बुधवार, 30 अप्रैल 2025

भूपेंद्र बिष्ट


1. अफ़ग़ान स्नो 


माँ के साथ ही खत्म हो गई कुछ चीज़ें 
कुछ सब्जियाँ 
जिन्हें पिता ना जाने कहाँ से लाते थे 
और माँ ही बनाना जानती थी उनको 
अब दिखाई नहीं पड़ती 

जिग्स कालरा की पाककला पुस्तकों में 
ल्यूण , सगीना, उगल और तिमिले:
इन जैसी सब्जियों के कुछ चित्र मौजूद हैं  
अलबत्ता दूसरे नामों से/ कुछ घर गृहस्थियाँ चल जाती होंगी
अजवायन के बग़ैर, या मेथी के दाने ना हों तब भी 
पर माँ के पास प्याज के 
छोटे-छोटे काले बीज तक रहते थे इफ़रात में

आषाढ़ शुक्लपक्ष की देवशयनी एकादशी से 
कार्तिक में देवोत्थान एकादशी तक 
पहाड़ी दाल में छोंक-तड़का नायाब
दही-आलू में बघार- धुंगार अद्भुत

पर मैंने उनकी याद को बनाए रखने का जतन किया है /
मुक़्कमल अफ़ग़ान स्नो की एक पुरानी खाली डिबिया 
साफ कर/ उसमें रख छोड़ा है जीरा

माँ की पिटारी में भीमसेनी काजल की छोटी डिबिया 
और भृंगराज केश तेल की एक शीशी के साथ 
अंटी पड़ी मिली थी 
मुझे यह अफ़ग़ान स्नो की डिबिया।

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2. समय बदल रहा है तेजी से

 

समय बदल रहा है तेजी से 
यह कोई कह नहीं रहा 
हर ज़र्रा, हर शय से ऐसे बोल फूट रहे हैं अपने आप 
और हम मानो उसे आँखों से सुन रहे हों  

पिता जा रहे हैं काम पर 
माँ से कहते हुए- यार तुम समझती नहीं हो 
पर सुनाई पड़ रहा है जैसे कह रहे हों  
समय बदल रहा है तेजी से 
फालतू कुत्ते अब गश्त पर निकलने लगे हैं 
वनस्पतियाँ ओढ़ रही हैं मौसम के विपरीत रंग 
छत पर छतरी सही सलामत 
अंदर टीवी चालू हालत में 
भरे पूरे परिवार में पर एक भी जन अब दिखता नहीं 
उसी कमरे में जहाँ रखा गया है बुद्ध बक्सा 

कह दिया है छोटे भाई ने: मम्मी
आज मंगल को तो मैं पढ़ लूंगा हनुमान चालीसा 
पर शनिश्चर के दिन दीदी पढ़ेंगी
लगी रहती है हर वक्त मोबाइल पर 
रात के 9 बज गए 
खाने की खटर-पटर कुछ भी नहीं

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3. सूटकेस 


क लंबे समय तक 
बड़े शहर में रह चुकने के बाद 
अपने गाँव आते हैं जब हम 
तो हमारे हाथ में सूटकेस होता है 

इधर हाल में बनवाई गई चार कमीज, दो पैंट्स 
एक जोड़ा तौलिया, ब्रश, आफ्टर शेव और एक मैगज़ीन 
जाने क्या-क्या होता है हमारे सूटकेस में 

गाँव में सुबह दो मर्तबा खोलते हैं हम सूटकेस 
दिन में तीन बार 
हमारे अलावा इसे कोई छू भी नहीं सकता 
बचपन में जिन खेतों की तरफ 
हम जाते तक नहीं थे 

वहाँ सुबह शाम टहलते हैं इस बार 
जिन जगहों पर एक क्षण भी नहीं टिकते थे 
वहाँ घंटे खड़े रहते हैं अब 

लौट कर फिर से खोलते हैं सूटकेस 
चार दिन में ही ऊब जाते हैं गाँव से हम 
बंद करते हैं सूटकेस 

वापस लौट जाते हैं शहर को 
सारा गाँव देखा है हमें जाते हुए 
हमारे हाथ में होता है सूटकेस। 

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4. माँ का नाम 


बचपन में छुपा दी गई 
उसकी तख्ती और दवात  
और इस तरह दूर रखा गया 
उसे, वर्णमाला सीखने से 

बाद में 
लकड़ी और घास के बड़े-बड़े गट्ठर
रख दिए गए सिर पर 
ताकि स्वप्न-वय की कोई उमंग उठा ना सके
यह माँ थी मेरी
पहले पैरा वाली बात बताई थी
उसने मुझे 
एक दिन बातों-बातों में 
दूसरे पैरा वाली बात 
मैंने खुद महसूस की,
उसके चले जाने के बाद 

मैं जीवन-भर उसका नाम ना जान सका 
नाम दिखा मुझे 'विशना' 
एक दिन पिता के सरकारी दस्तावेजों में 
संशय है अब भी
कि माँ के नाम वाला 'स'
तालव्य ही है या होना चाहिए दंत्य 
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं 
वह रहा होगा वहाँ मूर्धन्य। 

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भूपेंद्र बिष्ट










भूपेंद्र बिष्ट का जन्म 15 अगस्त 1958 को अल्मोड़ा उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव में हुआ। नैनीताल एवं बी.एच.यू वाराणसी से उच्च शिक्षा प्राप्त भुपेंद्र बिष्ट ने बैचलर ऑफ़ जर्नलिज्म और 'स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में जीवन मूल्य: स्वरूप और विकास' विषय पर पीएच.डी की । 2023 में इनका पहला कविता संग्रह 'गोठ में बाघ' प्रकाशित हुआ। 1983 में पोएट्री सोसायटी (इंडिया) द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में इनकी कविताएँ चयनित की गईं।
             धर्मयुग, दिनमान, पराग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कदंबिनी, सरिता, इंडिया टुडे, हंस, वागार्थ, जनसत्ता, कथादेश, पाखी, व्यंग्य यात्रा आदि पत्रिकाओं समेत कई अखबारों में आलेख, कविताएँ, गीत-गजल और समीक्षाएँ प्रकाशित हैं। ईमेल-cpo.cane@gmail.com

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

प्रमोद कुमार तिवारी


1. होना 



कुछ लोगों का होना
'होना'
लगता ही नहीं
जैसे नहीं लगता
नाक का होना
या साँस का होना भी
'होना' है।
पर इनके नहीं होने पर
संदेह होता है
ख़ुद के 'होने' पर
यह कैसा होना है
कि जब तक होता है
बिल्कुल नहीं होता
पर जब नहीं होता
तो कमबख़्त इतना अधिक होता है
कि जीना मुहाल हो जाता है।

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2. ताला 



आख़िर
कहाँ से आया ताला

क्यों आया ताला
वे सब बनाते हैं घर

कहते हैं हम जिन्हें
जानवर

कोई नहीं लगाता ताला
इतना सुंदर घर बनाने वाली बया

सिटकनी तक नहीं लगाती
अलगाव की कोख से निकला होगा

पहला ताला
जो दरवाज़ों पर नहीं

रिश्तों पर
लगा होगा

किसने लगाया होगा पहला ताला
इतना तो तय है

किसी बच्चे ने नहीं
किसी ग़रीब ने नहीं

किसी मज़दूर ने नहीं
किसी बेवक़ूफ़ ने भी नहीं

किसी समझदार ने
लगाया होगा पहला ताला

जिसे बहुत डराया होगा
उसकी संपत्ति ने

क्या समझदारी एक ताला है
या संपत्ति ही ताला है।

पहले संपत्ति आई
या ताला

प्रकृति से बड़ा ऐश्वर्यशाली
कौन है भला

कैसा लगे
जब एक दिन पेड़

अपने फलों पर लगा दें ताले
नदी बोले सावधान

तुमने खो दिया मेरा पानी पीने का हक़
किसने दी उस नल पर ताला लगाने की इजाज़त

जिसमें भरा है मेरा पानी
और तब क्या हो

जब बोले सूरज
आज तालाबंदी रहेगी धूप पर

अप्राकृतिक है ताला
वह घर पर हो

या ज़ुबान पर
अब इस उलटबाँसी का क्या करें

जितनी सभ्य होती जाती है दुनिया
बढ़ते जाते हैं ताले

क़िसिम-क़िसिम के ताले
तिजोरी के, दरवाज़े के, कम्प्यूटर के

रिश्तों के,
संबंधों के,

परिवारों के,
उसी अनुपात में

बढ़ते जाते हैं ताले तोड़ने वाले
क्या कर लेंगे ये ताले?

ताले नहीं डालते तालाब
ताल मिलाते हैं जीव-जंतु

ताले बंद करते समय
बार-बार होता है

यह एहसास
दूसरे नहीं

हम ख़ुद बंद हो रहे होते हैं
तालों में।

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3. हादसा 



हादसों के मेरे शहर में
जिस दिन नहीं होता
कोई हादसा
लगता है
हादसा हो गया

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4. कुछ छूट गई खबरें 



टूटा कंधा लिए खड़ा बरगद
अवाक् नजरों से देख रहा
दो पैरों वाले जीव को
जिसकी मिसाइल ने भंभोड़ दिया है
उसका सीना।
जिसका सारा बीया बह गया था बाढ़ में
उस किसान ने लिया कर्ज
फिर से डाले बीज
और जी जान से लगा है रोपनी की तैयारी में।
कल अनु ने साफ-साफ कह दिया
वह भी सोनू के बराबर खीर लेगी
वरना नहीं खाएगी।
नदी में बहा जा रहा था एक कद्दू
कौआ एक साथ ले रहा था
कद्दू और नौकायन का स्वाद।
अपने बाप की साइकिल को
कैंची दौड़ाता 'रजुआ'
एक झटके में पछाड़ दिया
छोटे साहब की 'रेसर' को।
'फटे होंठ पर साग के नोने' जैसी
प्रेमिका की याद को
लगातार चुभलाता रहा,
दिल्ली में प्रतियोगिता दर्पण पढ़ता एक युवक।
युद्ध के चर्चित टैंक के
भारी पाँव को छेदकर
लहरा रही है दूब
ठाट से।
एक जिद्दी कवि रात भर रचता रहा कविता
इस ठसक में
कि जरूर पड़ेगा इतना फर्क
जितना पड़ता है
किसी रातरानी के खिलने
या जुगनू के चमकने से।

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5. चेहरा 



मेरे चेहरे पर
चिपका है उसका चेहरा
जिसे निहारता हूँ मैं अक्सर
लोगों की व्यंग्य मुस्कानों में। 

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6. हत्या और आत्महत्या के बीच  



हत्या और आत्महत्या के बीच
कितनी चवन्नियों का फासला होता है?
क्या इन दोनों के बीच अँट सकता है
एक कमीज का कॉलर
या घिघियाहट से मुक्त आवाज
कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे
कि सवाल ही गलत है दोनों में कोई फर्क नहीं!
खैर, हत्या के लिए जरूरी है आत्म का होना
या इसकी अनुपस्थिति मुफीद है इसके लिए?
आखिर कितना फर्क होता है
हत्या और आत्महत्या के बीच
साहूकार की झिड़की का
भूख से बिलबिलाते बच्चे की सिसकी का
बेमौसम बारिश का,
दूर देश बैठे किसी कंपनी-मुखिया की मुस्कान का,
या फिर उन कीड़ों का
जिन पर चाहे जितनी दागो
सल्फास की गोलियाँ
वे पलट कर खुद को ही लगती हैं।

इन गिरवी विकल्पों के समय में
क्या बची है
हत्या और आत्म दोनों को चुनने की गुंजाइश?
पूछा तो ये भी जा सकता है
कि आईपीएल के एक छक्के में कितने आत्म खरीदे जा सकते हैं
या फिर, कोकाकोला के एक विज्ञापन से
कितनी हत्याओं की दी जा सकती है सुपारी।

बहरहाल सवाल तो यह भी हो सकता है
कि सवाल चाहे स्कूल के हों या संसद के
उनके जवाब के लिए आत्म का होना जरूरी है
या न होना?
दोस्तों, इस बेमुरव्वत समय में
क्या तलाशी जा सकती है
थोड़ी सी ऐसी जमीन
जहाँ खड़ा हुआ जा सके
बिना शर्माए।

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 प्रमोद कुमार तिवारी

 













प्रमोद कुमार तिवारी जी का जन्म 21 सितंबर 1976 में कैमूर, बिहार में हुआ। भोजपुरी और हिंदी भाषा में समान रूप से कविता और आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं। गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्य करने के पश्चात् वर्तमान में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग केंद्र के संयुक्त उप निदेशक हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। 'सितुही भर समय' कविता संग्रह प्रकाशित।

बुधवार, 16 अप्रैल 2025

नवीन रांगियाल

 1. चाय और भाप



उन्हें चाय में दिलचस्पी थी
मुझे उसकी भाप में
और होटल और चाय के खेतों में
काम करने वाले लोगों में

वे समझते थे कि
माचिस की तीली से आग निकलती है
मुझे पता था कि
उससे जान निकलती है

वे कवि होना चाहते थे
मैं कविता लिखना चाहता था

उन्हें बोलने में भरोसा था
मैं चुप रहने में यकीन रखता हूँ

वे कहते थे कि
पेड़ों से छाँह मिलती है
मैं कहता था कि
पेड़ों से कुल्हाड़ियों के हत्थे बनते हैं
पलंग, कुर्सियाँ, घर के दरवाज़े
और शवों के लिए लकड़ियाँ मुहैया होती हैं

उनका मानना था कि
घर सोने के लिए जाया जाता है
मैं मानता था कि घर जागने के लिए है
और अपने कपड़े बदलने के लिए
और वहाँ से कहीं और जाने के लिए

वे आँखों और कनखियों पर मरते थे
मुझे आँखों से नश्तर चुभते थे

वे दर्द से दर्द का इलाज करते थे
मैं दर्द में कराहता और रोता था

वे मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ते थे
मैं पहले रोटियाँ बनाता
फिर उन्हें बेचता
और फिर अपना पेट भरता था

वे कविताओं के लिए
चाँद, सूरज, पत्ते, फूल, प्रेम और नदियाँ चाहते थे
मुझे लिखने के लिए
चाक़ू, ख़ंजर और नफ़रत चाहिए

हमारे सोचने के तरीक़ों में
ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ था
और यह फ़र्क़ हम दोनों को
इसी ज़िंदगी से मिला था

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2. मृत्यु



मृत्यु मेरा प्रिय विषय है
लेकिन
मैंने कभी नहीं चाहा
कि मैं मर जाऊं
इतनी छोटी वजह से
जहाँ
केवल दिल ही टूटा हो
और
शेष
पूरी देह
सलामत हो

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3. मुझे हैरत में डालो



ज़ालिमों मुझे गुस्से से भर दो
मैं किसी मजलूम के काम आऊं

रिंदों मेरा जाम पूरा भर दो
मैं बेहोश हो जाऊं

जानवरों मुझे दो मनुष्यता
मैं आदमियों के काम आऊं

औरतों मुझे दो करुणा
मैं कभी मैला न कर सकूं किसी का मन

आशिकों मुझे पागलपन दो
मैं प्यार करूँ बदले में कुछ न चाहूँ

उदासियों मुझमें जमा हो जाओ
मैं मुस्कराऊँ तो उसे अच्छा लगूं

किताबों मुझे सवाल दो
थकानों झपकियां दो

जमानों मुझे याद दो
दुनिया के तमाम जादूगरों

मुझे हैरत में डालो
असानियों मुझे मुश्किलें दो

मैं फिर उठूं मैं फिर चलूं
चिताओं मुझे होश दो

मैं तैयार रहूँ
समय मुझे उम्र से भर दो

मैं बड़ा काम करूं
मैं मर जाऊं

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4. धीमी दुनिया



न चाहते हुए भी मुझे 
घोषित कर दिया गया
फिफ्थ जनरेशन का आदमी
जबकि मैंने चाहा नहीं था 
कि मैं इतनी जल्दी-जल्दी 
गुजार दूँ अपने साल

मुझे चाहिए थी 
एक बहुत धीमी दुनिया
तुमसे मिलने के लिए चाहिए था 
एक लम्बा इंतजार
और एक रुका हुआ दिन

मैं बहुत धीमे-धीमे 
जीना चाहता था 
तुम्‍हारे साथ
इसलिए कि देर तक 
तुम्‍हारे साथ चल सकूं
इतना कि तुम्‍हारा हाथ पकड़ने में
कई साल लग जाएं मुझे

देर तलक टिका रहे 
तुम्‍हारा सिर मेरे कांधों पर
और तुम्‍हारी नींद लग जाए

मैंने कभी नहीं चाहा
कि दुनिया इतनी विराट हो जाए
कि उसकी महानता में 
गुम हो जाए हमारा सुख

जब तक उठकर बिस्तर की 
सलवटें ठीक करता हूँ
दुनिया थोड़ी-सी और बदल चुकी होती है
मुझे तुमसे अलग करने में 
इस दुनिया का भी हाथ है

यह जितनी तेज रफ्तार से भागती है
मैं उतना तुमसे दूर हो जाता हूँ
जबकि मैं चाहता था
स जन्‍म तुमसे प्‍यार करूं
और अगले जन्‍म में 
करूं तुम्हारी प्रतीक्षा

पिछली शाम बैठा था 
तुम्हारे साथ तो देख रहा था
घड़ी में कांटों की रफ्तार भी
कितनी बढ़ा दी गई है
कितनी जल्दी कट रहे हैं जनवरी-फरवरी
कितनी जल्दी आ रहे हैं दिसंबर

किसी भी दुनिया को इतना 
भूखा नहीं होना चाहिए
कि वह वक्त को भी खा जाए
और उस प्यार को भी
जिसे कह देने का वक्त 
अभी आया ही नहीं था।

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5. बिछड़ने की आशंकाएँ 



मिल जाने में बिछड़ने की 
कितनी आशंकाएँ हैं
नहीं मिलने से कितना 
बिछड़ना बच जाता

बेहतर होता कोई किसी से 
मिलता-जुलता नहीं संसार में
चिट्ठियों में ही लिखा जाता मिलना
तो कितनी भाषाएँ बच जातीं

कितने हाथ भूलते नहीं—
'मेरी प्रिय' और 'तुम्हारा अपना' लिखना

दुनिया में बचा रह जाता—
बहुत सारा कहना और सुनना
कितनी ख़ुशबुएँ
और स्पर्श बचे रह जाते लिखे जाने की बदौलत

हमारे पास बहुत सारे ख़त होते—
रूमाल की तरह महकते हुए
अनजान छुअन ठिठुरती
काग़ज़ों में दर्ज होकर बच जाता प्रेम

कितने वाक्य होते—
तुम्हारे ज़िक्र से रँगे हुए
जिन्हें जब चाहता तब छूता और चूम लेता—
लिफ़ाफ़े खोलकर
सिर और आँखों में रख लेता तुम्हारे प्रेम-पत्र

कई हाथों में नहीं होती बारूद की गंध
और उँगलियाँ नहीं कसी जातीं पिस्तौल के ट्रिगर पर
सारे घुटे हुए दुःखों
और बर्बर यातनाओं की शिकायतें भेजी जातीं

पोस्टकार्ड में दर्ज प्रार्थनाएँ उछाल दी जातीं—
ऊपर आसमान में
और बदले में माँग ली जाती ईश्वर से लिखित अनुशंसा
पृथ्वी पर सुख से जीने
और सुख से मरने के लिए।

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नवीन रांगियाल 















नवीन रांगियाल का जन्म 12 नवंबर 1977 में मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। कई पत्र- पत्रिकाओं और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। नवीन जी की 'इंतजार में 'आ' की मात्रा' कविता संग्रह 2023 में सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है। 
ईमेल: navin.rangiyal@gmail.com

बुधवार, 9 अप्रैल 2025

पूनम सोनछात्रा

 1. लड़की मुस्कुराती है


न सिर्फ़ तस्वीरों में बल्कि आमने-सामने भी

लेकिन उसके मुस्कुराने से नहीं बजता जलतरंग
कोई इंद्रधनुष आसमान पर नहीं सजता
कहीं फूल नहीं खिलते
पक्षी चहचहाते नहीं हैं
और न ही हवा कोई गीत गुनगुनाती है

मुस्कुराहट के साथ
सुखी दिखने की चेष्टा लड़की का उद्यम है

और दुःख… लड़की का भाग्य
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2. आँख में पड़े तिनके सा है जीवन


जब तक रहता है
तब तक चुभता है
इतना छोटा
कि न कोई ओर मिलता है न ही कोई छोर

खप जाती है सारी ऊर्जा, सारा समय
इसे छोड़ने या इस से छूट जाने में
और जब यह छूटता है तो कुछ नहीं बचता
सिवाय….. धुंध और आँसुओं के
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3. लौटती आस के साथ


नहीं लौटता वही समय

समय बीत जाता है
बनी रहती है आस
ताकि बीतता रहे समय
आस… नियति की असीम संभावनाओं का कुचक्र मात्र है।
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4. दुःख और अकेलापन सहोदर हैं


किस ने पहले जन्म लिया
यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता

लेकिन वे साथ-साथ चलते हैं
एक-दूसरे के पूरक बन
स्वार्थी संसार को सहभागिता का पाठ पढ़ाते !

ख़ुशियाँ कम थीं और छोटी भी
दुःख अनादि, अनंत और अशेष

सुख आता-जाता रहा
लेकिन दुःख अनवरत रहा
हमेशा साथ
बावजूद इसके
हम इंसानों ने कभी दुःख की कदर नहीं की
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5. ब्रह्मांड की अनंत गतियों के मध्य


मेरे मन की अपनी गति है
मेरा दुःख और मेरे आँसू
किसी बिग बैंग सरीखी घटना की प्रतीक्षा में
इस समय केवल मुझ तक सीमित हैं

दसों दिशाओं में वक्रीय गति से
मुझे खींचता है दुःख
किन्तु मैं आँखें बंद किए, मुस्कुराते हुए
क्षितिज पर टिमटिमाते प्रकाश की दिशा में रेखीय चल रही हूँ
जानती हूँ
चाहे स्थिति कैसी भी हो,
‘द शो मस्ट गो ऑन’\
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6. मुक्ति 


चरित्र के समस्त आयाम
केवल स्त्री के लिए ही परिभाषित हैं

मैं सिंदूर लगाना नहीं भूलती
और हर जगह स्टेटस में मैरिड लगा रखा है

जैसे यह कोई सुरक्षा-चक्र हो
मैं डरती हूँ

जब कोई पुरुष मेरा एक क़रीबी दोस्त बनता है
मुझे बहुत सोच-समझकर

शब्दों का चयन करना पड़ता है
प्रेम का प्रदर्शन

और भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति
सदैव मेरे चरित्र पर एक प्रश्नचिह्न लगाती है

मेरी बेबाकियाँ मुझे चरित्रहीन के समकक्ष ले जाती हैं
और मेरी उन्मुक्त हँसी

एक अनकहे आमंत्रण का
पर्याय मानी जाती है

मैं अभिशप्त हूँ
पुरुष की खुली सोच को स्वीकार करने के लिए

और साथ ही विवश हूँ
अपनी खुली सोच पर नियंत्रण रखने के लिए

मुझे शोभा देता है
ख़ूबसूरत लगना

स्वादिष्ट भोजन पकाना
और वे सारी ज़िम्मेदारियाँ

अकेले उठाना
जिन्हें साझा किया जाना चाहिए

जब मैं इस दायरे के बाहर सोचती हूँ
मैं कहीं खप नहीं पाती

स्त्री समाज मुझे जलन और हेय की
मिली-जुली दृष्टि से देखता है

और पुरुष समाज
मुझमें अपने अवसर तलाश करता है

मेरी सोच... मेरी संवेदनाएँ
मेरी ही घुटन का सबब बनती हैं

मैं छटपटाती हूँ
क्या स्वयं की क़ैद से मुक्ति संभव है?

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पूनम सोनछात्रा

 












पूनम सोनछात्रा का जन्म 7 अप्रैल 1982 में छत्तीसगढ़ के भिलाई नामक स्थान पर हुआ। इन्होंने गणित में एम.एस.सी की। वर्तमान समय में पूनम जी अध्यापन कार्य में संलग्न हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित होती रही हैं। 'एक फूल का शोकगीत' इनका प्रसिद्ध कविता संग्रह है। 
ईमेल: poonamsonchhatra@gnail.com

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

जावेद आलम ख़ान

 

1. हजारों ख्वाहिशें ऐसी


ऐसा होता कि मैं होता, तुम होती और बियाबां होता
पास में नदी होती तारों जड़ा आसमां होता
हमारे पास एक हँसिया होता
एक दरांती एक हथौड़ा बाँस की पतली-सी लकड़ी होती

जिसे जरूरत के हिसाब से बकरियों को हाँक लगाने में इस्तेमाल करते
और उसके छिद्रों में अपनी साँसें भरकर 
एक सरगम को रवाना करते हवा की देह चूमने
हम प्रेम के लिए क्रांति करते क्रांति के लिए प्रेम
चिड़ियों की आवाज पर जागते और झींगुरों की आवाज़ पर सो जाते

एक फूस की झोपड़ी होती और जामुन के कुछ दरख़्त
कुछ फूल होते कुछ फसलें कुछ कहानियाँ 
लकड़ियाँ सिर्फ इतनी होती जिनके अलाव में
आटे की गीली देह को तपाकर रोटियाँ बनाई जाती
पानी का कोई सोता होता और चार गगरिया 
हम हँसते और इतना हँसते
कि इतिहास के खंडहर बर्फ के पहाड़ों में तब्दील हो जाते

खानाबदोश पैरों में ठहर जाते अनथक यात्राओं के स्वप्न
शहरों की चकाचौंध मोटरों की चिल्लपों से दूर
साहित्य की कुछ किताबें होतीं
भित्तिचित्र वाली गुफाएँ होतीं
झरने हवा नदी पंछियों के साथ बहता आदिम संगीत होता


प्यार का चेहरा न होता
काश ऐसा होता
मैं होता
तुम होती
बियाबां होता
ख्वाबों पे पहरा न होता
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2. बेवजह 


अगर देह में स्नेह हो
तो बाँहें फैलाकर लिपटा जा सकता है हवा से भी
पोरों को भिगोकर नदी को उतारा जा सकता है अपने भीतर
बंद गुफा में मुखातिब हो सकते हैं अपनी ही साँसों से
अधैर्य होकर नाप सकते है कोई पहाड़ी दुर्ग
हल कर सकते है कई गैरजरूरी मसअले

कारण कार्य संबंध निभाती दुनिया में
बेकार भी करना चाहिए कभी कोई कार्य
बेसबब भी मुस्कुरा देना चाहिए किसी को देखकर
बेवजह किसी को प्यार तो कर ही लेना चाहिए
अनियोजित यात्राओं का अपना आनंद है

अनायास उपजी कविताओं की अपनी पुलक
प्रदर्शन से नकली हो जाता है संगीत
बड़प्पन में कुरूप हो जाती है कविता
फोटो के लिए बनावटी हो जाती है मुस्कान
मक़सद आने पर हल्का हो जाता है प्यार
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3. गुलमोहर 


गुलमोहर की फुनगियों पर

पीत पुष्पों का गझिन विस्तार
एक जोड़ा बुलबुलों का फासले से बैठकर
देखता है तितलियों को चूमते फूलों के गुच्छे
हो रहा चुपचाप

संक्रमण सौंदर्य का इस पात से उस पात
बालकनी में खड़े होकर सोच रहा हूँ 
कि धरती पर इतने फूल होते हुए भी

दुनिया इतनी उदास क्यों है
जबकि एक गुलमोहर को देखकर
तमाम दुख चाय के घूंटों में पिया जा सकता है।
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3. अनुर्वर 


बीज है, बसंत है, बाँसुरी है
मिट्टी है, महक है, मंजरी है
प्यार है, प्यास है, पानी है, पावस है

दिल है, दर्द है, दरिया है, दरख़्त है
फूल है, फल हैं, फसल है, फसाने हैं
नग है, नगर है, नज़र है, नज़ारे हैं

पर धुंध है कि छंटती ही नहीं
अमर बेल जैसी फैल गई है अनुर्वरता की रुत
यह उदासी नहीं कवि की हताशा का समय है

कि कागज है
कलम है
कीबोर्ड है
कविता नहीं है
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4. वे दिन 


यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
हम नहीं जानते थे
नया सूरज दिन बदलेगा या तारीख 
सफेद चादर ओढ़कर निकलेगा या कोहरे को चीरकर
भात-भात करता आदमी
भूख से मरता है या भोजन की अधिकता से

संसदीय मुबाहिसों से बेखबर
ग्रेजुएशन के आखिरी साल की पीढ़ी
दिन रात छाए धुंधलके से हैरान थी
मधुमक्खियों के हुनर से बेखबर

कुछ लोग थे जो फूलों से इत्र बनाना चाहते थे
खुशबुओं को शीशी-कैद देने की उनकी सनक में
फूल, चंदन, जंगल सब खौफ़ज़दा थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
क्षितिज के सूरज पर काला रंग चढ़ रहा था
उसकी गुलाबियत पैमानों में उतर आई थी

यह शिकारियों की आँखो में चमकती खुशी के दिन थे
यह अमराइयों और महुओं की खुदकुशी के दिन थे
ब्याहता ऋतुओं की नाउम्मीदी बूढ़े मौसमों की बाईस-ए फ़िक्र थी

बचपन खेल के मैदानों के साथ चौहद्दी में सिमट रहा था
प्रेम कबूतरों के पंजों से निकलकर इंटरनेट पर उड़ना सीख रहा था
बासी होने के आरोप में कविता से बेदखल हुए कमल
चेहरों और तालाबों में अपनी उदासी छोड़ गए थे
रोशनी की चंद किरचों में ख़्वाब जमा थे और क़तरों में आसमान

यात्राएँ नींद के पैरों पर चल रही थीं
प्रेम नई पीढ़ी की प्रतीक्षा में स्थगित था
दूब पर फैली पीली उदासी से हताश

कोटरों में बंद बेरोजगार परिंदों के मौन में डूबी
दिसंबर के आसमान में छाई ऊब ढोने के दिन थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे

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जावेद आलम ख़ान 

 












जावेद आलम ख़ान का जन्म शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश में हुआ। हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, गगनांचल, परिंदे, कृति बहुमत, सदानीरा, हिंदवी, कविताकोश, पोशम पा, पहली बार, सेतु, कृत्या आदि आदि पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। 'स्याह वक्त की इबारतें', कविता संग्रह तथा 'बारहवाँ युवा द्वादश' में जावेद आलम ख़ान की कविताएँ संकलित हैं।
ईमेल-javedaoamkhan1980@gmail.com

जानकीपुल का साभार!
 


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