वजूद
मान लिया करो,
अपनी ग़लतियाँ,
बिना अनभिज्ञता या संदेह की ओट में छुपाए,
हँस लिया करो अपनी,
ख़ालिस मूर्खता पर,
तथ्यों के कई स्टेशन छूट जाएँगे,
कबूतर से डाकिया और फिर इंटरनेट,
ये सारे संदेशवाहक समझ न आयेंगे,
दीवार पर अधचिपके पोस्टर सा वजूद बचाते रहना,
सेल्फ़ी शासित इस संसार में,
अपना शटर वाला कैमरा चलाते रहना,
पाप संगीत के डिस्को लाइटनुमा थिरकन में,
तुम विलंबित लय में सधे मौन का ध्रुपद गाते रहना,
ये ग़लतियाँ रोबिनहुड नुमा की गई परम सात्विक चोरियाँ हैं,
जिनके लिए अपने गाल पर थपकी की सज़ा दे लेना,
किंतु इस परिवर्तन के रफ़्तार में भी,
पीछे छूट जाने की चिंता से परे,
अपने वक्त का घोड़ा बाँधकर,
अपने स्वाभिमान वाले कमरे में ,
गाहे-बगाहे विश्राम करते रहना,
कितना भी पिछड़ापन दिखे किंतु,
अपने मन का काम करते रहना,
2. कहाँ से हो?
पास के सारे गाँवों की बिजली,
शहरों की बाढ़ में डूब से गए हैं,
इन गाँवों की अपनी पहचान,
मैं बड़े विस्तार से बताना चाहता हूँ,
परसीपुर से आठ किलोमीटर दक्खिन,
बरवाँ गाँव है मेरा,
किंतु लठिया पुल से तीन किलोमीटर पैदल ही जाना होगा,
एक बूढ़े पीपल के पास का खड़ंजा रास्ता मेरे घर की ओर ताकता होगा,
उघाड़ने की मुझमें हिम्मत नहीं,
और मुझे इतने क़रीब से जानने की,
तुम्हारे पास इतनी फ़ुरसत नहीं,
शहर के चमचमाते रैपर में पेश करता हूँ,
“मैं बनारस से हूँ” सिर्फ़ यही कहता हूँ,
मेरे इतने कहने भर से,
तुम्हें गंगा से लेकर मोदी तक
हर चीज़ की फ़िक्र है,
किंतु इन बातों में कहाँ,
मेरे गाँव का ज़िक्र है,
मेरे देश की अजीब विडंबना है,
पगड़ी बांधे भटिंडा के पाजी ख़ुद को
दिल्ली का कहते हैं,
सफ़ेद चप्पल पहने आसनसोल के बड़े बाबू,
ख़ुद को कलकत्ते का समझते हैं,
शहर का कह रहा है,
जबकि उसके भीतर पहचान छुपाए,
उसका छोटा सा गाँव रह रहा है
3. रात
और पैरों में जूता बाँधे,
मैं सुनसान सड़क पर चलता हूँ
किसी भिनसार के तारे की तरह,
अधिकतम की लालसा लिए
दिन के निकल आने से पहले,
अपने न्यूनतम से बेहद खुश
रात सुस्ता रही है,
मानो मर चुके हों
और जलने की कोई जल्दबाज़ी न हो,
सारी भागदौड़ जीवन तक ही सीमित थी,
यहीं ऊँघती सड़कें थोड़ी देर में,
पट जाएँगी ट्रैफिक की चिल्ल पों से,
कितनी यात्राएँ, मिलन बिछोह
कितना कुछ ढोएँगे सुबह होते,
जीवन से मृत्यु की लंबी यात्रा में,
यही गहरी नींद में सोए ऑफिस,
अपने मीटिंग रूम में तय करेंगे,
अगले कई वर्षों का भविष्य,
मृत्यु की योजना से अनभिज्ञ,
या फिर बिना धूप के बंद कमरों में,
एक लंबी नीरस प्रतीक्षा कराएगी,
विद्यालय की सो रही कक्षाएँ,
जहाँ आज सुबह परीक्षा में बच्चे पन्नों पर,
अपनी तक़दीर लिख रहे होंगे,
जबकि सच तो यह है,
दीमक खा गए उन अंक पत्रों को,
जिन्हें देखकर हम फूले नहीं समाते थे,
जिनपे Very Good देखकर इठलाते थे,
न जाने कितनो के लिये कितनी वजहों से
ख़ास हो सकता है यह दिन,
किंतु रात ने एक जादूगरिनी की तरह,
घुमा दी है विश्राम की छड़ी,
इस सारी दौड़ भाग पर ,
सड़कें, विद्यालय, ऑफिस, दुकानें,
और बन गई है सबकी ख़ास,
जिस मज़दूर ने अपनी प्रेमिका को
रानी बनाने का वादा किया था,
वह अपने सिर पर मुकुट का स्वप्न देख सकता है,
और मैं,
जो सिर से पाँव तक एक कवि ठहरा,
रात के वीराने से कई सहमे शब्द चुन लेता हूँ,
जिन्हें लेकर एक सुंदर वाक्य बनाऊँगा,
जिसे कहे जाने पर,
प्रेम और करुणा की गूंज सुनायी देगी,
इससे पहले की बीत जाये यह रात,
और दौड़ भाग प्रतियोगिता की घोषणा करता,
दिन पुनः उपस्थित हो
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4. मज़दूर की प्रेमिका
नरम और मुलायम हथेलियों को,
जब अपनी खुरदरी हथेली में रखा,
उसे लगा जैसे अंगारों पर किसी ने,
रुई के ठन्डे फाहे रख दिए हों,
काम पर लौटते हुए उसे लगा,
मानो प्रेमिका की हथेलियों के परमाणु,
उसकी हाथों की रेखाओं में उतर आए हों,
उस रोज दिन भर काम करते हुए,
वह जिस चीज़ को हाथ लगाता,
उसमे उसकी प्रेमिका आ जाती,
पहली बार उस दिन मज़दूरी करते,
वह इतना ज्यादा खुश था,
उस लड़की ने जो कविताएँ सुनाई थी,
उसे उनके ज़रा सा भी मानी न पता थे,
किन्तु कानों में सितार की तरह,
गूंजती रही वे कवितायेँ नींद आने तक,
उस रात नींद में उस मज़दूर ने,
राजमुकुट साजने का स्वप्न जिया था,
जब प्रेम के अतिरेक में उस लड़की को,
रानी बनाने तक का वादा किया था,
इसी दुनिया में इसी तरह से रहते,
किस्मत के तमाम अत्याचार सहते,
वह जब भी उस लड़की से मिलकर लौटता,
उसे यही दुनिया खूबसूरत और
जीने लायक लगने लगती,
वह लड़की सिर्फ उसका प्रेम नहीं,
एक विश्वास थी,
कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
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दिसंबर में सिंगापुर
दिसंबर के महीने में,
जैसे तेज रफ़्तार से भागता कोई धावक,
धीमा हो गया हो रेस के बाद,
अजीब सा लगता है उसका,
यूँ धीमी गति से चलना,
अमूमन जिन बसों और ट्रेनों में,
भीड़ उमड़ आया करती थी,
उदास सी लगती हैं खाली सीटें,
पटे रहते थे बच्चों की मसखरी से,
वीरान से दिखती हैं वे काली सड़कें,
ऑफ़िस के मीटिंग रूमों की,
मानो क्रिसमस मनाने में व्यस्त हों,
लोगों के बिना लगता है जैसे,
इस चिड़ियाघर के सारे पंक्षी
और मौसम भी सहजोर हो जाता है,
इस अनायास से उपजे अकेलेपन का,
जब सुबह की गुलाबी ठंड,
हिलते डुलते से पेड़ों के पत्ते,
और हर शाम एक सीली सी हवा,
हाथ जोड़े बारिश की प्रतीक्षा करती हैं,
लगता है पी जाएगी साल भर की,
बेहतर होते चले जाने की,
अनवरत दौड़ में शामिल,
इस देश के विश्राम का समय है दिसंबर,
सिंगापुर इस प्रतीक्षा में है कि,
लौट आयेंगे सारे प्रवासी पंक्षी
जनवरी के महीने में और फिर से,
पट जायेंगी सड़कें, स्कूल, ऑफिस,
जगह न होगी बसों और ट्रेनों में,
और जब दौड़ पड़ेगा तेज रफ़्तार में,
लगेगा की अब सब सामान्य है,
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