1. हँस रहे दुख में अधर
हँस रहे दुख में अधर, तो
अश्रु की अवहेलना है,
आह! कैसी वेदना है।
कल्पना की कल्प कंचन कामिनी की कह कथाएँ,
नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।
मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,
नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।
मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,
मोह-मिथ्या की मुखरता बस कलुषता भर रही है।
द्वंद्व के अंतःकरण में
लुप्त होती चेतना है।
आह! कैसी वेदना है।
लुप्त होती चेतना है।
आह! कैसी वेदना है।
वेद मंत्रों का अनाविल स्वर सकल में घोल देगी?
आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?
प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।
स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।
आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?
प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।
स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।
मूँद कर अपने नयन अब
मीन के दृग भेदना है।
आह! कैसी वेदना है।
मीन के दृग भेदना है।
आह! कैसी वेदना है।
सत्यता सद्भावनाओं, का सतत अतिरेक होगा,
या कि निर्मल नैन जल से, नेह का अभिषेक होगा।
मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,
यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।
मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,
यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।
बैठ कर उत्तुंग पर, अब
मुक्ति की अन्वेषणा है
आह! कैसी वेदना है।
मुक्ति की अन्वेषणा है
आह! कैसी वेदना है।
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2. तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो
तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो,
करो अब अनुगमन है।
यह मिलन, अंतिम मिलन है!
किस तरह की भेंट यह, अलगाव देकर जा रही है!
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।
स्वप्न की मृत देह पर से,
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
जब कि पहनाने अँगूठी हाथ माँगोगे कभी तुम।
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा 'कुशा' की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली 'दूब' की पायल पहनकर नाचती थी।
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा 'कुशा' की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली 'दूब' की पायल पहनकर नाचती थी।
एक मन से ही किसी का,
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।
क्या हुआ जो दे न पाए प्रेम, ये ही सोच लेंगे।
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम, दुख मनाकर क्या मिलेगा?
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम, दुख मनाकर क्या मिलेगा?
सोचना क्या, यह बिछड़ना,
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
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3. श्रांति रण में
श्रांति रण में धैर्य के धनु-बाण
त्यागोगे धनंजय!
हार मानोगे धनंजय?
वे भला भयभीत जिनके सामने हर भय झुका है।
वे जिन्होंने 'भाग्य' के आगे सदा 'भुजबल' रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में 'दीप' धरकर 'भानु' का भ्रम तोड़ते हों।
वे जिन्होंने 'भाग्य' के आगे सदा 'भुजबल' रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में 'दीप' धरकर 'भानु' का भ्रम तोड़ते हों।
आज! हो निष्क्रिय स्वयं पर,
प्रश्न दागोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?
प्रश्न दागोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?
खिन्नता के सिंधु में मन व्यर्थ ही इतना प्लवित है!
'आधि' में रहकर बढ़ावा 'व्याधि' को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?
'आधि' में रहकर बढ़ावा 'व्याधि' को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?
बाद क्या अनुयायियों को,
मुख दिखाओगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?
हे परंतप! जाग निज सामर्थ्य को पहचान लेना।
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के 'पर' पर निशाना साध लेना।
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के 'पर' पर निशाना साध लेना।
जिस समय धर्मार्थ प्रत्यंचा,
चढ़ाओगे धनंजय,
जीत जाओगे धनंजय!
चढ़ाओगे धनंजय,
जीत जाओगे धनंजय!
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4. ब्याह कर मुझको, दिया
ब्याह कर मुझको, दिया
सुंदर, नवल परिवेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
द्वार-तक कर दो विदा तुम, अंक में अपने उठाए।
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।
यह नियति है, कष्ट का,
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!
दूर क्या, नजदीक जाने से अकेले, रोकते थे!
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।
किसलिए ये रख रहे हो,
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!
हो नहीं, कृशकाय चिंता में, स्वयं का ध्यान रखना!
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।
भेजते रहना कुशल-मंगल,
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
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5. ओ युवाओं!
ओ युवाओं! प्राण अक्षय,मर्त्य मृत्युंजय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
ज़िंदगी मृदु-भावनाओं में सहज निष्णात होना।
प्रेम की आराधना के प्रति विनय-प्रणिपात होना।
ये मुखर आनंदमय अनुरक्ति की उत्सर्जना है।
मौन यदि अन्याय पर,असुरारि-सुर की भर्त्सना है।
वह नहीं जीवन कि कुंदन-आँच से परिचय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
प्रेम की आराधना के प्रति विनय-प्रणिपात होना।
ये मुखर आनंदमय अनुरक्ति की उत्सर्जना है।
मौन यदि अन्याय पर,असुरारि-सुर की भर्त्सना है।
वह नहीं जीवन कि कुंदन-आँच से परिचय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
हर्ष होना चाहिए अवसाद में क्यों हो रहे हो?
साधना के शुभ-समय में भोग में यदि खो रहे हो।
मोह-माया-मोहिनी की रीति आकर्षित करेंगी।
तामसी दुष्वृत्तियाँ हैं सर्वदा विचलित करेंगी।
किंतु इनके अनुसरण की यह यथोचित-वय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
साधना के शुभ-समय में भोग में यदि खो रहे हो।
मोह-माया-मोहिनी की रीति आकर्षित करेंगी।
तामसी दुष्वृत्तियाँ हैं सर्वदा विचलित करेंगी।
किंतु इनके अनुसरण की यह यथोचित-वय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
छोड़ जठरानल अभी हे शूर दावानल बुझा लो!
पुण्य-पथ पर पग बढ़ाओ हाथ गंगाजल उठा लो।
खोल लो अब चक्षु अपने बाहुओं में जोश भर लो।
घृणित-कलुषित कृत्य के अवितत समर उद्घोष कर लो।
फिर सुनिश्चित है विजय संघर्ष में, संशय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
पुण्य-पथ पर पग बढ़ाओ हाथ गंगाजल उठा लो।
खोल लो अब चक्षु अपने बाहुओं में जोश भर लो।
घृणित-कलुषित कृत्य के अवितत समर उद्घोष कर लो।
फिर सुनिश्चित है विजय संघर्ष में, संशय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
इति शिवहरे का जन्म 2002 औरैया, उत्तर प्रदेश में हुआ। कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं कई मंचों और चैनलों पर भी उन्होंने काव्य पाठ किया। उनकी कुछ रचनाओं को संगीतबद्ध भी किया जा चुका है।
वाह क्या बात
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावबोध
मधुर लय
अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़ना
उत्कृष्ट सृजन के लिए बहुत-बहुत बधाई। अच्छा लगा जानकर युवा साहित्यकार भी छंद बद्ध भावपूर्ण कविताएं लिख रहे हैं।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट छंदबद्ध कविताएँ .. हार्दिक बधाई
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