बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

श्रुति कुशवाहा

1. भाषा


इन दिनों रास्ता 
भटक रही है भाषा
अब विरोध कहने पर 
विद्रोह सुनाई देता है
असहमति कहने पर अराजक
लोकतंत्र कहते ही 
होने लगती है जोड़-तोड़
धर्म कहो सुनाई देता है भय
अब तो सफ़ेद भी सफ़ेद नहीं रहा
और लाल भी हो गया है नीला
यहाँ तक कि अँधेरे समय को बताया जा रहा है सुनहरा
ऐसे भ्रमित समय में 
मैं शब्दों को उनके सही अर्थों में पिरोकर देखना चाहती हूँ
सोचती हूँ शहद हर्फ़ उठाकर उँडेल दूँ शहद की बोतल में
तुम्हारे नमकीन चेहरे पर 
मल दूँ नमक का नाम
आँसू को चखा दूँ खारा समंदर
रोशनी को रख दूँ 
मोमबत्ती की लौ पर
मैं इंसाफ बाँट आना चाहती हूँ गली के आखिरी छोर तक
और बचपन लिखने के बजाय
बिखेर देना चाहती हूँ 
अखबार बेचते बच्चों के बीच
सपने टूटने से पहले
सजा देना चाहती हूँ आँखों में
और प्यार को इश्तिहारों से उठा
मन में महफूज़ रखना चाहती हूँ
मैं भटकी हुई भाषा को 
उसके घर पहुँचाना चाहती हूँ।
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2. उम्मीद


मैंने थोड़ा अनाज बचा रखा था
कड़े दिनों के लिए
थोड़े पैसे छिपाए किताब में
बुरे वक़्त के लिए
थोड़े-से रिश्ते सहेजे थे
भविष्य का सोच
थोड़ा नाम कमाया
पहचाने जाने को
मैंने उदासियों के मौसम में
उम्मीद के कुछ बीज बोए थे
ज़रूरत पड़ी तो पाया
आधा अनाज चूहे खा गए
पैसों के साथ किताब भी 
सील गई
रिश्ते सब छूट गए
नाम गुम गया
मैं थोड़ी और उदास हो गई
तभी देखा
उम्मीद की फसल 
लहलहा रही थी
इस उम्मीद ने मुझे हर बार
भूख-प्यास या सदमे में मरने से बचाया है।
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3. राई का पहाड़


पहाड़ से जीवन के लिए 
काफी था राई बराबर प्रेम
राई बराबर प्रेम में
रत्तीभर कमी रह ही जाती है
रत्तीभर कमी भी मंज़ूर नहीं थी मानवाली स्त्री को
एक रोटी कम स्वीकार थी, 
कौरभर कम प्रेम नहीं
उसने प्रेम को हृदय में रखा
मान को ललाट पर
स्त्री का हृदय हमेशा घायल रहा
और जीवन भर दुखता रहा माथा
मानिनी स्त्री को 
राईभर प्रेम मिला
उसने राई का पहाड़ बना दिया
पहाड़ों को काटकर निकाली नहर
बंजर में उगाया धान
पत्थरों में फूल खिलाए
प्रेम सबसे सुंदर फूल था
नेह के बिना पहाड़ तो 
जी जाते हैं, फूल नहीं
मान वाली स्त्री का 
मन भी बड़ा होता है
बड़े मन और बड़े मानवाली 
स्त्री को
भला कब सहेज पाई है दुनिया
इसलिये अब स्त्री ने ख़ुद से प्रेम करना सीख लिया है।
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4. पंचतत्व

मैंने तुम्हें देखा
आकाश-सी विस्तृत 
हो गई कल्पनाएँ
पृथ्वी-सा उर्वर हो गया मन
सारा जल उतर आया आँखों में
अग्नि दहक उठी कामना की
विचारों को मिल गए वायु के पंख
देखो न
कितना अच्छा है देखना तुमको।
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5. दुख


दुख के ताप से सूरज को 
मिलती है जलने की ऊर्जा
इस संसार में जितनी 
आग है, जितना लावा
जितने भी धधकते हुए सीने हैं
सब दुख की दमक से भरे हैं
दुख की धुरी पर घूमती है पृथ्वी
सुख एक चमत्कार है
जो कभी-कभी घटता है
अक्सर भ्रम अधिक सत्य कम
दुख धरती की दिनचर्या है
पेड़ों के फल भले सूखे हों
जड़ें दुख से गुँथी हुई हैं
सुख को पालना कठिन हैै
उसे हर वक्त प्रशस्ति की 
कामना रहती है
वहीं थोड़े में गुज़ारा
कर लेता है दुख
दो आँखों और मुट्ठीभर हृदय में
जीवनभर के लिये बस जाता
दुख को आदत है 
साथ निभाने की
दुख और सुख सहोदर हैं
और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न
दोनों की आपस में 
बिलकुल नहीं बनती
दोनों एक साथ कभी नहीं ठहरते
सुख घुमक्कड़ आवारा है
दुख स्थायी ठिकाना
सुख एक बेईमान प्रेमी है
जिसके पीछे-पीछे चला 
आता है हमसफ़र दुख।
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श्रुति कुशवाहा 

श्रुति कुशवाहा का जन्म 13 फरवरी 1978 में मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में हुआ। इन्होंने 2001 में पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया। इनका एक कविता संग्रह 'कशमकश' नाम से आ चुका है जिसे 2016 में 'वागीश्वरी पुरस्कार' प्राप्त हुआ। शीघ्र ही इनका एक और कविता संग्रह राजकमल से प्रकाशित होने जा रहा है। श्रुति जी को पत्रकारिता हेतु 2022 में 'अचला सम्मान' से भी सम्मानित किया गया। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित होती रही हैं।
वे ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज़ दिल्ली, लाइव इंडिया मुंबई सहारा न्यूज़/बंसल न्यूज़ भोपाल, टाइम टुडे आदि न्यूज़ चैनलों में कार्य कर चुकी हैं। वर्तमान समय में श्रुति जी गृहनगर भोपाल में पत्रकारिता एवं लेखन कार्य में संलग्न हैं।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सशक्त और अपनी बात को स्पष्ट कहती कविताएँ हैं। मुझे पहली कविता 'भाषा' विशेष रूप से अच्छी लगी। आज के समय की सच्चाई को बयान करती ।

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  2. श्रुति की कविताएं पढ़ने के बाद मुझे लगा ..अब तक इन कविताओं को क्यों न पढ़ा होगा !

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