बुधवार, 30 अप्रैल 2025

भूपेंद्र बिष्ट


1. अफ़ग़ान स्नो 


माँ के साथ ही खत्म हो गई कुछ चीज़ें 
कुछ सब्जियाँ 
जिन्हें पिता ना जाने कहाँ से लाते थे 
और माँ ही बनाना जानती थी उनको 
अब दिखाई नहीं पड़ती 

जिग्स कालरा की पाककला पुस्तकों में 
ल्यूण , सगीना, उगल और तिमिले:
इन जैसी सब्जियों के कुछ चित्र मौजूद हैं  
अलबत्ता दूसरे नामों से/ कुछ घर गृहस्थियाँ चल जाती होंगी
अजवायन के बग़ैर, या मेथी के दाने ना हों तब भी 
पर माँ के पास प्याज के 
छोटे-छोटे काले बीज तक रहते थे इफ़रात में

आषाढ़ शुक्लपक्ष की देवशयनी एकादशी से 
कार्तिक में देवोत्थान एकादशी तक 
पहाड़ी दाल में छोंक-तड़का नायाब
दही-आलू में बघार- धुंगार अद्भुत

पर मैंने उनकी याद को बनाए रखने का जतन किया है /
मुक़्कमल अफ़ग़ान स्नो की एक पुरानी खाली डिबिया 
साफ कर/ उसमें रख छोड़ा है जीरा

माँ की पिटारी में भीमसेनी काजल की छोटी डिबिया 
और भृंगराज केश तेल की एक शीशी के साथ 
अंटी पड़ी मिली थी 
मुझे यह अफ़ग़ान स्नो की डिबिया।

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2. समय बदल रहा है तेजी से

 

समय बदल रहा है तेजी से 
यह कोई कह नहीं रहा 
हर ज़र्रा, हर शय से ऐसे बोल फूट रहे हैं अपने आप 
और हम मानो उसे आँखों से सुन रहे हों  

पिता जा रहे हैं काम पर 
माँ से कहते हुए- यार तुम समझती नहीं हो 
पर सुनाई पड़ रहा है जैसे कह रहे हों  
समय बदल रहा है तेजी से 
फालतू कुत्ते अब गश्त पर निकलने लगे हैं 
वनस्पतियाँ ओढ़ रही हैं मौसम के विपरीत रंग 
छत पर छतरी सही सलामत 
अंदर टीवी चालू हालत में 
भरे पूरे परिवार में पर एक भी जन अब दिखता नहीं 
उसी कमरे में जहाँ रखा गया है बुद्ध बक्सा 

कह दिया है छोटे भाई ने: मम्मी
आज मंगल को तो मैं पढ़ लूंगा हनुमान चालीसा 
पर शनिश्चर के दिन दीदी पढ़ेंगी
लगी रहती है हर वक्त मोबाइल पर 
रात के 9 बज गए 
खाने की खटर-पटर कुछ भी नहीं

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3. सूटकेस 


क लंबे समय तक 
बड़े शहर में रह चुकने के बाद 
अपने गाँव आते हैं जब हम 
तो हमारे हाथ में सूटकेस होता है 

इधर हाल में बनवाई गई चार कमीज, दो पैंट्स 
एक जोड़ा तौलिया, ब्रश, आफ्टर शेव और एक मैगज़ीन 
जाने क्या-क्या होता है हमारे सूटकेस में 

गाँव में सुबह दो मर्तबा खोलते हैं हम सूटकेस 
दिन में तीन बार 
हमारे अलावा इसे कोई छू भी नहीं सकता 
बचपन में जिन खेतों की तरफ 
हम जाते तक नहीं थे 

वहाँ सुबह शाम टहलते हैं इस बार 
जिन जगहों पर एक क्षण भी नहीं टिकते थे 
वहाँ घंटे खड़े रहते हैं अब 

लौट कर फिर से खोलते हैं सूटकेस 
चार दिन में ही ऊब जाते हैं गाँव से हम 
बंद करते हैं सूटकेस 

वापस लौट जाते हैं शहर को 
सारा गाँव देखा है हमें जाते हुए 
हमारे हाथ में होता है सूटकेस। 

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4. माँ का नाम 


बचपन में छुपा दी गई 
उसकी तख्ती और दवात  
और इस तरह दूर रखा गया 
उसे, वर्णमाला सीखने से 

बाद में 
लकड़ी और घास के बड़े-बड़े गट्ठर
रख दिए गए सिर पर 
ताकि स्वप्न-वय की कोई उमंग उठा ना सके
यह माँ थी मेरी
पहले पैरा वाली बात बताई थी
उसने मुझे 
एक दिन बातों-बातों में 
दूसरे पैरा वाली बात 
मैंने खुद महसूस की,
उसके चले जाने के बाद 

मैं जीवन-भर उसका नाम ना जान सका 
नाम दिखा मुझे 'विशना' 
एक दिन पिता के सरकारी दस्तावेजों में 
संशय है अब भी
कि माँ के नाम वाला 'स'
तालव्य ही है या होना चाहिए दंत्य 
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं 
वह रहा होगा वहाँ मूर्धन्य। 

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भूपेंद्र बिष्ट










भूपेंद्र बिष्ट का जन्म 15 अगस्त 1958 को अल्मोड़ा उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव में हुआ। नैनीताल एवं बी.एच.यू वाराणसी से उच्च शिक्षा प्राप्त भुपेंद्र बिष्ट ने बैचलर ऑफ़ जर्नलिज्म और 'स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में जीवन मूल्य: स्वरूप और विकास' विषय पर पीएच.डी की । 2023 में इनका पहला कविता संग्रह 'गोठ में बाघ' प्रकाशित हुआ। 1983 में पोएट्री सोसायटी (इंडिया) द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में इनकी कविताएँ चयनित की गईं।
             धर्मयुग, दिनमान, पराग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कदंबिनी, सरिता, इंडिया टुडे, हंस, वागार्थ, जनसत्ता, कथादेश, पाखी, व्यंग्य यात्रा आदि पत्रिकाओं समेत कई अखबारों में आलेख, कविताएँ, गीत-गजल और समीक्षाएँ प्रकाशित हैं। ईमेल-cpo.cane@gmail.com

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