बुधवार, 13 अगस्त 2025

बलराम कांवट

1. मनहार का फूल

कई बरस पहले
नदी किनारे चलते हुए मैंने तुम्हें एक फूल दिया था
पाँच रंगों वाला
नायाब
चमकीला
बनास की घाटियों में खिला
मनहार का फूल
मैंने कहा भी था
संभालना
यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है
आज वह पूरी तरह खत्म हो चुका है मेरी गौरा
उसे ढूँढो !
ढूँढो उसको
कहाँ जाएगा
यहीं कहीं रखा होगा घर में किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने
मत पूछो किस काम आएगा बस ढूँढो
जैसे काली घटाओं,
मेघों, फुहारों और पवन, पुरवाइयों में फिर से जी उठते हैं
आकाश के नीचे सतरंगी सर्प
यह भी कभी
अनुकूल जल और वायु पाकर खोल सकता है अपनी आँख
सात ना सही
आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं
तो रखेंगे इसे सहेजकर हम
जैसे किसान रखते हैं बरसों बरस घड़ों में बीज
और करेंगे प्रतीक्षा
इसके लिए सही हवाओं, सही पानी, सही नक्षत्रों की
अगर लौटकर आए कभी धरती के दिन तो शायद इसमें भी लौटें नए प्राण
फूल से बनेंगे फूल
एक बार फिर जी उठेंगी बनास की घाटियाँ
एक बार फिर
कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही
नायाब चमकीला पचरंगा
मनहार का फूल!
मेरी गौरा उसे ढूँढो!
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2. अगले जन्म में

अंतिम बार
जिस वृक्ष के नीचे रोते हुए तुमने कहा था
कि अब अगले जन्म में मिलेंगे हम
मनुष्य नहीं
पक्षी बनकर आयेंगे
इसी धरती पर
वह वृक्ष मेरे देखते ही देखते सूख गया है
उसे देखकर
जब देखता हूँ धरती पर दूसरे वृक्षों
पक्षियों
नदियों, ऋतुओं, हवाओं को
तो लगता है
सबकुछ इसी जन्म में ख़त्म होता जा रहा है
मेरे देखते ही देखते
जब नदियाँ नहीं होंगी
मीठी ऋतुएँ और शीतल बहती हवाएँ नहीं होंगी
तो कैसे होंगे वृक्ष
जब वृक्ष नहीं होंगे तो कैसे होंगे पक्षी
जब धरती ही
नहीं होगी
तो कैसे मिलेंगे हम
अगले जन्म में!
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3. इस घोर सूखे में


कहते हैं कभी किसी को 
प्यासा नहीं सोना चाहिए
चाहे कितनी ही गहरी
लगी हो आँख
कितना ही आलस भरा हो
तुम्हारी देह में
कितनी ही दूर रखी हो
खाट से मटकी
अगर प्यास बहुत कड़ी है
तो जरूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें जल के पास
बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते-झगड़ते 
हम भाई-बहन छत पर सोते थे
सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए माँ कहती थी
जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं
और मन मरोड़े
अलसाए पड़े रहते हैं
तो अंदर ही अंदर इतने छटपटाने लगते हैं प्राण
कि वे देह से उतरकर
बाहर दुनिया में निकल जाते हैं
जल की खोज में
वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी
कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण जल ढूँढते हुए चले गए
पड़ोस के आँगन में
एक खुले
घड़े के अंदर
तभी उस घर में
कोई उठा
और दो घूँट पानी पीकर
घड़े को ढक आया
इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए उस बुढ़िया के प्राण
सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थी
सबने मृत समझकर
रोते-सुबकते
उसकी काठी बांधी
वे शमशान में
उसे अग्नि देने ही वाले थे
कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन
और इधर
लकड़ियों को हटाती
भड़भड़ाकर
बाहर आई बुढ़िया
इस तरह जलते-जलते वापस लौटे उसकी देह तक प्राण
इस घोर सूखे में
प्यास से अधमरा
बैठा हूँ
किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए
और सोचता हूँ
अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को
तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे वे प्यास बुझाने
और जब तक लौटेंगे
अग्नि देकर
घर लौट चुके होंगे ग्रामीण
देह जलकर
राख हो चुकी होगी!
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4. चंबल की आवाज़

चंबल की घाटियों और खेतों में
अकेले भटकते हुए
बुझी आँखों से देखते हुए
साँझ का सूरज
जब भी धरती के दुःखों के बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
कितना जटिल है जीवन
होना कितना असहनीय
जैसे किसी चीज का कोई अर्थ नहीं
जैसे सबकुछ
समझ से कोसों दूर है
ऐसे में कभी-कभी
मन करता है
कि बस! जहाँ जिस खेत में खड़ा हूँ वहीं उतार दूँ अपनी चप्पलें
और चला जाऊँ उस पगडंडी की ओर
जहाँ आगे-पीछे
एक ना एक दिन
सबको जाना है
लेकिन जैसे ही देखता हूँ
इस अनाम दिशा की ओर
सारी दिशाओं से कई आवाज़ें आती हैं बच्चों की तरह दौड़ती हुईं
और उँगली पकड़कर
मुझे थाम लेती हैं
टीलों और खाइयों में खिले
डांग के फूल मुझे मुड़कर देखते हैं
नदी किनारे सरसराते कांस की आवाज़ें
मुझसे कहती हैं
इतना भी मुश्किल नहीं है यह समझना
कि जहाँ-जहाँ पहुँचेगा जल
घास और फूल
खिलते रहेंगे पृथ्वी पर
मुझे उस मल्लाह की आवाज़ रोकती है
जो कहता है
नदी पार करना
इतना भी कठिन नहीं
इन बीहड़ों में
दूर से दिखता मुझे मेरा गाँव रोकता है
गाँव में थान पर बैठा देवता रोकता है
थान पर नाचते मोर
और खेलती गिलहरियाँ
रोकती हैं मुझे
मुझे चिरौल की टहनी पर बैठी
फाख्ता रोकती है
जब उसकी आवाज़ घुलती है पास ही भैंस चराती किसी गूजरी के गीत से
तो उसका गीत मुझे रोकता है
जो कहता है
बहुत सुंदर है पृथ्वी पर फाख्ता की आवाज़
इतना सुख बहुत है
यहाँ ठहरने के लिए
होने के लिए
इतना मतलब बहुत है
मुझे वापस अपनी गोद में बुलाती है
यह कलकल बहती
नदी चंबल
यह कहते हुए कि कहाँ जाएगा मुझे अकेला छोड़कर
मैं तो तब से इस दुनिया से अपशब्द सुन रही हूँ जब मैं एक बूँद हुआ करती थी
कितनी तलवारें
कितनी गोलियाँ
फिर भी जीवन को जल देती हुई
टिकी हुई हूँ
अब भी धरती पर
इस तरह आकाश की ओर जाती उस पगडंडी की ओर जाने से
मुझे धरती पर बहती
एक नदी रोकती है!
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बलराम कांवट














बलराम कावंट का जन्म राजस्थान में गंगापुर सिटी के गाँव टोकसी में हुआ। इन्होंने जयपुर, दिल्ली और पुणे से पढ़ाई पूर्ण की तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से विशाल भारद्वाज की फिल्मों पर पीएचडी भी की। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। इनका उपन्यास 'मोरीला' भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित है।
 

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