1. होना
कुछ लोगों का होना
'होना'
लगता ही नहीं
जैसे नहीं लगता
नाक का होना
या साँस का होना भी
'होना' है।
पर इनके नहीं होने पर
संदेह होता है
ख़ुद के 'होने' पर
यह कैसा होना है
कि जब तक होता है
बिल्कुल नहीं होता
पर जब नहीं होता
तो कमबख़्त इतना अधिक होता है
कि जीना मुहाल हो जाता है।
जैसे नहीं लगता
नाक का होना
या साँस का होना भी
'होना' है।
पर इनके नहीं होने पर
संदेह होता है
ख़ुद के 'होने' पर
यह कैसा होना है
कि जब तक होता है
बिल्कुल नहीं होता
पर जब नहीं होता
तो कमबख़्त इतना अधिक होता है
कि जीना मुहाल हो जाता है।
_____________________________________
2. ताला
आख़िर
कहाँ से आया ताला
क्यों आया ताला
वे सब बनाते हैं घर
कहते हैं हम जिन्हें
जानवर
कोई नहीं लगाता ताला
इतना सुंदर घर बनाने वाली बया
सिटकनी तक नहीं लगाती
अलगाव की कोख से निकला होगा
पहला ताला
जो दरवाज़ों पर नहीं
रिश्तों पर
लगा होगा
किसने लगाया होगा पहला ताला
इतना तो तय है
किसी बच्चे ने नहीं
किसी ग़रीब ने नहीं
किसी मज़दूर ने नहीं
किसी बेवक़ूफ़ ने भी नहीं
किसी समझदार ने
लगाया होगा पहला ताला
जिसे बहुत डराया होगा
उसकी संपत्ति ने
क्या समझदारी एक ताला है
या संपत्ति ही ताला है।
पहले संपत्ति आई
या ताला
प्रकृति से बड़ा ऐश्वर्यशाली
कौन है भला
कैसा लगे
जब एक दिन पेड़
अपने फलों पर लगा दें ताले
नदी बोले सावधान
तुमने खो दिया मेरा पानी पीने का हक़
किसने दी उस नल पर ताला लगाने की इजाज़त
जिसमें भरा है मेरा पानी
और तब क्या हो
जब बोले सूरज
आज तालाबंदी रहेगी धूप पर
अप्राकृतिक है ताला
वह घर पर हो
या ज़ुबान पर
अब इस उलटबाँसी का क्या करें
जितनी सभ्य होती जाती है दुनिया
बढ़ते जाते हैं ताले
क़िसिम-क़िसिम के ताले
तिजोरी के, दरवाज़े के, कम्प्यूटर के
रिश्तों के,
संबंधों के,
परिवारों के,
उसी अनुपात में
बढ़ते जाते हैं ताले तोड़ने वाले
क्या कर लेंगे ये ताले?
ताले नहीं डालते तालाब
ताल मिलाते हैं जीव-जंतु
ताले बंद करते समय
बार-बार होता है
यह एहसास
दूसरे नहीं
हम ख़ुद बंद हो रहे होते हैं
तालों में।
_____________________________________
3. हादसा
हादसों के मेरे शहर में
जिस दिन नहीं होता
कोई हादसा
लगता है
हादसा हो गया
कोई हादसा
लगता है
हादसा हो गया
_____________________________________
4. कुछ छूट गई खबरें
टूटा कंधा लिए खड़ा बरगद
अवाक् नजरों से देख रहादो पैरों वाले जीव को
जिसकी मिसाइल ने भंभोड़ दिया है
उसका सीना।
जिसका सारा बीया बह गया था बाढ़ में
उस किसान ने लिया कर्ज
फिर से डाले बीज
और जी जान से लगा है रोपनी की तैयारी में।
कल अनु ने साफ-साफ कह दिया
वह भी सोनू के बराबर खीर लेगी
वरना नहीं खाएगी।
नदी में बहा जा रहा था एक कद्दू
कौआ एक साथ ले रहा था
कद्दू और नौकायन का स्वाद।
अपने बाप की साइकिल को
कैंची दौड़ाता 'रजुआ'
एक झटके में पछाड़ दिया
छोटे साहब की 'रेसर' को।
'फटे होंठ पर साग के नोने' जैसी
प्रेमिका की याद को
लगातार चुभलाता रहा,
दिल्ली में प्रतियोगिता दर्पण पढ़ता एक युवक।
युद्ध के चर्चित टैंक के
भारी पाँव को छेदकर
लहरा रही है दूब
ठाट से।
एक जिद्दी कवि रात भर रचता रहा कविता
इस ठसक में
कि जरूर पड़ेगा इतना फर्क
जितना पड़ता है
किसी रातरानी के खिलने
या जुगनू के चमकने से।
_____________________________________
5. चेहरा
मेरे चेहरे पर
चिपका है उसका चेहराजिसे निहारता हूँ मैं अक्सर
लोगों की व्यंग्य मुस्कानों में।
_____________________________________
6. हत्या और आत्महत्या के बीच
हत्या और आत्महत्या के बीच
कितनी चवन्नियों का फासला होता है?क्या इन दोनों के बीच अँट सकता है
एक कमीज का कॉलर
या घिघियाहट से मुक्त आवाज
कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे
कि सवाल ही गलत है दोनों में कोई फर्क नहीं!
खैर, हत्या के लिए जरूरी है आत्म का होना
या इसकी अनुपस्थिति मुफीद है इसके लिए?
आखिर कितना फर्क होता है
हत्या और आत्महत्या के बीच
साहूकार की झिड़की का
भूख से बिलबिलाते बच्चे की सिसकी का
बेमौसम बारिश का,
दूर देश बैठे किसी कंपनी-मुखिया की मुस्कान का,
या फिर उन कीड़ों का
जिन पर चाहे जितनी दागो
सल्फास की गोलियाँ
वे पलट कर खुद को ही लगती हैं।
इन गिरवी विकल्पों के समय में
क्या बची है
हत्या और आत्म दोनों को चुनने की गुंजाइश?
पूछा तो ये भी जा सकता है
कि आईपीएल के एक छक्के में कितने आत्म खरीदे जा सकते हैं
या फिर, कोकाकोला के एक विज्ञापन से
कितनी हत्याओं की दी जा सकती है सुपारी।
बहरहाल सवाल तो यह भी हो सकता है
कि सवाल चाहे स्कूल के हों या संसद के
उनके जवाब के लिए आत्म का होना जरूरी है
या न होना?
दोस्तों, इस बेमुरव्वत समय में
क्या तलाशी जा सकती है
थोड़ी सी ऐसी जमीन
जहाँ खड़ा हुआ जा सके
बिना शर्माए।
_____________________________________
प्रमोद कुमार तिवारी
प्रमोद कुमार तिवारी जी का जन्म 21 सितंबर 1976 में कैमूर, बिहार में हुआ। भोजपुरी और हिंदी भाषा में समान रूप से कविता और आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं। गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्य करने के पश्चात् वर्तमान में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग केंद्र के संयुक्त उप निदेशक हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। 'सितुही भर समय' कविता संग्रह प्रकाशित।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें