1. हजारों ख्वाहिशें ऐसी
पास में नदी होती तारों जड़ा आसमां होता
हमारे पास एक हँसिया होता
एक दरांती एक हथौड़ा बाँस की पतली-सी लकड़ी होती
और उसके छिद्रों में अपनी साँसें भरकर
एक सरगम को रवाना करते हवा की देह चूमने
हम प्रेम के लिए क्रांति करते क्रांति के लिए प्रेम
चिड़ियों की आवाज पर जागते और झींगुरों की आवाज़ पर सो जाते
एक फूस की झोपड़ी होती और जामुन के कुछ दरख़्त
कुछ फूल होते कुछ फसलें कुछ कहानियाँ
लकड़ियाँ सिर्फ इतनी होती जिनके अलाव में
आटे की गीली देह को तपाकर रोटियाँ बनाई जाती
पानी का कोई सोता होता और चार गगरिया
हम हँसते और इतना हँसते
कि इतिहास के खंडहर बर्फ के पहाड़ों में तब्दील हो जाते
खानाबदोश पैरों में ठहर जाते अनथक यात्राओं के स्वप्न
शहरों की चकाचौंध मोटरों की चिल्लपों से दूर
साहित्य की कुछ किताबें होतीं
भित्तिचित्र वाली गुफाएँ होतीं
झरने हवा नदी पंछियों के साथ बहता आदिम संगीत होता
काश ऐसा होता
मैं होता
तुम होती
बियाबां होता
ख्वाबों पे पहरा न होता
2. बेवजह
अगर देह में स्नेह हो
तो बाँहें फैलाकर लिपटा जा सकता है हवा से भी
पोरों को भिगोकर नदी को उतारा जा सकता है अपने भीतर
बंद गुफा में मुखातिब हो सकते हैं अपनी ही साँसों से
अधैर्य होकर नाप सकते है कोई पहाड़ी दुर्ग
हल कर सकते है कई गैरजरूरी मसअले
कारण कार्य संबंध निभाती दुनिया में
बेकार भी करना चाहिए कभी कोई कार्य
बेसबब भी मुस्कुरा देना चाहिए किसी को देखकर
बेवजह किसी को प्यार तो कर ही लेना चाहिए
अनियोजित यात्राओं का अपना आनंद है
प्रदर्शन से नकली हो जाता है संगीत
बड़प्पन में कुरूप हो जाती है कविता
फोटो के लिए बनावटी हो जाती है मुस्कान
मक़सद आने पर हल्का हो जाता है प्यार
3. गुलमोहर
गुलमोहर की फुनगियों पर
एक जोड़ा बुलबुलों का फासले से बैठकर
देखता है तितलियों को चूमते फूलों के गुच्छे
हो रहा चुपचाप
संक्रमण सौंदर्य का इस पात से उस पात
बालकनी में खड़े होकर सोच रहा हूँ
कि धरती पर इतने फूल होते हुए भी
दुनिया इतनी उदास क्यों है
तमाम दुख चाय के घूंटों में पिया जा सकता है।
3. अनुर्वर
प्यार है, प्यास है, पानी है, पावस है
दिल है, दर्द है, दरिया है, दरख़्त है
फूल है, फल हैं, फसल है, फसाने हैं
नग है, नगर है, नज़र है, नज़ारे हैं
पर धुंध है कि छंटती ही नहीं
अमर बेल जैसी फैल गई है अनुर्वरता की रुत
यह उदासी नहीं कवि की हताशा का समय है
कि कागज है
कलम है
कीबोर्ड है
कविता नहीं है
4. वे दिन
हम नहीं जानते थे
नया सूरज दिन बदलेगा या तारीख
सफेद चादर ओढ़कर निकलेगा या कोहरे को चीरकर
भात-भात करता आदमी
भूख से मरता है या भोजन की अधिकता से
ग्रेजुएशन के आखिरी साल की पीढ़ी
दिन रात छाए धुंधलके से हैरान थी
मधुमक्खियों के हुनर से बेखबर
कुछ लोग थे जो फूलों से इत्र बनाना चाहते थे
खुशबुओं को शीशी-कैद देने की उनकी सनक में
फूल, चंदन, जंगल सब खौफ़ज़दा थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
क्षितिज के सूरज पर काला रंग चढ़ रहा था
उसकी गुलाबियत पैमानों में उतर आई थी
यह शिकारियों की आँखो में चमकती खुशी के दिन थे
यह अमराइयों और महुओं की खुदकुशी के दिन थे
ब्याहता ऋतुओं की नाउम्मीदी बूढ़े मौसमों की बाईस-ए फ़िक्र थी
प्रेम कबूतरों के पंजों से निकलकर इंटरनेट पर उड़ना सीख रहा था
बासी होने के आरोप में कविता से बेदखल हुए कमल
चेहरों और तालाबों में अपनी उदासी छोड़ गए थे
रोशनी की चंद किरचों में ख़्वाब जमा थे और क़तरों में आसमान
प्रेम नई पीढ़ी की प्रतीक्षा में स्थगित था
दूब पर फैली पीली उदासी से हताश
कोटरों में बंद बेरोजगार परिंदों के मौन में डूबी
दिसंबर के आसमान में छाई ऊब ढोने के दिन थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
जावेद आलम ख़ान
ईमेल-javedaoamkhan1980@gmail.com
अनोखी उपमाएं काव्य रचना और उसके प्रभाव को आकर्षित करती हैं। साधुवाद
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