बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

वंदना मिश्रा

 1.आदेश 

        
 उठो!
 कहा तुमने मेरे बैठते ही
 जबकि बैठी थी मैं
 तुम्हारे ही आदेश पर।

 डाँटा तुमने इस बेमतलब की
 उठक-बैठक पर,
 फरमाया दार्शनिक अंदाज़ में
 कितनी प्यारी लगती हो 
 डाँट खाती हुई तुम
 मैं खिल उठी।

 देखा सिर से पाँव तक तुमने
 और कहा "क्या है ही प्यार करने लायक तुम में"।

 मैं सिमट गई 
 सारी ज़िंदगी देखा
 मैंने खुद को 
 तुम्हारी नज़र से 
 और खुद को
 कभी प्यार ना कर सकी।
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2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में 

        
कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
अपनी पसंद, नापसंद के विषय में 
शायद बेमतलब लगे उसे 
इस तरह सोचना।

दहशत होती है शायद देखने में 
गहरे दबे सपनों वाले मन को 
जहाँ दबी पड़ी है 
उसकी गुड़ियों की
रेशमी चुन्नी
सजीले गुड्डे की पाग और सखियों के
गीत।

झूले के ऊँचे पेंग और खनकती चूड़ियों 
को चीरकर आती 
किसी राजकुमार की आवाज़

डरती है स्त्री सपनों से 
जिस समय डूबी होती है प्रेम में
उस क्षण भी नकारती है 
ऐसा सचमुच होने से 

उम्मीदों की बारिश में भीगती है
औरत डरते-डरते।
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3. गुलाबी मौसी 
     

जब से होश संभाला 
उन्हें झुर्रियों की झोली ही पाया

बाल-विधवा थी ‘गुलाबी मौसी’
क्या मज़ाक कि
जिसके जीवन से 
सभी रंग को ख़ारिज होना था
उनका नाम
रख दिया गया था 'गुलाबी'।
कभी ससुराल की दहलीज़ पर
क़दम नहीं रखा।

हम उन्हें 
कभी ‘रोज़ी मौसी' कहते, कभी ‘पिंकी’
माँ से बीस बरस बड़ी रही होंगी शायद

माँ को तो,
अपनी माँ की याद ही नहीं थी
गुलाबी मौसी ने ही पाला था उन्हें
(जिन्हें माँ ‘बहिन' कहती थी )

बिना माँ-बाप के पले-बढ़े 
पिता जी की लापरवाहियों को 
प्यार से ढक देती थी मौसी
अपने पास रखी 
नई-नकोर साड़ी और गहनों से

कहती समाज में सबको दिखा 
'देखो वकील साहब की पसंद अच्छी है
पत्नी के लिए 
कितना सुंदर सामान लाएँ हैं
अब सब समझ जाएँ तो उनकी बला से'
कौन लड़ सकता था उनसे।

सबकी इज़्ज़त
यूँ ही संभालती थी
सबका काज-परोजन।

जब से होश संभाला
उन्हें सफ़ेद किनारी वाली 
साड़ी में ही देखा
बालों को लपेटकर जूड़ा-सा
बना लेती,

सगा भाई कोई था नहीं 
पर थे 
सगों से बढ़कर 
मौसी हम लोगों के लिए उनसे लड़ती 
हमारे 'जमैथा' जाने पर।

और उनके बच्चों के लिए हमसे लड़ती 
हमारे घर आने पर।

किसी के न होने के ज़माने में 
हम सबकी थी वो।

नाना बहुत समझाने पर 
जीते-जी अपने खेतों पर 
उनका हक़ 
लिख गए थे
पर बेचने और किसी को देने का नहीं
वो बाद में आधा-आधा 
मिला दोनों चचेरे मामाओं को।

अपनी रुपयों की थैली छिपाकर रखती 
खाना कम खाती
पैदल चलती दूर तक 
धूप-धूप घूमती खेतों में 
मज़दूरों से लड़ती-झगड़ती 
ज़रा-ज़रा से पैसों के लिए 
दो धोती से काम चला लेती।

शादियों में माँ के लिए चौक 
और दुल्हन के लिए 
गहने कपड़े लाती मौसी
रस्मों पर छिप-छिप जाती 
अपशगुन के भय से।
लाख कहने पर भी कटती-सी थी

माँ के बाद गई
कहती "मौत को भी मैं पसंद नहीं"

अपने लिए कभी कोई सुविधा नहीं ली 
हमें जितना देती 
और-और चाहते 
हम कहते  
बड़ी कंजूस हैं 'गुलाबी मौसी'

भाई चिढ़ाते 
“तुम्हारे भोज में क्या-क्या बनेगा मौसी?
पैसा लगाएंगे हम लोग"
अभी दे दो न
तुनक कर कहती वो  
“हम अपना इंतज़ाम करके जाएँगे।"

सचमुच अंतिम समय में 
सबकी सदाशयता को ठुकरा
उनके तकिया के नीचे से  
क्रिया-कर्म और सब कार्यक्रम के लिए 
मिले पैसे एक चिट के साथ

सोचती हूँ
कितना कम भरोसा था उन्हें
हम सब पर।

'गुलाब दिवस' पर 
जब सब डूबें हो 
गुलाब के प्रेम में
मुझे हर बार
क्यों याद आ जाती हैं?
'गुलाबी मौसी'!
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 4. किताबें

किताबों की अलमारी से
निकालने जाइए कोई किताब
तो और किताबें बच्चों की सी 
ज़िद्द कर फैलाने लगती हैं हाथ
हम भी, हम भी
ज़रा-सा छू लो हमें भी।

जाने कब से बैठे हैं 
इस बंद अलमारी में
मुँह फुलकर कहती हैं
 
दिनों से पन्ने नहीं 
पलटे गए हमारे
हवा पानी धूप की ज़रूरत नहीं क्या हमें!

किंचित रोष से कहती हैं 
क्यों इकट्ठा किया था जब पढ़ना नहीं था?

पुचकारते आश्वासन देते किसी तरह
लौटे वहाँ से तो 
हाथ की किताब का 
प्रसन्न मुख पुलकित कर देता है।

पुरानी पढ़ी क़िताब को दोबारा पढ़ने पर
लगता नहीं क्या?
जैसे मिल रहे हों
किसी पुराने मित्र से 
जिसकी हर बात जानते हों
इतनी अच्छी तरह से 
कि प्रायः आप दोनों के 
मुँह से, निकलने लगती हो
एक-सी बात।

कभी-कभार जाने पहचाने अक्षर भी,
खोलने लगते हैं
अपना अनजाना अर्थ,
जैसे अपरिचय का संकोच
टूटा हो, 
अब जाकर 
जैसे देखा हो हमने
किसी मित्र का 
बिलकुल नया रूप 
बरसों बाद।
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5. सिर्फ़ दवा नहीं

     
अपनी शारीरिक पीड़ा को
ग़लती की तरह
बताती 

बढ़ती उम्र को
ग्लानि की तरह
लेती स्त्रियों को

सिर्फ़ दवा नहीं
प्रेम का मरहम भी देना।
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6. कोई गुनाह नहीं 

        
कोई गुनाह नहीं किया तुमने कि
छुप जाओ तुम किवाड़ों की ओट में

कि निराश लौटे पिता को 
और मत थका बच्ची

कि तेरे प्यार से पानी पकड़ाने से 
धुल जाएगी उनकी उदासी

एक प्याला गर्म चाय का 
रख उनके सामने
और प्यार से पकड़ उनका हाथ
समझा उन्हें कि
तो क्या हुआ 
जो नहीं तय कर पाए विवाह 
बोल कि यूँ ही भटका न करो 
इस उसके कहने पर
लड़के खोजने 

कि इतनी क्या जल्दी है
मुझे घर से निकालने की
हल्के से छुओ 
उनके मुरझाए चेहरे को
और बताओ
कि कितनी तो सुकून से भरी रहती हो
उनके साथ 
पूछो थोड़ा रूठकर कि
यूँ कौन तड़पता है 
अपने दिल के टुकड़े को 
दिल से दूर करने के लिए।

मुस्कुराओ 
कि पिता के पास हो तुम 

मुस्कुराओ 
कि तुम्हीं 
ला सकती हो मुस्कुराहट
पिता के चेहरे पर।
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वंदना मिश्रा 















वंदना मिश्रा हिंदी साहित्य में सक्रिय रूप से लिखती रही हैं। इनके तीन कविता संग्रह 'कुछ सुनती ही नहीं लड़की', 'कितना जानती है स्त्री अपने बारे में', 'खिड़की जितनी जगह' प्रकाशित हैं। 'महादेवी वर्मा का काव्य और बिंब शिल्प' तथा 'समकालीन लेखन और आलोचना' कृतियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदवी, कविता कोश, गूँज, बिजूका, पहली बार, लोकराग, समकालीन जनमत, अनहद एवं कोलकाता वेबपोर्टल पर भी इनकी कविताएँ  प्रकाशित होती रहीं हैं।
          



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