बुधवार, 29 जनवरी 2025

आशा जोशी

1. प्रेम


जब प्रेम होता है तो 
हम, हम नहीं होते।
हो जाते हैं टिमटिमाते दिए, 
आकाश का नक्षत्र, 
धरती का बसंत।
हमारी देह गाने लगती है,
रोम-रोम नाचता है। 
बड़े से बड़े संकट से भी 
हमें चुपचाप 
उबार लेता है प्रेम।
दुःख की सर्द रात में,
अलाव की आँच सा
दहकता है प्रेम।
धीरे से 
सहलाता है प्रेम।
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2. प्रकृति

 
पत्तों पर टिकी बूंदें,
कर रही हैं चुगली 
रात भर बरसा होगा पानी।
माना कि 
मौसम ख़ुशगवार है,
पर टपकी होगी किसी की छत, 
जानता है आसमान,
इसलिए वह,
बरस रहा है चुपचाप।
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3. यादें


दिन के मोती
बदल जाते हैं यादों के
पुखराज में,
साल दर साल 
बढ़ती है उम्र,
पर मन
बच्चा होता चला जाता है।
 बचपन
 जीवन का 
सबसे सुंदर पड़ाव है शायद।
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4. लड़की


लड़की हँसती है, तो 
मोती झरते हैं 
लड़की खिलखिलाती है, तो
झरते हैं फूल
लड़की रोती है, तो
ओस गिरती है,
बोलती है लड़की, तो घर 
बांसुरी गमकती है 
काम करती है लड़की तो 
 घर दीपक बन जाता है लड़की सजती है
तो थिरकने लगता है घर
लड़की थकती है तो
थम जाता है घर 
घर और लड़की- जैसे 
बसंत और धरती 
फिर भी 
लड़की अनचाही
बिनमांगी रहती है 
अनाहूत 
जंगली बेल की तरह
आती है लड़की 
जाती है लड़की
 बेची-खरीदी 
जलाई-भगाई जाकर
हँसती है लड़की 
खिलखिलाती है लड़की 
आंसू झटक कर 
मुस्कुराती है लड़की।

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5. समझदार  स्त्रियाँ 


समझदार स्त्रियाँ 
रोती नहीं हैं
मुस्कुरा कर निभाती हैं
भीड़ भरी ज़िम्मेदारियाँ 
फिर ढूंढती हैं 
थोड़ा सा एकांत 
अपने लिए 
जो मुश्किल से मिलता है।
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आशा जोशी















आशा जोशी का जन्म 13 अगस्त 1950 में हुआ। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन किया। इनके दो कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख, कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं। वर्तमान समय में आशा जी 'आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया' की पत्रिका 'पुरा प्रवाह' के संपादन का कार्यभार संभाल रही हैं।

बुधवार, 22 जनवरी 2025

अनिल अनलहातु

 1. झाड़ - फानूस 


उन्होने अपने सजे – सजाए 
ड्राइंग रुम में
लटका रखा है 
अपने गाँव को, 
झाड़ – फानूस की तरह 
और जिए जा रहे हैं 
पिछले चालीस सालों से 
इसी मुगालते में, 
कि हैं वह अब भी 
गाँव में ही । 
वह आदमी 
जो उम्र के चौथेपन में 
प्रवेश कर चुका है ,
नहीं जानता कि 
गाँव भी अब 
वह और वहीं नहीं रहा ,
वह भी हौले हौले चलकर
शहर तक पहुँच गया है ।
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2. कुहरे – कुहासों का देश 


क्या आपको नहीं लगता कि
यह पूरा देश कुहरे और कुहासों से
भरा है ?
यहां हर चीज़ 
अस्पष्ट और धुंधली  
दिख पड़ती है,
क्या आपको नहीं लगता कि
यहां के लोग इसी धुंधलेपन के ‘शिकार’
अभ्यस्त हैं,  
यहां हर चीज़ 
एक पारभासक शीशे में 
कैद है?
क्या आपको नहीं लगता कि
यह भेंगी, चिपचिपी आँखों वालों  
का देश है,
कि यहां के लोग 
आधी-अधूरी चीज़ों को
देखने के आदी हैं.
क्या आपको नहीं लगता कि
चीड़ और देवदारू के ये
लंबे और चिकने पेड़ 
और सुंदर, अच्छे लगते 
यदि यह कुहरा-कुहासा हट जाता.
क्या आपको नहीं लगता कि
आप अंधों के संसार में आने वाले
“नुनेज़”(1) हैं
कि उजाले की दुनिया के बारे में बताना
एक निहायत ही बेतुकी और बेहूदी बात थी
कि आपकी भी आंखें
निकालने का सुझाव था 
ताकि आप भी इनकी ही तरह
कुहरे और कुहासे को 
अपनी ज़िंदगी में 
उतार लें .

नोट :
     (1) नुनेज़ : एच. जी. वेल्स की कहानी “ द कंट्री आफ द ब्लाइंड ” का मुख्य पात्र।
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3. खजूर का पेड़


जी हाँ ! मैं जिक्र कर रहा हूँ,
उसी आदमी का 
शहर में जिसके 
नाम की मुनादी है । 

जी हाँ ! वह मरा नहीं है, 
यद्यपि काट डाले हैं 
आपने हाथ उसके 
किन्तु आ खड़ा होता है वह 
मुस्कराते हुए, 
दरवाजे पर 
आपके अभिवादन में
जोड़े हुए, अपने कटे हाथों को 
त्रिभुज की ज्यामिति में ।

बीड़ी फूंकता हुआ 
अब भी मिलेगा कतार में 
सबसे आगे 
कटे हुए बांह को 
उछालता हुआ।   

काट डालिए पैर इसके,
वह एक पैर से उचक कर
चलता हुआ 
समाज मे आदर्श बन जाएगा ,
और बैठ जाएगा धरने पर
राशन कोटा के सामने । 

फोड़ डालिए इसकी 
एक आँख,
यह तलाश लेगा 
अपने लिए 
दस नए कंधे 
और तैयार कर देगा
उन्हें अपनी तरह। 

सर! ऐसे आदमी बड़े चीमड़
और जीवट वाले होते हैं,
काट दीजिए उनकी 
बोटी-बोटी और 
छितरा दीजिए 
रेगिस्तान में ,
ये खजूए के पेड़ बनकर 
उग आएंगे, 
बालू की तपिश से झुलसे 
मुसाफिरों की छांव के लिए ।
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4. उपलब्धि 

                                 
उम्र के बीस साल तक वह 
झल्लाए हुए कुत्ते की तरह सनका रहा’ 
हर चोर – उचक्के पर
भौंकता हुआ, 
लोगों को वह पसंद नहीं था ।

उम्र के तीस साल में 
हर मोड़, हर नुक्कड़ पर 
चीखा, 
चिचियाता फिरा जुलूस के 
आखिरी छोर पे,
मसल डाला कितने ही 
सिगरेट के टुकड़ों को 
बड़ी बेरहमी से 
बुर्ज़ुआ की गर्दन 
की तरह,
अब लोग उससे कट-से गए ।

उम्र के चालीस साल में 
वह 
सिर्फ अब बुदबुदाता रहता है 
अपने-आप में ही 
सड़क के किनारे 
धूल में नजरे गड़ाए ,
उसकी आँखों में एक 
गहरी रिक्तता 
और खामोशी है;

फटी-फटी आँखों से 
शायद खुद को 
कोसता मर गया वह 
एक दिन 
और लोग खुश हैं । 

सामान्य एक आदमी को 
असामान्य बनाकर 
मार डालना हमारी 
उपलब्धि है ।
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5. क्यों होता है ऐसा


खुद के विरोध में 
क्यों होता है ऐसा  
जब आदमी उठ खड़ा होता है
खुद के ही विरोध में,
 
  जब उसे अपनी ही सोच 
बेहद बेतुकी और भौंडी 
लगने लगती है? 

  क्यों होता है ऐसा 
जब आदमी 
सुबह की स्वच्छ और ताजी हवा में
घूमने के बजाए 
कमरे के घुटे हुए, बदबूदार सीलन में, 
चादर में मुँह औंधा किए 
पड़ा रहता है?

क्यों होता है ऐसा 
जब आदमी साँपों की हिश-हिश 
सुनना पसंद करने लगता है?

आखिर वह कौन-सी 
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे 
खुद के ही खिलाफ़? 

क्यों वह विवश हो जाता है 
साँप की तरह 
अपना केंचुल छोड़ने पर?

आदमी की आखिरी छटपटाहट 
कसमसाकर 
आखिर क्यों तोड़ती है 
अपने ही बनाए 
मर्यादा-तट को,

भागता है वह 
अपने-आप से ही
गोरख (1) की हताशा लिए . 
आ क्यू (2) की उझंख             
नीरवता में| 

  नोट : 
      (1) हिन्दी कवि गोरख पांडे संदर्भित है । 
      (2) चीनी कथाकार लु शुन की कहानी “ आ क्यू की सच्ची कहानी “ का नायक।
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अनिल अनलहातु 



अनिल अनलहातु का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के बडका लाहौर- फरना गाँव में दिसंबर 1972 ई. में हुआ।
अनलहातु जी साहित्य के साथ ही शास्त्रीय संगीत,चित्रकला,प्राचीन इतिहास,पुरातत्व,बौद्ध दर्शन, एंथ्रोपोलॉजी, समाजशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन करते रहे हैं। 
                           बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएं' (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित), 'समकाल की आवाज', ,कथादेश,वागर्थ,नया ज्ञानोदय,वर्तमान साहित्य,परिकथा,माटी,दैनिक भास्कर,हिंदुस्तान,पाखी, अनहलक,कविता-इंडिया, पोएट्री लंदन,कविता-नेस्ट कई अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएं और लेख प्रकाशित होते रहे हैं । अनिल जी को 'बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविता संग्रह पर साहित्य शिल्पी पुरस्कार, प्रतिलिपि कविता सम्मान, मुक्तिबोध स्मृति कविता पुरस्कार,आई,आई, टी.कानपुर द्वारा हिंदी में वैज्ञानिक लेखन पुरस्कार,साहित्य गौरव पुरस्कार प्राप्त हैं। वर्तमान समय में वे अनलहातु स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं।
ईमेल.gmccso2019@gmail.com

बुधवार, 15 जनवरी 2025

सुनीता करोथवाल

1. ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ 


ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ 
एक सादे कपड़े को काँट-छाँट कर 
बड़े सलीके से आकार में ढालती हैं।
इंच आधी इंच का हिसाब कर
अंगूठे उंगली के दबाव से सीधा-टेढ़ा काटती हैं
यहाँ से गले की उरेब कटेगी, 
यहाँ पोंचे की पट्टी
चॉक से निशान लगा
तीरे को छांटती हैं।

कहीं बाजू पर फूल उकेरती 
कहीं पीठ पर फूंदे बना मंदिर की घंटी-से लटका
छाती के उभार को प्लेट में संभालती हैं।

कभी डीप, कभी वी, कभी गोल में सादा
कभी पान-पत्ती वाला दिल पीठ पर सरका
बोट के कट पर गर्दन संभालती हैं।

कभी बाजू पर बनाती हैं गुब्बारा
कभी अंब्रेला में घेरा 
कभी खूब कलियों की लहर उतारती हैं
कभी फिट पाजामी के बंद पर बटन
कभी लहंगे की लटकन पर घूंघरू संवारती हैं।

कभी जेब बना पैंट में
समेट लेती हैं बटुए
कभी फैला कर दुपट्टा
बना फुलकारी झालर पर इंद्रधनुष उतारती हैं
सब रंग हैं इनके धागों में दुनिया के
ये सिलाई मशीन वाली लड़कियाँ भी कमाल करती हैं।
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2. तुम्हारी बातें


तुम्हारी बातें सुस्त शरीर के लिए पुदीना पानी हैं
और ऑफ मूड में स्ट्रांग कॉफी
अक्सर सादे मिज़ाज पर 
एक मध्यम संगीत सा असर करती हैं।

तुम्हारी बातों में एक धुन है
मुझे रोज सांझ दूर तक ले जाती है
चाँद के पालने में रात झूमर सी सजती है
किसी नवजात सी खुश होती हूँ मैं
बादलों की झालर में।

तुम्हारी बातें मन की गुदगुदाहट है
जो कह दूं तो आस-पास, गर्मी-सर्दी सबकुछ भुला दे
और लिख दूं तो कविता हो जाए।

तुम्हारी बातें भीगी मूँग सी हैं
दिन, दो दिन छोड़ दूं 
तो किसी सुबह हरिया उठती हैं।

तुम्हारी बातें तपती लू के बाद
 चेहरे पर गिरती बारिश है
गर्दन से बहकर कमर पर लुढ़कती है।

तुम्हारी बातें रातों का सहारा
दिन की आस हैं
कितना अच्छा हो
कि बातों-बातों में ही बस जीवन बीत जाए।
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3. मैंने गलत वक्त में बेटियाँ जन्मीं 


मैंने गलत वक्त में बेटियां जन्मीं 
इन्हें खेलने के लिए आँगन तक नहीं दे पा रही हूँ।
और दौड़ने के लिए गली
और तो और गंभीर बात यह है
मैंने एक पुरुष भी ऐसा नहीं जन्मा 
जिसे कह सकूँ 
मेरी बच्ची इस पर तुम विश्वास करना।

ये कमबख्त चूजों सी हैं मरजाणियाँ
दोनों पैर तक एक साथ नहीं रख पाती
एक मिनट स्थिर नहीं खड़ी रह पाती
फ्रॉक मुट्ठी में दबा
कभी भी,किधर भी दौड़ पड़ती हैं
बेहद जोर से हँसती हैं
स्कूल के बेंच पर 
नुक्कड़-चौराहे पर
छत की मुंडेर पर।

ये नहीं जानती 
इनका हँसना नोट किया जाता है
इनका आना, जाना, सब पर नजर रखी जाती है।

मुझे माँ होना डराता है
बेटियों की माँ होना तो और भी डराता है
यह वक्त अफ़सोस करने लायक भी नहीं है
अब जब धरती की नस्लें उदास हैं
अब जब धरती की फ़सलें उदास हैं
अब जब धरती ख़ून से सनी है
अब जब धरती की औलादों की आपस में ही तनी है
अब जब आसमान में तारे धुँधले हैं
अब जब नहरों का पानी गंदा है
अब जब हवा में मिलावट है
अब जब कोई जगह ऐसी नहीं 
जो सुरक्षा के दायरे में है।

मैं अपनी बच्चियों को कौन सी तिजोरी में रखूँ ?
कहो मेरे देश
कहो मेरे शहर
कहो मेरे गाँव
कहो मेरी गली
मुझे जवाब दो
मैं सुरक्षा चाहती हूँ 
अपनी बच्चियाँ के लिए।
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4. मेरी कविताओं की नायिकाएँ 


मेरी कविताओं की नायिकाएँ 
तुम रहना, हमेशा रहना
कविताओं में नहीं
चलती-फिरती खेत की मेढ़ पर
बैठी मिलना मुझे कुएँ के पास
या मिलना घास लेकर लौटते हुए।

तुम रही तो
धरती पर सादगी रहेगी।

तुम रही तो 
गेहूँ की बानगी रहेगी।

तुम रही तो
दिसंबर में सरसों खिलेगी।

तुम रही तो
दिवाली से पहले कपास खिलेगी।

तुम रही तो 
घास उगेगी।

तुम रही तो
बछिया हँसेगी।

तुम रही तो
चूल्हे हारों में आग रहेगी।

तुम रही तो
पशुओं की कतार रहेगी।

तुम रही तो
गाँव रहेंगे
और हमेशा उग आने की संभावनाएँ
बनी रहेंगी।
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5. ये बार-बार फोन फिर नहीं आएंगे।


ये बार-बार फोन फिर नहीं आएंगे।
सुबह के सात बजे
बिना कोई जरूरी काम
कॉल माँ ही कर सकती है।

बेवजह, कभी भी, सारा दिन का हिसाब 
माँ ही ले सकती है
कभी कह दो
आज तबीयत ठीक नहीं
चार दिन चिंता फिर माँ ही कर सकती है।

बहुत दिन हो गए तुम आयी नहीं
खड़ी-खड़ी ही आ जा
तुम्हारे लिए साड़ी ले रखी है
दो दिन की छुट्टी है 
बच्चों के साथ घूम जा
यह सब माँ ही कह सकती है।

लड़कियों! जब तक माँ हैं
और वे कहें आ जा मिलने 
तो चली जाया करो।
उम्र भर वे दहलीज पर बैठी नहीं मिलेंगी
बहुत सुबह फोन वे हमेशा नहीं करेंगी
तुम्हारी चिंता में सदा नहीं घुलेंगी।
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6. लड़के हमेशा खड़े रहे


लड़के हमेशा खड़े रहे।
खड़ा रहना उनकी कोई मजबूरी नहीं रही
बस उन्हें कहा गया हर बार
चलो तुम तो लड़के हो, खड़े हो जाओ
तुम मलंगों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला।

छोटी-छोटी बातों पर ये खड़े रहे कक्षा के बाहर
स्कूल विदाई पर जब ली गई ग्रुप फोटो
लड़कियाँ हमेशा आगे बैठी 
और लड़के बगल में हाथ दिए पीछे खड़े रहे
वे तस्वीरों में आज तक खड़े हैं।

कॉलेज के बाहर खड़े होकर 
करते रहे किसी लड़की का इंतजार
या किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे
एक झलक एक हाँ के लिए
अपने आपको आधा छोड़ 
वे आज भी वहीं रह गए हैं।

बहन-बेटी की शादी में खड़े रहे मंडप के बाहर
बारात का स्वागत करने के लिए
खड़े रहे रात भर हलवाई के पास
कभी भाजी में कोई कमी ना रहे
खड़े रहे खाने की स्टाल के साथ
कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए
खड़े रहे विदाई तक दरवाजे के सहारे
और टेंट के अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक
बेटियाँ-बहनें जब लौटेंगी
वे खड़े ही मिलेंगे।

वे खड़े रहे पत्नी को सीट पर बैठाकर 
बस या ट्रेन की खिड़की थाम कर
वे खड़े रहे बहन के साथ घर के काम में
कोई भारी सामान थामकर 
वे खड़े रहे माँ के ऑपरेशन के समय
ओ. टी. के बाहर घंटों
वे खड़े रहे पिता की मौत पर अंतिम लकड़ी के जल जाने तक
वे खड़े रहे दिसंबर में भी
अस्थियाँ बहाते हुए गंगा के बर्फ से पानी में।

लड़कों रीढ़ तो तुम्हारी पीठ में भी है 
क्या यह अकड़ती नहीं?
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सुनीता करोथवाल 















सुनीता करोथवाल का जन्म 1982 ई. में हरियाणा के चाँग गाँव में हुआ । इनकी प्रारंभिक शिक्षा चाँग गाँव के सरकारी विद्यालय में हुई। 'कुछ गुम हुए बच्चे', 'लाल मैं पीली तुम', 'साझे की बेटियाँ', 'याद सै के भूलगे' (हरियाणवी कविता संग्रह) इनके काव्य संग्रह हैं। सुनीता जी एक पुस्तक का अनुवाद भी कर चुकी हैं। इन्हें 2023 का राजभाषा गौरव सम्मान प्राप्त है। इन्होंने हिंदी के अतिरिक्त हरियाणवी बोली में भी पर्याप्त सृजन किया। वर्तमान में गृहिणी सुनीता जी भिवानी में रहकर अनवरत सृजन कर रही हैं।
ईमेल- sunitakrothwal@gmail.com

बुधवार, 8 जनवरी 2025

संदीप तिवारी

1. स्टेशन


स्टेशन पर,
मैं थोड़ा पहले आ गया हूँ
और ट्रेन अभी आने वाली है
ट्रेन के आने से पहले ही 
लोग धीरे-धीरे इकठ्ठे हो रहे हैं 

धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे ये लोग,
अचानक बहुत अधिक हो जाएँगे 

कई बार लगता है 
कि एक छोटी सी रेलगाड़ी में 
कैसे आएंगे इतने सारे लोग?

लेकिन जब चलती है ट्रेन
तो सब इसी में समा जाते हैं 

कुछ अपने घर को आते हैं 
कुछ अपने घर से जाते हैं ।
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2.आज


आज दिन भर कुछ नहीं किया 
न अख़बार पढ़ा 
न कोई गीत सुना 
न ही कोई कविता पढ़ी 
न कोई फ़िल्म देखी 
बस दो अपरिचितों से मिला

कुछ हुआ या न हुआ हो 
लेकिन यह ज़रूर हुआ 
कि इतनी बड़ी दुनिया में 
मुझे न जानने वालों में 
आज दो लोग और कम हुए ।
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3. जिस दिन कहीं मुझे जाना हो 


जिस दिन कहीं मुझे जाना हो
और दिन तो आ जाती है 
उस दिन नींद कहाँ आती है 
जिस दिन कहीं मुझे जाना हो 
और सुबह में जग जाना हो 

लाख जतन विनती कर डालो
बत्ती आँख बंद कर डालो
कम खा लो या ज़्यादा खा लो 
कविता पढ़ लो,लोरी गा लो 
उस दिन नींद नहीं आती है 
जिस दिन कहीं मुझे जाना हो 
और सुबह में जग जाना हो 

दिल-दिमाग़ में चलते रहते 
हित्र-मित्र और रिश्ते-नाते 
बेमतलब की आती बातें 
पूरी-पूरी-पूरी रातें

उस दिन नींद निकल जाती है 
चने चबाने भुट्टे खाने 

जिस दिन कहीं मुझे जाना हो
और सुबह में जग जाना हो।
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4. तलाश


घर में ही कोई खोई हुई चीज़
लाख खोजने पर नहीं मिलती

हम जिसे लगातार खोजते रहते हैं
वह तब मिलती है 
जब हम किसी और चीज़ को खोजने लगते हैं

रात में रात खोजता हूँ, नहीं मिलती
शांति में शांति तलाशता हूँ
नहीं पाता
भूख में रोटी ढूंढता हूँ
तो भूख और बढ़ जाती है
नींद में नींद खोजता हूँ
नींद नहीं मिलती

यहाँ तक थोड़ा मौका खोजिए 
तो मौका भी नहीं मिलता

साफ़ पानी खोजो
तो साफ़ पानी नहीं मिलता
एक बहुत बड़े शहर में
एक ढंग का ठिकाना ढूँढना
बहुत कठिन काम है

जीवन में 
जीवन भर, हम जो खोजते हैं 
उसे कहाँ पाते हैं
बस चलते चले जाते हैं... 
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संदीप तिवारी 













संदीप तिवारी का जन्म उत्तर प्रदेश के अम्बेडकरनगर में हुआ। इनकी कविताएँ हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इन्हें 2020 का रविशंकर उपाध्याय युवा कविता पुरस्कार प्राप्त है। वर्तमान समय में संदीप जी राजेंद्र प्रसाद डिग्री कॉलेज बरेली में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं।
ईमेल- sandeepmuir93@gmail.com

बुधवार, 1 जनवरी 2025

डॉ. वंदना मुकेश

1. जनता का दुख जनता के सर


सूरज ढलक गया धीरे से, पंछी भी आ पँहुचे घर।
शाम सुहानी सरक गई, रात ने बदले हैं तेवर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

अफ़ग़ानी हो या यूक्रेनी, लोग हुए कितने बेघर
न रोटी, न तन पर कपड़ा, झुके हुए इंसानी सर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

काम नहीं व्यापार नहीं, कैसे होगी गुज़र-बसर
गिरवी रक्खा नहीं मिलेगा, कंगन, हँसुली या बेसर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

ग़ाज़ा हो या इज़रायल, मानवता घायल-घायल।
सर पर छत न धरती नीचे, लटके हैं सब अधर-अधर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

किसी को रोटी के हैं लाले, कोई खाए घी से तर।
बचपन भूखा, बचपन सूखा, ठोकर खाता है दर-दर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

बम-गोले हथियार बनाते, आग बेचते जीवन भर
रिश्ते-नाते धू-धू स्वाहा, बच पाता क्या जीवन पर।
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

जो सुलगाते वही बुझाते, पहन मुखौटा नेता बन
वो बैठे महलों में लेकिन, जनता के मन व्याप रहा डर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।

क़समें-वादे झूठे सारे, सच खोया है इधर-उधर।
टीवी-चैनल, अख़बारों में, झूठी है हर एक ख़बर
कोई राजा कोई मंत्री, जनता का दुख जनता के सर।
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2. उगन


जब-जब मैं
भीतर से
उगना चाहती हूँ
कुकर की सीटी,
दरवाजे की घंटी रोक
लेती है
मैं बंद कर देती हूँ गैस
खोल देती हूँ दरवाज़ा
और फिर

विलीन हो जाती है उसमें
आलोढ़ित होती
मेरी उगन
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3. डैफोडिल्स


सुनो,
क्यों उदास हो तुम?
देखो तो सही, इधर
लो हम फिर आ गए।
क्या कल तुमने देखा था हमें?
हम मतवाले तो सूरज की सुनते हैं!
हमें खिलने से रोक नहीं पातीं,
संसद और सरकारें।

और वे कमज़ोर बुझदिल आतंकवादी!
कुचल तो सकते हैं लेकिन रोक नहीं पाते
हमारा यों खुलकर खिलखिलाना
न ही अनदेखा कर पाते हैं,
तुम्हारे जैसे, असमंजस में जीते कुछ लोग
तुम भी खिल उठो न!
हमारी ही तरह
सूरज की रौशनी में
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4. पुल मत तोड़ो


इंसान के आविष्कारों में
मेरा पसंदीदा है पुल
छोटा हो या बड़ा
संकरा हो या चौड़ा।
लताओं का, लकड़ी का
या फिर हो चमड़े रस्सी का।
मुझे सभी तरह के पुल बहुत भाते है
ऐसा ही एक पुल बाँधा था
राम ने,
असत्य से सत्य तक
कुनीति से सुनीति तक
पुल हमेशा आगे बढ़ने का
रास्ता बताते हैं
पुल का काम जोड़ना है
मित्र भी पुल ही होते हैं
रास्ते भी पुल होते हैं,
पशु और पक्षी भी,
पुल ही होते है
माता-पिता, भाई-बहन
रिश्ते-नाते।
इन्हीं पुलों पर चलकर
हम बड़े होते हैं ।
फिर, जब
हम इनसे भी बड़े हो जाते हैं
तो पुल टूट जाते हैं
हम अकेले हो जाते हैं
पुल फिर बहुत याद आते हैं
पर पुल तो टूट चुके होते है।
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5. शोर


मैं कुछ कहती हूँ
तुम भी कुछ कहते हो।
जो मैं कहती हूँ
कुछ वैसा ही तुम भी कहते हो।
न तुम सुनते हो
न मैं सुन पाती हूँ
हम किसी को सुनना नहीं चाहते
सब बोल रहे हैं
लगातार बोल रहे हैं।
शब्द तीर से आर-पार हो रहे हैं
कुर्सी पर टिककर
आँखों की चिक बंद कर
मैं सुनती हूँ शोर
थक गई हूँ मैं
कभी सिर्फ़ सुनो
अच्छा लगेगा,
संवाद के लिए 
सुनना ज़रूरी है।
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डॉ० वंदना मुकेश














डॉ० वंदना मुकेश का जन्म 12 सितंबर 1969 में मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में हुआ। वे वॉलसॉल कॉलेज में अँग्रेजी की प्राध्यापिका तथा कैंब्रिज अंतरराष्ट्रीय परीक्षा विभाग में हिंदी परीक्षक रह चुकी हैं। 'नौवें दशक का हिंदी निबंध साहित्य-एक विवेचन' (शोध प्रबंध), 'मौन मुखर जब' (काव्य संग्रह), 'वंदना मुकेश-संकलित कहानियाँ' और 'मॉम, डैड और मैं' (उपन्यास में सहलेखन) उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने तीन पुस्तकों का संपादन भी किया है। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, साहित्यिक पुस्तकों एवं वेब-पत्रिकाओं में इनके लेख, शोध प्रपत्र, कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण, समीक्षाएँ प्रकाशित होती रही हैं। वंदना जी को विश्व हिंदी सचिवालय पुरस्कार, विश्व हिंदी साहित्य परिषद का सृजन भारती सम्मान, हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान तथा भारतीय उच्चायोग लंदन द्वारा डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी अनुदान प्राप्त है।

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