1. लड़की मुस्कुराती है
न सिर्फ़ तस्वीरों में बल्कि आमने-सामने भी
लेकिन उसके मुस्कुराने से नहीं बजता जलतरंग
कोई इंद्रधनुष आसमान पर नहीं सजता
कहीं फूल नहीं खिलते
पक्षी चहचहाते नहीं हैं
और न ही हवा कोई गीत गुनगुनाती है
मुस्कुराहट के साथ
सुखी दिखने की चेष्टा लड़की का उद्यम है
और दुःख… लड़की का भाग्य
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2. आँख में पड़े तिनके सा है जीवन
जब तक रहता है
तब तक चुभता है
इतना छोटा
कि न कोई ओर मिलता है न ही कोई छोर
खप जाती है सारी ऊर्जा, सारा समय
इसे छोड़ने या इस से छूट जाने में
और जब यह छूटता है तो कुछ नहीं बचता
सिवाय….. धुंध और आँसुओं के
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3. लौटती आस के साथ
नहीं लौटता वही समय
समय बीत जाता है
बनी रहती है आस
ताकि बीतता रहे समय
आस… नियति की असीम संभावनाओं का कुचक्र मात्र है।
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4. दुःख और अकेलापन सहोदर हैं
किस ने पहले जन्म लिया
यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता
लेकिन वे साथ-साथ चलते हैं
एक-दूसरे के पूरक बन
स्वार्थी संसार को सहभागिता का पाठ पढ़ाते !
ख़ुशियाँ कम थीं और छोटी भी
दुःख अनादि, अनंत और अशेष
सुख आता-जाता रहा
लेकिन दुःख अनवरत रहा
हमेशा साथ
बावजूद इसके
हम इंसानों ने कभी दुःख की कदर नहीं की
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5. ब्रह्मांड की अनंत गतियों के मध्य
मेरे मन की अपनी गति है
मेरा दुःख और मेरे आँसू
किसी बिग बैंग सरीखी घटना की प्रतीक्षा में
इस समय केवल मुझ तक सीमित हैं
दसों दिशाओं में वक्रीय गति से
मुझे खींचता है दुःख
किन्तु मैं आँखें बंद किए, मुस्कुराते हुए
क्षितिज पर टिमटिमाते प्रकाश की दिशा में रेखीय चल रही हूँ
जानती हूँ
चाहे स्थिति कैसी भी हो,
‘द शो मस्ट गो ऑन’\
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6. मुक्ति
चरित्र के समस्त आयाम
केवल स्त्री के लिए ही परिभाषित हैं
मैं सिंदूर लगाना नहीं भूलती
और हर जगह स्टेटस में मैरिड लगा रखा है
जैसे यह कोई सुरक्षा-चक्र हो
मैं डरती हूँ
जब कोई पुरुष मेरा एक क़रीबी दोस्त बनता है
मुझे बहुत सोच-समझकर
शब्दों का चयन करना पड़ता है
प्रेम का प्रदर्शन
और भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति
सदैव मेरे चरित्र पर एक प्रश्नचिह्न लगाती है
मेरी बेबाकियाँ मुझे चरित्रहीन के समकक्ष ले जाती हैं
और मेरी उन्मुक्त हँसी
एक अनकहे आमंत्रण का
पर्याय मानी जाती है
मैं अभिशप्त हूँ
पुरुष की खुली सोच को स्वीकार करने के लिए
और साथ ही विवश हूँ
अपनी खुली सोच पर नियंत्रण रखने के लिए
मुझे शोभा देता है
ख़ूबसूरत लगना
स्वादिष्ट भोजन पकाना
और वे सारी ज़िम्मेदारियाँ
अकेले उठाना
जिन्हें साझा किया जाना चाहिए
जब मैं इस दायरे के बाहर सोचती हूँ
मैं कहीं खप नहीं पाती
स्त्री समाज मुझे जलन और हेय की
मिली-जुली दृष्टि से देखता है
और पुरुष समाज
मुझमें अपने अवसर तलाश करता है
मेरी सोच... मेरी संवेदनाएँ
मेरी ही घुटन का सबब बनती हैं
मैं छटपटाती हूँ
क्या स्वयं की क़ैद से मुक्ति संभव है?
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पूनम सोनछात्रा
पूनम सोनछात्रा का जन्म 7 अप्रैल 1982 में छत्तीसगढ़ के भिलाई नामक स्थान पर हुआ। इन्होंने गणित में एम.एस.सी की। वर्तमान समय में पूनम जी अध्यापन कार्य में संलग्न हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित होती रही हैं। 'एक फूल का शोकगीत' इनका प्रसिद्ध कविता संग्रह है।
ईमेल: poonamsonchhatra@gnail.com
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