सत्य की पुष्टि में,
साक्ष्यहीन करने की कोशिश;
मदांध-अहं की तुष्टि में!
भावुक स्त्रीत्व की अनंत शक्तियाँ!
नहीं बर्दाश्त कर पा रही दुनिया
तो विषकन्या रूप में
परिवर्तित हो रही सुंदरियाँ!
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चटकी कली

लाख बहाने गढ़ लेते हैं आदमी,
नाकामियों को ढकने के;
अनगिनत बहाने,
रोने-धोने, सुबकने के।
रोष-पीड़ा से परे,
साहचर्य-युक्तमय जुड़े!
फुनगती पत्तियों का
अनुपम शृंगार लिए;
ये देखो सामने मेरे
चटकी हैं कलियाँ!
मुस्कुराती स्वागत में,
पलक-पाँवरे बिछाए,
अधोगामी भूमिस्थ;
टूटी डालियाँ!
जब देखती हैं,
दृष्टि मेरी सवालिया!
तो कहती हैं,
हँसती हुई,
"तू क्यों हतप्रभ?
प्राकृतिक-निष्पाप जीवन की
अनंत संभाव्यता लिए
पादप हूँ!
क्षीणकाय आदम नहीं।"
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अनुभूतियाँ

तीव्र उन्माद भरी,
जब भी बरसती हैं बूँदें!
गहन-अनुभूतियाँ जागीं,
अँखियों को मूंदें!
कानों के लिए
बड़ी चुनिंदा;
मात्र श्रव्यमय तीव्रता!
अनजाना बचपना,
जो मचलते हुए झूले!
काले बादलों के हिंडोले!
पड़ा विवश-औंधें!
जितनी गर्जना भरकर
बिजलियाँ कौंधें!
मन मेरा एकांत में खोजे,
दृश्यमान बिखरते खजाने;
जो आया लुटाने!
क्या पाओगे तुम लूट?
तत्क्षण, कुछ जिसमें है छूट!
अनुभवी अनुभूतियाँ,
परछाइयाँ, गहराइयाँ!
अँधेरे कोने में सिमटी,
देखती उजली दुनिया की
नटखट लड़ाइयाँ!
बौराई, प्रेममय प्रकृति औंघें!
उतनी ही गहराई से 
उतरती, अलसाती,
नशीली अँखियों में मेरे,
ये जादुई नींदें!
तीव्र उन्माद भरी,
जब भी बरसती हैं बूंँदें!
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मैं और मेरी कविता 

मैं और मेरे शब्द!
राजसी-तामसिक
किसी वासना के पुजारी!
शासक या कामी पुरुष के
स्वर्णिम रंग-महल की
शोभा बढ़ाती नग्न-मूर्ति
या चित्रकारी नहीं।
और ना ही,
अतिवादी उपभोग के
पालित-पोषित बाज़ार में
बहके दिमाग़ की उपज,
सुरा-सुन्दरी के सपनों में पलने वाला,
शराबी हाथ में छलकने वाला,
हर किसी के अधरों से लगने वाला,
कीमती रत्न-जड़ित स्वर्ण-रजत,
काँच या चीनी मिट्टी का प्याला!
मैं तो,
किसी खेतिहर मजदूर
या प्रकृति के प्रति संवेदनशील
जागृत, कोमल-भावुक-प्रेमोन्मत्त,
पारिवारिक-सामाजिक 
उत्तरदायित्व लिए भद्र-पुरुष के
होठों की जूठन,
चाय का कुल्हड़ हूँ।
हाँ, ये मेरी निजता।
सम्मान जिसका,
हर किसी को करना होगा।
अनधिकृत प्रवेश वर्जित,
सावधान!
मलीन किसी मनो-मस्तिष्कमय
हस्तक्षेप से डरना होगा।
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पाण्डेय सरिता
जन्म- 1 जुलाई
बालिका उच्च विद्यालय गोमोह,धनबाद,झारखण्ड से सन 1995 में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण। पंडित जवाहरलाल नेहरू इंटरमिडिएट कॉलेज गोमोह से सन 1997 में इंटरमिडिएट उत्तीर्ण। विनोबा भावे विश्वविद्यालय से स्नातक और स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र में। IGNOU से सन 2017 में हिन्दी में स्नातकोत्तर उत्तीर्ण। सन 2020 में प्रकाशित काव्य संग्रह 'रेत पर नदी' है। सन 2022 में प्रकाशित द्वितीय काव्य संग्रह यह पुस्तक 'रे मन मथनियाँ' है। सन 2022 में ही तीसरी प्रकाशित। पुस्तक प्रथम गद्य संग्रह रूप में 'स्पर्शन : कुछ अपना-बेगाना सा' है। पहला संस्मरणात्मक उपन्यास - 'रमक : नन्हा बचपन' साहित्य कुञ्ज.नेट पर उपलब्ध है। विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित असंख्य रचनाएँ हैं।

मंगलवार, 29 अगस्त 2023

अनुराग शर्मा

व्यथा कथा

जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
हाथ से बालू फिसले ऐसे वक़्त गुज़रता जाता है
बचपन बीता यौवन छूटा तेज़ बुढ़ापा आता है
जल की मीन को है आतुरता जाल में जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

सपने छूटे, अपने रूठे, गली गाँव सब दूर हुए
कल तक थे जो जग के मालिक मिलने से मजबूर हुए
बुद्धि कितनी जुगत लगाए मन भरमाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

छप्पन भोग से पेट भरे यह मन न भरता है
भटक-भटक कर यहाँ वहाँ चित्त खूब विचरता है
लोभ सँवरता न कोई सीमा है हथियाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

मुक्त नहीं हूँ मायाजाल मेरा मन खींचे है
जितना छोड़ूँ उतना ही यह मुझको भींचे है
जीवन की ये गलियाँ फिर-फिर आने-जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

भारी कदम कहाँ उठते हैं, गुज़रे रस्ते कब मुड़ते हैं
तंद्रा नहीं स्वप्न न कोई, छोर पलक के कम जुड़ते हैं
कोई खास वजह न दिखती नींद न आने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
जीवन एक व्यथा है सब कुछ छूटते जाने की।

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घोंसला

बच्चे सारे कहीं खो गए
देखो कितने बड़े हो गए
घुटनों के बल चले थे कभी 
पैरों पर खुद खड़े हो गए
मेहमाँ जैसे ही आते हैं अब
छोड़ के जबसे घर वो गए
प्यारे माली जो थे बाग में
उनमें से अब कई सो गए
याद से मन खिला जिनकी
यादों में ही नयन रो गए

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भाव-बेभाव

प्रेम तुम समझे नहीं, तो हम बताते भी तो क्या
थे रक़ीबों से घिरे तुम, हम बुलाते भी तो क्या 

वस्ल के क़िस्से ही सारे, नींद अपनी ले गए
विरह के सपने तुम्हारे, फिर डराते भी तो क्या

जो कहा, या जैसा समझा, वह कभी तुम थे नहीं
नक़्शा-ए-बुत-ए-काफ़िर, हम बनाते भी तो क्या

भावनाओं के भँवर में, हम फँसे, तुम तीर पर
बिक गए बेभाव जो, क़ीमत चुकाते भी तो क्या

अनुराग है तुमने कहा, पर प्रीत दिल में थी नहीं
हम किसी अहसान की, बोली लगाते भी तो क्या

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वफ़ा

वफ़ा ज्यूँ हमने निभायी, कोई निभाये क्यूँ
किसी के ताने पे दुनिया को छोड़ जाये क्यूँ॥

कराह आह-ओ-फ़ुग़ाँ न कभी जो सुन पाया
ग़रज़ पे अपनी बार-बार वह बुलाये क्यूँ॥

सही-ग़लत की है हमको तमीज़ जानेमन
न करें क्या, या करें क्या, कोई बताये क्यूँ॥

झुलस रहा है बदन, पर दिमाग़ ठंडा है
जो आग दिल में लगी हमनवा बुझाये क्यूँ॥

थे हमसफर तो बात और हुआ करती थी
वो दिल्लगी से हमें अब भला सताये क्यूँ॥

जो बार-बार हमें छोड़ बिछड़ जाता था 
वो बार-बार मेरे दर पे अब भी आये क्यूँ॥

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अनुराग शर्मा
जन्म स्थान : रामपुर, उत्तर प्रदेश 
शिक्षा : प्रबंधन व सूचना प्रौद्योगिकी में स्नातकोत्तर
प्रकाशित पुस्तकें : मेरी लघुकथाएँ, आधी सदी का किस्सा, अनुरागी मन, छोटी सी बात, पतझड़ सावन वसंत बहार, इंडिया ऐज़ एन आईटी सुपरपॉवर तथा कई साझा संकलन
ऑडियो बुक्स : सुनो कहानी (प्रेमचंद की कहानियों की पहली ऑडियो बुक), विनोबा भावे के गीता प्रवचन, तथा अनेक कहानियाँ, रेडियो नाटक, व ऑनलाइन कवि-सम्मेलन। हिंदी साहित्यिक पॉडकास्टिंग के सबसे पुराने स्तम्भ
पुरस्कार : महात्मा गांधी संस्थान का प्रथम ‘आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान’ 2016-2017 तथा कुछ अन्य उल्लेख
संप्रति : पिट्सबर्ग से हिंदी व अँग्रेज़ी में प्रकाशित मासिक, सेतु के मुख्य समूह संपादक।

सोमवार, 28 अगस्त 2023

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

निश्चय के नीरज

धरा पहनना छोड़ रही है
पानी वाला 'गाउन'।
 
समाचार-पत्रों के 'कालम'
क्या-क्या कहते हैं,
और आप हैं, पता नहीं किस
ग्रह पर रहते हैं,
पहुँचाते संदेश घरों तक
विज्ञापन के 'नाउन'।
 
अब तालाब, भूमिगत जल पर
आया है संकट,
वर्षा के जल संरक्षण की
दिव्यदृष्टि वंकट,
बादल ने भी ग्रहण किया है
अनावृष्टि का 'क्राउन'।
 
विश्ववाद के शहरों में है  
अनिष्ट की आहट
कुटिल चाल चलते आए हैं
चतुराई के नट,
पानी बिना मरुस्थल से हैं
कई-कई 'टाउन'।
 
है समाप्त इन क्षमताओं का
वैज्ञानिक धीरज,
कभी नहीं खिलते होंठों पर
निश्चय के नीरज,
लेकिन 'डॉक्युमेंट' का पारा
हुआ नहीं 'डाउन'।

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अनपढ़ अबश कबीर

तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते लोग।
         
शोभनतम यह रात चाँदनी,
कल थी काली रात,
एक पूर्णिमा की जगमग है,
एक अमावस ज्ञात,
तब दिन होता,
जब जग जाते, 
सोए रहते रोग।
 
जहाँ अरुण की अणिमाओं से,
पुलकित होती शाम,
जहाँ कृष्ण-राधा का रसिया,
सरयू तट के राम,
तब दिन होता,
जब जग जाते,
सोए रहते योग।
 
सुख-दुख के इन कठिन कछारों
की नदियों के नीर,
भोजन पा जाते सब भटके  
अनपढ़ अबश कबीर,
तब दिन होता, 
जब जग जाते,
सोए रहते भोग।

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कैसे दिन कटिहें?

लोग न लरिका!
कहो दुवरिका!!
कैसे दिन कटिहें?
तर्ज बुढ़ापे का।
 
'आगे नाथ न,
पीछे पगहा'
हुई कहावत साँच,
जो थे अपने,
नहीं उठाए
वय अस्सी की खाँच,
थाल पितरिहा!
बुधन बकरिहा!
कैसे दिन कटिहें?
मर्ज बुढ़ापे का।
 
कहने को तो,
पास-पड़ोसी,
कहते देंगे साथ,
मिलते मौका,
मारे चौका,
पकड़ न पाए हाथ,
कहो अन्हरिया!
कहो अँजोरिया!
कैसे दिन कटिहें?
कर्ज़ बुढ़ापे का।
 
सुबह-शाम का,
समय सपेरा,
खड़ा लगाए घात,
पढ़-पढ़ पिछले,
दिन की गीता, 
कट जाती है रात,
कजरा-कजरी!
बदरा-बदरी!
कैसे दिन कटिहें?
फ़र्ज़ बुढ़ापे का।

--------

कैसे रात कटेगी, चिंता

बीत गया दिन,
टिक-टिक कर ही,
कैसे रात कटेगी, चिंता।
 
महुआ खिला-खिला सपनों को,
किसी तरह से घर भेजा है,
घर में एक नहीं है दाना,
एक ब्रेड का ही रेजा है,
चूल्हा हुआ,
जलाना मुश्किल,
कैसे बात बनेगी, चिंता।
 
गई हुई थी, वह भिनसारे,
लेने कुछ दुकान से माहुर,
किन्तु नियति ने भेज दिया था,
नहीं प्राण देने का पाहुर,
'कोई नहीं,
कमाने वाला'
कैसे दाल गलेगी, चिंता।
 
सुबह-सुबह, समयी आर्द्राओं,
का बरसा है, झम-झम पानी।
सैलाबी, बढ़ाव उमड़ा है,
दुख-यमुना की, चढ़ी जवानी,
आँगन-द्वार,
हुए जलप्लावित,
कैसे खाट बिछेगी, चिंता।

--------

नहीं जाना चाहता था 

नहीं जाना चाहता था,
छोड़कर मैं यह शहर,
किंतु जाना पड़ रहा है।
 
सभी परिचित मार्ग, सावन
की घटा-सी, रो रहे हैं,
पर्ण मन-कचनार के भी,
बहुत चिंतित हो रहे हैं,
विलगता के इन क्षणों में,
साथ जब कोई न हो,
मोह-काँटा गड़ रहा है।
 
लाल चंदन मित्र-सम सब,
दूर मुझसे हो गए हैं,
स्नेह के गुल-गुच्छ अँगना,
मानसिक दुख बो गए हैं,
एक असमंजस अहर्निश,
चेतना की वादियों में,
सांत्वना से लड़ रहा है।
 
बात सुन कनफूँकनों की,
कान मेरे पक गए हैं,
वर्ष का गट्ठर उठाते,
पैर दोनों थक गए हैं,
आयु की जूती फटी है,
है खड़ा अनजान अवसर,
नाल तलवों जड़ रहा है।

--------

है अपरिचित पथ

चल रहे हैं,
और इतना जानते हैं,
है अपरिचित पथ।
 
है पता यह भी नहीं,
हम दूर कितना चल चुके हैं,
छंद के साँचे नए जो,
शब्द कितने ढल चुके हैं,
लिए जाता
है कहाँ? किस अग्निपथ पर?
एक अर्जुन-रथ।
 
गीत कुछ आरंभ के,
इतने पुराने हो गए हैं,
समय के उपनगर की,
धुँधली किरन में खो गए हैं,
किन्तु उन सब
में दमकती आज भी है,
जड़ित मोती-नथ।
 
तथ्य सब संदर्भ के
पक, बहुत पीले हो गए हैं,
कोट के जितने बटन
हैं, बहुत ढीले हो गए हैं,
रक्तरंजित,
शहर उजड़े, आज चिंतित,
मनुजता लथ-पथ

--------

उभरे मन के द्वंद्व

अधिक दिनों तक
नहीं रह सकी
जीवित, मन की सोच।
 
रचना के मन के विकास की,
करनी है व्याख्या,
देखें कितना साथ दे रही,
विवरण की आख्या,
उभरे मन के
द्वंद्व बने हैं   
मार्ग-चिह्न के कोच।
 
चुभनों के आदर्शों के वन,
छंद-गीत बोए,
गुँथे हुए आटे-सा शब्दों की
आकृति, पोए,
लय-लहरों के
नस तक पहुँची
व्याकुलता की मोच।
 
ध्रुवण किए उत्पन्न प्रकृति की
कोमलता के सुर,
बसते गए खुले पन्नों पर,
वर्णावलि के पुर,
भावों के
प्रावीण्य-नगर में,
हुई अर्थ की नोच

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शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

सहयोगी जी का जन्म 2 जुलाई 1950 को ग्राम- सुरजन छपरा, जनपद - बलिया, (उ.प्र.) में हुआ। इनकी शिक्षा विज्ञान स्नातक (प्रयागराज विश्वविद्यालय,प्रयागराज), शिक्षा स्नातक (टाउन डिग्री कालेज, बलिया) से हुई।
कुछ प्रकाशित कृतियाँ -
काव्य संग्रह- 'एक शून्य' (2005), 'जीवन की हलचल' (2006), 'गाँववाला घर' (2007), 'समय की फुँकार' (2008), 'माँ जीत ही जाएगी' (2009), ग़ज़ल संग्रह- 'बिखरा आसमान' (2010)।

बुधवार, 23 अगस्त 2023

सरस दरबारी

एक प्रेम कविता

आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखुँ
आज तक जो भी लिखा
तुम से ही जुड़ा था 
उसमें विरह था 
दूरियाँ थीं, शिकायतें थीं
इंतज़ार था, यादें थीं
लेकिन प्रेम जैसा कुछ भी नहीं
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी
हम थे
नींद में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर
सिरहाना बना आश्वस्त हो सोई हूँ
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी
और पहुँचते ही महायुद्ध!
तुम्हारे कहे बगैर 
तुम्हारी चिंताएँ टोह लेना
और तुम्हारा उन्हें यथासंभव छिपाना
हर जन्मदिन पर रजनीगंधा और एक कार्ड
जानते हो उसके बगैर
मेरा जन्मदिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथ ले
चाँदनी रातों में नहीं घूमे
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे
यही तै किया था न 
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद 
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्हीं आदतों में
न जाने कब 
प्यार शुमार हो गया 
चुपके से
दबे पाँव

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फ़र्क पड़ना

तुम्हारा यह कहना की तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
दिन की पहली चाय का पहला घूँट 
तुम लो 
मेरे इस इंतज़ार से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
तुमसे अकारण ही हुई बहस से 
माथे पर उभरीं उन सिलवटों से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
मंदिर की सीढियाँ चढ़ते हुए, दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से...
तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
इस तरह.. रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बात से तुम्हें फ़र्क पड़ता है!
फिर जीवन के अहम निर्णयों में -
कैसे मान लूँ ...
कि तुम्हें फ़र्क नहीं पड़ता...!
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर सेंध को भर
उसे मज़बूत बनाता है
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी-छोटी खुशियाँ उस पर खिलकर
उस रिश्ते को संपूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना' तो वह नींव है
जो जितनी गहरी,
उतने ही मज़बूती
और ऊँचाइयाँ पाते हैं रिश्ते...!

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यादें ...कुछ ऐसी भी

अनगिनत यादें
पोटलियों में खुर्सी हुई
आलों पर दुबकी
कुछ सीली सी
अलगनी पर टँगी
कुछ तुम्हारी दी हुई
सूखे फूलों की शक्ल में
किताबों में दबीं
कुछ इबारत बनकर
पन्नों में छपी
कुछ यादें 
आज भी झूल रहीं हैं
पालनों, झबलों,
तिकोनियों, में
कुछ अधूरे खिलौनों में
कुछ कसैली यादें
खूँटा गाढ़ बैठी हैं
मन के नम कोनों में
जहाँ खुशी की धूप
अपनत्व की ऊष्मा
नही पहुँच पाती
पलों हफ्तों महीनों सालों
के विस्तार में फैली यह यादें
बंधी हैं एक मजबूत डोर से 
जिसके दूसरे सिरे पर 
तुम हो....!

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मित्र नीम

तुम्हें कड़वा क्यों कहा जाता है 
तुम्हें तो सदा मीठी यादों से ही जुड़ा पाया 
बचपन के वे दिन जब
गर्मियों की छुट्टियों में 
कच्ची मिटटी की गोद में 
तुम्हारी ममता बरसाती छाँव में,
कभी कोयल की कुहुक से कुहुक मिला उसे चिढ़ाते 
कभी खटिया की अर्द्वाइन ढीली कर
बारी-बारी से झूला झुलाते 
और रोज़ सज़ा पाते
कच्ची अमिया की फाँकों में नमक मिर्च लगा
इंतज़ार में गिट्टे खेलते 
और रिसती खटास को चटखारे ले खाते....
भूतों की कहानियाँ 
हमेशा तुमसे जुड़ी रहतीं 
एक डर, एक कौतुहल, एक रोमांच
हमेशा तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराता
और हम
अँधेरे में आँखें गढ़ा
कुछ डरे... कुछ सहमे
तुम्हारे आसपास 
घुंघरुओं के स्वर और आकृतियाँ खोजते 
समय बीता -
अब नीम की ओट से चाँद को
अठखेलियाँ करता पाते
सिहरते, शर्माते -
चांदनी से बतियाते -
और कुछ जिज्ञासु अहसासों को
निम्बोरियाओं सा खिला पाते 
तुम सदैव एक अंतरंग मित्र रहे
कभी चोट और टीसों पर मरहम बन 
कभी सौंदर्य प्रसाधन का लेप बन 
तेज़ ज्वर में तुम्हें ही सिरहाने पाया 
तुम्हारे स्पर्श ने हर कष्ट दूर भगाया
यही सब सोच मन उदास हो जाता है
इतनी मिठास के बाद भी
तुम्हें क्यों कड़वा कहा जाता है...!

--------

कुछ क्षणिकाएँ

1.
बचपन की आदतें
कभी नहीं भूलतीं
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा
कितनी शान से घूमते थे
जिस रंग का चश्मा 
उसी रंग की दुनिया 
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है 
आँखों पर -
प्रेम,
द्वेष,
पक्षपात का चश्मा लगाये
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
------

2.
बड़प्पन
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ़ एक लकीर
खींचनी है 
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे 
अपने व्यक्तित्व की 
एक छोटी लकीर ..!
------

3. 
खुरचन 
तपती कढ़ाई के किनारों पर 
जमी खुरचन -
किसे नहीं सुहाती!
सच..!
दर्द जितना गहरा -
उतना मीठा!
------

4. 
कान 
सुना था कभी 
शरीर के अनावश्यक अंग झड़ जाते हैं
जिस हिस्से की नहीं ज़रुरत 
वह छिन्न हो जाते हैं
और जो इस्तेमाल हों 
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं 
मैंने हाल ही में 
दीवारों के कान उगते देखे हैं ...!

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सरस दरबारी

जन्म - 09 सितंबर 1958। मुंबई विश्व विद्यालय से राजनितिक विज्ञान में स्नातक। कविताएँ- दोहे, हाइकु, महिया, गीत छंदमुक्त रचनाएँ, कहानियाँ, आलेख, लघु कथाएँ आदि विधाओं में लेखन।
प्रकाशित पुस्तकें - 10 साझा काव्य संग्रह व 5 साझा लघुकथा संग्रह। 
वासंती बयार- वसंत पर साझा संकलन। ब्लॉगर्स के अधूरे सपनों की कसक (साझा संस्मरण)। नारी विमर्श के अर्थ में आलेख। महिला साहित्यकारों की समस्या (अयान प्रकाशन) में आलेख। नहीं, अब और नहीं (सांप्रदायिक दंगों की कहानियों का साझा संकलन)। एकल काव्य संग्रह – मेरे हिस्से की धूप। आकाशवाणी मुंबई से 'हिंदी युववाणी' व मुंबई दूरदर्शन से 'हिंदी युवदर्शन' का संचालन। 'फिल्म्स डिविज़न ऑफ़ इंडिया' के पैनल पर 'अप्रूव्ड वॉईस'।
सम्मान - एकल काव्य संग्रह 'मेरे हिस्से की धूप' के लिए 'राधा अवधेश स्मृति पांडुलिपि सम्मान'।
डाक का पता - श्रीमती सरस दरबारी, E-104, सकन्द अपार्टमेंट, लूकरगंज, प्रयागराज 21001
ईमेल - sarasdarbari@gmail.com

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

संतोष श्रीवास्तव

आंदोलिता हवाएँ 

ये आंदोलिता हवाएँ
टिकने न देंगी मोम पर 
जलती, थरथराती लौ

अँधेरे से निपटने की
तमाम कोशिशें 
नाकाम करने पर उतारू 
इन हवाओं का
नहीं कोई ठिकाना

गुज़रती जा रही हैं 
कुसुम दल से,डालियों से,
झील के विस्तार को झकझोरती

मोम के आगोश में 
लौ का बुझता, मरता अस्तित्व
पर यह उतना आसान भी न था

सम्हाल रखा है
एक आतुर प्रण लिए
तरल मोम ने बूँद-सी लौ को 
लड़ने की पूरी ताकत से 
एक आंदोलन हवा के खिलाफ़ 
वहाँ भी तो था

--------

अभिशप्त

रात तेरे रोने की आवाज़ से 
अनंत पीड़ा में भी 
मुस्कुरा उठी थी मैं
मेरे रक्त का हर कतरा 
शिराओं में तेज बहता  
कर रहा था ऐलान 
कि तू आ गई है 

महीनों मैं तुझे 
महसूस करती रही 
खेतों की चटखी दरारों में 
जंगल की भयभीत आवाज़ों में 
गहन अंधकार में 
तड़पती बिजलियों में 
नावों के असंख्य झुके पालों में 
पर्वत पर की अनछुई बर्फ में 
शूलों की नौकों में 
पीत पर्णों की 
पेड़ों की शरण तलाशती
डरी हुई आकांक्षाओं में 

पता नहीं ऐसा क्यों मैंने सोचा 
पता नहीं कुछ बेहतर 
क्यों न सोच पाई मैं 
पता नहीं क्यों लगता रहा 
कि पौ फटते ही असंख्य हाथ 
तेरे पालने की ओर बढ़ेंगे 

कैसे बचा पाऊँगी तुझे 
क्या मैं भयभीत सृष्टि का 
हिस्सा नहीं हो गई 
जिसमें अनंत काल से तू 
जन्म लेते ही या लेने से पहले ही 
छूट जाती रही मेरी सर्जना से 

क्यों साँसों का तेरा हिसाब 
इतना सीमित 
मेरे ज़ख्मों के दस्तावेज़ पर 
मोहर लगाता 
मात्र कुछ घंटों के लिए 
तेरा अवतरित होना 
और विदा कर देना
संवेदनहीन धारणाओं की 
अभिशप्त सोच के द्वारा
 
--------

आषाढ़ की बूँदें

खिड़की के शीशों पर
अनवरत दस्तक देती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

धारासार बारिश में 
दौड़ते शहर के पैरों में 
बेड़ियाँ पहना  
भय और रोमांच की जुगलबंदी 
कराती हैं 
आषाढ़ की बूँदें

लिखना चाहती हूँ
पर न भाव जुटते, न छंद 
निरर्थक शब्दों के इक्का-दुक्का 
पड़ाव आते हैं 
मेघ के टुकड़े बन 
फिर समा जाती हैं
अथाह मेरे अकेलेपन की मर्मर में 
आषाढ़ की बूँदें

विरही यक्ष विचलित है 
पहाड़ पर लोटते बादलों को देख 
ढूँढना चाहता है दूत
जो यक्षिणी तक पहुँचा सके 
विरह की वेदना 
मिलते ही यक्ष को मेघदूत
थिरक उठती हैं
आषाढ़ की बूँदें

घन घटाओं से लैस 
आषाढ़ का पहला दिन 
शहतूत की कोंपलों पर
वनचंपा के पराग पर 
मधुमालती की लचक पर 
तिरती हैं
आषाढ़ की बूँदें 

मेरी ऊँगलियों के बीच 
फँसी है कलम 
भावों की कुलबुलाहट में 
छिटक जाती हैं 
आषाढ़ की बूँदें 

कलम माँग बैठती है 
पानी नहीं, आग...... आग चाहिए 
ठिठक गई हैं जहाँ की तहाँ 
आषाढ़ की बूँदें
 
--------

चिलमन की गवाही

जैसे ही बाहर आई 
कठोरता से लड़कर 
काँटों पर चलकर 
हौले-हौले 
पंखुड़ी की चिलमन में 
जुंबिश हुई

झाँकना चाहा 
बाहर की दुनिया को 
पेड़ के अधीन रहने की 
परंपरा को तोड़कर 
उन्मुक्त, विस्तार देना चाहा

जबकि बसंत 
अपने पूरे दाँव पेंच से 
सवार था उस पर 
हवा भी तो छू-छूकर 
बार-बार उसे चिढ़ाती रही 
उसके सिकुड़े, अधूरे तन को 
डुलाती रही पेड़ की रची सीमाओं में

चिलमन की चुन्नटे 
कैद दायरे में 
कसमसाती रही

दूर आसमान में 
तड़प के ताप से बने 
बादलों की बूंदों ने 
रिमझिम फुहारों की दस्तक दे चिलमन को 
धरती की ओर झुका दिया

अब साँसे दुश्वार थी 
वह हाँफती अंतिम साँसों में 
हवा के कंधों पर सवार 
...............चिलमन 
एक अधखिली कली की 
गवाही बन 
धरती पर बिखर गई

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संतोष श्रीवास्तव

कहानी, उपन्यास, कविता, स्त्री विमर्श, संस्मरण, लघुकथा, साक्षात्कार, आत्मकथा सहित अब तक 23 किताबें प्रकाशित।
देश-विदेश के मिलाकर कुल 23 पुरस्कार मिल चुके हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि। "मुझे जन्म दो माँ" स्त्री के विभिन्न पहलुओं पर आधारित पुस्तक रिफरेंस बुक के रुप में विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मिलित।
मुंबई में निवास। यूनिवर्सिटी में कोऑर्डिनेटर के पद से अवकाश के बाद अब भोपाल में स्थाई निवास। 
सम्प्रति - स्वतंत्र पत्रकारिता।
मो० - 09769023188
ईमेल - Kalamkar.santosh@gmail.com

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