1. जनता का दुख जनता के सर
सूरज ढलक गया धीरे से, पंछी भी आ पँहुचे घर।
शाम सुहानी सरक गई, रात ने बदले हैं तेवर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
अफ़ग़ानी हो या यूक्रेनी, लोग हुए कितने बेघर
न रोटी, न तन पर कपड़ा, झुके हुए इंसानी सर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
काम नहीं व्यापार नहीं, कैसे होगी गुज़र-बसर
गिरवी रक्खा नहीं मिलेगा, कंगन, हँसुली या बेसर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
ग़ाज़ा हो या इज़रायल, मानवता घायल-घायल।
सर पर छत न धरती नीचे, लटके हैं सब अधर-अधर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
किसी को रोटी के हैं लाले, कोई खाए घी से तर।
बचपन भूखा, बचपन सूखा, ठोकर खाता है दर-दर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
बम-गोले हथियार बनाते, आग बेचते जीवन भर
रिश्ते-नाते धू-धू स्वाहा, बच पाता क्या जीवन पर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
जो सुलगाते वही बुझाते, पहन मुखौटा नेता बन
वो बैठे महलों में लेकिन, जनता के मन व्याप रहा डर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
क़समें-वादे झूठे सारे, सच खोया है इधर-उधर।
टीवी-चैनल, अख़बारों में, झूठी है हर एक ख़बर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
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2. उगन
जब-जब मैं
भीतर से
उगना चाहती हूँ
कुकर की सीटी,
दरवाजे की घंटी रोक
लेती है
मैं बंद कर देती हूँ गैस
खोल देती हूँ दरवाज़ा
और फिर
विलीन हो जाती है उसमें
आलोढ़ित होती
मेरी उगन
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3. डैफोडिल्स
सुनो,
क्यों उदास हो तुम?
देखो तो सही, इधर
लो हम फिर आ गए।
क्या कल तुमने देखा था हमें?
हम मतवाले तो सूरज की सुनते हैं!
हमें खिलने से रोक नहीं पातीं,
संसद और सरकारें।
और वे कमज़ोर बुझदिल आतंकवादी!
कुचल तो सकते हैं लेकिन रोक नहीं पाते
हमारा यों खुलकर खिलखिलाना
न ही अनदेखा कर पाते हैं,
तुम्हारे जैसे, असमंजस में जीते कुछ लोग
तुम भी खिल उठो न!
हमारी ही तरह
सूरज की रौशनी में
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4. पुल मत तोड़ो
इंसान के आविष्कारों में
मेरा पसंदीदा है पुल
छोटा हो या बड़ा
संकरा हो या चौड़ा।
लताओं का, लकड़ी का
या फिर हो चमड़े रस्सी का।
मुझे सभी तरह के पुल बहुत भाते है
ऐसा ही एक पुल बाँधा था
राम ने,
असत्य से सत्य तक
कुनीति से सुनीति तक
पुल हमेशा आगे बढ़ने का
रास्ता बताते हैं
पुल का काम जोड़ना है
मित्र भी पुल ही होते हैं
रास्ते भी पुल होते हैं,
पशु और पक्षी भी,
पुल ही होते है
माता-पिता, भाई-बहन
रिश्ते-नाते।
इन्हीं पुलों पर चलकर
हम बड़े होते हैं ।
फिर, जब
हम इनसे भी बड़े हो जाते हैं
तो पुल टूट जाते हैं
हम अकेले हो जाते हैं
पुल फिर बहुत याद आते हैं
पर पुल तो टूट चुके होते है।
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5. शोर
मैं कुछ कहती हूँ
तुम भी कुछ कहते हो।
जो मैं कहती हूँ
कुछ वैसा ही तुम भी कहते हो।
न तुम सुनते हो
न मैं सुन पाती हूँ
हम किसी को सुनना नहीं चाहते
सब बोल रहे हैं
लगातार बोल रहे हैं।
शब्द तीर से आर-पार हो रहे हैं
कुर्सी पर टिककर
आँखों की चिक बंद कर
मैं सुनती हूँ शोर
थक गई हूँ मैं
कभी सिर्फ़ सुनो
अच्छा लगेगा,
संवाद के लिए
सुनना ज़रूरी है।
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डॉ० वंदना मुकेश
डॉ० वंदना मुकेश का जन्म 12 सितंबर 1969 में मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में हुआ। वे वॉलसॉल कॉलेज में अँग्रेजी की प्राध्यापिका तथा कैंब्रिज अंतरराष्ट्रीय परीक्षा विभाग में हिंदी परीक्षक रह चुकी हैं। 'नौवें दशक का हिंदी निबंध साहित्य-एक विवेचन' (शोध प्रबंध), 'मौन मुखर जब' (काव्य संग्रह), 'वंदना मुकेश-संकलित कहानियाँ' और 'मॉम, डैड और मैं' (उपन्यास में सहलेखन) उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन पुस्तकों का संपादन भी किया है। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, साहित्यिक पुस्तकों एवं वेब-पत्रिकाओं में इनके लेख, शोध प्रपत्र, कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण, समीक्षाएँ प्रकाशित होती रही हैं। वंदना जी को विश्व हिंदी सचिवालय पुरस्कार, विश्व हिंदी साहित्य परिषद का सृजन भारती सम्मान, हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान तथा भारतीय उच्चायोग लंदन द्वारा डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी अनुदान प्राप्त है।
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