बुधवार, 15 जनवरी 2025

सुनीता करोथवाल

1. ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ 


ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ 
एक सादे कपड़े को काँट-छाँट कर 
बड़े सलीके से आकार में ढालती हैं।
इंच आधी इंच का हिसाब कर
अंगूठे उंगली के दबाव से सीधा-टेढ़ा काटती हैं
यहाँ से गले की उरेब कटेगी, 
यहाँ पोंचे की पट्टी
चॉक से निशान लगा
तीरे को छांटती हैं।

कहीं बाजू पर फूल उकेरती 
कहीं पीठ पर फूंदे बना मंदिर की घंटी-से लटका
छाती के उभार को प्लेट में संभालती हैं।

कभी डीप, कभी वी, कभी गोल में सादा
कभी पान-पत्ती वाला दिल पीठ पर सरका
बोट के कट पर गर्दन संभालती हैं।

कभी बाजू पर बनाती हैं गुब्बारा
कभी अंब्रेला में घेरा 
कभी खूब कलियों की लहर उतारती हैं
कभी फिट पाजामी के बंद पर बटन
कभी लहंगे की लटकन पर घूंघरू संवारती हैं।

कभी जेब बना पैंट में
समेट लेती हैं बटुए
कभी फैला कर दुपट्टा
बना फुलकारी झालर पर इंद्रधनुष उतारती हैं
सब रंग हैं इनके धागों में दुनिया के
ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ भी कमाल करती हैं।
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2. तुम्हारी बातें


तुम्हारी बातें सुस्त शरीर के लिए पुदीना पानी हैं
और ऑफ मूड में स्ट्रांग कॉफी
अक्सर सादे मिज़ाज पर 
एक मध्यम संगीत सा असर करती हैं।

तुम्हारी बातों में एक धुन है
मुझे रोज सांझ दूर तक ले जाती है
चाँद के पालने में रात झूमर सी सजती है
किसी नवजात सी खुश होती हूँ मैं
बादलों की झालर में।

तुम्हारी बातें मन की गुदगुदाहट है
जो कह दूं तो आस-पास, गर्मी-सर्दी सबकुछ भुला दे
और लिख दूं तो कविता हो जाए।

तुम्हारी बातें भीगी मूँग सी हैं
दिन, दो दिन छोड़ दूं 
तो किसी सुबह हरिया उठती हैं।

तुम्हारी बातें तपती लू के बाद
 चेहरे पर गिरती बारिश है
गर्दन से बहकर कमर पर लुढ़कती है।

तुम्हारी बातें रातों का सहारा
दिन की आस हैं
कितना अच्छा हो
कि बातों-बातों में ही बस जीवन बीत जाए।
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3. मैंने गलत वक्त में बेटियाँ जन्मीं 


मैंने गलत वक्त में बेटियां जन्मीं 
इन्हें खेलने के लिए आँगन तक नहीं दे पा रही हूँ।
और दौड़ने के लिए गली
और तो और गंभीर बात यह है
मैंने एक पुरुष भी ऐसा नहीं जन्मा 
जिसे कह सकूँ 
मेरी बच्ची इस पर तुम विश्वास करना।

ये कमबख्त चूजों सी हैं मरजाणियाँ
दोनों पैर तक एक साथ नहीं रख पाती
एक मिनट स्थिर नहीं खड़ी रह पाती
फ्रॉक मुट्ठी में दबा
कभी भी,किधर भी दौड़ पड़ती हैं
बेहद जोर से हँसती हैं
स्कूल के बेंच पर 
नुक्कड़-चौराहे पर
छत की मुंडेर पर।

ये नहीं जानती 
इनका हँसना नोट किया जाता है
इनका आना, जाना, सब पर नजर रखी जाती है।

मुझे माँ होना डराता है
बेटियों की माँ होना तो और भी डराता है
यह वक्त अफ़सोस करने लायक भी नहीं है
अब जब धरती की नस्लें उदास हैं
अब जब धरती की फ़सलें उदास हैं
अब जब धरती ख़ून से सनी है
अब जब धरती की औलादों की आपस में ही तनी है
अब जब आसमान में तारे धुँधले हैं
अब जब नहरों का पानी गंदा है
अब जब हवा में मिलावट है
अब जब कोई जगह ऐसी नहीं 
जो सुरक्षा के दायरे में है।

मैं अपनी बच्चियों को कौन सी तिजोरी में रखूँ ?
कहो मेरे देश
कहो मेरे शहर
कहो मेरे गाँव
कहो मेरी गली
मुझे जवाब दो
मैं सुरक्षा चाहती हूँ 
अपनी बच्चियाँ के लिए।
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4. मेरी कविताओं की नायिकाएँ 


मेरी कविताओं की नायिकाएँ 
तुम रहना, हमेशा रहना
कविताओं में नहीं
चलती-फिरती खेत की मेढ़ पर
बैठी मिलना मुझे कुएँ के पास
या मिलना घास लेकर लौटते हुए।

तुम रही तो
धरती पर सादगी रहेगी।

तुम रही तो 
गेहूँ की बानगी रहेगी।

तुम रही तो
दिसंबर में सरसों खिलेगी।

तुम रही तो
दिवाली से पहले कपास खिलेगी।

तुम रही तो 
घास उगेगी।

तुम रही तो
बछिया हँसेगी।

तुम रही तो
चूल्हे हारों में आग रहेगी।

तुम रही तो
पशुओं की कतार रहेगी।

तुम रही तो
गाँव रहेंगे
और हमेशा उग आने की संभावनाएँ
बनी रहेंगी।
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5. ये बार-बार फोन फिर नहीं आएंगे।


ये बार-बार फोन फिर नहीं आएंगे।
सुबह के सात बजे
बिना कोई जरूरी काम
कॉल माँ ही कर सकती है।

बेवजह, कभी भी, सारा दिन का हिसाब 
माँ ही ले सकती है
कभी कह दो
आज तबीयत ठीक नहीं
चार दिन चिंता फिर माँ ही कर सकती है।

बहुत दिन हो गए तुम आयी नहीं
खड़ी-खड़ी ही आ जा
तुम्हारे लिए साड़ी ले रखी है
दो दिन की छुट्टी है 
बच्चों के साथ घूम जा
यह सब माँ ही कह सकती है।

लड़कियों! जब तक माँ हैं
और वे कहें आ जा मिलने 
तो चली जाया करो।
उम्र भर वे दहलीज पर बैठी नहीं मिलेंगी
बहुत सुबह फोन वे हमेशा नहीं करेंगी
तुम्हारी चिंता में सदा नहीं घुलेंगी।
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6. लड़के हमेशा खड़े रहे


लड़के हमेशा खड़े रहे।
खड़ा रहना उनकी कोई मजबूरी नहीं रही
बस उन्हें कहा गया हर बार
चलो तुम तो लड़के हो, खड़े हो जाओ
तुम मलंगों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला।

छोटी-छोटी बातों पर ये खड़े रहे कक्षा के बाहर
स्कूल विदाई पर जब ली गई ग्रुप फोटो
लड़कियाँ हमेशा आगे बैठी 
और लड़के बगल में हाथ दिए पीछे खड़े रहे
वे तस्वीरों में आज तक खड़े हैं।

कॉलेज के बाहर खड़े होकर 
करते रहे किसी लड़की का इंतजार
या किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे
एक झलक एक हाँ के लिए
अपने आपको आधा छोड़ 
वे आज भी वहीं रह गए हैं।

बहन-बेटी की शादी में खड़े रहे मंडप के बाहर
बारात का स्वागत करने के लिए
खड़े रहे रात भर हलवाई के पास
कभी भाजी में कोई कमी ना रहे
खड़े रहे खाने की स्टाल के साथ
कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए
खड़े रहे विदाई तक दरवाजे के सहारे
और टेंट के अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक
बेटियाँ-बहनें जब लौटेंगी
वे खड़े ही मिलेंगे।

वे खड़े रहे पत्नी को सीट पर बैठाकर 
बस या ट्रेन की खिड़की थाम कर
वे खड़े रहे बहन के साथ घर के काम में
कोई भारी सामान थामकर 
वे खड़े रहे माँ के ऑपरेशन के समय
ओ. टी. के बाहर घंटों
वे खड़े रहे पिता की मौत पर अंतिम लकड़ी के जल जाने तक
वे खड़े रहे दिसंबर में भी
अस्थियाँ बहाते हुए गंगा के बर्फ से पानी में।

लड़कों रीढ़ तो तुम्हारी पीठ में भी है 
क्या यह अकड़ती नहीं?
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सुनीता करोथवाल 















सुनीता करोथवाल का जन्म 1982 ई. में हरियाणा के चाँग गाँव में हुआ । इनकी प्रारंभिक शिक्षा चाँग गाँव के सरकारी विद्यालय में हुई। 'कुछ गुम हुए बच्चे', 'लाल मैं पीली तुम', 'साझे की बेटियाँ', 'याद सै के भूलगे' (हरियाणवी कविता संग्रह) इनके काव्य संग्रह हैं। सुनीता जी एक पुस्तक का अनुवाद भी कर चुकी हैं। इन्हें 2023 का राजभाषा गौरव सम्मान प्राप्त है। इन्होंने हिंदी के अतिरिक्त हरियाणवी बोली में भी पर्याप्त सृजन किया। वर्तमान में गृहिणी सुनीता जी भिवानी में रहकर अनवरत सृजन कर रही हैं।
ईमेल- sunitakrothwal@gmail.com

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